|  | मैं पंद्रह साल की हूँ। पा से मासिक मुलाक़ात का सिलसिला पिछले नौ बरसों से चल रहा है। 
                    पहले बहुत अच्छा लगता था, जब वे मिलने आते थे। अब मैं कभी-कभी 
                    बोर भी होती हूँ। यह कैसा रिश्ता है? कोई किसी का नहीं है और 
                    फिर भी वे मेरे पा हैं।
 
                    कल पा यानी पापा से मुलाक़ात 
                    हुई, तो सबसे पहले उन्होंने पूछा, ''क्या खाओगी गुड़िया?''मैं हँसी। उन्हें हमेशा सबसे ज़्यादा मेरे खाने की चिंता रहती 
                    है, इसकी नहीं कि मैं क्या महसूस करती हूँ। क्या 'मिस' करती 
                    हूँ, किस ख़ाली आकाश को भरना चाहती हूँ, कभी उन्हें इसे भी तो 
                    महत्त्व देना चाहिए।
 मैंने कह दिया, ''कुछ भी खा लूँगी, वैसे मुझे भूख नहीं है।''
 जिस स्थिति में हम मिलते हैं, उसमें पेट से ज़्यादा मन को भूख 
                    लगी होती है, क्यों कि मैं घर से नाश्ता तो करके चलती हूँ। मैं 
                    इतनी छोटी भी नहीं कि रेस्टोरेंट में पहुँचते ही खाने-पीने को 
                    माँगने लगूँ। पा को जहाँ मुझसे मिलना होता है, मैं वहाँ अकेली 
                    पहुँच सकती हूँ, लेकिन मम्मी अब भी मुझे छोड़कर और यह तसल्ली 
                    करके जाती हैं कि पा आए हुए हैं। पा अब भी उसे देखकर 
                    मुसकुराते हैं और उठकर उससे कहते हैं, ''आओ, आओ, कुछ देर बैठो 
                    हमारे साथ। अगर रेस्टोरेंट में बैठे हों, तो यह ज़रूर कहते 
                    हैं- कॉफी पीकर जाना और थोड़ी देर बाद चली जाना-
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