|  सुबह, तीन साल के छोटे रॉनी को 
                    सोता छोड़ हम तीनों भाई-बहन ममी-डैडी के उठने से पहले दूध के 
                    साथ कॉर्न-फ्लेक्स या वीटाबिक्स जैसी कोई चीज़ खा, स्कूल भाग 
                    लेते। स्कूल में दोपहर का गर्म खाना हमें निशुल्क मिलता क्यों 
                    कि हम लोग कम वेतन वाले परिवार से आते थे। मैं यदि कभी गलती से 
                    डैडी के सामने पड़ जाती तो वे बिना मेरा कान उमेठे और जूते से 
                    ठोकर मारे नहीं छोड़ते। जाने क्यों उनको मुझसे बेहद चिढ़ थी? 
                    मुझे सताने के लिए, वे मेरे सामने फियोना, शार्लीन और रॉनी को 
                    चॉकलेट और लॉली देते, उन्हें गोद में बैठाते और मुझे ठोकर 
                    मारते हुए तमाचा जड़ते, या पैरों से रौंद कर लॉली या चॉकलेट 
                    मेरे सामने फेंक देते। मेरे भाई-बहन मुझे पिटते देख, सहम जाते 
                    और कोई मेरी मदद को नहीं आते। मैं उपेक्षिता सदा ख़ामोश और 
                    असमंजस में रहती कि मेरा अपराध क्या है? क्यों डैडी मुझसे इस 
                    बेदर्दी से पेश आते है? मेरा नन्हा-सा मन घायल हो अंदर-अंदर 
                    बिलखने लगता। ममी को 
                    घर-गृहस्थी में कोई रुचि नहीं थी। हमारा घर हमेशा अस्त-व्यस्त 
                    रहता। अक्सर हमारी बूढ़ी होती नाना (नानी) बड़-बड़ करती हुई 
                    आती और हम बच्चों के साथ घर को ठीक-ठाक कर हमें 
                    नहलातीं–धुलातीं और पुराने बचे हुए डबलरोटी को दूध में भिगो कर 
                    स्वादिष्ट ब्रेड-बटर पुडिंग या हॉट-पॉट (उबले हुए दालों और 
                    सब्ज़ियों की धीमें आँच पर पकी ढीली खिचड़ी) खिलातीं। ममा नाना 
                    की इकलौती संतान थी। नाना, ममा के लापरवाहियों को नज़रंदाज़ 
                    करती हुई अक्सर मुझे ही उनकी मुसीबतों की जड़, कह अपराध बोध से 
                    भर देतीं। यद्यपि इसके बावजूद वो हम सबको अपना प्यार समान रूप 
                    से बाँटती। नाना के इस कथन का अर्थ मैं बहुत बाद में समझ पाई।
                     डैडी छुट्टियाँ ख़तम होने से 
                    पहले खाने-पीने का सामान लार्डर में रखने के साथ, ममी के सारे 
                    कर्ज़े भी चुका जाते। ममी स्वभाव से अल्हड़ और अव्यवस्थित थीं। 
                    डैडी के अनुपस्थिति में वे अक्सर हमें घर में अकेले छोड़ कर 
                    दोस्तों के साथ पब चली जाती थीं। कभी-कभी रात को भी वह घर नहीं 
                    आती थी। हमारा घर संदेहों से घिरा हुआ था। पास-पड़ोस के लोग 
                    हमारे परिवार के बारे में तरह-तरह की बातें करते थे। मैं बचपन 
                    से ही दुर-दुर की आदी हो चली थी। सरकारी सोशल वर्कर्स हमारे घर 
                    का चक्कर जब-तब लगाते रहते। हमें चुप और सोशल कस्टडी में हर 
                    तरह से रहने की आदत-सी पड़ चुकी थी। अक्सर ममी लड़-झगड़ और 
                    रो-धोकर, कसमें खाती हमें वापस घर ले आती। उस समय तक मुझे नहीं 
                    मालूम था कि ममी हमें चिल्ड्रेंस अलाउंस और सोशल-बेनेफिट के 
                    लिए घर लाती थी। हम बच्चे ममी के लिए शतरंज के मोहरे थें।
                     पहले नाना हमारे घर के बगल 
                    वाले घर में रहती थी। सोशल-वर्कर की मिनी देखते ही वह पीछे के 
                    दरवाज़े से हमें अपने घर ले आतीं, या फिर नीचे सोफ़े पर सोने 
                    का बहाना बनातीं। नाना बतातीं दूसरे महायुद्ध में उनका सारा 
