दिन ३
आज शनिवार है। आज के दिन ऋचा
का फ़ोन ज़रूर आता है माँ-पिता के पास। रात के दस बज गए है।
माँ फ़ोन के पास बैठी इंतज़ार कर रहीं हैं। सामने टी. वी. चल
रहा है। पिता जो दुपहरी भर सोते रहे, अब एक दम तरोताज़ा है।
''ऋचा का फ़ोन क्यों नहीं आया अभी तक...''
''ज़रा देर से सोके उठी होगी। उनकी छुट्टी का दिन है ना। अभी
क्या बज रहा होगा वहाँ?''
''कुल साड़े दस घंटे का अंतर है। रात का दिन कर दो और दिन का
रात।''
''ऐसे कैसे वहाँ जाके वक्त बदल जाता है?''
''पृथ्वी घूमती है तो जहाँ सूर्योदय पहले होता है वहा का समय
आगे रहता है। अमरीका पश्चिम में है तो वहाँ सूरज देर से निकलता
है।''
माँ ये बात अनगिनत बार पूछ चुकी हैं पर फिर भी अचानक पूछ लेती
हैं। पिता भी हर बार इस तथ्य का खुलासा करते हैं। वो भी भूल
जाते हैं कि माँ को ऐसा सब वो पहले भी समझा चुके हैं।
''ये फ़ोन में आवाज़ कैसे आती है?'' ये बात माँ ने आज पहली बार
पूछा। पूछते वक्त माँ की दृष्टि टेलिफ़ोन के तार तक गई। जो तार
रिसीवर से होता हुआ सेट में घुस गया था और फिर उससे होता हुआ
दीवार में एक गोल प्लास्टिक के ढक्कन के भीतर गुम हो गया था।
पिता सोच में पड़ गए। कैसे बताएँ! साइंस का मामला है।
''ये आवाज़ अतंरिक्ष से आती है।''
माँ का दिल धक्क से हो गया। उन्हें अंदेशा था कि ज़रूर कोई
बहुत बड़ी चीज़ होगी -जैसे समुद्र के नीचे का तार। पर अंतरिक्ष
तो उन्होंने नहीं सोचा था।
''अरबों-खरबों आवाज़ें जो हम बोलतें हैं। वो सब टेलीफ़ोन
एक्चेंज से अंतरिक्ष में चली जाती हैं। वहाँ से उपग्रह उनको
वापस अमरिका के एक्सचेन्ज में भेज देता है। वहाँ तार से वो
घर-घर पहुँचती है।'
माँ को बहुत आश्चर्य हुआ। इतनी सारी आवाज़ें एक साथ उपर जाती
हैं। वो आपस में मिलती-जुलती नहीं है।
''इतनी बातें, इतनी संवेदनाएँ हमारे बीच से उठ रहीं हैं और
अपनों तक पहुँच रहीं हैं। तो सारा आकाश हमारी बातों से भरा हुआ
है क्या?''
''हूँ! सोचने पर अचम्भा होता है पर ये सच है।''
''कैसे होता होगा। मैंने फ़ोन पे ऋचा का नाम लिया। मेरी आवाज़!
मेरी ऋचा शब्द से भरी आवाज़! उस क्षण एक तार से होती हुई
एक्सेचेंज की छतरी से हवा में चली गई। वो शब्द हवाओं में मुड़ा
होगा। बारिशों में भीगा होगा। चिड़ियों के पंजों से टकराया
होगा फिर अंतरिक्ष के अंनत अंधेरे में उपग्रह के पास पहुँचा
होगा।''
पिता हँसने लगे। उन्होंने माँ का सिर अपनी गोद में रख लिया।
माँ खिड़की से बाहर देखने लगी। वहाँ काला आकाश था। चाँद, तारे
और बादल। वो उस उपग्रह को खोजने की कोशिश करने लगी जिससे होकर
ऋचा की आवाज़ आने वाली है।
''चलो अब खाना खा लेते हैं।''
''मैं सोच रही थी कि एक बार उसका फ़ोन आ जाए तो फिर आराम से
रोटियाँ सेंक दूँ। सेकते वक्त फ़ोन आता है तो बहुत हड़बड़ी हो
जाती है।''
''बात तो ठीक है, थोड़ी देर और देख लो। सब्ज़ी क्या है?''
