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नब्बे प्रतिशत तो सुना है धन इकट्ठा करने वालों की जेब में चला जाता है। गोरे लोग कितना दान करते हैं। वे तो कभी नहीं सोचते कि पैसा कहाँ जा रहा है। जिनके मन में लालच हो, उन्हें तो बस कोई बहाना चाहिए। वह मन ही मन शर्मिंदा हो उठी। वास्तव में तो वह अधिक से अधिक धन बच्चों के नाम छोड़ना चाहती है। हालाँकि वह जानती है कि उषा तो यही कहेगी, 'हमारे हिस्से में बस इतना ही आया, मम्मा वरुण और विधि को ज़रूर अलग से दे गईं होंगी।' विधि को कुछ भी दो वह यही कहती है, 'मम्मी जी पहले आप महक जीजी और भाभी से पसंद करवा लीजिए, हम बाद में ले लेंगे।' न जाने अरुण और उषा सदा यही क्यों सोचते हैं कि माया वरुण और विधि को ही अधिक चाहती हैं। कोई माँ से पूछे कि उसे अपनी कौन-सी आँख प्यारी है।

माया को लगता है कि जैसे-जैसे व्यक्ति उम्र में बड़ा होता जाता है, अनासक्त होने के बजाय आसक्त होता जाता है। जहाँ विधि और महक को पैसे अथवा चीज़ों की ज़रा परवाह नहीं, वहीं उषा को और स्वयं उसे छोटी-छोटी चीज़ों से लगाव है। उन्हें ये भी चिंता रहती है कि देने लेने से कौन कितना प्रसन्न होगा। अस्थाई और क्षणिक प्रसन्नता के लिए इतना आयोजन प्रयोजन और परम आनंद के लिए कुछ भी नहीं। किंतु आनंद भी तो इन्हीं रिश्तों से जुड़ा है। जहाँ जा रही है माया, वहाँ दुख सुख के मायने शायद दूसरे हों। शायद वहाँ दुख सुख हों ही नहीं। पिछले साल ऋषिकेश में वह दीपक चोपड़ा से मिली थी। आनंदा में वह अपने पच्चीस अनुयायियों के साथ ठहरे हुए थे। मृत्यु के विषय पर उनका एक व्याख्यान सुनकर माया को लगा कि जीवन मृत्यु जैसे पेचीदा विषयों को समझना कितना सरल था। 'फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं और फिर खिलते हैं। इस पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, पर उसका पुनर्जन्म भी उतना निश्चित है।' माया बस यही नहीं समझ पाती है कि ऋषि मुनियों की बातें उसके मस्तिष्क में टिक क्यों नहीं पातीं। क्यों कि शायद ये संसार है और यहाँ की हर चीज़ क्षणिक है, क्षणभंगुर है। किंतु प्रश्न ये उठता है कि मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच के समय में क्या होता होगा।

मृत्यु के उपरांत क्या होगा, इसका भय शायद दूसरों को अधिक होता हो। तभी तो इस वक्त माया को स्वयं कोई भय नहीं। जबकि पिछले दस बारह वर्षों में वह जब तब यही सोचती रही थी कि मृत्यु के बाद क्या होता होगा और ये भी कि क्या बेहतर है, मृतक को जलाना, ज़मीन के नीचे दबाना या चीलों को खिलाना। आबादी बढ़ती जा रही है, इतने सारे मृतकों को पृथ्वी कैसे और कब तक अपने में जज़्ब कर पाएगी। स्वयं वह जलाने की पक्षधर रही है। चीलों द्वारा नोच खसोट मृतक का अपमान नहीं तो और क्या है। किंतु इस जाति की भावना तो देखिए, शायद ये ही लोग अंततोगत्वा 'परम पिता परमात्मा' में समा जाते हों। 'परम पिता परमात्मा' से उसे याद आई अपने पिता की जो सारा जीवन राम नाम की माला जपते रहे। हालाँकि उनके क्रोध, आत्मरतिक, और मांसाहारी प्रवृत्ति से परेशान उनका परिवार सदा यही सोचता रहा कि केवल 'परम पिता परमात्मा' ही उनकी रक्षा कर सकते थे और शायद उन्होने रक्षा की भी। नहीं तो ऐसी अच्छी मौत किसे नसीब होती है।