                    परिवार नष्ट हो गया। ममा उनकी इकलौती औलाद हमेंशा से जिद्दी और 
                    उन्मुक्त स्वभाव की रहीं। उनमें कभी किसी भी तरह का ठहराव नहीं 
                    आया। नाना अब बृद्धाश्रम चली गई हैं। कई वर्षो से डैडी का कुछ 
                    पता नहीं है। ममी फिर गर्भवती हो गई और सोशल सर्विसेज़ ने फिर 
                    हमें अपने संरक्षण में ले लिया। इस बार ममी के रोने 
                    गिड़गिड़ाने का उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ।  मेरे सभी भाई-बहन गोरे-चिट्टे 
                    हैं उनकी आँखें नीली और बाल सुनहरे या भूरे हैं। पिछले दो 
                    वर्षों में मेरे तीनों भाई-बहन एक-एक करके सभी या तो गोद ले 
                    लिए गए या स्थाई रूप से किसी फोस्टर पैरेंट्स (पालक अभिवावक) 
                    के पास चले गए। न जाने कितने लोग मुझे देखने आए, पर सब मुझे 
                    अस्वीकार कर चले गए। मैं कितनी बार विस्थापित हुई, कितने 
                    अस्थाई फोस्टर होम्स में रही, कितने अनाथ-आश्रमों में पली, 
                    कितनी प्रताड़ना झेली और कितनी चोट खाई, अब याद नहीं। मुझे 
                    पार्क हाउस चिल्ड्रेंस होम में जब लाया गया तब मैं नाक 
                    सुड़कती, आठ वर्ष की ज़िद्दी, दुबली-पतली, उदण्ड गहरी 
                    भूरी-काली आँखों, रूखे त्वचा वाली कुछ छोटे क़द की बच्ची थी। 
                    पार्क हाउस चिल्ड्रेंस होम में आए मुझे आठ वर्ष हो चुके हैं। 
                    यहाँ मेरी स्कूलिंग फिर से नियमितरूप से शुरू हुई। पढ़ने-लिखने 
                    में मेरा मन नहीं लगता। जब कभी मैं पढ़ने बैठती मुझे उबासियाँ 
                    आने लगतीं या सिर में दर्द होने लगता। पार्क हाउस की नने मुझे 
                    घुन्नी, आलसी और जंगली समझतीं, उन्होंने कभी मेरे उलझे 
                    मनोविज्ञान और कुंठाओं को समझने की कोशिश नहीं करी। 
                     आए दिन मैं वहाँ किसी न किसी 
                    छोटी-मोटी शरारत के कारण 'चिल आउट बे' में दंडित होती। 
                    धीरे-धीरे मैं लापरवाह दिखती निरंकुश और ढींट होती चली गई। 
                    ननों को तंग करना उन्हें चिढ़ाना-बिराना, उनकी नकलें उतारना, 
                    मेरी आदतों में शुमार हो चुका था। जब मेरी हरकतों पर मेरे साथी 
                    मुँह छुपा कर फिस्स-फिस्स हँसतीं तो मैं और भी मूर्खतापूर्ण 
                    हरकतें करती और दंडित होती। अब मैं सोलह वर्ष की पूरी हो 
                    चुकी हूँ। उस दिन मुझे नहीं मालूम था कि अगला दिन फिर मुझे 
                    अस्थिर और बुरी तरह उद्विग्न करने वाला होगा। सुबह नाश्ते के 
                    पश्चात सिस्टर मारिया ने मुझे अपने कमरे में बुला कर कहा, 'सोशल 
                    वर्कर मिसेज़ हावर्ड अभी थोड़ी देर में यहाँ आएगी और तुम्हें 
                    असेस्मेंट सेंटर ले जाएगी।' मैं अवाक। यह असेस्मेंट सेंटर क्या 
                    होता है? मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती-सी लगी। मेरी 
                    आँखों में आँसू आ गए। दहशतज़र्द, मैं वहीं खड़ी रही। थोड़ी देर 
                    सिस्टर मारिया अपनी काग़ज़ी कार्यवाही में लगी रहीं फिर बिना 
                    सिर उठाए उन्होंने आगे कहा, 'देखो तुम नई जगह जा रही हो। अपने 
                    पर नियंत्रण रखना, अपनी बेवकूफ़ियों और शरारतों से पार्क हाउस 
                    का नाम मत बदनाम करना।' 'असेस्मेंट सेंटर क्या होता 
                    है मिस?' आँख में आए गालों पर लुढ़कने को आतुर आँसुओं को पीते 
