|  डैडी, 
                    ऑलिवर और ऑस्कर के साथ मम्मी नए घर में खुश थीं। पा भी अलका और 
                    रुचा के साथ अपने घर में खुश थे। लेकिन मुझे लगा था कि मेरे सब मुझे छोड़ गए। न मम्मी मेरी रही, 
                    न पा। ऑलिवर जब मम्मी को मम्मी कहता, तो मुझे ऐसा लगता, मानो 
                    मम्मी ने मुझे हमेशा के लिए छोड़ दिया। मैं जब रुचा से दुबारा 
                    मिली थी, तो वह तीन साल की थी और उसने पा से लिपटते हुए उन्हें 
                    पापा कहा था, तो मेरे आँसू निकल आए थे। मम्मी और पा ने अपने नए 
                    जीवन-साथी चुन लिए थे और दोनों अपनी 'फैमिलियों' में रमने लगे 
                    थे, लेकिन मुझे लगता कि मैं अनाथ हूँ। इसलिए जब पा आते और 
                    प्यार जताते, तो मुझे वह नकली लगता, केवल दिखावा। मम्मी कहतीं, 
                    ''मैं तीनों की मम्मी हूँ, गुड़िया, ऑलिवर और ऑस्कर की, लेकिन 
                    मुझे लगता कि वे झूठ बोल रही हैं। मैं अपने कमरे में जाकर 
                    दरवाज़ा बंद कर लेती। कमरे से ज़्यादा मेरे अंदर अंधेरा हो 
                    जाता और मैं सरदी में भी खिड़की खोल देती। इधर-उधर देखती। सूरज 
                    क्या, सलेटी आकाश में उसकी धुँधली रोशनी तक का आभास न होता। 
                    आकाश के सलीब पर टँगी हुई मैं न कुछ ढूँढ़ पाती, न झुटपुटे में 
                    गुम हो पाती। जिस सड़क पर मम्मी और पा की उँगली पकड़कर चलना 
                    शुरू किया था, वह भूकंप से ध्वस्त हो गई थी। क्या करूँ? किधर 
                    जाऊँ? कुछ सूझता न था। यह हालत उससे भी बदतर थी, जिस रात हमारे 
                    पुराने घर के पूरे इलाक़े की बिजली फेल हुई थी। घुप्प अंधेरा 
                    हो गया था उस रात चारों ओर। घर में न टॉर्च थी, न मोमबत्ती...
 ...और उस रात, केवल कभी फ़ेल न होने वाली घर की बिजली ही फ़ेल 
                    नहीं हुई थी, मम्मी और पा के संबंधों की बिजली भी फ़ेल हो गई 
                    थी। उनके कारण मेरी नन्हीं दुनिया की बिजली भी फेल हो गई थी। 
                    मेरा आकाश मुझ पर औंधा आ गिरा था और मेरे सपने टूट गए थे।
 
                    रेस्टोरेंट से खा-पीकर निकलने के 
                    बाद एक दिन जब मैं पा की कार में बैठी, तो पा ने कहा, ''आज मैं 
                    तुम्हें एक बहुत ही शानदार और बिल्कुल नया 'सरप्राइज़' दूँगा 
                    गुड़िया।''पा अक्सर ऐसा करते थे। 'सरप्राइज़' कहकर सदा किसी नई जगह पर ले 
                    जाते। कभी किसी संग्रहालय या किसी पुराने किले या महल में, कभी 
                    आस-पास के किसी शहर में या समुद्र-तट पर। वहाँ घूमते-घामते और 
                    बातें करते हुए हम सारा दिन बिताते। पा कई तरह की जानकारियाँ 
                    देते। वहाँ की यादगार के रूप में कोई चीज़, खलौना, किताब या 
                    वस्त्र ख़रीदकर देते, चॉकलेट या ऐसा ही कुछ और ले देते और रात 
                    नौ बजे से पहले-पहले मुझे मम्मी-डैडी के घर के बाहर छोड़ देते। 
                    मम्मी खिड़की से झाँक रही होतीं। कभी-कभी उन्होंने ऑलिवर को भी 
                    उठा रखा होता। बाद में जब ऑस्कर खड़ा होने लगा, तो मम्मी के 
                    साथ वह भी खिड़की से झाँक रहा होता।
 पा के 'सरप्राइज़' का मैं 
