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साज सज्जा के नाम पर तो बस मेकअप ही देखना था, क्यों कि कपड़ों के नाम पर तो लगभग सभी के शरीर पर इतने ही वस्‍त्र थे कि उन्हें ध्यान से देखने पर ही उनकी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता था। लेकिन प्रवीण बावला अब इस तरह के दृश्‍यों के अभ्‍यस्त हो गए थे कि अमूमन उनका ध्यान ही इस तरफ़ नहीं जाता था। वे सामने एक नृत्‍यांगना के काले बालों को देख कर पुरानी याद में खो जाते हैं कि उन्‍होंने सामन्था से केवल इसलिए लौ लगाई थी कि उसके बाल काली कोयल के रंग से भी काले थे।

जैसे ही सामन्था का ध्यान आया, उनके मन में अजीब तरह का हौल-सा उठा। जब भी वे उसे याद करते हैं तो बरबस उन्हें अपनी मंगेतर याद आ जाती है। उसके बाल ग़ज़ब के लम्बे और काले थे। बिल्कुल सामन्था जैसे या सामन्था के उसके जैसे! इस सवाल से वे हमेशा बचते रहे। जब तक माँ और पिता जी जीवित रहे तब तक यह ज़रूर लिखते कि विम्मो अभी भी तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठी है, इसका मतलब था कि अभी भी कुआँरी है! तुम्हारी राह देख रही है, तब उन्‍हें हँसी आती, लेकिन माँ बाप का दिल रखने के लिए उन्‍होंने यह कभी नहीं बताया कि उनकी ज़िन्दगी में सामन्था आ गई है! माँ बाप अब आयु के उस दौर में पहुँच गए थे कि, कब जीवन की डोर हाथों से निकल जाय कोई भरोसा नहीं था! उन्‍हें कोई भी सदमा नहीं दिया जा सकता था।

और सदमा भी तो अकेला नहीं था, जब तक वे खुद को तैयार करते कि उन तक ए ख़बर पहुँचाते, कार्निवाल की तरह वह उनके जीवन में जिस धूम धड़ाके के साथ आई थी, तीन साल भी ठीक से साथ नहीं रही और बेटी का प्रसाद दे कर चली भी गई थी।
अचानक उनकी निगाह के एकदम सामने एक भद्र महिला के साथ एक अत्यन्त सुन्दर युवती आ गई। निगाह ठहरी रह गई। उसके बाल बेहद घने और काले थे। आखें नीली, लेकिन उसका चेहरा हू-बहू हिन्दुस्तानी था और उसने इस माहौल में भी बिल्कुल ही अलग तरह की पोशाक पहन रक्खी थी। ''इनसे मिलिए यह टीना हैनसन हैं'' 'सालसा' समूह की अगुवा।'' जैनसन ने बताया।
प्रवीण बावला ने सिर्फ़ औपचारिक रूप से उसे हाय कह के उससे हिन्दी में कहा, ''आप हिन्दुस्तानी हैं।''
वह जवाब में मुस्कुरा भर दी।
उसने फिर सवाल किया,  ''आप के माता पिता कहाँ से हैं?''
''यह हिन्दुस्तानी नहीं है।'' जैनसन ने डेनिश में जवाब दिया।
वह युवती मुस्कुराए ही जा रही थी। हालाँकि उन्‍हें औपचारिकतावश उससे माफी माँगनी चाहिए थी, लेकिन उन्‍हें अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि यह हिन्दुस्तानी नहीं। पलकें तो उतनी ही खुली थीं मुस्कुराते समय, जितनी आम तौर पर हिन्दुस्तानी लड़कियों की खुलती हैं। वही हया की लाली और वैसे ही नीची निगाह।
''प्रवीण बावला, बस अब चीफ गेस्‍ट आने ही वाले हैं।'' इस बीच जैनसन अपनी रिकार्डिंग किट खोलकर तैयार हो गया था। करें शुरू।
उन्‍होंने किसी तरह रिकार्डिंग पूरी की। हालाँकि वे इधर कई एक बरसों से इस कार्निवाल में आ रहे थे और कार्यक्रम तैयार करने की रूपरेखा उसके पास तैयार रहती थी, लेकिन वे मन पसंद कार्यक्रम तैयार नहीं कर पाए, ए वे महसूस कर रहे थे। वे दोबारा मिलने की बात कह के अपने होटल लौट आए।