                    हुए मैंने गले मे आई गुठली को गटकते हुए पूछा। सिस्टर मारिया 
                    अपने कामों में लगी रहीं। उन्होंने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर 
                    नहीं दिया। मानों मेरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं। 'असेस्मेंट 
                    सेंटर', शब्द मेंरे दिमाग़ में बवंडर की तरह घूम रहा था। मेरे 
                    पैरो में से शक्ति निचुड़ती जा रही थी। दिल बैठा जा रहा था। 
                    असेस्मेंट सेंटर में से पनिशमेंट सेंटर जैसी बू आ रही थी। मुझे 
                    महसूस हो रहा था कि पार्क हाउस की काले चोंगे वाली सिस्टर 
                    मारिया पनिशमेंट के लिए मुझे असेस्मेंट सेंटर भेज रही हैं। मैं 
                    कोई बुरी लड़की नहीं हूँ। मैंने आज तक कोई बुरा काम नहीं किया। 
                    बस थोड़ी ज़िद्दी और शरारती हूँ। मेरे साथ की कई और लड़कियाँ 
                    मुझसे भी कहीं ज़्यादा शरारती हैं पर उन्हें अक्सर माफ़ कर 
                    दिया जाता है। मैं विभ्रमित (कन्फ्यूज़्ड) थी। सोशल वर्कर कार लेकर आ चुकी 
                    थी। रिपोर्ट का भूरा लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में पकड़ा, असंपृक्त 
                    भाव से सिस्टर मारिया ने मुझे बाहर जाने का आदेश देते हुए कहा, 
                    'डेमियन तुम्हारा सूटकेस ले कर आ रही है।' सब कुछ इतनी जल्दी 
                    में किया गया कि मुझे अपने किसी साथी को गुड-बाई कहने तक का 
                    मौक़ा नहीं मिला। चारों-ओर पसरा सन्नाटा बता रहा था आज अचानक 
                    सारा पार्क हाउस किसी ज़रूरी काम में व्यस्त हो गया है। मेरे 
                    जाने की किसी को कोई खबर नहीं। मैं नर्वस और रुआँसी हो उठी।
                     ऑफ़िस के बाहर ढीले-ढाले काले 
                    और सफ़ेद लिबास में मझोले क़द की गबदी-सी एक सोशल वर्कर काले 
                    मिनी का दरवाज़ा खोल कर खड़ी थीं। मैंने संजीदगी से फ़ाइल उसे 
                    पकड़ा दी। उसने 'हेलो' कहते हुए, मुझे मिनी में बैठने का संकेत 
                    किया। मैंने गाड़ी में बैठते हुए गर्दन उठा कर अपनी डॉरमेटरी 
                    की ओर देखा, जहाँ मैं बरसों-बरस सोती रही थी। यह सोशल वर्कर 
                    मुझे कहाँ ले जाएगी? मुझे कुछ पता नहीं था। मेरा मन पारे की 
                    तरह थर-थराने लगा। फिर भी मैं खुद को सँभाले हुए थी। शायद मेरी 
                    जिद्दी मनोवृति मेरी सहायता कर रही थी।'अपना ख़याल रखना स्टेला' झाड़ियों के पीछे से पार्क हाउस की 
                    सफ़ाई-कर्मी डेमियन का झुर्रीदार चेहरा उभरा। डेमियन जिसके 
                    अकिंचन स्नेह ने मुझे हताशा के मुश्किल घड़ियों में पिछले 
                    सालों में कई बार अकेले में सहलाया था।
 'आप भी अपना ख़याल रखना।' कहते हुए मैंने डेमियन के हाथ से 
                    अपना सूटकेस ले कर सीट पर रखा। मेरा दिल किया मैं भाग कर 
                    डेमियन के गले लग कर खूब रोऊँ और कहूँ, 'मुझे असेस्मेंट सेंटर 
                    नहीं जाना है, तुम मुझे अपने घर ले चलो।' पर मैं नामुराद कुछ 
                    भी नहीं कह सकी, बस सिर झुका कर गाड़ी का दरवाज़ा हल्के से बंद 
                    कर पार्क हाउस जैसे फीके और बदरंग जीवन को भूल जाने की कोशिश 
                    करती रही। सोशल वर्कर के सामने मैं टूटना नहीं चाह रही थी। अतः 
                    आँखें मीचे कार के स्टार्ट होने का इंतज़ार करती रही...