                    हमेशा स्वागत करती।उस दिन के 'सरप्राइज़' के बारे में भी मैंने यही समझा कि पा 
                    किसी नई जगह पर ले जा रहे होंगे। लेकिन कौन-सी जगह हो सकती है, 
                    जब मैं यह सोच रही थी, तो उन्होंने एक घर के आगे कार रोकते हुए 
                    कहा, ''यह है हमारा नया घर गुड़िया,'' लेकिन तत्काल जैसे अपनी 
                    भूल सुधारते हुए वे बोले, ''और तुम्हारा भी...।''
 मैं उनके पीछे-पीछे चलते हुए, जाने क्या सोच रही थी, जब 
                    उन्होंने कॉल-बेल बजाई।
 पैंतीस-छत्तीस वर्ष की एक 
                    भारतीय महिला ने दरवाज़ा खोलते ही मुझे ऐसे भाव से देखा, मानो 
                    वह अपनी मुस्कुराहट और 'आओ, गुड़िया आओ,' के स्वागत वाक्य से 
                    परायेपन को बेकार ही छिपा रही हों।पा ने उससे परिचय करवाते हुए कहा, ''ये अलका हैं, गुड़िया, 
                    तुम्हारी नई मम्मी। मैंने उसे नमस्कार किया और जवाब में उसने 
                    भी हाथ जोड़ते हुए मुझे अपने साथ लगाने की कोशिश की, लेकिन 
                    मैंने उसके साथ लगकर भी खुद को अलग रखा। मुझे पा का उससे 
                    तुम्हारी नई मम्मी कहकर मिलवाना अच्छा नहीं लगा।
 ''नई मम्मी? तो क्या मेरी अपनी मम्मी पुरानी मम्मी हो गई?''
 मैं चिढ़ गई।
 मुझे खुश करने के लिए हालाँकि 
                    अलका ने खाने-पीने का कई चीज़ें लाकर मेरे आगे रखीं। मुझे कई 
                    छोटी-मोटी कलाकृतियाँ और आकर्षक वस्तुएँ भी दिखाईं और कहा, 
                    ''तुम्हें जो पसंद हो, ले लो। यह भी तुम्हारा ही घर है,' लेकिन 
                    मैं जितनी देर वहाँ रहीं, सहज नहीं हो पाई।सब कुछ वहाँ था, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा था, जो नहीं था। यह मैं 
                    छोटी होने पर भी महसूस कर सकती थी, लेकिन कह नहीं सकती थी कि 
                    वहाँ मेरा कुछ भी नहीं था।
 इसके बाद काफ़ी समय तक मैं पा 
                    के घर नहीं गई। पा कभी उधर की दिशा में कार मोड़ते भी, तो मैं 
                    कह देती, ''मैं आपके घर नहीं जाऊँगी।''पा को अच्छा न लगता। कभी वे मुझे मनाते हुए कहते, ''वह भी 
                    तुम्हारा ही घर है गुड़िया...'' और कभी घुमा-फिराकर कहते, 
                    ''चलो, मत कहो अलका को नई मम्मी, लेकिन घर तो चलो। वह हमेशा 
                    तुम्हें बुलाती है और जब भी मैं तुमसे मिलकर घर लौटता हूँ, तो 
                    तुम्हारे बारे में पूछती है कि गुड़िया को साथ क्यों नहीं 
                    लाए?''
 मैं चुप रहती। मुझे पा पर गुस्सा आता कि उन्होंने मम्मी को 
                    छोड़कर अलका को क्यों अपनाया? मैं कोई उत्तर न देती और कार की 
                    खिड़की से बाहर देखती रहती।
 ऐसी ही बातों-बातों में एक दिन वे मुझे अस्पताल ले गए। 
                    उन्होंने मुझे इसका पहले न तो कोई संकेत दिया था और न ही 'सरप्राइज़' 
                    देने की बात कही थी। हाँ, वे पिछले महीने मिलने नहीं आए थे और 
                    जब मैंने उन्हें टेलीफ़ोन करके पूछा था, तो उन्होंने बताया था 
                    कि अलका की तबीयत ठीक नहीं थी। मैं उसका 'चेक अप' कराने 
                    अस्पताल ले गया था।
 अस्पताल के बाहर पहुँचने पर मैंने पूछा, ''क्या अलका आंटी 
                    बीमार हैं?''
