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फिर किंचित रोष से फटकार लगाई।
''किसी की तो मानो। मुझसे कपड़े लो और बदलकर सो जाओ। सुबह देखेंगे।''
''मेरी ब्लडप्रेशर की दवाई भी उसी में है। अब क्या खाऊँगी?''
''ताला लंदन का है तो मेरी कोई ताली लग जाए शायद। इस तरह ताला टूटेगा भी नहीं और...''
''तुम भले ही करो यह सब। मैं अपने फिंगरप्रिंट उस पर नहीं छोड़ सकती।''
''ओ के! अब तुम एक तरफ़ बैठ जाओ।'' संगीता ने राहत की साँस ली। इतनी मुसीबत में भी सिद्धांतों का बखेड़ा। कितनी अव्यावहारिक है यह। चलो कुछ तो मानी!
किस्मत अच्छी थी। ताला खुल गया।
सूटकेस ऊपर तक काग़ज़ों से व फ़ाइलों से भरा हुआ था। फिर उनके नीचे चार-छह जोड़ी मर्दाने कपड़े थे, जिन्हें देखकर रीटा ने घृणा से मुँह फेर लिया।

पुरुषों के प्रति वह सहज नहीं थी। एक मामूली स्टेनो से आज की मैनेजिंग डायरेक्टर तक का सफ़र निष्कंटक नहीं रहा था। पुरुष-प्रधान कार्यक्षेत्र में वह दिन-प्रतिदिन उनकी धकियाने की वृत्ति से तंग थी। जो उससे अच्छी तरह पेश आते थे उनका स्वार्थ अक्सर कुछ और होता था। अधेड़ उम्र वाले भी पहले बाप भाई बनते थे फिर..। कंपनी के मालिक उसकी काबिलियत से लाखों कमाते थे, फिर भी उसकी तरक्की को अपना दिया उपहार समझते थे न कि उसके द्वारा अर्जित प्रशस्ति।

खिसियाई बिल्ली की तरह गुर्राकर बोली, ''तुम्हीं छुओ इन कपड़ों को। पता नहीं कौन था, कैसा था!''
''भला आदमी लगता है कोई।'' संगीता ने कहा।
''तुम जाने कैसे सबको भला समझ लेती हो। एक को छोड़कर सब भाई लगते हैं तुम्हारे। क्या पता खूनी हो! बदमाश हो। सबसे ज़्यादा लड़कियों की तस्करी दक्षिण भारत से होती है।''
''इसमें हमें क्या? चुपचाप इन काग़ज़ों को पढ़कर उसका पता ढूँढ़ों।''

रीटा ने काग़ज़ों को पढ़ना शुरू किया। बड़े पैमाने पर आँकड़े और इबारतें छपी हुई थीं। वस्तु विशेष में ऊँचे दर्जे का खनिज तेल, औद्योगिक रसायन व गैस सिलिंडर- ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि के विक्रय का खाता था। आयात निर्यात की हुंडियाँ भुगतान आदि थे। कोई मधुसूदन एंटरप्राइजेज नामक कंपनी थी जिसका दफ्तर शिवालिक एन्क्लेव में था। टेलीफ़ोन नंबर भी मिला, मगर रात के एक बजे वहाँ पर कौन फ़ोन उठाता।
सब ढूँढने पर भी व्यक्ति का न तो सरनेम मिला, न व्यक्तिगत फ़ोन नंबर, न पता। रीटा फिर विचलित होने लगी।

संगीता ने धैर्यपूर्वक कपड़ों को एक-एक करके हटाया। एक ओर सँभालकर दक्षिण भारतीय लुंगी, ताँबे का चमकता नया लोटा, उसमें पीला यज्ञोपवीत, चंदन का पूड़ा, नया शंख, रुद्राक्ष की माला, धूप आदि सामान था। एक प्लास्टिक की थैली में जरीपाड़ का रेशमी उत्तरीय रखा था जिस पर दाम का लेबिल लगा था।
संगीता बोली, ''लो देखो। कितना धर्मपरायण आदमी है। तुम सबको बुरा मत समझा करो, दोष लगता है। कपड़े सभी दामी ब्रांड नेम के हैं। बाहर रहकर आया लगता है। पैसे वाला होगा।''

