| संगीता कितनी शिथिल पड़ गई है। मद्रास से दिल्ली तक की यह उड़ान केवल एक घंटे की थी। मगर वह 
                    उठी तो ऐसे जैसे घुटने बरसों से मुड़े हुए हों। जहाज़ की बिचली गली 
                    में, उसके अलावा सबको पहले उतरने की जल्दी थी। आखिर एक भारतीय 
                    सेना का अफ़सर था जिसने उसे आगे चलने का पास दिया वरना वहीं 
                    अटकी खड़ी रहती, बिना चेष्टा किए। फिर एक तरफ़ की रेलिंग पर 
                    दोनों हाथ टेक कर वह धीरे-धीरे एक-एक सीढ़ी नीचे उतरी।
 
                    रीटा को विश्वास नहीं हुआ कि यह 
                    वही संगीता है जो अभी केवल पाँच वर्ष पहले तक नौकरी और गृहस्थी 
                    दोनों निबाहती रही है। दिल्ली में पूरे समय के नौकर अब मिलते 
                    ही कहाँ हैं। एक बर्तन सफ़ाई वाली लगा रखी थी। शायद अवकाश ले 
                    लेने के बाद मानसिकता बदल जाती हो। बेटी की शादी हो गई है। 
                    बेटा बाहर चला गया। कोई ज़िम्मेदारी ख़ास बची नहीं है। मन में 
                    मान बैठी है कि आराम करने की उसकी उम्र है अब। इससे तो नौकरी 
                    ही भली थी। बेकार जल्दी छोड़ दी। ऊँह! रीटा को क्या! चलने दो 
                    इसे अपनी रफ्तार पर! इसके कारण वह क्यों थम जाए? इसीलिए जहाज़ पर से उतरने में 
                    उसने अपेक्षाकृत अधिक तत्परता दिखाई। पुष्पक की यह एक यादगार 
                    उड़ान थी।  |