 सोशल वर्कर ने जैसे ही कार का 
                    इंजिन स्टार्ट किया... मैंने अपने त्रासद वतर्मान से नाता 
                    तोड़ने के लिए तमाम और... और गैरज़रूरी चीज़ों के बारे में 
                    सोचना शुरू कर दिया, जैसे ये सोशल वर्कर मिनी ही क्यों चलाती 
                    हैं, इन्हें और कोई कार चलानी नहीं आती है क्या? मेरे जीवन में 
                    जितनी सोशल वर्कर आई उन सबके पास मिनी ही थी। यह तो मुझे बाद 
                    में पता चला कि ये गाड़ियाँ उनकी अपनी नहीं, सोशल सर्विसेज़ की 
                    होती हैं।  फिर जैसे ही हम सड़क पर आए, मैंने सूटकेस खोल कर अपना एक मात्र 
                    गुलाबी लाइक्रा ड्रेस निकाला। थोड़ी देर उसे गाल से लगा, उसके 
                    रेशमी छुअन को महसूस किया। फिर एक झटके में मैंने पार्क हाउस 
                    के भद्दे हरे रंग के हैट, कोट और पिनाफोर (एक तरह का फ़्रॉक) 
                    को उतार सूटकेस में घुसेड़ गुलाबी ड्रेस को इस तेज़ी से पहना 
                    कि सोशल वर्कर मुझे कपड़े बदलते न देख सकें। पर उसकी चील जैसी 
                    तेज़ आँखें लंदन की तेज़ रफ़्तार ट्रैफिक के गति पर लगे होने 
                    के बाबजूद मुझपर निगाह रखे हुए थीं। पीछे मुड़कर उसने मुझे एक 
                    पल देखा, फिर सामने ड्रैफ़िक पर ध्यान लगाते हुए बोली, 'भागने 
                    की कोशिश बेकार है दरवाज़ों में सेफ्टी लॉक है।' फिर हँसती हुए 
                    बोली, 'मेरा अनुभव बताता है तुम भगोड़ी नहीं हो, क्यों?' उसकी 
                    हँसी में लिपटा व्यंग्य मुझे अंदर तक चीर गया। मैंने कोई उत्तर 
                    नहीं दिया। यूनीफ़ॉर्म उतारने के बाद मैं कुछ सहज महसूस कर रही 
                    थी।  यह गुलाबी ड्रेस मेरी बड़ी 
                    बहन फ़ियोना की उतरन थी, जिसमें से उसके बदन की ख़ुशबू आ रही 
                    थी। कहाँ होगी फ़ियोना? कहाँ होंगे रॉनी और शर्लीन? और कहाँ 
                    होगा नन्हा बेन? हमने एक-दूसरे को पिछले वर्ष ममा के जनाज़े के 
                    वक्त क़ब्रगाह में एक दूसरे को दूर से देखा था। सोचते हुए 
                    दूसरे ही क्षण मेरा ध्यान इन सब से हट कर अपने वर्तमान, अपने 
                    विवस्थापन पर गया कि आख़िर मेरा अपराध क्या है? लोग क्यों मुझे 
                    ही देखते मुँह फेर लेते हैं? आखिर मैं ही क्यों अस्विक़ृत होती 
                    हूँ? थोड़ी बहुत छेड़खानी तो मेरे साथ की सभी लड़कियाँ करती 
                    हैं। पर फिर मुझे ही क्यों सज़ा मिलती है? उनको सज़ा क्यों 
                    नहीं मिलती? मुझे ही असेस्मेंट सेंटर क्यों भेजा जा रहा है? 
                    उन्हें क्यों नहीं भेजा जा रहा है? मेरे दिमाग़ में प्रश्नों 
                    की घुड़-दौड़ मच रही थी। कहीं मैं कोई ऐसी-वैसी हरक़त 
                    न कर बैठूँ, इसलिए सोशल-वर्कर मुझे बातों में लगाए रखना चाह 
                    रही थी। मेरा मन उद्विग्न और बोझिल था। मुझे मितली-सी आ रही 
                    थी। फिर मैं उसकी दिखावटी-बनावटी बातों का जवाब भी नहीं देना 
                    चाह रही थी। उल्टी रोकने के लिए मैंने लंबी-लंबी साँसें लेते 
                    हुए सड़क के किनारे लगे पेड़ों को बेमतलब गिनना शुरू कर दिया।'तुम्हें मालूम है हम कहाँ जा रहे है?'