माया के पति हरीश की मृत्यु हुए पाँच वर्ष होने को आए। उन्हें दफ़्तर में दिल का दौरा पड़ा और एम्बुलैंस के आने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को घंटो निहारती बैठी रही थी माया कि अब साँस आई कि तब। नर्सों के विश्वास दिलाने के बावजूद कि हरीश अब नहीं रहे, उसे लगता रहा कि उनके शरीर में उसने हरक़त देखी। विवाहित जीवन के दौरान वे कभी अलग नहीं रहे। पढ़ाई, इम्तहान या दफ़्तर के सिलसिले में जब भी हरीश को कहीं जाना पड़ा, वह माया को अपने खर्चे पर साथ लेकर गए। वह स्तब्ध थी कि बिना कुछ कहे वह उसे अकेले कैसे छोड़ के चले गए। अब क्या बचा था, केवल चौखट, दरवाज़े, दीवारें और इन सबसे सिर मारती माया। अरुण और उषा तो पहले ही अलग घर बसा चुके थे। अठारह वर्ष की आयु में विवाह करके महक अपने पति, पीटर, के साथ स्काटलैंड में जा बसी थी और वरुण बर्मिंघम में पढ़ रहा था।

आस पड़ौस में भी किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि हरीश यों चल बसेंगे। संबंधियों और पड़ौसियों ने मिल कर बारी लगा रखी थी। कोई न कोई हमेशा घर में बना रहता कि न जाने माया को कब और क्या आवश्यकता आन पड़े। हफ़्तों तक परिवार के लिए ही नहीं, अपितु मेहमानों के लिए भी नियमित खाना पीना आता रहा, भजनों के नए-नए सीडीज़ और कैसेट्स बजते रहे, दिये में घी डाला जाता रहा। एक सप्ताह के अंदर ही माया ने अपने दुख पर पूरी तरह काबू पा लिया था और घर परिवार अब उसके पूरे नियंत्रण में था।

नए काले क्रिस्प सूटों में बेटों, दामाद और पोते को देख माया फूली नहीं समा रही थी। विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर हरीश ने उसे हीरे के छोटे-छोटे बुंदें और नेकलेस दिए थे, जो बहुओं द्वारा पहनाई उस महँगी सफ़ेद साड़ी के साथ कुछ अधिक ही चमक रहे थे। बहुएँ स्वयं लिपटी थीं काली साड़ियों में जिस पर चाँदी के धागों का हल्का बॉर्डर था। माया ने ही कहा था कि चाहे कितना भी बुरा अवसर क्यों न हो, सुहागने काला कपड़ा नहीं पहनती।

घर में अवलोकनार्थ रखे हरीश के शव को देख महक का बेटा आर्यन बार-बार 'हेलो दादू' 'हेलो दादू' पुकारे जा रहा था। आर्यन की हरीश से खूब छनती थी। उनसे मिलने वह महीने में एक या दो बार लंदन से सेंट एंड्रूज़ जाते थे। जब कभी आर्यन शरारत करता, वह उससे कुट्टी कर लिया करते और जहाँ उसने गाल फुलाए कि हुई दादु की अब्बा। 'वाऐ इज़ दादु नॉट टॉकिंग टु मी।' उसकी आँखों में आँसू थे। 'ममा, टैल दादु आई एम नॉट नौटी एनी मोर।' माया कुछ न कह सकी। उसे गोदी में ले पीटर बाहर चला गया।

