संजू विवाह के चार महीने बाद
पिता से मिलने आई थी। सोहम और करण शहर देखने निकल गए। संजना
केशी के पास आकर बैठ गई। सामने चाय की ट्रे रख दी। प्याला
थमाया। आँखे कुछ कहती थीं। केशी भावों को तोलते रहे। संजू चुप
थी।
आज वह उन्हें बोलने की पहल का हक़ दे रही थी।
''मुझे मालूम है, तुम्हारी माँ आ रही है।'' उन्होंने बात शुरू
की।
संजू चुप, चाय पीती रही। आखें भर-भर आतीं, आसुओं को लौटाने की
असफ़ल कोशिश।
''आई एम फ़ाईन विद इट।'' तुम शादी-शुदा हो जो मर्ज़ी करो।''
संजू के चेहरे पर कई रंग उभरे और डूब गए।
केशी देखते रहे। क्या चाहती है यह लड़की?
''डैडी आप भी आ जाइए।''
वह चौंके। अवाक बस देखते रहे।
''प्लीज़ डैडी।'' संजना के होंठ थरथराए। इस बार आँसू पलकों की
सीमा लांघ गए।
केशी के भीतर एक बड़ी ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई। सांस रुकने-सी
लगी। उनका सिर दायें से बांये, फिर बांये से दांये हिलने लगा।
''नामुमकिन!'' संजू ने पढ़ा। समझ कर दोनों हथेलियों में चेहरा
गढ़ा, फूट-फूट कर रो पड़ी। कंधे, सारा बदन झटके खा रहा था।
केशी उठे, बाहर निकल गए, सहन
नहीं कर पाए। दोस्त की लहू-लुहान लाश सामने देख कर भी वह हटे
नहीं थे, अपने मोर्चे पर डटे रहे पर संजना का रोना? जिसने इन
चार सालों में एक आँसू नहीं बहाया था। वह उसे सिंह बच्ची कहते
थे पर आज? वह सड़क पर तेज़ रफ़्तार से चलते हुए एक सूने मोड़ पर
मुड़ गए और दौड़ना शुरू कर दिया। भागते रहे, भागते रहे। लांघ गए
कितनी यादें, कितना समय, कितनी चोटें। सबसे कठिन था अपने टूटे
अहं के मलबे को लांघना। मलबे के पार संजू बैठी थी। चेहरा
ह्थेलियों में धँसाए, हिचकियों के झटके खाती उसकी देह। उनका
अपना बिलखता पितृत्व। लौट आए पस्त होकर।
संजू वहीं, वैसे ही बैठी थी। चुप, शान्त, दूर कहीं अंधेरे में
आँखे टिकाए। केशी अपराधी की तरह आकर बगल में खड़े हो गए।
संजू ने जान लिया पर उसमें
कोई हरकत नहीं हुई।
प्यार से केशी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया। संजू सिहरी।
''तुम फिर से ''घर-घर'' खेलना चाहती हो?''
संजू ने सिर झुका लिया। होंठ कांपे। आँख उठाई, आँसुओं को रोके
रखा - एक याचना, एक गुहार ''हाँ डैडी, प्लीज़, मेरी ख़ातिर।''
वह संजू के चेहरे को देखते रहे। सीने से एक गहरी सांस निकल गई
- ''जो तुम चाहो।''
-----------------------
सोहम ने फिर से सबके गिलस भर
दिए। उसे अपना वहाँ होना बड़ा अटपटा लग रहा था। उसे लगा कि वह
बाहर का आदमी है। धीरे से बाहर निकल आया। संजना ने देखा, पर
रोका नहीं।
केशी उसी आराम कुर्सी पर सीधे होकर बैठ गए। तिया सोफ़े के एक
कोने तक सरक आई। अब वह और केशी आमने-सामने थे। इतने कि उसके
सेंट की सुगंध केशी को छू गई। वही चिर-परिचित खुशबू। उन्होंने
चाहने पर भी अभी तक तिया को भरपूर नज़रों से देखा नहीं था। करण
तिया के पास से उठ कर संजना के पास जाकर दूसरे सोफ़े पर बैठ
गया। संजना ने बिना कुछ कहे उसका हाथ अपने हाथ में पकड़ लिया -
मज़बूती से। पता नहीं उसे ख़ुद इस वक्त सहारे की ज़रूरत थी या उसे
लगा कि करण को सहारा चाहिए होगा।
करण ने संजना की ओर देखा, ''अब?''
