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अभी वह गुड़ ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था कि मम्मी ने सूजी, मेवे, घी, गोंद और न जाने और क्या-क्या डालकर 'टर्किश हलवा' जैसा कुछ बना दिया। हैरिस ने बताया कि यह पंजीरी है, जिससे जच्चा को ताक़त मिलती है। बच्चा पैदा होने पर पंजाबी लोग इसे रिश्तेदारों को भी भेजते हैं और हम लोगों में तो इसे माँगकर खाते हैं। मम्मी के बहुत ज़ोर देने पर मैंने चम्मच से उसे ज़रा-सा चखा। ज़ायका बुरा नहीं था, लेकिन देसी घी की तेज़ गंध और उसमें दाँतों से चिपकने वाली गोंद पड़ी होने के कारण मेरा खाने को मन नहीं हुआ।

एक दिन मम्मी ने शिकायत की कि ऐन्या देर तक गंदी 'नैपी' बाँधे रहती है। कहने लगीं, ''इससे बच्चों को दाने निकल आते हैं और बीमारियाँ होने का भी डर होता है। उन्होंने यह भी बताया कि न तो हमारे ज़माने में ये चीज़ें होती थीं औऱ न ही हम बार-बार पोतड़े बदलने की मुसीबत पालते थे। हम तो बच्चों को शुरू से ही बिस्तर से बाहर पेशाब और पाखाना करना सिखाने लगते थे। मम्मी ने ऐन्या की टाँगें पकड़कर दिखाया और कहा, ''मैं हरीश को ऐसे पेशाब कराती थी।'' देखकर मुस्कुराने लगी। हैरिस को शरम आ गई।

मम्मी की आलोचना, सलाह और टोका-टाकी काफ़ी बढ़ती जी रही था और मैं नम्र बने रहने का नाटक करते-करते तंग आ गई थी। मुझे उनकी सबसे बुरी बात यह लगती थी कि वे हर बात में अपनी सलाह को बेहतर मानती थीं, जिसका मतलब था कि वे मुझे बेवकूफ़ समझती हैं। मैं मानती हूँ कि उनके पास जीवन का लंबा अनुभव है, लेकिन मैं भी कोई बच्ची या मूर्ख नहीं। माता-पिता बनने पर बच्चे की परवरिश कैसे की जाती है, इसकी हमें 'प्रि-नेटल सेशंज' में बाकायदा 'ट्रेनिंग' दी गई थी। मुझे उनकी एक और बात अखरती थी- उनका सलाह देने का हाकिमाना ढंग। वे 'सजेस्ट' नहीं, 'इंसिस्ट' करती थीं, हुक्म देती थीं और चाहती थीं कि उनकी किसी बात का विरोध न किया जाए। मैं उनसे कहना चाहती थी कि अब हम बच्चे नहीं, बच्चेवाले हैं।

हम ऐन्या को उसके कमरे में अलग सुलाते थे, जो बड़ी 'नॉर्मल' बात है। उन्हें यह भी ग़लत लगता। एक बार मैं गहरी नींद में थी, जब वह रात को कुछ देर रोती रही। उसे शायद भूख लगी थी। दरअसल वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद दूध माँगती है, क्यों कि वह पीते-पीते सो जाती है। मैं रात में बार-बार उठने के कारण थक गई थी। मम्मी उठीं और उन्होंने ऐन्या को लाकर मेरे पास लिटा दिया। फिर मुझे जगाते हुए बड़ी रुखाई से बोलीं, ''बच्ची भूख से तड़प रही है और तुम घोड़े बेचकर सो रही हो?''
मुझे उनका आधी रात को आकर यों शिकायत करना अच्छा नहीं लगा और मैंने कह दिया, ''बस कीजिए मम, आप यों डाँट रही हैं, जैसे आप कभी सोई ही नहीं थीं और हैरिस कभी रोया ही नहीं था। ज़रा देर रो ली तो कमज़ोर तो नहीं हो गई।''
मेरे तेवर देखकर हैरिस ने मेरी बात का उनके लिए जो अनुवाद किया, वह निश्चय ही अलग नहीं, तो नरम ज़रूर रहा होगा, लेकिन फिर भी मम्मी को बुरा लगा और वे मुँह फुलाकर चली गईं। इसके बाद वे जितना समय हमारे पास रहीं, मुँह फुलाए रहीं। जब हम उन्हें हवाई अड्डे पर विदा करने गए औऱ मैंने अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगते हुए उनके पैर छुए, तब भी वे तनी रहीं।

