|  ''कौन कहता है कि तुम्हारा बचपना चला गया? वो तो अड़ोस-पड़ोस 
                    के नाती-पोते दौड़े रहते है इसलिए बड़प्पन बनाए रहती हो। वरना 
                    तुम्हारा बस चले तो तुम गोद में ही छिपी रहो।'' ''गोद में! किसकी गोद में?''
 ''मेरी और क्या पड़ोसी की?''
 ''क्या बोल रहे हैं आप। मैं कब आपकी गोद में आई। अब बुढापे में 
                    यही सब रह गया है मुझे करने को।''
 ''किसका बुढापा! बूढ़े होंगे तुम्हारे दुश्मन, तुम तो आज भी 
                    ऐसी लगती हो जैसी ब्याह के लाया था तुमको।''
 ''हाँ! और नहीं कुछ! ये ढलती हुई खाल देखी है। ये आँखों का 
                    चश्मा देखा है। ठीक से साड़ी-कपड़ा न पहनू तो पक्की दादी-अम्मा 
                    लगूँ।''
 पिता खुद 
                    बिस्तर पर आ गए। सिरहाने तकिया लगाया और माँ का सिर अपनी गोद 
                    में रख लिया। माँ भी गुड़-मुड़ाई, घुटने समेट के पेट की तरफ़ 
                    मोड़ लिए दोनों हाथों को छाती में समेट लिया और वहीं पति की 
                    गोद में दुबक गई। पिता ने माँ के सिर पे हाथ फेरा, ''अब बोल! 
                    कौन बच्चा है यहाँ?''माँ ने कुछ नहीं कहा हँसी और आँखे बंद कर ली।
 ''तुम्हे याद है, कैसे 
                    चुहिया-सी हुई थी ये। बोड़े की फली-सी पतली-पतली उँगलियाँ थी 
                    इसकी। नन्ही-नन्ही आँखें। एक हथेली में पूरी समा गई थी इसकी 
                    देह।फिर सात दिन वेन्टीलेटर पर रखा था। मुझे भी देखने नहीं देते थे 
                    किसी किसी दिन तो। मैं, कमज़ोरी से आधी देह, बाहर शीशे से इसको 
                    देखती थी। रोज़ बोलती थी, ''आई हो तो रुक जाना। इतनी जल्दी 
                    क्या है लौटने की।''
 अम्मा आतीं थीं तो बोलतीं थीं, ''मरोगी तो नाय?'' और ये हँस 
                    देती थी।
 ''उस ज़माने की औरतें लड़कियों को ऐसे क्यों खिलातीं थी?''
 ''अरे जाने दो। तुम भी बीसियों साल पुरानी बातें लेके बैठ गई। 
                    वो ज़माना ही ऐसा था।''
 ''तुम्हें याद है इसके होने पर तुम कितना रोए थे।''
 ''मैं रोया था! कब?''
 ''चलो बनों मत।''
 ''मानों पानी पड़ रहा था उस दिन और तुम बारिश में लतर-पतर आए 
                    थे जाने कहाँ से। सारे शरीर से पानी चू रहा था। मैं तो आँखे भी 
                    ठीक से नहीं खोल पा रही थी। तुम्हे देख के घबरा गई थी। फिर जब 
                    तुम्हे उसे देखने की इजाज़त नहीं मिली तो तुम फूटफट के रोयें 
                    थे।''
 पिता के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान दिखाई दी। आँखे शून्य में 
                    स्थिर हो गई। उन्हे उस दिन अपने भावुक होने का पहली बार पता 
                    चला था।
 ''क्या करता। एक तो अचानक तुम हस्पताल में भरती। ऊपर से तार से 
                    सूचना मिली मुझे। मैं तो घबरा के कानपुर से भागा था।''
 माँ थोड़ी देर के लिए खामोश हो गई। अठारह की उम्र में पहली 
                    लड़की- अपनी ऋचा। क्या भयानक दर्द था। साल भर पहले तक कालिज की 
                    नई-नवेली सहेलियों के साथ चाट-पकौड़ी खाया करती थी। कहाँ अब ये 
                    गर्भ और जन्म। कैसे सम्हाला था मैंने ये सब। ईश्वर ही जानता 
                    है। माँ की आँखे झपकी। विचारों का प्रवाह दूसरी दिशा में हो 
                    गया।
 ''इसका ब्याह भी क्या खूब हुआ। कितनी सुंदर लग रही थी ये उस 
                    दिन।''
 पिता ने उँ हूँ किया।
 ''मैंने लहंगा पसंद किया था। वो साड़ी वाला तो पता नहीं 
                    क्या-क्या दिखा रहा था। हरे-नीले रंग। शादी में कोई दुल्हन 
                    हरे-नीले कपड़े पहनती है क्या। ऊपर चुन्नी में काली धारियाँ 
                    काली धारी वाले कपड़े तो वैसे ही सुहागिनों को नहीं पहनने 
                    चाहिए।
 और यहाँ तो शादी-ब्याह का मामला।''
 ''तुमने भी उस दिन हद कर दी थी।'' पिता शाबासी की लिपी में 
                    मुस्कुराएँ।
 ''सौ-ढेड़ सौ लहंगे-चोली देख डालें। शहर की इतनी बड़ी दुकान के 
                    मालिक से लेकर पानी पिलाने वाले छोकरों तक, सब तुम्हारी खातिर 
                    तवाज़ों में जुटे थे। ये कपड़ा दिखाओं, वो सिल्क, ये झरी, वो 
                    गोटा, ये बार्डर। न जाने क्या-क्या। शुक्र मना रहे होंगे हमारे 
                    जाने पर।''
 'शुक्र! और नहीं तो! इतनें सब कपडे ख़रीद डाले उसका क्या?'