हरीश के फूलों को गंगा में विसर्जन करने के लिऐ पूरा परिवार हरिद्वार पहुँचा था। माया का भारी भरकम भाई पारस यदि उन सबको नहीं बचाता तो पंडितों की धक्का-मुक्की में घिरे इस परिवार का राम नाम सत्य हो जाता। वस्र्ण और विधि तो पहली बार भारत आऐ थे। उनकी `एक्सक्यूज़ मी, एक्सक्यूज़ मी' भी किसी काम नहीं आई थी। माया ने सोचा कि हरीश की मृत्यु यदि भारत में होती और उनका क्रियाक्रम यहाँ करना पड़ता तो बच्चों के सब्र का बाँध तो अवश्य टूट जाता। हरीश को यदि पिता का कपाल फोड़ना पड़ता तो न जाने क्या होता।

शायद समय आ गया था माया का वापस संसार में लिप्त हो जाने का कि एक दिन उसकी पड़ोसन, जयश्री उसे ज़िद कर अपने साथ घसीट कर ले गई। ऐरे ग़ैरे नत्थू ख़ैरे सभी बाबाओं के सतसंगों में जाती है जयश्री। माया को इन बाबाओं और माताओं पर कोई श्रद्धा नहीं किंतु इस बार वह जयश्री को टाल नहीं पाईं। एक बड़े नामी योगी लंदन आए हुए थे। भीड़ में बैठी हुई माया को इंगित करके जब बाबा ने पूछा, 'बेटी किसके शोक में डूबी है।' माया ने सोचा कि बाबा को उसकी रोती धोती शक्ल से ही पता लग गया होगा कि यह नमूना कुछ ज़्यादा ही दुखी है, इसमें कौन-सी बड़ी बात थी। शायद माया के विधवा होने की बात उन्हें जयश्री ने बताई हो। ख़ैर, जब बाबा मन की बात जानते हैं तो वह माया का कष्ट भी जान ही गए होंगे। जयश्री उसे पकड़ कर बाबा के ठीक आगे ले गई, 'बाबा, इसका हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे, कोई नई साथे वात करती न थी अने कोई ने मलती न थी।' जयश्री के हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे, पर माया को हँसी आ गई और बाबा भी मुस्करा पड़े और जयश्री प्रसन्न थी कि माया के कारण, उसे बाबा के नज़दीक जाने की मौका मिल गया था।

'अपनी हानि को तो बेटी सभी रोते हैं, कभी उनकी भी सोचो जो प्रभु के पास हैं, उनके लाभ में भी तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए।' माया को लगा कि सचमुच वह कितनी स्वार्थी थी कि उसने हरीश के विषय में तो कभी सोचा ही नहीं। जब तक बाबा लंदन में रुके, माया नियमित रूप से उनके पास योगासन सीखने जाती रही। किंतु उसके बाद न तो बाबा ने कुछ कहा, न ही माया ने कुछ पूछा। उसके दिल में एक सुकून व्याप्त हो गया था जैसे हरीश फिर उसके साथ थे।

शादी की हर वर्षगाँठ पर हरीश मोगरे के फूलों के हार और गजरे माया के लिए विशेष तौर पर बनवाते थे। माया ने सोचा कि यदि हरीश जीवित होते तो उसकी शव पेटिका को मोगरे के फूलों से लाद देते। सगे संबंधी गुलदस्ते लेकर आएँगे। नहीं होंगे तो बस उनके भिजवाए मोगरे के फूल। कितनी अधूरी और फीकी लगेगी माया की शवयात्रा। शायद हरीश उसकी इंतज़ार में हों। वह हुलस उठी। पर क्या करे। कोई हलक़ में उँगली डाल कर तो आत्महत्या नहीं कर लेता। कर भी ले तो जो थोड़ा बहुत उनसे मिलने का मौका है, माया कहीं वो भी न गँवा दे। हालाँकि हरीश स्वयं एक जाने माने वकील थे, वह उसे 'मी लॉर्ड' कहकर पुकारते थे क्यों कि बाल की खाल उतारने की आदी थी माया। हरीश की याद उसे कभी-कभी दीवाना बना देती है। दिल है कि सँभलता ही नहीं, 'याद आए वो यों जैसे, दुखती पाँव बिवाई जी. . .।'