 हाँ कहकर वे मुसकुरा दिए।
 पा की मज़ाक करने की आदत है। मैं समझी, वे मज़ाक कर रहे हैं और 
                    उनका मुँह देखने लगी।
 वे बोले, ''तुम्हें आज एक और नन्हीं-सी गुड़िया से मिलवाने 
                    लाया हूँ, जो बिल्कुल तुम्हारे जैसी है। हुबहू तुम्हारी शक्ल 
                    की।''
 मेरी उत्सुकता बढ़ गई। उत्साह के साथ उनके साथ चलते हुए जब मैं 
                    वार्ड के उस कमरे में पहुँची, जहाँ उन्होंने मेरी हमशक्ल 
                    गुड़िया के होने का संकेत किया था, तो अलका आंटी के साथ एक 
                    छोटी-सी बच्ची को लेटी देखकर मैं ठिठक गई।
 अब मैं पहलेवाली भोली अनजान गुड़िया नहीं थी। काफी कुछ समझती 
                    थी, लेकिन मैंने इसकी न जाने क्यों कल्पना तक नहीं की थी कि पा 
                    और अलका आंटी किसी और बच्चे के माँ-बाप भी बन सकते हैं।
 ''है न बिल्कुल तुम्हारे जैसी?'' पा ने पूछा।
 उसकी शक्ल मुझसे थोड़ी-थोड़ी मिलती ज़रूर थी, लेकिन मैं इसे 
                    स्वीकार नहीं कर सकती थी कि पा की मेरे जैसी कोई और गुड़िया भी 
                    हो सकती है।
 मैंने झूठ बोला, ''नहीं, यह मेरे जैसी नहीं है। यह तो अलका 
                    आंटी जैसी है।''
 फिर अपने असली भाव को छिपाते हुए मैंने आंटी को बहुत-बहुत बधाई 
                    दी और पूछा, ''इसका नाम क्या सोचा है?''
 ''तुम बताओ,'' आंटी ने उलटे मुझी से पूछ लिया।
 मेरा असली नाम सुरभि है। मैंने आंटी को दो-तीन नाम सुझाते हुए 
                    कहा, ''आप सुरभि को छोड़कर कुछ भी रख लीजिए, जैसे अनिशा, 
                    रोशनी, ऋचा।
 आंटी ने ऋचा को गुजराती ढंग से बोलते हुए कहा, ''ऋचा बहुत 
                    अच्छा नाम है और फिर पा से पूछने लगी, ''क्यों हेमेन, ऋचा 
                    सुंदर है न? इसका अर्थ वेदमंत्र होता है न?''