 मालूम होने से क्या होता है? सभी जगहें एक-सी बेहूदी होती हैं, 
                    मैंने मन ही मन उसे मुँह बिराते हुए कहा।
 'मालूम हम रेडिंग जा रहे है।'
 मैंने कभी रेडिंग का नाम नहीं सुना था। मुझे यह भी नहीं पता था 
                    कि रेडिंग, पार्क हाउस के किस ओर और कितनी दूरी पर है।
 मेरी चुप्पी शायद सोशल वर्कर को ख़तरनाक लग रही थी। उसका 
                    बार-बार होठों पर ज़बान फिराना, बालों को बेमतलब कानों के पीछे 
                    खोंसना बता रहा था कि वह मेरी ख़ामोशी से चिंतित और नर्वस हो 
                    रही है। शायद मेरे बारे में उसे पहले ही ख़बरदार कर दिया गया 
                    है कि मैं एक भयंकर मुसीबत हूँ और किसी समय कुछ भी ख़ुराफ़ात 
                    कर सकती हूँ। ट्रैफ़िक पर नज़र रखते हुए भी वह ऊपर लगे शीशे 
                    में मुझे लगातार देखे जा रही थी।
 'रेडिंग एक अच्छा शहर है तुम्हें वहाँ अच्छा लगेगा।' उसने कहा, 
                    पर मैं फिर भी ख़ामोश रही। मेरा जी अभी भी मितला रहा था। सोशल 
                    वर्कर की ज़बान टेप रिकार्डर-सी चलती रही।
 'सुनों, तुम्हारे कितने भाई 
                    बहन हैं?' जैसे मेरा कोई नाम नहीं है। भूरे लिफ़ाफ़े पर मेरा 
                    नाम लिखा हुआ था। वह चाहती तो मुझे मेरे नाम से बुला सकती थी। 
                    डेमियन ने मुझे मेरे नाम से पुकारा था।मैं चुप, मुझे उससे कोफ्त हो रही थी।
 'तुम्हारे दोस्तों के क्या नाम है? '
 ...
 'तुम्हारा प्रिय पॉप सिंगर कौन है?'
 .....
 'तुम कौन-सी मैगज़ीन पढ़ना पसंद करती हो?' आदि-आदि
 मेरे पेट में ऐंठन और 
                    उमड़-घुमड़ शुरु हो गई, मुँह में खट्टा और कसैला पानी भरने 
                    लगा, एक हाथ से पेट पकड़े दूसरे से मुँह दबाए मैंने दयनीय स्वर 
                    में कहा, 'मुझे उल्टी आ रही है। गाड़ी रोको प्लीज़।' उसने एक 
                    बार फिर मुझे गहरी नज़र से देखा। मेरा चेहरा ज़र्द और बेजान हो 
                    रहा था। खिड़की का शीशा गिराते हुए ट्रैफ़िक लाइट से कुछ पहले 
                    उसने झटके से पास की गली में गाड़ी मोड़ दी,'थैंक गॉड, तुमने मुझे पहले ही आगाह कर दिया, अगर कहीं मैंने 
                    मोटर-वे ज्वाइन कर लिया होता तो मुसीबत हो जाती। मेरा घर पास 
                    में ही है। मैं तुम्हें अपने घर ले चलती हूँ। वहाँ मैं तुम्हें 
                    उल्टी रोकने वाली गोली दूँगी। बस थोड़ी देर में तुम ठीक हो 
                    जाओगी।' मुझे सहज करने के लिए वह मुस्कराई, उसके प्रति मेरे 
                    विचार में बदलाव आया, मुझे लगा यह सोशल वर्कर दूसरे सोशल 
                    वर्करों की तरह असंवेदनशील और असंपृक्त नहीं है।
 थोड़ी ही देर में हम उसके घर पहुँच गए।
 जैसे ही कार रुकी, मेरे साँस 
                    में साँस आई, बाहर निकलते ही मुझे दो-तीन छोटी-छोटी डकारें आई 
                    और मैं कुछ बेहतर महसूस करने लगी। मैं समझती थी कि सोशल 
                    वर्करों के घर साफ़-सुथरे और व्यवस्थित होते होंगे क्यों कि वे 
                    दूसरों के घरों के निरीक्षण करतीं है। पर यहाँ तो नज़ारा ही 
                    दूसरा था। मिस हावर्ड के रसोई की आलमारियाँ में से कोई खुली, 