माँ बचपन में माया को हरिश्चंद्र तारामती के अमर प्रेम की कहानी सुनाती थी। वही तारामती जो अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाई थी। माया ने हाल ही में बी.बी.सी. पर एक फ़िल्म देखी थी जो एक ऐसी बीमारी के विषय में थी जिसमें रोगी बिल्कुल मृत दिखाई पड़ता है। डॉक्टरों को भी उसमें जीवन का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता और जीते-जी उसे मुर्दाघर में डाल जाता है। एक ऐसी ही महिला अब सोने से भी डरती है कि कहीं फिर न उसे मृत समझ के मुर्दाघर में डाल दिया जाए। माया को लगा की सत्यवान के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा होगा। तारामती को पूर्ण विश्वास होगा तभी तो वह पति के शव को गोदी में लेकर बैठी रही। जो भी हो, माया का प्रेम अमर है और हरीश आज भी उसके साथ हैं। इस विचार मात्र से वह सिहर उठी। मृत्यु के पश्चात वह उनसे अवश्य मिलेगी। वह इंतज़ार कर रहे हैं उसका उस पार। 'याद आए वो यों जैसे, दुखती पाँव बिवाई जी. . .।'

भाव विह्वल माया ने अंत्येष्टि निदेशक को पत्र लिखकर उसे मोगरे के फूलों के छल्ले पर 'स्वागतम माया, सस्नेह हरीश' लिखवाने की व्यवस्था करने को कह दिया। यह बात भला वह किससे कहती, कहती तो लोग समझते कि उसका सिर फिर गया है। कोई मृत व्यक्ति भी फूल भिजवाता है किसी को? पर कितना मज़ा आएगा जब लोग मोगरे के फूलों के साथ हरीश का नाम देखेंगे, अंतिम बार दोनों का नाम एक साथ। वह रोमांचित हो उठी और ये सोच कर कि 'वैन इन रोम, बी रोमन्ज़' उसने एक मरसेडीज़ भी बुक करवा दी। विदेशों में विवाह के अवसर पर अथवा शवयात्रा में काली रॉल्सरौयज़ बुलवाना पौश समझा जाता है।। हरीश होते तो मरसेडीज़ों की क़तार खड़ी होती। माया की अर्थी भी शान से उठनी चाहिए। बच्चों को भी अच्छा लगेगा। काली लंबी रॉल्सरौयज पर मोगरे के फूल कितने भव्य दिखेंगे। गली कूचों में लोग ठिठक के रुक जाएँगे और सराहेंगे इस शवयात्रा को।

मृत्यु का भय नहीं सता रहा माया को। जो होना है, सो तो होकर ही रहेगा। नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म या 'कुछ नहीं'। 'कुछ नहीं' के साँप को तो वह मन में ही दबाती रहती है और शायद उनकी अपनी बीन पर ही, फन उठाए यह भय जब तब लहराने लगता है। लोगों को उसने कहते सुना है कि कहीं आत्मा खालीपन में भटकती न रहे। भला ये भी कोई बात हुई। देवग्रंथों के अनुसार आत्मा को न तो कोई मार सकता है, न ही कोई दुख पहुँचा सकता है। तो फिर काहे का डर। डर तो बस माया को है पुनर्जन्म से, वही पढ़ाई लिखाई, विवाह, बच्चे, और फिर से मृत्यु। पर क्या पता उसे अगली योनि मनुष्य की मिले या न मिले। जिस रूप में भी पैदा हो बस भगवान मनुष्य जन्म की याद भुला दें। क्या जाने कीड़े मकौड़े और जानवरों को याद रहता हो अपना पिछला जन्म। शायद इसी का नाम नरक हो, कर्मों का फल। माया को लगता है कि उन्हें अपने पिछले जन्म की कुछ-कुछ याद है। वैसे तो मनुष्य का मस्तिष्क न जाने क्या-क्या खेल दिखाता है किंतु यदि यह बात सच है तो दो बार वह मनुष्य योनि में जन्म ले चुकी है और अब मनुष्य योनि का संयोग कम ही है। ख़ैर, जो भी होगा, देखा जाएगा, अभी से परेशान होने का क्या फ़ायदा। इस आख़िरी वक्त में भजन गाने से तो भगवान प्रसन्न होने से रहे। तैयारी भी करे तो क्या और कैसी?