 मम्मी को ऑलिवर और ऑस्कर मिल 
                    गए। पा को ऋचा। मैं किसकी रही? पहले आधी मम्मी की रह गई थी, 
                    आधी पा की, लेकिन अब किसी की भी नहीं थी। एकदम अनाथ। सोचने पर 
                    मेरी आँखों में आँसू आ गए। आख़िर मेरा दोष क्या था? क्या मेरे 
                    लिए मम्मी और पा एक साथ नहीं रह सकते थे? चलो एक-दूसरे को 
                    पति-पत्नी न मानते, लेकिन अलग-अलग पार्टनरों के साथ और बच्चे 
                    तो पैदा न करते। या अगर उन्हें साथ नहीं रहना था, तो मुझे 
                    क्यों पैदा किया? प्यार करने वाले क्या इतने कठोर और मतलबी 
                    होते हैं? डैडी से मैंने एक बार कह भी 
                    दिया था। वे मुझसे बड़े स्नेह से बातें कर रहे थे। मम्मी भी 
                    ऑलिवर और ऑस्कर के साथ बैठी टीवी देख रही थीं। मैंने कहा था, 
                    ''सरकार को एक ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिससे जो आदमी तथा औरतें 
                    बच्चे पैदा करके तलाक़ लें, उन्हें बच्चों की ज़िंदगी ख़राब 
                    करने वाली अपराधी मानकर कड़ी सज़ा दी जा सके।डैडी ने इसे बहुत सहज भाव से लिया था और मेरे बौद्धिक विकास की 
                    प्रशंसा करते हुए टूटी-फूटी हिंदी में कहा था, ''तुम्हारा 
                    सजेशन (सुझाव) अपनी जगह ठीक हो सकता है, लेकिन पैरेंटस 
                    (माता-पिता) की डयूटीज़ (कर्तव्य) ही नहीं, राइट्स (अधिकार) भी 
                    होते हैं। दिस शुड बी एक्सेप्टेड बाइ द चिल्ड्रन (बच्चों को यह 
                    स्वीकार करना चाहिए)।
 मैंने हार न मानते हुए कहा था, ''लेकिन डैडी, बच्चों के भी 
                    राइट्स होते हैं और दिस शुड बी एक्सैप्टेड बाइ द पैरेंटस ऑल्सो।''
 ''ठीक है, बच्चों के भी राइट्स होते हैं कि उन्हें मम्मी और 
                    डैडी दोनों मिलें, लेकिन कई ऐसी स्थितियाँ होती हैं, नैचुरल (प्राकृति) 
                    भी और मैन-मेड (मनुष्य द्वारा उत्पन्न) भी, जिनमें मम्मी-डैडी 
                    का साथ न रहना बच्चों के ज़्यादा हित में होता है। अगर पति-पत्नि 
                    रोज़ लड़ते रहें और घर में कडुवाहट बढ़ती रहे, दो क्या बच्चों 
                    पर इसका बुरा असर नहीं पड़ेगा? मैं तो समझता हूँ कि बच्चे तब 
                    माँ-बाप के अलग हो जाने को ज़्यादा सही मानेंगे। डैडी ने मेरे 
                    उत्तर की प्रतीक्षा न कर के कहना जारी रखा- कई बार दुर्घटनाएँ 
                    भी तो होती हैं, जब मम्मी और डैडी में से कोई अकेला रह जाता 
                    है। तब जो कानून बनवाने की बात तुम कर रही हो, उसके अंतर्गत 
                    क्या ईश्वर को भी सज़ा दिलवाओगी? अगर दिलवाओगी तो कैसे?
 डैडी ने मुझे निरुत्तर कर दिया था।
 मुझे चुप देखकर उन्होंने मुझे 
                    हराना उचित नहीं समझा, इसलिए बोले, ''नेचर (प्रकृति) कभी किसी 
                    जगह को खाली नहीं रहने देती। अगर वह सूखे पौधों को हरा नहीं कर 
                    सकती, तो वहाँ नए बीज बिछा देती है। इसलिए अपने पा और मम्मी के 
                    हालात पर सहानुभूति से विचार करो। मुझे आशा हे कि तब वे 
                    तुम्हें बहुत हद तक सही लगेंगे। अपनी इन बातों के कारण डैडी 
                    मुझे बहुत अच्छे लगने लगे। धीरे-धीरे मैं यह भी मानने लगी कि 
                    मम्मी ने दूसरी बार गलत चुनाव नहीं किया था। लेकिन क्या पहली 
                    बार उन्होंने गलत चुनाव किया था? मैं फिर उलझ गई। मुझे न पा 
                    में कोई दोष दिखाई देता था, न मम्मी में। मुझे दोनों से बेहद 
                    लगाव भी था...लेकिन उन्होंने जिस शून्य में मुझे डाल दिया था, उसके लिए कौन 
                    दोषी था? मैंने खुद से सवाल किया, ''जैसे उन्होंने नए 
                    जीवन-साथी चुने हैं, अगर मैं अपने लिए नए माता-पिता चुन लूँ।
 तो? क्या वे मुझे इसकी इजाज़त देंगे?
 मेरी कल्पना दौड़ रही थी- मान लो, दे दें, तो मुझे अपनी मनपसंद 
                    के माता-पिता मिलेंगे कहाँ। क्या वे सही होंगे और मैं उन्हें 
                    चुनूँगी कैसे?
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