ऐन्या को पालने में हमें काफी कठिनाइयाँ आ रही थीं। कभी उसे कुछ हो जाता कभी कुछ। दाँत निकालते समय तो वह बहुत चिड़चिड़ी हो गई। चाहती कि हम उसे उठाए रखें। बार-बार उसकी नैपी बदलनी पड़ती। दूध पिलाते समय मुझे उसके दाँत चुभ जाते। मैं ब्रेस्ट छुड़ाती तो वह और रोती। मैंने और हैरिस ने सोशलाइज़िंग बंद कर दी और मित्रों के यहाँ जाना भी छोड़ दिया। साल डेढ़ साल हमने पिक्चर हॉल में मूवी नहीं देखी। जो टी.वी. पर आता, वही देख लेते या बहुत मन होता तो कभी किराये पर लाकर कुछ देख लेते। मम्मी और डैडी फ़ोन पर हालचाल पूछते तो मुझे लगता कि वो खाली दिखावा कर रहे हैं, क्यों कि हमें सहारे की ज़रूरत थी इन्क्वायरी की नहीं। हैरिस कहता था कि हमें तकलीफ़ है तो मम्मी को बुला लेते हैं, लेकिन मैं इसके बिलकुल हक़ में नहीं थी। मैं उनके विचार जानती थी एक बार उन्होंने बड़े साफ़ शब्दों में कहा था, ''आजकल के बच्चे माँ-बाप को नौकर बनाकर रखना चाहते हैं।''

एक दिन मुझसे पूछे बिना हैरिस ने उन्हें फ़ोन किया और आने का आग्रह किया। पहले तो वे तैयार ही नहीं हुईं। फिर कहने लगीं कि मैं तो तुम्हारे डैडी के साथ आऊँगी, लेकिन डैडी आने को उत्साहित नहीं थे। उन्हें तो ब्रिटेन की सर्दी और बारिश अच्छी नहीं लगती और बोरियत होती है। चाहे भारत में गरमी बहुत पड़ती है और उस मौसम में बिजली पानी की भी कमी हो जाती है, लेकिन वे वहीं रहना चाहते हैं। कहते हैं हम जहाँ पैदा हुए हैं वहाँ की आबोहवा की हमें आदत है। फगवाड़े में उनके दोस्तों का सर्कल है रिश्तेदार और मित्र हैं। एक बात और है। हैरिस की बड़ी बहन तृप्ता फगवाड़े के पास ही जलंधर में रहती है, जहाँ उसकी ससुराल है। जब मुझे मालूम हुआ कि वे नहीं आ रहे हैं, तो तकलीफ़ होने पर भी मुझे एक तरह से अच्छा ही लगा।

मैंने तीन महीने की अपनी मैटरनिटी लीव को बहाने बना-बनाकर छः महीने तक खींच लिया था इससे आगे मुझे छुट्टी मिलनी बंद हो गई और मुझे काम पर जाना पड़ा, तो हमने एक क्रेश ढूँढा। ऐन्या को मैं सवेरे आठ बजे वहाँ छोड़ती और शाम को लगभग साढ़े छः बजे हम दोनों में से कोई उसे वापस लाता, हम दोनों वर्किंग पेरेंट्स थे। बिना किसी हैल्प के हमें बड़ी तकलीफ़ होती थी। लेकिन मम्मी केवल एक ही बात याद दिलातीं कि जल्दी जल्दी दूसरा बच्चा पैदा करके परिवार पूरा कर लो। एक बच्चे के साथ दूसरा बड़ी आसानी से पल जाता है। मुझे सुनकर और बुरा लगता। पता नहीं क्या सोचकर एक दिन हैरिस ने फ़ोन पर मम्मी से पूछा आप दूसरा बच्चा चाहती हैं?
मम्मी ने समझा वह मेरी प्रेग्नेंसी का समाचार दे रहा है, इसलिए बड़े उत्साह से पूछने लगीं, ''ख़ुशख़बरी है न?''
हैरिस ने कहा, ''ख़ुशख़बरी तो तब होगी जब आप फगवाड़ा छोड़कर हमारे पास रहने आएँ।''
मम्मी को लगा जैसे हमारा दूसरा बच्चा बस होने ही वाला है। वे आने को एकदम तैयार हो गईं, लेकिन पक्का करने के लिए उन्होंने कहा, ''देख हरीश, पहले की तरह कोई सरप्राइज़ मत देना। यह कोई फगवाड़े से जालंधर का सफ़र नहीं है। बताओ कब प्रोग्राम बनाएँ?
तब हैरिस ने उन्हें सारी बात बताई।