 ''सच में! ख़रीद डाले थे या देख डाले थे।''
 ''तो क्या ख़रीदे नहीं थे? पर ऋचा को जो पसंद आया उसके शेड भी 
                    नहीं मिले उसके यहाँ। छोटे शहरों की यहीं कमी है। अभी 
                    लखनऊ-दिल्ली हो तो देखो क्या एक से एक वैराइटी दिखाते हैं।''
 ''सही बात है।''
 माँ को शादी के दृश्य याद आने लगे। उन्हें अपनी पसंद वाला लाल 
                    लहंगा याद आया। कितनी प्यारी लग रही थी ऋचा उसमें। फिर उन्हें 
                    याद आए फेरों के दृश्य जिनमें ऋचा पीली रेशमी साड़ी में अग्नि 
                    के सामने पति के साथ बैठी थी। फिर उन्हें याद आई विदा। लाल 
                    साड़ी में लिपटी ऋचा ने रो-रो के सारा सिंदूर माथे पे लिपटा 
                    लिया था।
 ''मैं भी कैसे बिखर के रोई थी उस दिन।''माँ की आँखों में आँसू 
                    आ गए।
 पिता ने माँ की आँखों को टटोला। उनमें लबालब भरी हुई बूँदे थी। 
                    उनकी ऊँगलियाँ गीली हो गई।
 ''तुम माँ-बेटी की ये रोने की खूब आदत है। अभी क्यों रो रही 
                    हो?''
 '' कुछ नहीं ऐसे ही।''
 पिता को कुछ ध्यान आया। वो हँसे। याद है उस दिन ड्राइंगरुम में 
                    बैठी तुम दोनों कैसे रो रही थीं।
 ''किस दिन?''
 ''अरे! उस दिन ही जब ऋचा ने पहली बार प्रतीक के बारे में तुमसे 
                    कहा था।''
 ''हाँ! मेरी तो छाती धक्क से हो गई थी। लगा था प्रलय हो गई। 
                    कैसे-कैसे पाल-पोस के बड़ा किया और लड़की अपनी शादी खुद करने 
                    को तैयार! मैंने उससे कह दिया था तुम्हारे पिता जान दे देंगे 
                    अगर उस लड़के का नाम लिया तो। वो चुप हो गई थी। तुम्हारे अचानक 
                    आ जाने पर जाने क्या बहाना किया था हमने।''
 ''मैं सब समझ गया था उसी वक्त पर थोड़ा बहुत तो मैं भी घबरा 
                    गया था।''
 ''बेटी की ऐसी बात से कौन नहीं घबरा जाएगा।''
 ''नहीं ऐसा नहीं हैं। बच्चों को ठीक से पढ़ा लिखा दो ये हमारा 
                    काम है बाकी वो जाने।''
 ''तुम्हारी ऐसी बातों से मुझे डर लगता है। अब ऋचा की लड़की तो 
                    उससे भी एक ज़माना आगे निकलेगी। वो तो पता नहीं क्या-क्या 
                    करेगी?''
   दिन २ माँ सवेरे सो के उठी तो पाया 
                    पिता पहले से ही उठे चुके थे। पिता को सैर की आदत थी। मुँह 
                    अंधेरे निकल गए थे। इन गलियों में बरसों बरस बीत गए है उनके 
                    जीवन के। सब परिचित लोग। लोगों की पीढ़ियाँ उनके सामने बड़ी 
                    हुई है। सामने की हलवाई की दुकान से गरमा-गरम जलेबी तुलवाई, 
                    दही लिया और घर की तरफ़ चल दिए। जलेबी और तर माल के क्या शौकीन 
                    रहे हैं वो पर आजकल सब कम हो गया है। कभी कभार मुँह में चटखार 
                    आने पर ले आते हैं वरना सेहत के कारण सब मना है। बहुत पहले ऋचा 
                    के साथ आते थे इसी दुकान पर। पैयां-पैया दौड़ती थी ऋचा सारी 
                    सड़क पर दलेबी-दलेबी करती हुई। दुकान पे पहुँच के ऐसी मचलती थी 
                    कि सम्हालना भारी पड़ जाता था। कल माँ के साथ ऋचा की खूब बातें 
                    हुई हैं। सो मन में उसका ध्यान कुछ ज़्यादा गीला है। वो 
                    आते-आते यही सोच रहे है कि अब कितने महीने हो गए हैं उसे देखे 
                    और कितने महीने और है उसके आने में। पिता माँ को आवाज़ देते 
                    हुए घर के अंदर घुसे।माँ नहा-धो के तैयार बैठी थी। पिता के हाथों में जलेबी और दही 
                    देख के एकदम बोली-
 ''ये आप क्या ले आए?''
