एक अंधेरी रात में जब चंद्रमा
अपनी चाँदनी के साथ शयन कर रहा था, झंझावात के साथ मूसलाधार
वर्षा ने मानो सारे नगर को डुबोने की ठान ली हो। सेंट मेरियस
उस रात कार्यवश कहीं दूर चले गए थे। वैलंटाइन मोमबत्ती के धीमे
से प्रकाश में एक जोड़े के विवाह की विधि संपूर्ण ही कर पाए
थे, क्लॉडियस के सैनिकों के पदचाप सुनाई दिए। वैलंटाइन ने
दोनों को चर्च के पिछले द्वार से निकालने का प्रयत्न किया
किंतु जब तक सैनिक आ चुके थे, दोनों वर-वधू को एक दूसरे से अलग
कर दिया गया। वे दोनों कहाँ गए, उनका क्या हुआ, कोई नहीं
जानता। वैलंटाइन को कारागार में डाल दिया। उसे मृत्यु-दंड की
सज़ा दी गई। उसके जीवन लीला की समाप्ति के लिए "14 फरवरी" सन
270 ई." का दिन निश्चित कर दिया गया।
एक दिन पहले जूलिया वैलंटाइन
से मिली, आँखें रो-रो कर सूज गई थीं। इतने दिनों में दोनों के
दिलों में पवित्र प्रेम की लहर पैदा हो चुकी थी। उसी लहर ने
उसके मनोबल को बनाए रखा। जूलिया के इन आँसुओं में दृष्टि के
विकार भी बह गए थे। उसकी आँखें पहले से अधिक देखने के योग्य हो
गईं। दोनों एक दूसरे से लिपट गए। वैलंटाइन ने मोमबत्ती की लौ
को देख कर कहा, "जूलिया, शमा की इस लौ को जलाए रखना। मेरा
बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। एक दिन क्लॉडियस स्वयं अपने ही बनाए
हुए कानून के जाल में फँस जाएगा। प्रेम कभी किसी का दास नहीं
होता।" थोड़ी देर के पश्चात जेल के दो सैनिकों ने आकर पादरी को
प्रणाम किया और आदर सहित जूलिया को घर पहुँचा दिया।
ज़िंदगी की अंतिम रात
वैलंटाइन ने कुछ कोरे काग़ज़ और एक कलम मँगवाए। काग़ज़ों में
कुछ लिखता और फिर मोमबत्ती की लौ में जला देता। केवल एक काग़ज़
बचा हुआ था। उस कोरे काग़ज़ को आँखों से लगाया, फिर दिल के पास
दबाए रखा।
कलम उठाई, उस में कुछ लिखा और नीचे लिखा - "तुम्हारे वैलंटाइन
की ओर से प्रेम सहित।" उसकी आँखों से दो आँसू ढुलक गए जो ज़मीन
पर न गिर कर उस प्रेम-पत्र में समा गए। प्रहरी को बुला कर कहा,
"मेरे मरने के बाद यदि इस पत्र को जूलिया तक पहुँचा दो तो मरने
के बाद भी मेरी आत्मा आभारी रहेगी।" प्रहरी के नेत्र सजल हो
उठे, कहने लगा, `फ़ादर, आप का जीवन बहुत मूल्यवान है। अभी भी
मैं कोई उपाय सोचता हूँ जिससे आप को कारागार से निकाल कर किसी
सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया जाए। इस शुभ-कार्य में मुझे
अपनी जान की परवाह नहीं है।"
वैलंटाइन ने रोक कर कहा,
"मेरे इस कार्य में कायरता की मिलावट की बात ना करो। मेरे बाद
अनेक वैलंटाइन पैदा होंगे जो प्रेम की लौ जलाए रखेंगे।" प्रहरी
ने काग़ज़ लेकर गीली आँखों को पोंछते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया।
अगले दिन नगर-द्वार के पास, जो आज उसकी स्मृति में पोर्टा
वैलंटीनी नाम से विख्यात है, अनगिनत लोगों की भीड़ थी। जनता के
चारों ओर सशस्त्र सैनिक तैनात थे। सैनिक वैलंटाइन को हथकड़ियों
और बेड़ियों में जकड़ कर मृत्यु-मंच पर ले आए। लोगों के नारों
से गगन गूँज रहा था, ज़मीन आँसुओं से भीग गई थी। उसी समय
वैलंटाइन ने ऊँचे स्वर में कहा, "मेरे इस पवित्र अभियान को
आँसुओं से दूषित ना करो। मेरी इच्छा है कि प्रेमी और
प्रेमिकाएँ हर वर्ष इस दिन आँसुओं का नहीं, प्रेम का उपहार
दें। शोक, खेद और संताप का लेश-मात्र भी ना हो।"