संजना ने करण की ओर सिर घुमा
दिया। तनी हुई गर्दन, निर्भीक दृष्टि। वह सब को खींच कर इस
बिन्दु तक ले आई थी, आगे जो भी हो्गा उस घटित को झेल जाने का
विश्वास।
''तुम दुबले हो गए हो।'' तिया ने ही घिसे-पिटे फ़िकरे से चुप्पी
की बोझिलता हटाने की कोशिश की। उसे कुछ और सूझा ही नहीं।
''डैडी साल भर तक बीमार रहे।'' संजना का इरादा नहीं था पर बात
में सूचना देने का कम और आरोप लगाने का लहज़ा आ ही गया।
तिया ने अनसुना कर दिया। ''देखो, करण कितना हैन्डसम निकल आया
है?'' वह बेटे को देख कर विभोर हो उठी।
एक विद्रूप की हँसी करण के चेहरे पर फैल गई। जैसे कह रही हो,
'' सिर्फ़ शरीर ही देख पा रही हो। माँ होकर भी तुम्हे मेरे
अन्दर की कुरूप ग्रन्थियों का अन्दाज़ा भी नहीं। उसे भूलता नहीं
वह डरावना दिन, जिस दिन डैडी बोर्डिंग स्कूल में उसे अकेले ही
मिलने आए और कितने ठंडेपन से मम्मी से अलग होने की बात बता गए
थे।
वही बात उसके दिमाग़ में
उत्पात मचा गई। दोस्तों के साथ नशीले धुएँ में ही थोड़ी धुंधली
पड़ती, नहीं तो फुंफकार मारती रहती। वह बचने के लिए जैसे
अन्धेरे कुएँ में उतर रहा था। पता नहीं, पढ़ाई और अंक कहाँ
विलीन हो गए। डैडी और संजू ने उस अंधेरे कुँए में झाँक लिया
था। फ़ैसला हो गया, बस अब यहाँ नहीं रहना। तीनों ने स्वेच्छा से
देश निकाला ले लिया।
शायद संजना भी अतीत की खाई में झाँक आई थी। अचानक उठ खड़ी हुई।
तिया से बोली, ''मम्मी, अभी तो कुछ दिन आप यहीं हैं न? कल बात
करेंगे।'' कह कर उसने करण का हाथ खींचा। आँख से इशारा किया,
''उठो!''
करण ने धीमे से कहा, ''गुड नाइट मम्मी -डैडी।'' एक हल्की-सी
सिहरन उसके बदन से गुज़र गई। कितने सालों बाद ये शब्द ''मम्मी
और डैडी'' उसके मुँह से एक साथ निकले थे। वह संजना के
पीछे-पीछे ऊपर चला गया।
तिया चुपचाप केशी की ओर देखती
रही। जानती है केशी शब्दों के इस्तेमाल के मामले में ज़्यादा
उदार नहीं हैं।
''तुम अभी भी मुझसे नाराज़ हो?''
केशी ने पहली बार भरपूर दृष्टि से तिया को देखा। हमेशा की तरह
उनके सामने बैठी, आत्म-विश्वास से भरी, मुस्कराती तिया। लगा वह
यों ही अपने घर में बैठे हैं और तिया उनसे कुछ पूछने, कोई आपसी
बात बताने पास आकर बैठ गई है।
वही बोलती आखें, वही खिला हुआ चेहरा, हँसती है तो और भी आकर्षक
लगती है उनकी तिया।
केशी के चेहरे पर कोमलता बिखर गई।
तिया ने आराम कुर्सी के हत्थे
पर पड़ी उनकी बाँह पर अपना हथ रख दिया। आँखो में नमी तिर गई,
होंठ काँपे और चिबुक पर दो छोटे - छोटे बल उभरे।
''आई एम सॉरी, वैरी सॉरी। मेरी वज़ह से तुम्हें और बच्चों को जो
तकलीफ़ हुई।'' वह रोने लगी।
केशी बस उसे देखते रहे। क्या कहते? कहने से होगा भी क्या?
''तुम खुश हो?'' उन्होंने अब उसकी ओर देखते हुए कहा।
''हाँ, बहुत खुश हूँ।'' तिया ने अपने को सँभाल लिया था।
केशी अपने को जान नही पाए कि
वह तिया से किस उत्तर की आशा कर रहे थे। वह खुश है यह जानकर
पता नहीं उन्हें अच्छा लगना चाहिए या बुरा?
