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                     अनीता मुझसे जो भी कहती है वह 
                    सब करना मुझे अच्छा लगता है। मैं भागता हुआ बाहर गेट पर आया। 
                    सुबह हो चुकी थी। आकाश में काले बादल छाए हुए थे। हल्की-हल्की 
                    बारिश हो रही थी। हमारी सड़क के अंतिम सिरे पर जहाँ हम कुछ देर 
                    पहले खड़े मम्मी को तलाश कर करे थे। वहीं इस समय लाल-नीली, 
                    जलती-बुझती बत्तियोंवाली पुलिस गाड़ियों के साथ एंबुलेंस खड़ी 
                    थी। पुलिस ने सड़क पर लाल-नीली पट्टियों का घेरा डाल रखा था। 
                    एक पुलिस-मैन ट्रैफिक को घुमाकर दूसरी ओर भेज रहा था। पुलिस और 
                    एंबुलेंस की जलती-बुझती लाल-नीली बत्तियाँ लोगों का ध्यान अपनी 
                    तरफ़ आकर्षित कर रही थीं। सुबह-सुबह ऐसा अजीबो-गरीब दृश्य 
                    मैंने पहले कभी नहीं देखा था। उत्तेजना से थरथराता मैं भागता 
                    हुआ अंदर गया। अनीता के आँखों में आए प्रश्न के उत्तर में 
                    मैंने उसे बताया कि हमारी सड़क के अंतिम सिरे पर ढेरों पुलिस 
                    गाड़ी, एंबुलेंस और लोगों का मजमा लगा हुआ है। अनीता ने रेबेका और रीता के 
                    हाथों में बिस्कुट पकड़ाते हुए उनसे कहा, 'तुम दोनों थोड़ी देर 
                    यहीं सोफे पर बैठकर कार्टून देखो। मनू और मैं ज़रा बाहर जाकर 
                    देखते हैं कि सड़क पर क्या हो रहा है?'' घटना स्थल के करीब पहुँचते ही 
                    मैंने अपने उन पड़ोसियों को पहचान लिया जो पुलिस से बातें कर 
                    रहे थे। तभी एक पुलिस ऑफीसर की दृष्टि हम पर पड़ गई वह आगे 
                    बढ़ा, हमारे पास आया और बोला, ''बच्चों, तुम लोग कौन हो और इस 
                    समय अकेले कहाँ जा रहे हो?''''मेरा नाम अनीता वीरानी है और यह मेरा छोटा भाई मनू वीरानी 
                    है। हमारी मम्मी अंजाला वीरानी रात घर नहीं आई और हम उसे ही 
                    खोज रहे हैं।''
 हमारा नाम सुनते ही ऑफीसर के 
                    आँखों और चेहरे के भाव बदल गए। उसने बड़े ही कोमल स्वर में 
                    हमसे पूछा, ''तुम लोग कहाँ रहते हो बच्चों?'' अनीता से उसे घर 
                    का नंबर और सड़क का नाम बताया। पुलिस ऑफीसर ने अपनी वॉकी-टॉकी 
                    पर किसा से कुछ बातें करी और हमें वापस हमारे घर ले आया। हमारा 
                    घर पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था। मम्मी को घर गृहस्थी में कोई 
                    रुचि नहीं है। वह हमेशा कुछ पैसा कमाने की कोशिश में लगी रहती। 
                    हमें पुलिस-मैन के साथ देखकर, रेबेका और रीता कुछ नर्वस-सी 
                    संकुचित मुझसे चिपककर सोफे पर आ बैठीं। अनीता साइडबोर्ड के पास 
                    खड़ी ऑफीसर का चेहरा देखती रही। पुलिस ऑफीसर कुछ देर चिंतित, 
                    परेशान-सा हमारे घर की हालत देखता रहा। मानों उसे समझ नहीं आ 
                    रहा हो कि यह हमसे कैसे और क्या बातें करे?''तुम्हारे डैडी कहाँ हैं बच्चों?''