सारा हुजूम कार्निवाल में व्‍यस्‍त था, इसलिए यहाँ शांति थी, फिर भी उनके अन्दर एक अजीब-सी हलचल मची हुई थी। बार-बार आँखों के सामने उसी युवती का चेहरा आ रहा था। उन्‍हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि वह भारतीय नहीं। एकाएक प्रवीण बावला का ध्यान अपनी बेटी की तरफ़ चला गया। बेटी के जन्म के पहले ही सामन्था ने साथ छोड़ दिया। पिछले अठारह बरस से वे हर बरस एकाध बार उससे ज़रूर मिलते। बिल्कुल इसी की तरह वह भी है! बस अन्तर आँखों में है। उसकी आँखें भी आम हिन्दुस्तानियों जैसी हैं। वह यह जानती भी है कि उसका पिता हिन्दुस्तानी है। शायद इस युवती का पिता भी हिन्दुस्तानी हो? वह जानती न हो!

इन सवालों में वे बुरी तरह से उलझ गए कि घबराहट होने लगी। वे काफी देर तक ऊब चूभ होते रहे जब रहा न गया तो होटल से निकल पड़े। बाहर वही मस्‍ती का आलम था। कार्यक्रम औपचारिक रूप से शुरू हो चुका था। ऐसा लग रहा था कि केवल आदमी ही नहीं पूरी कायनात, हवाएँ, धरती रौशनी सब कार्निवाल की मस्ती में घुलमिल गए हैं। सिर्फ़ वही अकेले बचे हैं। वे बेमकसद ही भीड़ के पीछे जहाँ सन्नाटा था, वहाँ आकर इधर उधर घूमने लगे, तभी अचानक उन्‍हें वही युवती अपनी ही तरह लक्ष्यविहीन घूमती मिल गई। उसे देखते ही प्रवीण बावला के चेहरे का रंग बदला।

''ऐ खूबसूरत लड़की मुझे पहचाना?'' उन्होंने लगभग दौड़कर उसके पास पहुँचते हुए कहा, ''माहौल की मस्ती को छोड़कर अकेले?''
जवाब में वह इस तरह मुस्कुराई कि प्रवीण बावला को अनुमान लगाने में तनिक भी कठिनाई नहीं हुई कि वह पहचान रही है। दोनों के ही कदम बाज़ार की तरफ़ मुड़ गए। रोशनी भरपूर थी लेकिन इक्का दुक्का दुकानों को छोड़कर सभी दुकानें बन्द थीं। चहलकदमी करते हुए ही लड़की ने बात शुरू की - मैं तो भारतीय नहीं, लेकिन मेरे पिता ज़रूर भारतीय थे।

उन्हें मन ही मन प्रसन्नता हुई। उन्होंने इस तरह से उसे देखा कि मानों वह सब कुछ उससे जान लेना चाहते हों। वह उनके मन्‍तव्‍य को शायद समझ भी गई और बोली, ''बस मुझे इतना ही पता है। इससे अधिक मॉम ने कुछ बताया और न ही मैंने जानने की ज़रूरत समझी।''
''मॉम?''
''टीना हैनसन मेरी मॉम हैं।''
''ओह! बहुत अच्छा! कहाँ से?''
''मेरी नानी का घर तो कस्बे में था, लेकिन अब हम इसी शहर में रहते हैं।''
''यह तो बहुत अच्छा है। मैं भी वहीं रहता हूँ।'' प्रवीण बावला ने लगभग उत्तेजित होते हुए कहा।
''क्या अपने पिता के बारे में जानने की इच्छा होती है?''
''नहीं! कभी इस बारे में सोचा भी नहीं। जब मॉम को ही ज़रूरत नहीं तो भला मुझे क्यों होने लगी?'' जवाब उसने बिल्कुल ही औपचारिक लहजे में दिया।

प्रवीण बावला उसकी भावनाओं को समझ पाए या नहीं, लेकिन अपनी सीमाओं को समझ गए फिर उससे रस्मी बातें करने लगे। बातों-बातों ही में पता चला कि उसका नाम क्रिस्टी है। माँ एक बीमा कम्पनी में एजेन्ट है। पहले इसी कस्‍बे की इन्चार्ज थी, लेकिन जब से उसका काम बढ़ा तो कम्पनी ने उसी शहर में उसे बुला लिया जहाँ वह है। टीना अपनी सीनियर की अन्तिम परीक्षा देने वाली है। इसके बाद अब वह कॉलेज की पढ़ाई के लिए माँ के शहर में चली जाएगी। अब वह अट्ठारह साल की बस होने ही वाली है इस लिए मॉम के साथ रहने का इरादा नहीं है।