यह कहते-कहते वह सूटकेस के तल तक जा पहुँची, जहाँ मुलायम चम़ड़े का एक ब्रीफकेस टिका हुआ था। इसमें से कुछेक बिल, भुगतान की रसीदें, बैंकों में जमा कराने की रसीदें आदि मिले। बंदा हज़ारों की नहीं, लाखों की बाजी से खेलने वाला था।
दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु थी, एक नोटों का बंडल। संगीता ने गिने, पूरे सत्तर हज़ार थे- पाँच-पाँच सौ के नोटों की एक नई गड्डी और बीस हज़ार ऊपर से।
''लो रीटा, दिल ठंडा कर लो। अगर तुम्हारा सूटकेस नहीं भी मिला तो तुम्हारी रकम तो वापस आई। अब निश्चिंत होकर सो जाओ।''
''बहन जी, नाम पता ढूँढ़ो। मुझे नहीं चाहिए किसी का पैसा।'' रीटा ने आज़िज़ि से कहा।
तीसरी वस्तु निकली एक डायरी- छोटी-सी, परंतु बड़ी व्यस्त!  और चौथे नंबर पर थी इस व्यक्ति के अवा-जाही के टिकट की कंप्यूटर कापी। डायरी में नाम मधुसूदन गुप्ता था। पता फोन नंबर आदि सब नदारद।

टिकट की कॉपी पर उम्र बहत्तर वर्ष लिखी थी, परंतु नाम था 'बृजेश कुमार'। पूरे दाम देकर पंद्रह दिन की वापसी टिकट सीधे काउंटर पर ख़रीदी गई थी। बंदा दो हफ़्ते के लिए चेन्नई के एक पाँच-सितारा होटल में निवास करके वापस आया था।
मगर यह क्या! संगीता के हाथ में एक दवाइयों का पैकेट था। विटामिन, क्रोसीन, डायजीन, एडालैट के पत्तों के साथ वियाग्रा का पूरा पैकेट, जिसकी सात आठ गोलियाँ गायब थीं। संगीता का चेहरा फक हो गया, जैसे भूत देख लिया हो और हाथ से सब कुछ ऐसे झटककर छोड़ दिया जैसे गंदा कुछ लग गया हो।

बस यही नहीं, एक पॉकेट साइज़ की एलबम दवाइयों के थैले से टपक पड़ी। संगीता ने ठगे हाथों से कवर उलटा तो एक के बाद एक पिनअप सुंदरियों के भड़कीले, अर्द्धनग्न, उन्मादक भंगिमाओं में लिए गए फ़ोटो नाम व नंबर सहित उसमें जड़े थे।
रीटा तो बिफर गई, ''देखा ना! मैंने क्या कहा था। बुड्ढ़ा पाजी निकला ना। बड़ी तुम मुझे लोटा-धोती, जनेऊ-शनेऊ दिखा रही थी। ढोंगी! मुझे नहीं चाहिए इसका धन। मैं अपना ही सूटकेस कल वापस लाऊँगी।'' कहते-कहते उसका हाथ गले में पड़ी महीन तुलसी माला को फिराने लगा।

जैसे-तैसे भोर फूटी। नहा-धोकर रीटा ने संगीता का सूट पहना। आठ बजे दोनों पुष्पक के दफ्तर पहुँची। बहुत बहस जतन से समझाया कि ऐसी ग़लती हो जाने पर उनकी भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती है कि ग्राहक की सहायता करें। आखिर उनकी सुनवाई हो ही गई। एक अच्छे से युवा कार्यकर्ता ने अपने कंप्यूटर पर पिछले पंद्रह बीस दिनों की टिकट सेल को चेक किया और बताया कि अक्सर टिकटें बिना पासपोर्ट आदि दिखाए, सीधे खिड़की पर से ही ख़रीदी जाती हैं। विशेषकर तत्काल सेवा के तहत व्यापारी गण स्वयं या सेवकों से टिकटें खरिदवा लेते हैं। अगर किसी सेवक ने अपने ही नाम से खरीद ली हो तो यह भी संभव है, क्यों कि हस्ताक्षर तो उसी को करने पड़ेंगे। संगीता जो प्रशासकीय पद पर तीस वर्ष काम कर चुकी थी, इस उत्तर पर अवाक रह गई।
''आपका मतलब है कि कोई भी ऐरा-गैरा, बिना अपना परिचय पत्र दिखाए किसी भी उड़ान में चढ़ सकता है, कोई आतंकवादी या फरार भी?''
उत्तर मिला, ''हाँ...पर हम लोग सुरक्षा जाँच करते ही हैं।''
''उसका स्तर तो हमें पता ही है।''
रीटा ने व्यंग्य से कहा। हताश दोनों लौट आई।