 ''हमारे डैडी नहीं हैं। उनकी मृत्यु ११ मई १९८५ को ब्रैडफोर्ड 
                    फुटबाल स्टेडियम में लगनेवाले अग्निकांड के हादसे में हो गई 
                    थी। वे लाँग-डिस्टेंस लॉरी ड्राइवर होने के साथ-साथ ज़बरदस्त 
                    फुटबॉल फैन थें। अनीता ने जिस आत्मविश्वास से पुलिस को जवाब 
                    दिया, वह मुझे बहुत अच्छा लगा।
 ''ओह! डीयर मुझे बेहद अफसोस है कि मैंने तुमसे ऐसा प्रश्न 
                    किया। तुम्हारी मम्मी घर से कब गई और तुमने उन्हें आखिरी बार 
                    कब देखा था बच्चों?'' ऑफीसर ने अनीता से पूछा।
 ''कल रात, तकरीबन साढ़े सात बजे।''
 ''मम्मी के अतिरिक्त तुम्हारे साथ और कौन रहता है।'' उसने 
                    रेबेका और रीता की ओर देखते हुए कहा, रेबेका और रीता के बाल 
                    सुनहरे और घुंघराले हैं उनका रंग हमारी तरह नहीं है।
 ''क्या तुम चारों भाई-बहन हो?'' ऑफीसर ने हल्के से खखार कर गला 
                    साफ़ किया।
 ''रेबेका और रीता हमारी हाफ सिस्टर्स हैं। हम मम्मी के साथ अब 
                    अकेले रहते हैं ऑफीसर। क्या आपको हमारी मम्मी का पता है? वे 
                    कहाँ है?''
 ''वही तो मैं पता करना चाह रहा हूँ अनीता। तुम्हारे जुड़वाँ 
                    बहनों के पिता क्या कभी घर आते हैं?'' पुलिस ऑफीसर ने हमसे 
                    पुचकारते हुए पूछा।
 ''तुम्हारा मतलब, मम्मी के ब्वाय-फ्रेंड आली गंजालिब से है 
                    क्या? वह तो कबका मम्मी से झगड़ा कर के भाग गया।'' अनीता की 
                    आली से कभी नहीं पटी वह उससे चिढ़ती थी।
 ''क्या तुम्हारी मम्मी और आली गंजालिब की कोई फ़ोटो घर में 
                    है?''
 ''नहीं, घर छोड़ने से पहले आली ने हमारे सारे फोटोग्राफ और 
                    रीता-रेबेका के बर्थ सर्टिफिकेट जला दिए थे। अनीता ने इस तरह 
                    मुँह बिगाड़कर कहा जैसे किसी ने उसके मुँह में करेले का रस घोल 
                    दिया हो। मैं मम्मी के अभी तर घर न आने से इतना नर्वस और 
                    अस्थिर हो रहा था कि पुलिस और अनीता के बीच हो रही बातें मेरे 
                    पल्ले नहीं पड़ रही थीं। आली बेहद गुस्सेवर और हिंसक था। मम्मी 
                    के साथ कभी-कभी वह गुस्से में आकर हमारी भी पिटाई कर देता था।
 हमसे बातें करते-करते पुलिस 
                    ऑफीसर रसोई में चला गया। वह पुलिस रेडियो पर अपने कंट्रोलरूम 
                    से बातें कर रहा था। मुझे उसकी दबी-दबी आवाज़ें सुनाई
                    दे रही थीं पर कुछ समझ 
                    नहीं आ रहा था। हमेशा आत्मविश्वास से दीप्त रहने वाली अनीता का 
                    चेहरा घबराहट से ज़र्द होता जा रहा था। शायद वह पुलिस की बातों 
                    को काफी हद तक समझ रही थी। जब पुलिस ऑफिसर रसोई से बाहर निकलकर 
                    आया तो उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं। वह बेहद नर्वस लग 
                    रहा था। शायद वह हमसे कुछ कहना चाह रहा था, पर उसे शब्द नहीं 
                    मिल पा रहे थे। तभी उसकी नज़र टेबल पर पड़े अनीता के कोर्सबुक 
                    की एक किताब पर पड़ी। उसने उसे उठाकर कहा, ''आओ इस किताब में 
                    से एक कहानी पढ़ें...'' वह कोर्सबुक है, कहानी की किताब 
                    नहीं।'' मैंने कहना चाहा पर संकोच के कारण मेरे मुँह से आवाज़ 
                    तक नहीं निकली। तभी दरवाज़े पर कुछ हलचल हुई। एक पुलिस-लेडी 
                    कमरे में दाखिल हुई जिसका चेहरा मैरी पॉपिन्स (बच्चों के 
                    कहानियों की एक नायिका) जैसा प्यारा था। पुलिस-लेडी ने बेहद 