वैलंटाइन को मंच पर रखे हुए
तख़्ते पर लिटा दिया गया। चार जल्लाद हाथों में भारी भारी दंड
लिए हुए थे।
पाँचवे जल्लाद के हाथ में एक पैनी धार का फरसा था। दंडाधिकारी
ने ऊँचे स्वर में वैलंटाइन से कहा, `वैलंटाइन, तुमने रोमन
विधान की अवहेलना कर लोगों के विवाह करवा कर सम्राट क्लॉडियस
का अपमान किया है।
यह एक बहुत बड़ा अपराध है, पाप है जिसके लिए एक ही सज़ा है -
निर्मम मृत्यु-दंड! तुम यदि अपने अपराध को स्वीकार कर लो तो
फरसे से एक ही झटके से तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा
और तुम्हारी मौत कष्टरहित होगी। यदि अपना अपराध स्वीकार नहीं
करोगे तो इस बेरहमी से मारे जाओगे कि मौत के लिए याचना करोगे
पर वो सामने नाच-नाच कर तुम्हारे अपराध की याद दिलाती रहेगी।"
वैलंटाइन के मुख पर भय के कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहे थे।
उसने दृढ़तापूर्वक कहा, " मैंने कोई अपराध नहीं किया है। दो
प्रेमियों को विवाह-बंधन में जोड़ना मेरा धर्म है, पाप नहीं
है।"
चारों ओर से एक ही आवाज़ आ रही थी - "वैलंटाइन निर्दोष है।"
दंडाधिकारी का इशारा देखते ही
चारों जल्लादों ने दंड को घुमा-घुमा कर वैलंटाइन को मारना शुरू
कर दिया। दर्शकों की चीख़ें निकल गई, कुछ तो इस दृश्य को देख
कर मूर्छित हो गए। जनता के हाहाकार, क्रंदन और चीत्कार के शोर
के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता था। एक बार तो जल्लादों के
पाषाण जैसे हृदय भी पिघलने लगे। थोड़ी ही देर में सब समाप्त हो
गया।
वैलंटाइन का निर्जीव शव रक्त
से रंगा हुआ था। वैलंटाइन का शव रोम के एक चर्च में दफ़ना दिया
गया जो आज `चर्च आव प्राक्सिडिस` के नाम से प्रसिद्ध है।
जूलिया में इतना साहस न था कि वह इस अमानवीय वीभत्स दृश्य को
सहन कर सके। वह घर में ही रही। उसकी अंतिम घड़ियों को कल्पना
के सहारे आँसुओं से धोती रही। उसी समय कारागार के प्रहरी ने
आकर जूलिया को वैलंटाइन का लिखा पत्र देते हुए कहा, `पादरी ने
कल रात यह पत्र आपके लिए लिखा था।` प्रहरी आँखों को पोंछता हुआ
चला गया। जूलिया ने पत्र खोला तो वैलंटाइन के अमोल आँसू के
चिन्ह ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे वैलंटाइन की आँखें अलविदा कह
रही हों। बार-बार पढ़ती रही जब तक आँसुओं से पत्र भीग-भीग कर
गल न गया। पत्र के अंत में लिखा था- `तुम्हारे वैलंटाइन की ओर से
प्रेम सहित!"
सविता कहते-कहते फफक कर रो
पड़ी। भाविका और अभिनव के भी संवेदना के अश्रु पलकों के पीछे
छुप ना सके। कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। अभिनव ने अपने को
सँभाला और सविता से कहा, "माँ, वैलंटाइन की इस हृदय-विदारक
तथ्य को जानने के पश्चात यह उत्सव उल्लास और खुशी से कैसे मना
सकते हैं!"
"प्रेम की वेदी पर शहीद होने वालों पर मातम नहीं किया जाता,
गौरवमयी उत्सव द्वारा उनको श्रद्धांजलि दी जाती है।" सविता की
दृष्टि दूर क्षितिज पर अटक गई। फिर पत्थर पर फूल रखते हुए
भर्राए हुए गले से बोली, "मैं अपने वैलंटाइन, अपने अचल से,
बातें करना चाहती हूँ।" दोनों उसका आशय समझ गए। सविता के
चरण-स्पर्श करने के बाद पत्थर के आगे सिर नवाकर भारी मन से
धीरे-धीरे आगे चल दिए।
थोड़ी दूर जाकर मुड़ कर देखा।
सविता पत्थर पर सिर रखे हुए झुकी हुई थी, हाथ में वही फूल अपनी
छटा दे रहा था।
|