''लौकी की तरकन वाली सब्ज़ी है और जीरा छुकी दाल है।''
''ऋचा को लौकी बिल्कुल पंसद नहीं, तभी उसका फ़ोन नहीं आया
है।''
''हाँ! ज़रा भी हाथ नही लगाती थी। लौकी के नाम से एकदम भन्ना
जाती थी।''
''तुम्हें याद है जब ये ६-७ साल की थी तो नई-नई हिन्दी सीख रही
थी। हम सब मेज़ पर बैठे थे और खाना लग रहा था। ये तन्न से बोली
थी, ''पापू आज से हमने लौकी का बलात्कार कर दिया है। उसने
बहिष्कार को बलात्कार बोल दिया था।''
हम लोग ना हँसने के ना कुछ बोलने के। अम्मा ने क्या आँखे दिखाई
थी इसको।''
पिता की आँखों में बहुत पुराना एक चित्र घूम गया। ऋचा डर के
उनकी गोद में आके छिप गई थी।
माँ जैसे ही रसोई को जाने को उठी कि ट्रिंग-ट्रिंग करके फ़ोन
की घंटी बजने लगी।
''लो! जैसे ही उठने का नाम लिया और इसका फ़ोन आया। इससे तो
पहले ही उठ जाती।''
पिता ने फ़ोन उठाया, ''हैलो।''
दिन ७
''उनकी आँखे अब तक खुली
होंगी।'' माँ ने ना जाने किसको याद करके ये कहा।
''क्या हुआ है नींद नहीं आ रही क्या?''
''हूँ।''
पानी पियोगी।
''नहीं।''
''थोड़ी देर टहल लो।''
''नहीं बस ऐसे ही लेटे रहने को मन हो रहा है।''
''तबीयत तो ठीक है।''
''पता नहीं।''
माँ ने मुँह के उपर चादर उठा दी और बिस्तर पर औंधी लेट गईं।
''वृन्दा भाभी की सोच रही हो क्या?''
''नहीं! उनकी क्यों सोचूगी! उन्हें तो गए हुए हफ्ते से उपर हो
गया।''
''हूँ! इसका मतलब उनकी ही सोच रही हो।'' माँ ने पिता की ओर
करवट ली और पिता के कंधे पर सिर रख लिया।
''जिसका वक्त आ गया, आ गया।''
''पर आखिरी वक्त कैसे कोई भी नहीं था उनके पास।''
''कोई क्यों नहीं था। सब तो थे।''
''पर उनके बच्चे तो नहीं पहुँच पाए। एक महीना हस्पताल में रही।
क्या इतना वक्त काफी नही था दोनों लड़कों के लिए?''
''दूसरा देश दूसरा देश होता है। वो बम्बई-कलकत्ता जैसा दूर
नहीं है कि टिकट कटाओ और चल दो घर।''
''बताते हैं, दोनों रोज़ फ़ोन करते थे घण्टों-घण्टों। उनका मन
यही रखा हुआ था।''
''देखा ना! कोई भूल थोड़े ही गए थे माँ को, पर परिस्थिति ने
आने नहीं दिया होगा।''
''सही बात है। माँ तो माँ है। बच्चों के दिल पे क्या बीत रही
होगी ये किसी को क्या पता।''
माँ फिर सीधी होके लेट गई। अब पिता ने करवट ली। माँ को लगा
शायद अब वो उनका कंधा माँग रहे है सिर रखने को। उन्होंने हाथ
सीधा खींच दिया। पिता बहुत दिन बाद, शायद बहुत बरसों बाद माँ
के कंधे पर सिर टिकाने के बाद चुप हो गए। माँ ने इस बात को
सोचा तो उनका ध्यान बँटा।
''क्या बात है? आपकी तबीयत ठीक है न।''
''क्यों! मेरी तबीयत को क्या हुआ।'' पिता ने शीघ्रता से अपना
सिर वहाँ से हटा लिया।
''क्या बेचैनी हो रही है।''
''नहीं तो...''
तो फिर आप ऐसे अलग से क्यों लग रहें हैं?''
''अलग से?''
माँ ने पिता के माथे पर हाथ फेरा। उस पर पसीने की बूँदे छलक
हुई थीं और वो बर्फ़ की तरह ठण्डा हो रहा था।
''चलो उठो! मुझे आपकी तबीयत ठीक नही लग रहीं।''
''अरे! मैं बिल्कुल ठीक हूँ। थोड़ा शरीर में दर्द है बस।''
''कैसा दर्द है? ये पसीना क्यों आ रहा है?''