जब भी माया किसी यात्रा पर निकलती है, ढेर-सी तैयारी करके चलती है। हर तरह की बीमारी की दवाएँ, गरम पानी की बोतलें, डिब्बे का खाना, अचार मुरब्बे, माचिस, चाकू, स्क्रू ड्राइवर, असमय की ठंड के लिए गरम कपड़े, कंबल, ब्रांडी, अतिरिक्त पेट्रोल का कनस्तर और न जाने क्या-क्या। जब वह लौटती है सारे सामान के साथ लदी-फदी, तो बच्चे हँसते हैं, 'डिडंट वी टैल यू टु ट्रैवल लाइट।' पर किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ जाती तो माया को किसी का मुँह तो नहीं ताकना पड़ता। अब चाहे अंगारों पर चलना पड़े या बर्फ़ पर, इस यात्रा पर उसे खाली हाथ ही निकलना है।
काश कि उसने 'ट्रैवल लाइट' की आदत डाल ली होती तो आज उसे इस बेचैनी से दो चार न होना पड़ता।

समय की पाबंद, माया बिल्कुल तैयार बैठी है। जैसे बस और इंतज़ार नहीं कर पाएगी। क्यों कर लोग समय का पालन नहीं करते। पर मृत्यु को दोष नहीं दिया जा सकता और न ही डॉक्टरों को। कोई समय तो तय नहीं किया गया था। पहली बार उसके दिमाग़ में ये बात आई कि डाक्टर ग़लत भी तो हो सकता है। थोड़ी-सी आशा बँधी किंतु जीवन की नन्ही-सी किरण भी उसे अधिक उत्तेजित न कर पाई। डाक्टर ने कह दिया, माया ने सुन लिया और चुपचाप चली आई। एक प्रश्न तक नहीं पूछा। डाक्टर ने उससे कोई सहानुभूति भी नहीं प्रकट की। यहाँ तो टर्मनली इल रोगियों को विशेष परामर्श की सुविधा दी जाती है। एक ज़माना था जब रोगियों को बुरे समाचार से वंचित रखा जाता था किंतु अब तो विशेषज्ञों का मत है कि रोगी और उसके संबंधियों को सीधे-सीधे बता देना उचित है।

काश कि माया बिजली के बटन की तरह जीवन का स्विच खट से बंद कर पाती क्यों कि वह सचमुच तैयार है शरीर त्यागने को। बेकार बैठी है और उसकी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। शायद उसे इसकी आवश्यकता पड़े मृत्यु के उपरांत। पर उसके बस में कुछ नहीं है। मनुष्य के बस में कुछ भी नहीं है। माया सोचती है कि आँधी तूफ़ान और भूचाल आदि के माध्यम से प्रकृति जब-तब अपने प्राणियों की संख्या नियंत्रित करती रहती है, जिसे भगवान का कोप समझ कर झेलते रहते हैं पृथ्वीवासी। जो समझ से परे हो, उसे भगवान का नाम दें या किसी बुद्धिमान अभिकल्पक का, क्यों कि जगत की संरचना के पीछे एक प्रतिशत संदेह तो बना ही हुआ है। इसी विषय को लेकर अमेरिका जैसे विकासशील देश में आज भी लोगों के बीच छुट-पुट घटनाएँ सुनने में आती हैं, जिनमें कोई डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को कोसता है तो कोई विज्ञान को। माया के पल्ले जब कुछ नहीं पड़ता तो वह गाने लगती है, 'कोई तो बता दे जल नीर कि सिया प्यासी है।' ये प्यास जीते जी तो बुझने से रही। शायद मर के ही मिलना हो उस बुद्धिमान अभिकल्पक से। किसी से मिलेगी अवश्य माया और हरीश का पता ठिकाना भी मालूम करके रहेगी।