मैं चाहती थी कि वे तब तक न आएँ, जब तक हमें उनकी ज़रूरत न हो लेकिन जब ऐडी होने वाला था, तो हैरिस ने मुझसे पूछे बिना ही उन्हें मेरी प्रेग्नेंसी की ख़बर दे दी और मम्मी डैडी आ गए। मुझे मम्मी से फिर दिन-रात हुक्म मिलने लगे। यह करो, यह न करो, ऐसे करो, ऐसे न करो। ऐसे उठो, ऐसे बैठो। भारी चीज़ें मत उठाओ। तेज़ मत चलो। ख़ुराक खाओ। उन्होंने तो मेरा पेट देखकर यह भी कह दिया कि अगली बार ज़रूर लड़का होगा। मैं डिलिवरी से पहले बेबी का सेक्स जानना ठीक नहीं समझती और चाहती थी कि अबकी बार भी लड़की हो, क्यों कि मेरे विचार में लड़कियाँ माँ-बाप से जितना प्यार करती हैं, उतना लड़के नहीं करते। उनकी भविष्यवाणी सही निकली।

मेरा काका, मेरा काका कहकर वे ऐडी पर अपना सारा प्यार न्योछावर करने लगीं। इसे हर समय उठाए रखतीं, जो मुझे ठीक न लगता, क्यों कि इससे बच्चा बड़ा डिपेंडेंट और चिपकू हो जाता है। मैं ऐडी को उनसे लेकर उसके कॉट में लिटा देती तो उन्हें अच्छा न लगता।
हैरिस चाहता था कि उन्हें ब्रिटेन में रहने का अधिकार दिलाने के लिए एप्लाई करा दिया जाए, लेकिन उन्होंने यह वादा करके टाल दिया कि हम जब अगली बार आएँगे तब कर देंगे। वे तीन महीने का वीज़ा लेकर आए थे और ऐडी उनके आने के पंद्रह दिन बात हुआ था, इसलिए ढाई महीने के बाद वे चले गए। उनके जाने के बाद हालाँकि मुझे उनकी ज़रूरत महसूस हुई, क्यों कि बच्चों को नहलाने, खिलाने-पिलाने और सुलाने में उनका काफ़ी सहारा था। हम उनके पास बच्चों को छोड़कर जहाँ जाना होता, चले जाते थे और ऐन्या तो उनसे इतना हिलमिल गई थी कि अकसर उन्हें याद करती। लेकिन मैंने फ़ैसला कर लिया था कि चाहे जितनी तकलीफ हो मैं उन्हें नहीं बुलाने दूँगी। मैं जब काम पर लौटी, तब ऐडी बहुत छोटा था, लेकिन मुझे मजबूरन क्रेश में रखना पड़ा। काम पर मेरा ध्यान हर समय उसकी और ही लगा रहता। अगर ऐन्या को या उसे कोई तकलीफ़ होती तो मुझे या तो आधे दिन की छुट्टी लेनी पड़ती या पूरे दिन की।