                    प्यारी आवाज़ में हम लोगों से हाथ मिलाते हुए अपना नाम बताया। 
                    फिर उसने हमारा नाम पूछा। वह हमसे इस तरह प्यार से बातें कर 
                    रही थी जैसे वह हमें अर्से से जानती हो और वह हमारी कोई 
                    रिश्तेदार हो, जैसे बूआ या मासी। उसने हम चारों की कैडबरी 
                    चाकलेट का एक-एक बार पकड़ाते हुए कहा, ''बाहर लाल-नीली 
                    बत्तियों वाली पैडाकार (गश्ती पुलिस गाड़ी) हमारा इंतज़ार कर 
                    रही है।'' एक बार जब मैं कार्निवल में खो गया था तो पुलिस 
                    गाड़ी इसी तरह मुझे मम्मी के पास ले गई थी। मुझे लगा हमारी 
                    मम्मी ज़रूर किसी मुसीबत में फँस गई है इसलिए हमें उसके पास ले 
                    जाया जा रहा है। वैसे भी हमें कार में जाने के मौके कम ही 
                    मिलते हैं। इसलिए हम अजीबो-गरीब परिस्थिति में भी पलभर को खुश 
                    हो उठे, किंतु यह खुशी ज़्यादा देर नहीं रही। हमारे कार में 
                    बैठते ही कार चल पड़ी। हमारा घर हमसे दूर पीछे छूटता जा रहा 
                    था। अनीता बार-बार पीछे मुड़कर देख रही थी। उसने कई बार पुलिस-लेडी 
                    से मम्मी के बारे में पूछा। पर वह हमसे और-और बातें करती रही। 
                    हम डरे-सहमें कार की पिछली सीट पर एक-दूसरे के हाथों में हाथ 
                    फँसा कर बैठ गए। इस समय हमें कुछ पता नहीं था कि हम कहाँ जा 
                    रहे हैं? और क्यों जा रहे हैं? शायद पुलिस-स्टेशन जा रहे हों? 
                    मैंने सोचा। मैंने अनीता की ओर देखा। वह भी बेचैन और 
                    दिग्भ्रमित थी। रेबेका-रीता हर चीज़ से बेखबर मुँह में अंगूठा 
                    डाले एक-दूसरे से चिपकी हुई कार चलते ही सो गई। कोई बीस मिनट सड़क 
                    पर दौड़ने के बाद कार बाईं ओर मुड़ी, सड़क के दोनों ओर सिकामोर 
                    और ओक के घने लंबे-तगड़े पेड़ लगे हुए थे। कार लाल बजरी वाली 
                    सड़क के आखिरी छोर पर घने पेड़ों के बीच छिपे एक खूब बड़े से 
                    मकान के आगे लगे लोहे के बड़े से गेट के आगे जाकर रुक गई। 
                    पुलिस ऑफिसर ने वाकी-टॉकी से अंदर कुछ संदेश भेजे। थोड़ी ही 
                    देर में वह लंबा-चौड़ा लोहे का गेट अपने आप धीरे-धीरे बिना 
                    आवाज़ खुलता चला गया। मकान के चारों ओर बगीचा था। जिसमें 
                    स्लाइड, ट्रैंपोलिन, क्लाइमिंग फ्रेम, नेट बॉल आदि कई तरह के 
                    खेल-कूद और कसरत करने वाले 'एपरेटस' लगे हुए थे। शायद यह कोई 
                    बाल-गृह था। गेट के बाईं ओर दीवार पर पीतल के बोर्ड पर 'सेंट 
                    वैलेंटाइन चिल्ड्रेंस होम' काले रंग में खुदा हुआ था। हम चारों 
                    भाई-बहन सहमें हुए एक-दूसरे का हाथ पकड़े, पुलिस-लेडी के साथ 
                    स्वचालित दरवाज़ों के बीच गुज़रते हुए एक लंबे गलियारे को पार 
                    कर 'ओपनप्लैन लिविंगरूम' में पहुँचे। वहाँ हमें सोफे पर बैठने 
                    को कहा गया जिसमें एक ओर बच्चों के ढेरों खिलौने और किताबें 
                    शेल्फ और आलमारियों में सजाकर रखे हुए थे। यद्यपि हम घबराए और 
                    डरे हुए थे फिर भी हमें यह घर आलीशान और सुंदर लग रहा था। शायद इस बड़े घर में 
                    रहनेवालों को पता था कि हम आने वाले हैं। इसलिए उन्होंने हमारे 
                    आते ही हमें गर्म कोको, चॉकलेट और बिस्कुट आदि खाने-पीने को 
                    देते हुए कहा कि हम वहाँ रखे किसी भी खिलौने से खेल सकते हैं। 
                    वे बड़े और अच्छे लोग हमारा ध्यान इस तरह रख रहे थे मानों, हम 