श्रादों में माया की दादी स्वर्गीय दादा और परिवार के अन्य मृतकों की शांति के लिए पंडितो को दान देतीं और भोजन कराती थीं। पिता की बात याद कर माया मुस्करा अनायास उठी। जब भी माँ श्राद्ध के भोजन का प्रबंध करतीं, वह कहते कि उनके पिता और दादा की आत्मा को शांति पहुँचानी है तो कोफ़्ते पकाओ, मुर्ग मुसल्लम बनवाओ। पति की मृत्यु के उपरांत, माँ, जो अपनी सास को दकियानूसी करार देतीं आई थीं, स्वयं अंधविद्यालयों में कंबल और भोजन आदि बाँटने लगीं ये कहकर कि उनकी आत्मा को शांति मिले न मिले, किसी गरीब का कल्याण तो हो ही जाएगा। जब शरीर ही नहीं रहा तो कैसी शांति और कैसा क्लांत, पर वही बात कि दिल को समझाने को गालिब ख़याल अच्छा है। हालाँकि पंडितों को जजमानों की क्या कमी, बहुत से बेवक़ूफ़ हैं दुनिया में, यहाँ लंदन में भी। हरीश की प्रत्येक बरसी पर माया स्वयं पूजा करवाती है, अंधविद्यालयों और अन्य संस्थाओं को दान देती है। जहाँ तक हरीश का प्रश्न है, वह कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहती। क्या पता किस दान से और क्योंकर पति को चैन मिल जाए। अगर ये सब करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो भी पैसा किसी अच्छे काम में ही तो लगा। पूजा पाठ एवं दान करने का शायद यही औचित्य हो।

बनारस से लाई हुई गंगाजल की बोतल को माया ने अपने सिरहाने रख लिया है। डायरी में उसने झटपट एक और टिप्पणी जोड़ दी कि यदि किसी कारणवश वह स्वयं गंगाजल नहीं पी पाए तो जो भी उसे मरणोपरांत देखे, उसके मुँह में गंगाजल की कुछ बूँदे टपका दे। और हाँ ये भी कि उसकी अस्थियाँ गंगा की बजाय रिवर थेम्स में भी डाली जा सकतीं हैं। एक कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। फिर भी, अंदर या बाहर, गंगा तो उसके संग होगी ही।

बरसों पहले किसी वैज्ञानिक ने विष का स्वाद जानने के लिए अपने ऊपर एक प्रयोग किया था। जीभ पर ज़हर रखते ही वह मर गया और उसका प्रयोग सफ़ल नहीं हो पाया। माया ने सोचा कि यदि सभी मरणासन्न लोग कोई एक प्रयोग करके मरें, तो शायद कई गुत्थियाँ सुलझ जाएँ। जैसे कि वह जानना चाहती है कि मरते समय व्यक्ति को कैसा अनुभव होता है। शांति का या अशांति का। उसने निर्णय लिया कि वह अपनी तर्जनी पर लाल रंग यानि अशांति और बीच की उँगली पर हरा रंग यानी कि शांति का रंग लगा के इंतज़ार करेगी मरने का। पलंग पर एक नोट लिख कर छोड़ जाएगी बच्चों के लिए कि चादर पर जो भी रंग रगड़ा हुआ मिले, उसके प्रयोग का निष्कर्ष वही होगा। मन में ढेरों दुविधाएँ उठीं किंतु माया ने उन्हें एक ही वार में दबा दिया कि प्रयत्न करने में क्या जाता है। इस विषय पर शायद उसे किसी की सहायता की आवश्यकता पड़े। पारस होता तो वे दोनों बैठकर इस प्रयोग की बारीकियों में उतरते किंतु इस बारे में सोच कर माया और समय व्यर्थ नहीं करना चाहती।