प्रवीण बावला को कार्निवाल से लौटे हुए लगभग तीन हफ्ते हो गए। वापस आने से पहले वे टीना से दोबारा मिले थे, उन्‍हें रिकार्डिंग की ब्राडकास्‍ट की तारीख बताई थी और आपना कार्ड थमा दिया था। उन्हें यकीन था कि टीना ज़रूर आएगी। दरअसल आते समय उन्होंने उससे वादा किया था कि वह बहुत सारे भारतीयों की पॉलिसी उसे दिलवा देंगे। साथ ही क्रिस्‍टी को अपने रेडियो नेटवर्क में कोई पार्ट टाइम जॉब दिलाने में मदद करेंगे। बिल्कुल आसान काम होगा और जिससे क्रिस्टी की पढ़ाई में कोई बाधा न हो। वे जब सारे वादे कर रहे थे तो उनके जेहन में टीना या क्रिस्टी नहीं थीं बल्कि सामंथा और अपनी खुद की बेटी थी। वे चाहने लगे थे कि अगर अपनी बेटी को प्‍यार नहीं दे पाए तो कम से कम इस अभागी बिन बाप की बेटी के सिर पर हाथ फेर कर ही तसल्‍ली लेंगे। उनकी अपनी बेटी भी तो अब अट्ठारह साल की हो गई है, लेकिन वह तो कब से अपनी माँ के साथ नहीं रहती। रहे भी कैसे? समान्था के रहने का अगर एक ठिकाना हो तब न! पिछले उन्नीस सालों में उसने कम से कम चार तो आदमी बदल ही डाले, जिनके बारे में प्रवीण बावला को पता है। उन्‍हें अपनी बेटी से बरस में सिर्फ़ एक बार मिलने की इजाज़त थी बस घंटे आध घंटे के लिए, इन सारे बरसों में वह इतने पिताओं के सानिध्य में आ चुकी थी कि अपने वास्तविक पिता को भी उन्हीं की श्रेणी में रखती। बस तोहफों को बेमन से लेकर अजीब-सा ठंडेपन वाला औपचारिक संबंध दर्शाती। वह जैसे जैसे बड़ी हो रही थी उसके इस तरह के व्यवहार का ठंडापन बढ़ता जा रहा था। इस बार जब वे उससे मिलने गए तो उसने बड़ी तल्खी से कह दिया कि मैं अब अट्ठारह की होने वाली हूँ यानी की आज़ाद हूँ। और आज़ादी का पहला उपभोग इस घोषणा के साथ किया कि अब मैं आप से मिलना ही नहीं चाहती। तभी से प्रवीण बावला का मन उचटा हुआ है। कभी-कभी तो मन में यह भी आता कि लौट जाएँ अपने देश, लेकिन कहाँ लौटें? हालाँकि अभी भी वहाँ उनके कई रिश्‍तेदार और पुराने परिचित थे, लेकिन माता पिता के मरने के बाद उन्होंने जाकर अपने कस्बे की ज़मीन को बेच दिया था। ऐसे अवसरों पर उन्हें अपनी मंगेतर की भी याद आती। जब वह ज़मीन बेचने गए तो पता चला था कि उसकी अभी भी शादी नहीं हुई है। तब पछतावा भी हुआ था, लेकिन वह क्षणिक ही था क्यों कि समान्था उसी समय उनके जीवन में आयी थी और सब कुछ सातवें आसमान पर था। उसका साथ पा कर वे सबको एक तरह से भूले हुए थे। लेकिन उसके साथ स्वप्न जैसे व्यतीत होते दिन क्षणिक ही साबित हुए। अभी सानिध्य का खुमार भी नहीं उतरा था कि वह अलग हो गयी। उन्हें लगा कि जैसे ऊँची पहाड़ी चोटी पर पहुँचने से पहले ही उन्हें एक धक्के में वहाँ से सीधी सड़क पर फेंक दिया गया। विछोह से उबरने के बाद भी कभी कभी उन्हें यह तक लगने लगता कि अब तक का उनका जीवन अर्थहीन ही रहा। जब वह अपने अतीत से वर्तनाम के लगभग बीस बरसों की यात्रा पर गौर करते तो लगता कि मंज़िल का कहीं नामों निशान तक नहीं। जहाँ से शुरू किया था सफर, कदम ताल करते अभी भी वहीं खड़े हैं।
कार्निवाल से लौटने के बाद प्रवीण बावला अपने भीतर बदलाव पा रहे थे। इंतज़ार के पल भी कितने भरे भरे होते हैं, वे बार-बार महसूस करते। उन्हें लग रहा था कि टीना और क्रिस्टी ज़रूर आएँगी। हुआ भी यही। तीसरे हफ्ते ही टीना उनके दफ्तर में हाज़िर हो गई। उन्होंने अपना वादा पूरा किया और उसे तीन पॉलिसी दिलवाईं और कुछ ही दिनों में भारतीय लोगों के एक उत्सव में सबके एक साथ एकत्रित होने के अवसर और भी लोगों से बात करने का वादा किया। एक शुरुआत थी। फिर तो उनका आपस में मिलना जुलना शुरू हो गया। हालाँकि वे क्रिस्टी को वह अभी काम तो नहीं दिलवा पाए थे, लेकिन उसके लिए कोई ढंग का उचित काम ढूँढने में उन्होंने अपने सभी मित्रों से कह रखा था मानो अपनी बेटी के लिए काम तलाश रहे हों। काम की वैसे इस देश में कोई कमी नहीं, लेकिन वे जैसा काम चाहते थे वह नहीं मिल रहा था। समय की पाबन्दी उन्होंने अपने आप तय कर ली। उन्‍होंने इस पर मिले दोस्‍तों के मज़ाक की भी परवाह नहीं की।

