विशाल ने कुछ भी नहीं किया।
रोज-रोज की किचकिच का अगुआ आज बिल्कुल चुप्पी साध गया था।
वह उठी और पेटियों का दरवाजा खोल कर बाहर घास पर चक्कर काटने,
लगी। विशाल की सुन्न पड़ी आँखें, उसके हाथ में ठिठकी-कांपती
प्याली-बाहर उसके साथ चली आई थीं। वह चाहती थी इस समय वह उससे
पूरी तरह कटकर बाहर खुली हवा में साँस ले सके लेकिन उसकी साँस
रूक रही थी। चाय की प्याली अभी भी डगमगा रही थी।
उसे स्वयं मालूम नहीं था कि बिना किसी योजना के ये शब्द कैसे
आज अचनाक उछल कर बाहर आ गए थे। पर वह जानती है कि ऊपरी तैयारी
से ज्यादा कहीं भीतरी तैयारी होती है जो अन्दर ही अन्दर कहीं
पकती रही थी और बाहर खबर तक नहीं हुई। शायद यह उसी का नतीजा
था।
अब उसे अन्दर की तैयारी के साथ-साथ बाहर की तैयारी भी करनी थी।
कुछ साल पहले के छोटू के शब्द, “आपको तलाक ले लेना चाहिए
मम्मी।“ “हट।” कहकर कैसे उसने छोटू को झिंझोड़ दिया था।
“खबरदार! जो ये शब्द कभी भूल कर भी जबान पर लाया।“
शायद उस दिन से कहीं अंदर की तैयारी का बीज पड़ गया था।
आज की सुबह पूरी तरह से उठ चुकी थी।
वह पिछवाड़े के झुटपुटों से
बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी और अलसाई-अलसाई धीरे-धीरे आगे
बढ़ रही थी।
रेखा ने बीती रात को बहुत पहले ही अपने पर से उतार कर अलग कर
लिया था। वह अक्सर उठते ही सबसे पहले नाइट-सूट उतार कर रात को
अपने से परे धकेल देती थी। आज भी चाय बनाने से पहले, उसने यही
किया था। पर लगा कि रात तो विशाल की प्याली से अभी तक चिपकी
पड़ी है और सारे घर को भी घेरे हुए है।
मालूम नहीं विशाल क्या कर रह है। वहीं बैठा है या उठ गया है।
उसे नहीं लगा कि उसे यह जानने की कोई ज़रूरत होनी चाहिए कि वह
क्या कर रहा है। जब साथ नहीं रहना तो यह जानने की इच्छा भी
छोड़नी पड़ेगी।
दो कटे हुए हिस्सों को क्या पड़ी है कि वे जाने कि दूसरा
हिस्सा क्या कर रहा है।
जब से वे इस घर में आए हैं तभी से वह विशाल से कहती रही है कि
लॉन के चारों तरफ लोहे की रेलिंग लगवा दे- प्राइवेसी रहती है।
बच्चे खेलते हैं तो चिंता नहीं रहती। और स्वयं को भी कभी-कभी
एकांत क्षणों की ज़रूरत पड़ती है। आज उस रेलिंग की सबसे ज्यादा
ज़रूरत है। पर वह वहाँ नहीं है। बेरोक-टोक सामने वाला आज उसके
अंदर झाँक तक सकता है।
बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें जिंदगी भर करने या पाने की
सोचती रही है पर कभी हासिल नहीं कर पाई। बिना पाए भी जिंदगी तो
कट जाती है। कट गई। जैसे दूसरों की स्कीमों पर बने घरों में
उम्र कट जाती है। अपनी मनपसंद की चौखट कभी मिल ही नहीं पाती।
इसलिए दूसरों के बनाए हुए साँचों में ढले चले जाते हैं और अपना
नापतौल भी भूल जाते हैं। इस घर में कई चीजें ऐसी थीं जो रेखा
को शुरू से ही पसंद नहीं थीं। जैसे घर में घुसते ही ड्राइंग
रूम- बिल्कुल खुला- सापट- पूरी तरह उघड़ा हुआ- नंगा।
आज क्यों लग रहा है कि सब कुछ कहीं नियोजित था।
वह कहती- "तुम जानते हो कितने अमेरिकन हो गए हो?"
"अमेरिका में रहना है तो अमेरिकन होने में क्या बुराई है?"
"अमेरिका में सब कुछ अच्छा नहीं है।"
"ऐसा बुरा भी कुछ नहीं है।"
दोनों में इस विषय पर अक्सर बहस होती रहती। विशेषतः विशाल
बच्चों पर स्कूल से पहले और स्कूल के बाद-बाहर काम करने पर जोर
देता। तब वे कहीं रेस्टोरैंट में दोनों जाते और विशाल एक की
बजाय दो अलग-अलग बिल मँगवाता। वह कहीं अंदर से टूट जाती और
उसके मुँह का स्वाद कसैला हो जाता। उसका मन करता- उसी समय वहाँ
से उठ कर चली जाए। कभी-कभी रेखा में हीनता की भावना इन बातों
से इतनी गाढ़ी हो जाती कि वह अपने-आपको कोसती- वही बौड़म है-
अभी तक अपने संस्कारों की जकड़ में जकड़ी है। ज़माने के साथ
बढ़ नहीं पा रही है। उसके अन्दर ये नोच-खसोट चलती रहती। |