माया की नज़र फिर पर्दों पर जा ठहरी। घर के धुले पर्दों में मज़ा नहीं आता। ड्राईक्लीनर्स के धुले और भारी इस्त्री किए पर्दे गंदे भी कम होते हैं। ममता इस शनिवार को आए कि न आए। पिछले हफ्ते ही वह बता रही थी कि नारायण ने जब गिरोह के सरदार से माँ के पास जाने की अनुमति माँगी तो उसने न केवल साफ़ मना कर दिया, परंतु उसे जान से मार देने की धमकी भी दे डाली। माया ने सोचा कि शाम को फ़ोन करके ममता को बुला लेगी और पैसे देकर कहेगी कि जाके अपने बेटे को छुड़ा ले। कितनी खुश हो जाएगी ममता। अपने इस निर्णय पर माया सचमुच बेहद प्रसन्न थी।

माया पर्दे उतारने को अभी स्टूल पर चढ़ी ही थी कि घंटी बजी। इस समय कौन हो सकता है उसने तो किसी को बुलाया नहीं था। कहीं वह किसी को बुलाकर भूल न गईं हो। दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर ममता खड़ी थी। 'तू हज़ार बरस जिएगी ममता, अभी मैं तुझे ही याद कर रही थी।' वह चहकती हुई बोली।
'मैडम जी, वो नारायण है न, वो. . .' बदहवासी में वह ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी।
'हाँ हाँ, क्या हुआ उसे।'
'उसका एक्सीडेंट,' माया यदि उसे सँभाल न लेती तो ममता वहीं ढेर हो जाती। आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और हिचकियों के मारे उसका बोलना मुहाल था। उसके आधे अधूरे वाक्यों से माया इस नतीजे पर पहुँची कि नारायण के साथ हुए इस हादसे के पीछे उन गुंडों का ही हाथ है। कहीं से उन्हें पता चल गया था कि वह चुपचाप लंदन जा रहा है कि बस, उन्होंने उसे कार के नीचे कुचलने की कोशिश की और फिर अस्पताल में आकर उसे धमकी दी कि इस बार तो टाँगे ही तोड़ी हैं, अगली बार वे उसे जान से मरवा सकते हैं। माया ने ममता के हाथ से निचुड़ पुचड़ा काग़ज़ लिया जिस पर उसके भाई सर्वेश का नंबर लिखा हुआ था। नंबर मिलाया तो सर्वेश ने भी वही सब दोहरा दिया जो ममता बता रही थी, इस अनुरोध के साथ कि, 'मैडम, आप तो जी बस बहन को प्लेन में बैठा दें, नारायण की हालत ठीक नहीं है मैडम जी।' वह भी बहुत घबराया हुआ लग रहा था जैसे कि उसकी अपनी जान पर बनी हो। भाई से बात करके तो ममता के सब्र का बाँध मानो टूट ही गया।

'अब मैं जी कर क्या करूँगी, मैडम, मैं उसी के तो लिए इकट्ठा कर रही थी पैसा। इससे तो मैं उसके साथ ही जीती मरती, अब इस पैसे क्या फ़ायदा।', कहकर उसने अपनी सारी जमा पूँजी माया के कदमों में डाल दी। माया ने उसे सीने से लगा के तसल्ली देनी चाही किंतु वह तो यों रोए चली जा रही थी जैसे दुनिया में उसका कुछ न बचा हो। माया ने झटपट अपने ट्रैवल एजेंट को फ़ोन किया और जब वह ममता के लिए टिकट आरक्षित करवा रही थी तो उसने सोचा क्यों न उसके साथ वह स्वयं भी पटना चली जाए। पटना जैसी जगह में किसी को पटाना होगा, किसी से पटना होगा, किसी को मनाना होगा तो किसी को हटाना होगा। ममता अभी इस हालत में नहीं है कि नारायण की कोई मदद कर सके। कहीं इन गुंडों के चक्कर में आकर वह न केवल अपना मेहनत से कमाया सारा धन ही न गँवा दे, बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठे। ऐसे समय में धैर्य, नियंत्रण और कूटनीति से काम लेना होगा। सीधी सादी ममता को तो शायद इन शब्दों का अर्थ भी नहीं पता होगा।