क्रिस्टी अब अक्सर उनके पास ऑफिस में आ जाती। उसके साथ उन्होंने दो तीन बार डिनर भी लिया। एक बार अपने घर भी ले गए। उसके पहनावे के अतिरिक्त उसके खान पान को देखकर उन्हें आश्‍चर्य होता। एक दिन खास तौर से उन्होंने उसके लिए एक भारतीय रेस्टोरेंट से समोसे मँगवाए, लेकिन मँगवाने बड़ी बात जो हुई वह यह कि, उसने उनसे भी अधिक चाव से समोसे खाए। उससे संपर्क हो जाने के बाद उन्हें अपनी लगभग भूल-सी गई भारतीय पाक कला को फिर से जीवित करने का मानो अवसर मिल गया हो। असल में वह उनके बनाए पकवानों को बेहद चाव से और बड़ी आसानी से खाती। कभी-कभी तो इतनी कि जितनी आसानी से वे खुद नहीं खा पाते। धीरे-धीरे भारत और वहाँ की संस्कृति और रहन सहन और सामाजिक जीवन में उसकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। वह इस तरह की बातों में काफी रुचि भी दिखाती। प्रवीण बावला को लगता वे सही दि‍शा में जा रहे हैं। एकाध बार जब उन्होंने उससे उसके पिता के संबन्ध में बातें करनी चाही तो उसने ज़रूर अरुचि दिखाई। प्रवीण बावला इसके लिए उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे।

प्रतीक्षा अपने आप ही समाप्त हो गई। उन्‍होंने शनिवार की एक शाम क्रिस्टी के साथ टीना को भी अपने घर आमंत्रित किया। उस दिन प्रवीण बावला के यहाँ तीन चार भारतीय भी आमंत्रित थे। बीमा के सिलसिले में बात हो जाने के मोह में वह निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकी। खाने के बाद कारोबारी बातें करके भारतीय समुदाय के लोग चले गए तो प्रवीण बावला ने उन लोगों से थोड़ा और रुकने का आग्रह किया। टीना मान भी गई। भारतीय खाने के साथ फिर जो बात आरम्भ हुई तो एकाएक न जाने कैसे बातचीत ने टीना और क्रिस्टी के व्यक्तिगत जीवन का रुख ले लिया। फिर तो मानो प्रवीण बावला की मनचाही मुराद पूरी हो गई।

टीना और क्रिस्टी के अतीत की पर्तें उघड़ती गईं। प्रवीण बावला को यह तो पता चल ही गया था कि वह भारतीय पिता की ही सन्तान है, लेकिन उसके जन्मदाता से संबंधित जानकारी नहीं थी। हालाँकि टीना को भी ठीक ठीक पता नहीं था, लेकिन उसने जो कहानी बताई उसका सार यह था कि जब क्रिस्टी का अस्तित्व इस संसार में आया यानी की अट्ठारह बरस पहले तब वह अपने शहर में एक होटल में रिसेप्‍शन पर काम करती थी। भारत से रेलवे के अधिकारियों का एक समूह डेनमार्क किसी शैक्षणिक कार्यक्रम में आया था। दो दिनों के लिए वह लोग उसी कस्बे के उसी होटल में आकर ठहरे, जिसमें टीना काम करती थी। वहीं मुलाकात हुई और गाढ़ी-सी मुस्कान के साथ उसने बताया – उसी मुलाक़ात का नतीजा क्रिस्टी है।

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