                    उनके कोई मेहमान हों। थोड़ी ही देर में एक फोटोग्राफर आया। 
                    उसने हम चारों से कहा यदि हम अपने मनपसंद खिलौनों के साथ सोफे 
                    पर बैठ जाएँ तो वह हमारी बहुत सारी तस्वीरें खींचेगा। हमारे 
                    पास अपनी कोई फोटो नहीं थी इसलिए हमें अपनी फोटो खिंचवाने वाली 
                    बात बहुत अच्छी लगी। अनीता ने बार्बी डॉल हाथ में उठाया और 
                    बेमन से चुपचाप हमारे साथ फोटो खिंचवाती रही। उसने फ़ोटोग्राफर 
                    ने हम लोगों की ढेरों फ़ोटो खींची। फ़ोटोग्राफर के जाने 
                    के बाद हम दुबारा फिर खिलौनों से खेलने लगे पर अनीता चुप-चुप 
                    वहीं हमारे पास खड़े सोफे पर बैठी टेलिविजन देखते हुए, वहाँ के 
                    लोगों का आना-जाना देखती रही। पीछे के कमरे से बार-बार 
                    टेलीफ़ोन की घंटी बजने और फ़ोन उठाने की आवाज़ आ रही थी। मुझे 
                    और रेबेका-रीता को खिलौनों से खेलना बड़ा अच्छा लग रहा था। सभी 
                    खिलौने नए और महँगे थे। हम कभी एक खिलौना उठाते और कभी दूसरा। 
                    अभी हमें खिलौनों से खेलते हुए कुछ ही देर हुई थी कि वह मैरी 
                    पॉपिन जैसी खूबसूरत चेहरेवाली खुशमिजाज़ पुलिस-लेड़ी अनीता का 
                    हाथ पकड़ कर हमारे पास कारपेट पर आकर बैठ गई। थोड़ी देर वह भी 
                    हमारे साथ खिलौनों से खेलती रही। फिर उसने हमसे कहा, ''बच्चों 
                    मुझे तुमसे कुछ गंभीर बातें करनी हैं।'' आज तक किसी ने हमसे 
                    गंभीर बातें नहीं की थीं, हम चारों खेलते-खेलते रुक गए और उसकी 
                    ओर मूर्खों की तरह देखने लगे... उसने ब़ड़े प्यार से रीता-रेबेका 
                    को अपनी गोद में बैठाते हुए मेरे और अनीता के हाथों को अपने 
                    हाथ में लेकर सहलाते हुए कहा, ''देखो बच्चों तुम्हारी मम्मी अब 
                    तुमसे बहुत दूर चली गई हैं। अब वे तुमसे मिलने कभी भी नहीं आ 
                    सकेंगी। पर चिंता मत करो। हम लोग तुम्हारी देखभाल करेंगे।''''नहीं।'' अनीता ने सख़्ती से कहा, ''तुम झूठ बोल रही हो। ले 
                    जाओ अपने खिलौने, नहीं चाहिए हमें तुम्हारे बेहूदे खिलौने।'' 
                    उसने होठों को भींचते हुए हाथ में पकड़ा खिलौना फेंक दिया। 
                    अनीता को देखकर मैंने, रेबेका और रीता ने भी अपने खिलौनें फेंक 
                    दिए और हम सबने एक-दूसरे का अनुकरण करते हुए कहा, ''हमें नहीं 
                    चाहिए तुम्हारे खिलौनें।
 ''...नहीं चाहिए। हमें हमारी मम्मी चाहिए।''
 अनीता साँप की तरह 
                    फुँफकारती, पैर पटकती दरवाज़े के पास जाकर खड़ी हो गई। मैंने 
                    रीता-रेबेका का हाथ पकड़ा और अनीता से सटकर खड़ा हो गया। हम 
                    सभी दुःखी थे क्यों कि अनीता दुःखी थी। पुलिस-लेडी ने अनीता 
                    के दोनों हाथों को पकड़कर बेहद प्यार से पर सख़्त आवाज़ में 
                    कहा, ''बात को समझो अनीता, तुम्हारी मम्मी अब यहाँ नहीं है। 
                    तुम सब अभी बच्चे हो। थोड़ी देर में सोशल वर्कर तुम लोगों को 
                    तुम्हारे नए घरों में ले जाएँगे।''''नहीं। हम कहीं नहीं जाएँगे, हम अपने घर जाएँगे।'' अनीता ने 
                    पैर पटकते हुए, चिल्लाकर कहा, ''हमारी मम्मी किसी और रास्ते से 
                    घर आकर इंतज़ार कर रही होंगी।''
 मैंने भी मन ही मन 
                    सोचा कि इस पुलिस-लेडी को कुछ भी नहीं पता है। हमारी मम्मी 
                    बहुत स्मार्ट है। वह सबको चकमा देकर अब तक ज़रूर ही घर वापस आ 