ग्यारह बजे पुष्पक के दफ्तर से एक गोविंद नेगी साहब का फ़ोन आया। रीटा का सूटकेस लेकर कोई गोयल साहब आ रहे थे। रीटा और संगीता ने देर नहीं लगाई। झटपट टैक्सी में एम. जी. का सूटकेस रखा और पहुँच गई। संगीता ने ही सामान वापस उसी तरह लगाकर ताला बंद कर दिया।
गोविंद नेगी नामक नवयुवक ने उनको सम्मान सहित बैठाया। कोई आधा घंटा बाद एक सफ़ेद टाटा मर्सिडीज़ गाड़ी में काला रेबैन का चश्मा लगाए एक मोटा-सा साँवला-सा अधेड़ उम्र का व्यक्ति आया। गोविंद नेगी ने रीटा व संगीता को एकदम भुला दिया व उसकी अगवानी में दौड़ लिया। गोयल ठेठ दिल्ली वाले लहजे में हिंदी बोल रहा था, परंतु नेगी अंग्रेज़ी में उससे बातचीत कर रहा था। रीटा के घाव पर जैसे नमक छिड़क गया हो. मुँह चिढ़ा कर बुदबुदाई, ''यस सर, नो सर, थ्री बैग्स फुल सर।''

संगीता ने फिर बागडोर सँभाली। अपने संयत दृढ़ स्वर में बोली, '' रीटा तुम चुप रहना। इसे मैं सँभाल लूँगी।''
गोयल साहब ने एक नौकर को डिक्की खोलकर सूटकेस उतारने का आदेश दिया। नौकर खुले हुए ढकने वाला सूटकेस जैसे तैसे उठा लाया। रीटा का सामान उसमें बेतरतीब भरा होने के कारण अंदर बाहर हो रहा था और जिप आधी अधूरी बंद हो पाई थी।
रीटा धीमे से चिल्लाई, ''बदतमीज़!''
संगीता ने आगे बढ़कर नेगी से सख्त किंतु मंद स्वर में कहा, ''हमने सूटकेस का ताला नहीं तोड़ा।''

इसके पहले कि नेगी कुछ बोलता, गोयल साहब आगे आकर रौब से बोले, ''मेरे मामा, मधूसूदन गुप्ता एक इज़्ज़तदार, धर्मात्मा आदमी हैं। अगर ताला ना तोड़ते तो उन्हें पता भी ना चलता कि यह जनाना सूटकेस है। ताला तो मैंने ही तोड़ा है। वह तो कहिए आज अंकल ने यज्ञ करवाना है। पूजा का सभी सामान इसी में बंद है। देखिए न, पंडित जी तो कार में ही बैठे हैं। मैं साथ ही लिवा ले जा रहा हूँ। बाला जी से आ रहे हैं सीधा। हर बरस दो बार जाते हैं। आज अगर यज्ञ ना होता तो अंकल शायद यह सूटकेस हफ़्तों ना खोलते।''
''फिर भी चूँकि ताला तोड़ा गया है, हम पहले अपना सभी सामान चेक करेंगे।'' संगीता ने उनकी ओर न देखते हुए मिस्टर नेगी से कहा।
''अरे आप इतने धर्मपरायण बुजुर्ग पर संदेह कर रही हैं? ताज्जुब है।'' गोयल लगभग चीख पड़ा।
''रीटा अपनी चीज़ें देख लों।'' अंतिम फैसला देते हुए संगीता ने कहा।

गोयल पिटपिटा रहा था। पंडित को देर हो रही थी। रीटा ने सामान चेक किया। ओ.के. बोला, तब संगीता ने एम. जी. का सूटकेस गोयल के हाथ में थमाया। घर लौटते समय दोनों गोयल की नकल उतार-उतार कर हँस रही थीं। रात भर का तनाव उनकी उन्मुक्त खिलखिलाहट में उड़ रहा था।

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१४ जनवरी २००८

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