''पिताजी के जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।'' तिया गम्भीर हो गई।
केशी की आँखो के आगे अस्पताल के बिस्तर पर, कोमा में पड़ी पिता
की आकृति घूम गई।
''इस धक्के को सहने की उनमें शक्ति नहीं थी।'' शायद उन्होंने
अपने से ही कहा। अस्पताल की गन्ध उनकी चेतना में उभरी और फिर
धुंधली हो गई। तिया अभी भी उनकी ओर देखे जा रही थी।
''तुम कभी जाती हो चंडीगढ़?''
तिया ने नकारात्मक सिर हिला
दिया। एक गहरा उच्छवास उसके भीतर से निकल गया।
''माँ के सिवा सबने नाता तोड़ लिया है।''
केशी चुप सुनते रहे। तिया बताती रही कि कैसे दोनो भाई उसे ज़मीन
का हिस्सा देने से मुकर गए हैं। छोटे जीजा ने बहन को उससे
मिलने से मना कर दिया है। उसने फिर से एक प्राइवेट स्कूल में
पढ़ाने की नौकरी शुरू कर दी है।
केशी के होंठ भिंचे। तिया ने देख लिया।
''फिर क्या करती?'' कह कर तिया उनकी ओर देखने लगी। वही भोली
आँखो की नमी उन्हें भीतर तक भिगो गई। तिया का चेहरा उनके इतने
पास था और फ़ायर-प्लेस की सुलगती, बल खाती लपटों की परछाईं उसके
चेहरे को जैसे किसी स्वपन की चीज़ बना रही थी। तिया की खुशबू जो
उन्होंने पहले कभी नहीं महसूस की। केशी ने दोनो हथेलियों में
तिया का चेहरा भर कर चूम लिया। तिया निःशब्द रो रही थी।
''तुम ने मुझे बहुत बड़ी सज़ा दी है।'' तिया फफक उठी।
केशी सीधे होकर बैठ गए।
''मुझसे मेरे बच्चे छीनकर यहाँ आ बसे।'' तिया की शिकायत
हिचकियों के बीच भी साफ़ थी।
केशी वार खाकर तमतमा उठे। ''तुम ख़ुद ज़िम्म्मेदार हो इस सबकी।
यह तुम्हारा निर्णय था। तुम ख़ुद उन्हें छोड़ कर गई थीं।'' कटुता
से उनका चेहरा तमतमा गया।
तिया बिफ़र उठी।
''बच्चे तुम्हारे पास न छोड़ती तो तुम पाग़ल हो जाते। मुझे मालूम
था तुम्हारा अहं यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा कि मैं तुम्हें
छोड़ कर भी जा सकती हूँ। बच्चे छोड़े थे - तुम्हें सहारा देने के
लिए।'' तिया खड़ी हो गई, हांफ़ने लगी।
''पर तुमने मुझसे प्रतिशोध लिया है। एक माँ को उसके बच्चों से
दूर करके तुम्हारे अहं को कहीं गहरी सान्तवना मिली है।''
''तुम्हें कोई हक़ नहीं रहा अब दोबारा उनकी ज़िन्दगी में आने का।
तुम इस घर की बर्बादी की वजह हो।''
''घर की नहीं तुम्हारे अहं की।'' तुम्हारा अहं आहत हुआ है कि
तिया, केशी द ग्रेट को छोड़ कर भी जी सकती है, खुश रह सकती
है।''
केशी क्रोध और अपमान से थरथराए। उठ खड़े हुए। गिलास में थोड़ा
सोडा और ढेर सारी बर्फ़ भर ली। तिया सोफ़े पर ही अधलेटी हो गई।
''सुनो, मैं यहाँ तुमसे लड़ने नहीं आई।'' उसने बेहद पस्त और
ठंडी आवाज़ में कहा।
केशी दूर हट कर सीढियों के
पास वाले सोफ़े पर बैठ गए। सारे घर में ख़ामोशी थी। रात शायद
काफ़ी बीत गई होगी।
तिया चुपचाप, स्थिर लेटी थी। केशी दूर बैठे उसकी ओर देखते रहे।
याद नहीं कभी यों ऐसे एकदम एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे रहे
हों। हाँ शायद विवाह से पहले। आतिया ज़रा नहीं बदली सिवाए उम्र
