| उन दिनों मेरे पिता पोर्टस्मथ 
                    में एक जहाज़ी बेड़े पर काम करते थे। उनकी अनुपस्थिति और 
                    अकेलेपन को न झेल पाने के कारण मेरी कम-उम्र माँ को पीने की लत 
                    की पड़ गई। पिता हर तीन महीने बाद घर 
                    आते। जब वे घर होते तो वे ममी से एक पल की भी जुदाई नहीं सहन 
                    पाते। उनके साथ ममी या तो बेडरूम में होती या पब में। ममी की 
                    हिदायत थी कि जबतक डैडी घर में हों हम बच्चे कम से कम समय उनके 
                    सामने आएँ। मुझे तो उनके सामने जाने की सख़्त मनाही थी। मैं 
                    अपना बिस्तर उन दिनों दुछत्ती (एटिक) में लगा लेती। स्कूल से 
                    आते ही मैं रसोई के वर्क-टाप पर रखे सैंडविच का पैकेट और पानी 
                    की बोतल उठा चूहे की तरह ख़ामोश, लटकने वाली सीढियाँ चढ़ 
                    दुछत्ती में पहुँच, ट्रैप-डोर बंद कर लेती। दुछत्ती में रहना 
                    मुझे कोई बुरा नहीं लगता था। वह मेरे अकेलेपन को रास आता। उन 
                    दिनों मैं वहाँ अपनी एक अलग दुनिया बसा लेती।  एटिक में दुनिया भर के अजूबे 
                    और ग़ैर-ज़रूरी पुराने सामान ठुसे हुए थे। इन सामानों से 
                    खेलना, और उन्हें इधर-उधर सजा-सँवार कर रखना मुझे अच्छा लगता 
                    था। अक्सर मैं वहाँ रखे लाल रंग के बीन-बैग पर बैठ खिड़की से 
                    सड़क पर आते-जाते वाहनों या पड़ोसियों के पिछवाड़े वाले बगीचे 
                    में लगे पेड़-पौधों, गिलहरियों और कुत्ते-बिल्लियों को इधर-उधर 
                    दौड़ते-भागते, चिड़ियों और ख़रगोशों का पीछा करते देखती या फिर 
                    पुराने-ज़माने के बने गुदगुदे 'सेशलॉग' पर स्लीपिंग बैग बिछा 
                    उसमें घुस सो जाती। 
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