 ''कुछ नही ऐसे ही मन कर रहा था।''
 '' आप भी जैसे मन की सब पढ़ लेते हैं। मैंने सुबह सुबह एक सपना 
                    देखा है।''
 ''कैसे सपना?''
 ''बताती हूँ - ऋचा यहाँ आई हुई है प्रतीक के साथ। भूखी है। हम 
                    लोग कही और हैं। किसी दूसरे शहर में रि तेदारों के साथ, पता 
                    नहीं कौन-कौन से लोग हैं। अम्मा बाबू जी, दीदी और न जाने 
                    कौन-कौन बच्चे। सब सुबह-सुबह ढेर सारा ना ता खा रहे है। अपनी 
                    अपनी प्लेट लगाए घूम रहें है।
 ऋचा आई है और उसने ब्रश भी नहीं किया है तब तक। वहाँ लोगो की 
                    भीड़ बढ़ती जा रही है। वहाँ कुछ गोल-गोल सफेद रंग की कोई बड़ी 
                    सुंदर-सी चीज़ है जो बड़ी तेज़ी से खत्म होती जा रही है। उसने 
                    मुझसे कहा कि माँ ये आप मेरे लिए बचा के अपनी प्लेट मे रख लो 
                    तब तक मैं ब्रश कर के आती हूँ।''
 माँ अपने सपने में पूरी तरह डूब गईं। पिता खामोश सुनने लगे।
 ''मैंने उस चीज़ को अपनी प्लेट में रख लिया पर एक टुकड़ा तोड़ 
                    के खा लिया। ऋचा को मुझ पर गुस्सा आ गया। बोली, ''मैंने इसे 
                    आपके पास बचाने के लिए रखा था पर आप तो इसे खुद खाने लगीं। 
                    जाओ! मैं अपनी प्लेट अलग लगा लेती हूँ। ऋचा ने बिना कुल्ला 
                    किये खाना भी शुरू कर दिया है पर प्रतीक भूखे है। मैं रोने लगी 
                    हूँ। इतने में आप गरमा-गरम पूड़िया लेके आ गए। वहाँ इतने लोग 
                    हैं कि ट्रे मे पूड़ियाँ आते ही ख़त्म हो जाती हैं। आपने चार 
                    पूड़िया कहीं से झपट ली हैं और ऋचा को देदी और कहा कि प्रतीक 
                    को खिले दो। ऋचा पूड़िया प्रतीक को देने बाहर गई तो वो उसके 
                    हाथ से छूट गई। वो फिर रोने लगी। तभी किसी ने बताया कि रोने की 
                    कोई बात नहीं है। यहाँ एक हलवाई है वो खूब अच्छी पूड़िया बनाता 
                    है। ऋचा उसके पास गई है और बोल रही है, ''भइया हम अमरीका में 
                    रहते है और हमें अच्छा खाना खाने को नही मिल पाता है। बुहत दिन 
                    हो गए हैं हमें पूड़ी खाए।'' तभी मैं उसे ढूँढ़ती हुई उसी 
                    हलवाई की दुकान में पहुँच गई हूँ। मेरे हाथ में थाली है उसमें 
                    जलेबियाँ है। ऋचा खुशी से बोली, ''अरे वाह जलेबी'' और झट से एक 
                    जलेबी उसने उठा ली है। मैंने बोला है, ''ध्यान से बटा! गरम है। 
                    वो थाली लेके चली गई है। बोल रही है कि प्रतीक भूखे है।''
 माँ चुप हो गई। सारी कथा एक 
                    सॉंस में बोलके शान्त हो गई। पिता के चेहरे का भाव उस सपने के 
                    प्रति शुरू में मज़ाक से होता हुआ गम्भीर मुस्कान में बदल गया। 
                    उन्होने माँ को थपथपाया। ''चलो प्लेट ले के आओ। ऋचा को वहाँ ज़रूर कुछ खाने का जी किया 
                    होगा। इसलिए हमें तुम्हें उसका ध्यान आया''
 माँ विचार शून्य अवस्था में रसोई की तरफ़ मुड़ गई।
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