                    गई होंगी।रीता और रेबेका बड़े घर में रहने वाले लोगों से हिलमिल गई थीं। 
                    वे दोनों वहाँ काम करने वाली सोशल वर्कर की गोद में चढ़ी हुई 
                    किलकारियाँ भरती उनसे बात कर रही थीं।
 मैं चाह रहा था कि लोग हमसे हमारी मम्मी के बारे में बातें 
                    करें। उनके बारे में हमें कुछ बताएँ। पर कोई उनके बारे में बात 
                    नहीं करना चाह रहा था। जैसे ही हम मम्मी के बारे में बात करते, 
                    लोग हमारा ध्यान किसी और चीज़ में उलझा देते।
 मैं अभी यही सब सोच 
                    रहा था कि अचानक अनीता जैसे उन्मादित हो गई। वह वहशियों की तरह 
                    चिल्लाकर उन लोगों को गालियाँ निकालने लगी, ''कमीनों, 
                    हरामज़ादों, बदबख़्तों! छोड़ों हमारी बहनों को, उतारो उन्हें 
                    अपनी गंदी गोद से। मनू, कमबख़्त तू भाग यहाँ से। मैं रेबेका ओर 
                    रीता को इनके चंगुल से छुड़ाकर घर आती हूँ। तुम पुलिस, सोशल 
                    वर्कस, वेलफेयर आफीसर सब के सब दोगले, हरामज़ादे होते हो। मनू, 
                    ये सब हमें बहका रहे हैं।'' अनीता को जितनी भी गालियाँ आती थी 
                    उसने पुलिसवालों को देनी शुरू कर दी। ''तुम लोग, मम्मी को जेल 
                    में बंद करके हमें अनाथाश्रम भेजना चाहते हो।'' मैं बदहवास, 
                    कन्फ्यूज्ड, मूर्ख की तरह पुलिस-मैन की उँगली पकड़े वहीं खड़ा 
                    रहा। अनीता तब तक गालियाँ बकती रही जब तक वह थककर निढाल नहीं 
                    हो गईं।अनीता का चिल्लाना सुनकर बड़े घर का मालिक अंदर से बाहर आया और 
                    अनीता के कंधों को हिलाते हुए बोला, ''सुनो अनीता, पागल मत 
                    बनो, हम लोग तुम्हारे हितैषी हैं, दोस्त हैं। हम तुम्हें ऐसे 
                    परिवारों में भेज रहे हैं जहाँ के लोग तुम्हें अपने परिवार में 
                    अपने बच्चों की तरह स्वीकार करेंगे।''
 सोशल वर्कर ने हमें 
                    हमारी इच्छा के विरुद्ध बाहर खड़ी वैन में बिठा दिया। हम चारों 
                    बौखलाए, चीखते-चिल्लाते एक-दूसरे से सटे असहाय, लाचार पुलिस 
                    वैन में बैठे रहे।हमें कार में यात्रा करते अभी पंद्रह मिनट भी नहीं हुए थे कि 
                    अनीता रोते-रोते थककर सो गई। वह नींद में भी सुबकियाँ भर रही 
                    थी। रेबेका और रीता भी अंगूठा मुँह में डाले झपकी लेती हुई 
                    सोने की तैयारी कर रही थीं। कार में लगे रेडियो पर कैपिटल 
                    रेडियो से प्राइम-टाइम कार्यक्रम में डुरैन-डुरैन का प्रसिद्ध 
                    गीत 'प्लीज-प्लीज टेल मी नाउ, इज देयर सम थिंग आई शुड नो' मेरी 
                    माँ का प्रिय गीत, जिसे वह सदा गुनगुनाती रहती थी, बज रहा था। 
                    अचानक गीत को रोककर समाचार प्रसारक समाचार देने लगा, ''अलसुबह 
                    आज घने कोहरे में दो नन्हें बच्चे ठीक उसी मोड़ पर खड़े अपनी 
                    माँ को तलाश रहे थे, जहाँ उनकी जिस्मफरोश माँ के मृत-देह को 
                    कोहरे ने अपनी चादर में लपेट रखा था। क्या यह औरत भी उस दरिंदे 
                    की शिकार बनी जो पुलिस से आँख-मिचौली खेलते हुए खोज-खोजकर 
                    पिछले सात महीनों से जिस्मफरोश औरतों का कत्ल किए जा रहा है?''
 कौन थे वे नन्हें 
                    बच्चे? मेरा दिल उन अनजान नन्हें बच्चों के लिए दया से भर उठा 
                    और मैं फूट-फूट कर रोने लगा... कार चालक रेडियो की घुंडी को 
                    इधर-उधर घुमाने लगा...  |