की वजह से थोड़ी भर गई है। व्यक्तित्व में भी वही बहाव, चपलता,
ज़िन्दादिली, आज को जी लेने की पूरी ललक। भविष्य, परिणाम कुछ
नहीं सोचती। आशंकित नहीं होती, न दुविधा, न डर। सिंह बच्ची की
माँ - सिंहनी। उनके चेहेरे पर मुस्कराहट फैल गई।
चिंघाड़ती-सी फ़ोन की घंटी बजी।
निंदियारे घर में एक हलचल सी हुई। इस वक्त किस का फ़ोन? तिया
सीधी उठ कर बैठ गई। केशी होश में आ गए। सीढ़ियों पर किसी के
चलने की आवाज़ आई और फ़ैमिली- रूम के दरवाज़े के बाहर आकर रुक गई।
''मम्मी फ़ोन उठा लीजिए।'' सोहम ने बिना अन्दर आए कहा।
तिया ने बड़े सहज भाव से तिपाई पर पड़े फ़ोन का चोंगा उठा लिया।
धुंधली रोशनी में उसके चेहरे की रेखाएँ स्पष्ट नहीं थी।
''ओह, आई एम सो सॉरी। मैं बस बच्चों से मिलने के उत्साह में
फ़ोन करना ही भूल गई।'' तिया चहक उठी थी, पूरी तरह जीवन्त।
''देखो, अपना ख़्याल रखना। दो हफ़्तो की ही तो बात है।''
''नही, और कोई नहीं है यहाँ।'' तिया की आवाज़ थोड़ी-सी थरथराई।''
''आई मिस यू टू, लव यू।''
तिया चोंगा रख कर वहीं, वैसे ही थोड़ी देर झुकी खड़ी रही। पलटी,
केशी जा चुके थे।
---------------------------------
संजना बेकरी से नाश्ते के लिए
ताज़े बेगल, ब्रैड लेकर घर में घुसी और उन्हें रसोई के काउंटर
पर ही रख, केतली में चाय का पानी भरने लगी।
''संजना, डैडी जा रहे हैं।'' सोहम ने कुछ इतनी शांति से बात
कही कि संजना को लगा कि जैसे सिवाए उसके सबको यह बात मालूम है।
वह ऊपर बैड-रूम की सीढ़ियों की तरफ़ लपकी तो सोहम ने पीछे से
उसकी बांह को पकड़ लिया। पता नहीं क्या कहना चाहता था? पल भर
संजना की आँखो में देखता रहा, फिर दूसरे हाथ से संजना के हाथ
को थपथपा कर छोड़ दिया।
संजना सम्भल कर सीढ़ियाँ चढ़ने
लगी। धीरे से केशी के बंद दरवाज़े को ठेल कर अन्दर आ गई। उनका
सारा सामान सिमट चुका था। ख़ाली कमरे के बीचोंबीच खड़े वह बाढ़
में सब कुछ जल-ग्रस्त हो जाने के बाद खड़े एकाकी पेड़ जैसे लग
रहे थे। नितान्त अकेला, उदास वृक्ष। प्रकृति जैसे उसे पीटने के
बाद, रहम खाकर, ज़िन्दा रहने के लिए छोड़ गई हो।
संजना ने उनके सीने पर सिर रख दिया। बाहों का घेरा उनकी कमर तक
ही पहुँचा, उसने उन्हें कस लिया।
''डैडी, प्लीज़, सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए, नाटक ही सही! क्या हम
फिर से वही एक घर, परिवार, उन खोये हुए पलों को दोबारा नहीं जी
सकते? मैं, करण, मम्मी और आप - फिर से एक बार इकट्ठे। प्लीज़
डैडी..''
केशी ने संजना के कंधे को बाँह से घेर लिया। उसके सिर पर उनकी
ठुड्डी काँपी।
''सॉरी संजू। बस, अब और नहीं...।''
संजना को लगा जैसे डैडी के शरीर में एक ज़ोर की सिहरन उठी। वह
सिपाही, युद्ध में जिसके सिर के पास से गोली छू कर निकल गई और
जिसके बदन में सिहरन तक नहीं हुई। वह आज लहू-लुहान खड़ा है।
संजना पल भर उन्हें थामे यों ही खड़ी रही। लगा जैसे डैडी के
शरीर से उठी सिहरन उसके अपने भीतर उतर गई हो। उसने अपने हाथों
की पकड़ ढीली कर दी।
निगाहें नीची कर लीं और बड़ी सधी आवाज़ में कहा, ''जाइए''। |