|  | लंदन 15 अप्रैल, 2005
 मेरी प्यारी बेटी मेरे इस पत्र की तिथि देख कर 
                    तुम सोचती होगी कि इससे दो दिन पहले ही तो फ़ोन पर बात हुई थी, 
                    फिर यह पत्र क्यों? बेटी, इस पत्र में जो कुछ लिख रहा हूँ, वह 
                    फ़ोन पर संभव नहीं था। इस पत्र की प्रेरणा मुझे दो बातों से 
                    मिली। सुबह सड़क पर गिरे कुछ काग़ज़ मिले जिन में किसी पिता के 
                    मर्म-स्पर्शी उद्गार भरे थे। ऐसा लगा जैसे कि उसकी आत्मा 
                    उन्हीं काग़ज़ों के पुलिंदे के इर्द-गिर्द भटक रही हो। दूसरे, 
                    स्व. पं. नरेंद्र शर्मा की इन पंक्तियों को पढ़ कर ह्रदय 
                    विह्वल हो उठा, 'सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बाँधूँ,
 किंतु कैसे व्यर्थ की आशा लिए, यह योग साधूँ!
 जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!
 आज के बिछड़े न जाने कब मिलेंगे?
 . . .कितना साम्य था उन फेंके 
                    हुए काग़ज़ों के शब्दों और इस कविता की पंक्तियों में! बेटी, 
                    तुम्हें और सस्पेन्स में नहीं रखना चाहता। 
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