जब ऐन्या का मीज़ल्ज़ हुए तो मुझे एक हफ्ते की छु्ट्टी लेनी पड़ी। उस हालत में क्रेश में छोड़ने की वैसे भी मनाही है। तीन-चार बार तो हैरिस को भी छुट्टी लेनी पड़ी, तब और कष्ट हुआ, क्यों कि दोनों बच्चे उससे अकेले सँभलते नहीं थे। मुझे लगता मैंने दूसरा बच्चा पैदा कर के ख़्वामख़्वाह मुसीबत मोल ली। वर्किंग पेरेंट्स के लिए एक बच्चे को पालना ही बड़ा मुश्किल होता है। यहाँ तो दो दो थे और उनके छोटे-मोटे ख़र्चों के अलावा क्रेश के ख़र्चे के कारण हमारा बजट भी गड़बड़ा रहा था।

हैरिक के आग्रह पर तीन महीने बाद मम्मी और डैडी को फिर आना पड़ा। मम्मी ऐन्या को तो नहीं ऐडी को किसी के पास छोड़ना नहीं चाहती थीं। इसलिए वे हर दो-तीन महीने बाद डैडी के साथ आने लगीं। एक बार तो वे अकेली भी आ गईं कि उन्हें हमारे पास रहना चाहिए लेकिन तब तक मुझे उनसे पूरी चिढ़ हो चुकी थी। उधर दोनों बच्चे अपने ग्रैंड पैरेंट्स को इतना चाहने लगते कि शाम को हमारे साथ बैठने और खेलने कत को तैयार न होते। तब मुझे उनपर और गुस्सा आता। डैडी कभी उन्हें कहानियाँ सुनाते थे तो कभी कोई खेल सिखाते थे। मम्मी ने ऐन्या को आटा गूँधना और रोटी बेलना सिखा दिया। वे दोनों बच्चों को पार्क ले जाते या उनके साथ घर के गार्डन में ही खेलते। ऐन्या के लिए हमने वहाँ पहले ही प्ले हाउस लगवा लिया था। उसके साथ स्लाइड भी है और झूला भी। डैडी दोनों बच्चों के साथ प्ले हाउस में कभी पिकनिक मनाते, कभी कम्पिटीशन कराते। वे तो सवेरे पूजा-पाठ करते समय भी उन्हें साथ बिठा लेते।

जहाँ तक मेरी बात है मम्मी मुझे दंड देने का कोई मौका न छोड़तीं। उन्होंने अपने बेटे के लिए अँग्रेज़ नहीं, भारतीय बीवी की कामना की थी। हम अँग्रेज़ लोग सास ससुर के बारे में कोई खास ऊँची धारणा नहीं रखते, लेकिन मैंने अपने विचार बदल लिए थे। मैं चाहती थी कि वे बच्चों के कारण ही सही मुझे पराई न समझें, लेकिन वे मुझे अपनाने को बिलकुल भी तैयार नहीं थे। हैरिस उन्हें अपने साथ रखना चाहता था लेकिन मैं चाहती थी कि अव्वल तो उन्हें राइट ऑफ़ इंडैफ़िनेट स्टे न मिले और अगर मिल जाए, तो वे आसपास कहीं अलग मकान लेकर रहें। इसपर मेरा उससे अकसर झगड़ा होता।

धीरे-धीरे यह झगड़ा बढ़ता गया और हम इस बात पर खुलकर लड़ने लगे। मैं अपनी बात पर अड़ी थी कि अगर हैरिस ने उन्हें स्थाई रूप से साथ रखने का निर्णय लिया तो मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। वह अपने हठ पर अड़ा था कि वे हमारे माँ-बाप हैं और जब हमें उनका सहारा प्राप्त है तो उनके साथ रहने में क्या बुराई है। आखिर लोग नैनी को भी तो घर में रखते ही हैं।
मैं कहती नैनी नैनी की तरह रहती है। टोकती और आलोचना नहीं करती।

वह झल्लाकर उठ जाता। आखिर मैंने हथियार डाल दिए, लेकिन एक शर्त पर कि अगर वे हमारे साथ रहेंगे, तो वे हुक्म नहीं देंगे, सुझाव देंगे। हैरिस ने कहा- मैं वादा नहीं कर सकता, लेकिन उन्हें समझाने की पूरी कोशिश करूँगा। तबसे एक तरह से हमारी बातचीत बंद है। मम्मी डैडी पन्द्रह दिन बाद आ रहे हैं। उनके आने पर क्या होगा कौन जाने।

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३० मार्च २००९

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