ममता ने जब सुना कि मैडम उसके साथ पटना चल रही हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, कुतूहल और अनुग्रह के भावों की छटा बस देखते ही बनती थी। स्पष्टत: माया के दिमाग़ में एक योजना बन रही थी। ममता को रसोई में व्यस्त करके वह स्वयं कंप्यूटर खोल कर बैठ गई। उसने वेबसाइट्स पर एक पाँच सितारा होटल में दो कमरे, एक बड़ी जीप और ड्राईवर का इंतज़ाम कर लिया। फ़ोन पर पारस को उसने एक अच्छे वकील और सुरक्षा संबंधित प्रहरियों का प्रबंध करने की हिदायत भी दे दी, जो इन्हें एअरपोर्ट पर उतरते ही मिल जाएँ ताकि बिना समय गँवाए रास्ते में ही बात की जा सके। माया ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बच्चे यहाँ नहीं हैं। वे उसे कभी ये जोखिम नहीं उठाने देते। पारस को भी रहस्यपूर्ण कारनामों में दिलचस्पी है इसीलिए उसने अधिक चूँ-चपड़ नहीं की। पटना के नाम पर वह हिचका अवश्य था किंतु जब माया ने कहा, 'मैं पटना जा ही रहीं हूँ, कोई प्रश्न नहीं पूछना।' उसके पास कोई चारा नहीं था सिवाय माया के कथानुसार प्रबंध करने के। वह बोला, 'ठीक है मैं भी पटना आ रहा हूँ और तुम भी अब कोई प्रश्न नहीं पूछना।'

माया चिंतित थी कि दो महिलाएँ गुंडों के गिरोह का सामना कैसे कर पाएँगी। किंतु पारस के आ मिलने से वह आश्वस्त हो गई। बचपन में इस जोड़ी ने परिवार की नाक में दम कर रखा था। एक बार दोनों ने आटा फ़र्श पर बिछा कर पाँव के निशान से चोर पकड़ के माँ के सम्मुख खड़ा कर दिया था। हाँ, यह अलग बात थी कि माँ को पता था कि चोर घर का नौकर ही था, जो रात को छिप-छिप कर मिठाई खाता था और शक इन दोनों पर किया जाता था।

'शर्लौक होम्स', 'मर्डर शी रोट' और 'कोलंबा' जैसे रहस्यपूर्ण टी.वी. धारावाहिकों की दीवानी माया को जीवन में पहली बार जोखिम उठाने का मौका मिला है, जिसे वह आसानी से नहीं गँवाने वाली। कहाँ वह मृत्यु से उबर नहीं पा रही थी और कहाँ अब उसे कुछ याद न था सिवाय इसके कि नारायण को कैसे बचाया जा सकता है। पटना और पटना के गुंडों से निडर वह सुबह की फ़्लाइट का इंतज़ार कर रही है, ममता से अधिक बेचैनी उसे है। सख्त पहरे में वह नारायण को दिल्ली ले जाएगी और जब वह ठीक हो जाएगा तो पारस की फैक्टरी में ही कोई काम पर लग जाएगा।

कहाँ ममता आत्महत्या करने की सोच रही थी और कहाँ अब उसे विश्वास हो चला था कि नारायण की बाल मज़दूरी के दिन अब पूरे हो गए थे। कर्मठ ममता को काम की भला क्या कमी। वैसे भी जब तक माया जीवित है, तब तक तो ममता उसके साथ रहेगी।

तीन दिन में मृत्यु वाला सपना इतना सजीव था कि माया अपनी मृत्यु के लिए पूरी तरह तैयार थी। किंतु इस वास्तविक घटना ने उसे पूरी तरह जिला दिया था। वह कितनी भाग्यशाली है कि जीवन के उद्देश्य के साथ-साथ, उसे दिशा भी मिल गई। उसके शरीर का रोम-रोम स्पंदित है और अंग प्रत्यंग फड़क रहा है। उसे लगा कि इतनी ज़िंदा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही।

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9 जून 2007

 
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