अब हम साथ नहीं रह सकते।
रेखा नहीं जानती थी कि ये शब्द
कैसे अपने-आप आज निकले थे, जो विशाल तक पहुँचने से पहले उसके
हाथ में पकड़े चाय के कप पर ठहर गये थे और चाय की ऊपरी सतह पर
तैर रहे थे। चाय के कप का कंपन बढ़ गया था। शायद इन शब्दों का
भारीपन सतह पर बैठ नहीं पा रहा था।
दोनों की नजरें मिली जैसे
खाली कोटर हों और जिनका सब कुछ बहुत पहले ही झर चुका हो।
विशाल की आँखें उस ओर उठी और
फिर जैसे हताहत पक्षी की तरह नीचे बैठती गईं। सुबह-सुबह उसकी
आवाज में जो रोष होता था, वह वहीं का वहीं झाग हो गया था। उसे
लगा होगा कि वह शायद रोज कुछ ज्यादा ही कहता या झटकता रहा है।
चाय का कप धीरे-धीरे होंठों की सीमा तक पहुँचने से पहले ही
थरथरा गया था और बिन-आवाज किए बीच की टेबल पर ढेर हो गया था।
एक अजगर सी चुप्पी दोनों के
बीच पसर गई थी। रेखा जानती थी वह ऊँचा-ऊँचा बोलेगा, गालियाँ
देगा और उसके सारे खानदान की खपच्चियाँ उधेड़ेगा। लेकिन |