                    तो कोई बंद थी। चारों तरफ़ जूठे गिलास, मग, तश्तरियाँ और खाने 
                    पीने के अधखुले पैकेट बिखरे हुए थें। ढूँढ-ढाँढ कर किचन 
                    कैबिनेट की ड्रॉर से उसने एक पुरानी-सी डिब्बी में से दो 
                    गोलियाँ निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए पानी का गिलास पकड़ाया 
                    और कहा, 'लो इन्हें गटक लो।' दवा का पैकट मुड़ा-तुड़ा और बदरंग था। भगवान जानें, कितनी 
                    पुरानी गोली है? शायद इसकी तारीख़ भी निकल चुकी होगी। सोचते 
                    हुए मैंने कहा 'नहीं अब मैं बेहतर महसूस कर रही हूँ, मुझे 
                    गोलियों की अब कोई ज़रूरत नहीं हैं।' और मैंने गोलियाँ रसोई के 
                    वर्क-टॉप पर रख दीं।
 मिस हावर्ड ने मेरी हिचकिचाहट 
                    भाँप ली, और हँसते हुए बोलीं, 'मैं तुम्हे ज़हर थोड़े न दे रही 
                    हूँ ये यात्रा में उल्टी रोकने की गोलियाँ हैं। खा लो, अभी 
                    रास्ता लंबा है। इनकी तारीख़ें अभी निकली नहीं हैं।' मेरे पास 
                    गोलियों को निगलने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं था। वह मेरे 
                    सिर पर खड़ी थी। गोली निगलने के थोड़ी ही देर बाद मुझे आराम 
                    महसूस हुआ। मेरे ज़र्द चेहरे की रंगत बदली और हम गाड़ी में 
                    वापस आ कर बैठ गए। मोटर-वे पर जब मिनी साठ और सत्तर के रफ़तार 
                    से दौड़ी तो मुझे झपकी आ गई। मेरी नींद तब खुली जब मिस हावर्ड 
                    गाड़ी रोक कर किसी राहगीर से असेस्मेंट सेंटर का रास्ता पूछ 
                    रही थी। थोड़ी ही देर में तीन-चार ट्रैफिक लाइट पार कर हम 
                    यॉर्क-शायर पत्थरों से बने एक विशाल भवन के ऊँचे गेट पर पहुँचे 
                    जिसके चारों-ओर ऊँचे फ़ेन्स लगे हुए थें। गेट के दोनों ओर 
                    कोनिफ़र के ऊँचे पेड़ प्रहरी से खड़े थे। बीच रास्ते पर लाल 
                    बजरी बिछी हुई थी। जब तक मैं अलसाई-आलसाई गाड़ी से उतरूँ, सोशल 
                    वर्कर ने आगे बढ़ कर दरवाज़े की घंटी बजा दी। काली जीन्स और 
                    पीली टी-शर्ट पहने भूरे घुँघराले बालों वाले एक साधारण कद-काठी 
                    के आदमी ने हँसते हुए 'हाय यंग लेडीज़' कहते हुए हमारा स्वागत 
                    किया। गाड़ी से उतरते हुए मैं सोच रही थी कि कहीं यहाँ की 
                    बागडोर भी तो कड़वैल ननों जैसे लोगो के हाथ में नहीं है? पर उस 
                    आदमी की पोशाक, हँसमुख चेहरे और आकर्षक बात-व्यौहार को देख कर 
                    लगा कि शायद मेरी सोच ग़लत रही है। उस आदमी ने आगे बढ़कर मुझसे और मिस हावर्ड से हाथ मिलाते हुए 
                    कहा, 'वेलकम टु एजहिल असेस्मेंट सेंटर।' फिर उसने मेरी तरफ़ 
                    देख कर कहा, 'हाय मिस रॉजर्स।' पहली बार किसी ने मुझे इतने आदर 
                    से संबोधित किया था। वह आदमी मुझे अच्छा लगा।
 अभी हम अंदर आकर उस लाउँजनुमा 
                    कमरे में बैठे ही थे कि उसका एक दूसरा साथी लाल-हरे बालों की 
