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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है यू.के. से उषा राजे सक्सेना की कहानी— 'वह रात'


पिछले तीन दिनों से घर के रेडियेटर गर्म नहीं हो रहे थे। स्लॉट मीटर के पैसे बहुत पहले ही खत्म हो चुके थे। घर में जितने कंबल थे अनीता ने हम सबको उढ़ा दिए थे। बिना हीटिंग के पूर घर बर्फीला हो रहा था। खिड़की के शीशे पर बर्फ़ की हल्की-सी पर्त जम गई थी।

ऐसी ठंडी रातों में अक्सर मैं 'बंक-बेड' के ऊपरी तल्ले पर स्लीपिंग बैग में गुचड़-मुचड़ कर सोने की कोशिश करता हूँ, पर कई बार नींद में मैं अपने बंक-बैड की सीढ़ियाँ उतर कर चुपके से अनीता के बिस्तर में घुस, उसके गुदाज गर्म बदन से लिपट जाता हूँ। अनीता मुझे अपने सीने से चिपका लेती है। अनीता के गर्म बदन से चिपक कर मुझे नींद आ जाती है। कभी-कभी ऐसे में चार वर्षीय रेबेका और रीता मेरी जुड़वाँ बहनें भी अनीता के बिस्तर में घुस आती हैं। मुश्किल तो तब होती है जब रेबेका बिस्तर भिगो देती हैं। पर, अनीता उसे पास रखे तौलिए में लपेट देती है और हम आराम से एक-दूसरे से चिपके तब तक सोते रहते हैं, जब तक मेज़ पर रखी घड़ी आठ बज कर पाँच मिनट का अलार्म नहीं बजाने लगती है।

अक्सर हमारे घर में पैसों की कमी होती है। फिर भी मम्मी हमारे लिए बेबी सिस्टर का इंतज़ाम किसी न किसी तरह कर ही लेती है।

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