''कुछ बात नहीं है, बस ज़रा-सा पानी दे दो, थोड़ी देर
सोफ़े पे
बैठ जाता हूँ।''
''चलो उठो! मैं कुदल भैया को फ़ोन करती हूँ।''
''फ़ोन से क्या होगा! वैसे भी कुंदन शहर से बाहर है।''
''मैं डॉ. आशीष को फ़ोन करती हूँ।''
''डॉ आशीष...'' पिता की बात बीच में अधूरी छूट गई। उनका चेहरा
पसीने में पूरा भीग गया और हाथ छूटने लगे।
''क्या हुआ है आपको।'' माँ हड़बडाई। उन्हें अंधेरे में ठीक से
कुछ नहीं सूझा। कपड़े समेटती हुई पलंग से उतरी। उनके हाथ
लपककर दीवार पर लगे बिजली के स्विचों के ओर पड़े। एक बार में
पाँच-छ: स्विचों के कड़कने की ध्वनि हुई। पता नहीं कौन-कौन से
उपकरण आवाज़ करने लगे। टेलीफ़ोन का चोगा कान से सटा के वो
डायरी में नम्बर ढूँढ़ने लगीं।
पिता सोफ़े पे बैठ गए। छाती
में भीषण दर्द उठा और शरीर ने उन्हें कई दफ़े ज़ोर से उछाला।
माँ ने इससे भयानक चित्र अपने जीवन में नहीं देखा था। उन्हें
लगा कि वो अभी पछाड़ खाकर गिर जाएँगी। पर ऐसा हुआ नहीं। वो भाग
के पिता के पास आई। तो फ़ोन ज़मीन पर जा गिरा। वो तार खींचती
हुई सोफ़े पे लपकी। पिता निढाल हो चुके थे। उनका हाथ छाती पर
जा टिका। बदहवासी में उन्हें समझ नहीं आया कि वो बाईं ओर धड़कन
सुने या दाईं तरफ़। इतने में फ़ोन के चोगे से धीमी-सी आवाज़
आई। माँ ने अपनी सारी हिम्मत बटोरी। फ़ोन पे दूसरी तरफ़ एक
बच्चे का स्वर था-
''आप कौन है?''
''डॉ. आशीष! डॉ. आशीष बोल रहें है।''
''पापा तो घर में नहीं है। रात से लौटे नहीं है। आप कौन?''
माँ के लिए क्षण स्थिर हो गया।
''आप कौन?''
''मैं ऋचा की माँ बोल रहीं हूँ।''
फ़ोन हाथ में जड़ हो गया।
''अच्छा! मैं मम्मी को बुलाता हूँ।''
''बुला दो बेटा!''
दूसरी तरफ़ से एक औरत का स्वर उभरा।
दिन १०
अस्पताल में माँ पिता के साथ
बात कर रहीं थीं।
''जूस पीने को बता दिया है अब।''
''पता नहीं और कितने दिन भूखा रखेंगे।''
''दो-तीन दिन की और बात है।''
''ऋचा कब आ रही है?''
''अगले रविवार को दोनों आ रहे हैं।''
''तुम्हें उन्हें बताना नहीं चाहिए था नाहक परेशान किया।''
''उसे नहीं बताती तो क्या उसे पता नहीं चलता।''
''बता देते, पहले ठीक तो हो जाता।''
''कितने दिन से नहीं सोई हो?''
''सोने का क्या है?''
''आँखे लाल हो रहीं है तुम्हारी।''
''सब ठीक है। ईश्वर की कृपा है।''
''ऋचा कितने दिनों बाद आ रही है न...''
''पूरे दो साल बाद।''
''अगर वो ऐसे ही बीमारी पे आने लगे तो मैं हर छ: महीने में
हस्पताल जाने लगूँ।''
माँ को मज़ाक पसंद नहीं आया।
''अगली बार हस्पताल मेरी अर्थी उठवा के जाना।''
''अरे शुभ-शुभ बोलो।''
''आओ! बगल में बैठ जाओ।
''मैं नहीं बैठती।''
''नाराज़ जो गई।''
''नहीं बहुत खुश हूँ।''
''आओ तुम्हारा भी लाड़ कर लूँ।''
''लडैत़ी तो मैं अपने बाबूजी की थी।''
''तुम मेरी भी हो।''
''और तुम्हारी नहीं! तुम्हारी अम्मा की...।''
''देखो अम्मा को बीच में मत लाओ।''
माँ ने जैसे अपनी आँखों की ज्योति समेटी। वो एक टक पिता को
देखती रहीं कुछ देर तक उसके बाद।
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