                    पोनी टेल बाँधे, पीले टी-शर्ट और डंगरी में लॉरल (लॉरल एंड 
                    हार्डी- अमेरिकन कॉमेडियन) जैसी हास्यप्रद हरकतें करता, अधसोया, 
                    आँखे मिचमिचाता जंभाई लेते हुए मेरे सामने वाली कुर्सी पर 
                    लड़खड़ाते हुए आ कर बैठ गया। थोड़ी देर वह अपनी काली चमकीली 
                    आँखें गोल-गोल घुमाता, पलके झपकाता मुझे देखता रहा, फिर हाथो 
                    से प्याला बना कॉफी सुड़कने का अभिनय करते हुए दाँत निपोरता 
                    हुआ बोला, 'कॉफी?' इसके पहले कि मैं कुछ कहूँ, 
                    उसने परक्यूलेटर में से कॉफी निकाल कर मेरे हाथो में लाल रंग 
                    का एक मग पकड़ा दिया, फिर सिपाहियों की तरह सैल्यूट मार कर, 
                    टेढे-तिरछे कदम रखते इधर-उधर हो गया। अजीब जोकर है इसे तो सरकस 
                    में होना चाहिए, सोचते हुए मैं हँस पड़ी। यह कैसी जगह है? इस 
                    जगह का परिवेश तमाम उन जगहों से पूर्णतः भिन्न था जहाँ मैं अभी 
                    तक समय-समय पर रही थी। फिर ज़रा ही देर बाद उस जगह का अजनबीपन 
                    मुझे भयभीत करने लगा। मुझे ठंडा पसीना आने लगा। उस बड़े से 
                    कमरे में अपने-आपको अकेले पाकर मैं इस कदर नर्वस हो गई कि मेरी 
                    रुलाई छूट पड़ी। मन में जाने कैसे-कैसे संशय उभर रहे थें। इस 
                    बीच सोशल वर्कर जाने कब मेरी फ़ाइल लेकर पीले टी-शर्ट वाले 
                    आदमी के साथ उसके आफ़िस में खिसक गई। साउँड-प्रूफ ऑफिस का 
                    दरवाज़ा पूरी तरह बंद था। पर फिर भी 'ज़िद्दी', 'असभ्य' 
                    'मंद-बुद्धि', और 'काहिल' जैसे शब्द अपने-आप मेरे कानों में 
                    प्रविष्ठ होते चले गए। शायद वह लोग मेरे ही बारे में बातें कर 
                    रहे थे। अभी दस मिनट ही बीते होंगे कि सोशल वर्कर अपना 
                    ब्रीफ़केस लिए बाहर आ गई। चलते-चलते उसने पीले टी-शर्ट वाले से 
                    हाथ मिलाते हुए कहा, 'फिर मैं चलती हूँ, अब यह तुम्हारे 
                    संरक्षण में। गुड लक मेट!' फिर पलटकर मेरी ओर देखकर वह 
                    मुस्कराई, हाथ हिलाया और फटाफट गाड़ी स्टार्ट कर चलती बनी। 
                    जाने क्यों उसकी मुस्कराहट मुझे अच्छी नहीं लगी, 'ब्लडी सोशल 
                    वर्कर!' मैंने मन ही मन उसे गाली दी।  पीले शर्टवाला शायद वहाँ का 
                    मैनेजर था, उसने मेरे बाहों को थपथपाते हुए मुझे अपने कमरे में 
                    आने को कहा जो कि उसका ऑफ़िस था। आफ़िस के सामने वाले दीवार पर 
                    एक बड़ा चार्ट टँगा हुआ था जिस पर कई नाम लिखे हुए थें। इन 
                    नामों के बगल में विभिन्न रंगों के चिप्पड़ लगे हुए थें। अब 
                    मेरा नाम भी इस लिस्ट में जुड़ जाएगा, पता नहीं किस रंग की 
                    चिप्पड़ मेरे आगे लगेगी, मैंने सोचा। बाद में मुझे इन चिप्पड़ो 
                    के 'कलर कोड' के अर्थ का पता चला कि ये चिप्पण विभिन्न सेवाओं 
                    के द्योतक थे जैसे साइकैट्रिक, साईक्लोजिस्ट, स्पीच थेरैपी, 
                    स्पेशल हेल्प आदि..आदि।  |