ख़ैर, तीन दिन बहुत होते हैं। एक
हफ़्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी। बिगाड़ने के
लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए। किंतु उसे बिगाड़ कर
नहीं ये घर सँवार के छोड़ना है। संपत्ति को ऐसे बाँटना है कि
किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बाँटे रेवड़ी, भर अपने को दे।
संसार से यों विदा लेनी है कि लोग याद करें। कमर कसकर वह उठ
खड़ी हुई। तीनों अलमारियों के पलड़े खोलकर माया लगी अपनी भारी
साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने। जैसे उस
ढेर में दब जाएगी उसकी दुश्चिंता। छोटे बेटे वरुण की शादी को
अभी एक साल भी तो नहीं हुआ। कितने कपड़े और गहने बनवाए थे माया
ने। जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना
चाहती हो।
'हे भगवान! अब क्या होगा इन सबका?' समय होता तो वह भारत जाकर
बहन भाभियों में बाँट देती। ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये
कीमती साड़ियाँ पर उसकी बहुओं और बेटी को इस 'इंडियन' पहनावे
से क्या लेना देना।
रूपहली नैट की गुलाबी साड़ी
को चेहरे से लगाए माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने
अपना पूरा पाँच किलो वज़न घटाया था। मुँह माँगे दाम पर ख़रीदी
थी ये साड़ी उसने रितु कुमार से। छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई
थी, 'जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाए तो हमें दे
दीजिएगा, प्लीज़।' उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी खुश हो
जाती। पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और
योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाए, फिर दे देगी। किसी
ने ठीक ही कहा है, 'काल करे सो आज कर।' एकाएक उसे एक तरक़ीब
सूझी। क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज
दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी। कुंदन के सैट के नाम पर उसका
दिल मानो सिकुड़ के रह गया। बड़ी बहु उषा को पता लगेगा कि सास
ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर
कोसेगी। पर छोटी जितनी क़द्र भला बहुओं और बेटी महक को कहाँ
होगी। माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो
ये है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है अपने बच्चों से लेकर,
सड़क पर चलते राहगीरों तक से कि वे क्या सोचते होंगे, कहीं वे
यह न कहें या कहीं वे वो न सोचें। पर अब वह वही करेगी जो उसका
मन चाहेगा। वैसे भी, बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं। न
भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलु
मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी। सगे संबंधी और मित्र भी
मरने वाले की अंतिम इच्छा का सम्मान करेंगे ही।
फिर भी, न चाहते हुए भी माया
दूसरों के लिए ही सोच रही थी। अपने लिए सोचने को रखा ही क्या
है। मंदिर जाए, गिड़गिड़ाए कि भगवान बचा लो। ज़िंदगी के इस
आख़री पड़ाव पर क्यों अपने लिए कुछ माँगे और माँगने से क्या
कुछ मिल जाएगा। अब तक तो वह जब भी भगवान के आगे गिड़गिड़ाई है,
सदा औरों के लिए। हर सुबह यही प्रार्थना करती आई है, 'भगवान
सबका भला करना', या `जो भी ठीक समझो वही करना,' क्यों कि मनुष्य
की हवस का तो कोई अंत नहीं। अमेरिका में तो सुना है कि लोगों
ने हज़ारों डालर देकर मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का
प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में, जब भी टैकनौलोजी इतनी
विकसित हो जाए, उन्हें जिला लिया जाए। माया को यह समझ नहीं आता
कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए।
गाँधी, मदर टेरेसा या मार्टिन लूथर किंग जैसों महानुभावों को
सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। अच्छी से अच्छी प्लास्टिक
सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिज़ाबेथ टेलर जैसी करोड़पति
सुंदरी भी कुरुप दिखती है। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या
लाभ। उसे जो करना था वह कर चुकी। बच्चे अपने-अपने घरों में सुख
से हैं। न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी
उनके घरेलु मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी।
माया एक अजीब-सी मन:स्थिति से
गुज़र रही है। उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है।
वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा। हो सकता है
कि अत्यधिक भय की वजह से उसने भय को अपने मस्तिष्क से 'ब्लॉक'
कर रखा हो। जो भी हो, अच्छा ही है। अन्यथा भयवश न तो वह कुछ कर
पाती और न ही ठीक से सोच ही पाती। बच्चों को बताने का कोई
औचित्य नहीं। बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर
डालेंगे। पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ़्लू हो गया था।
दुर्भाग्यवश वरुण और विधि घर पर थे। उन्होंने तीमारदारी कर
करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी। उसे आराम से सोने भी नहीं
दिया था। कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी का, कभी गरम
पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी। नहीं नहीं, चुपचाप
मर जाना बेहतर होगा। बच्चों को भी तसल्ली हो जाएगी जब लोग
कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसीं।
वैसे, कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है या शायद दिल
को समझा लेना आसान हो जाता होगा। लोगों के पास चारा भी क्या
है। जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है। आजकल तो लोग
तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते। छुटि्टयाँ ही कहाँ बचती हैं।
साल में एक बार भारत जाना होता है। फिर परिवार और मित्रों के
साथ दो या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी जाना पड़ता है। पहले
ज़माने में कभी लेते थे लोग छुटि्टयाँ ऐसे कामकाज के लिए। माया
तो हारी बीमारी में भी उठके दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी
बचे तो मंडे बैंक हौलिडे के साथ जोड़ कर कहीं आस-पास ही हो आए।
उसका मानना है कि इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल
भागना आवश्यक है। वैसे भी यहाँ के बहुत से लोग मानसिक
बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। जिसे देखिऐ वही 'टैन्स्ड' है।
माया भी 'टैन्स्ड' है। अपनी
उँगलियाँ उलझाए वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की
झाड़ पोंछ भी कर ले। मातमपुर्सी को आए लोग कहीं ये न कहें कि
दूसरों को सफ़ाई पर भाषण देने वाली मायी स्वयं इतने गंदे घर
में रहती थी। आज तो केवल बुधवार है और घर की सफ़ाई करने वाली
ममता तो शनिवार को ही आएगी। शनिवार को वे दोनों मिलकर घर की
खूब सफ़ाई करती हैं और फिर दोपहर में एक नई हिंदी फ़िल्म देखने
जाती हैं। शाम का खाना भी बाहर ही होता है। रात को ममता को
उसके घर छोड़ कर जब माया वापस आती है तो अपने साफ़ सुथरे फ्लैट
में खुशबुदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है।
कभी-कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती। उनके मना
करने के बावजूद ममता उसे 'मैडम' कहकर ही पुकारती है और उसकी
बहुत इज़्ज़त करती है। हालाँकि बच्चों को लगता है कि माँ ने
उसे सिर पर चढ़ा रखा है, माया उसे अपने परिवार का एक सदस्य ही
मानती है। कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता, माया की तरह
ही। शायद इसीलिए माया को उसका साथ पसंद है। उसकी सहेलियाँ उसके
इस बर्ताव पर नाक भौं चढ़ाती रहतीं हैं तो चढ़ाया करें।
नारायण को लेकर ममता कुछ अधिक
ही परेशान है। उसका इकलौता बेटा नारायण, जिसके पिता की आकस्मिक
मृत्यु हो गई थी, बुरी संगत में पड़ कर एक गुंडे के गिरोह में
ड्राइवरी कर रहा है। आजकल उसकी इच्छा है कि उसके प्रवास के
दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाए। माया ने दिल्ली में
अपने भाई पारस के ज़रिए उसका पासपोर्ट बनवा दिया है और वीज़ा
भी लग ही जाएगा। ममता के इसरार पर माया ने पिछले साल पटना के
किसी अधिकारी को इस बाबत लिखा भी था पर वहाँ से आज तक कोई जवाब
नहीं आया। दिल्ली मुंबई जैसे शहर होते तो शायद कोई जान पहचान
निकल भी आती। हर शनिवार ममता को बड़ी आस लिए आती है, 'मैडम कोई
चिट्ठी पत्री आई।' न में सिर हिलाती माया सोचती है कि कुछ करना
चाहिए किंतु वह कर क्या सकती है? अपना बेटा होता तो क्या वह
चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज़ बैंक के
पाँच हज़ार के बौंड्स ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन
गुंडों से बचा सके। किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाए
उसके धन का सीधी-सादी ममता कहीं दुरुपयोग न कर बैठे।
बच्चों को क्या, किसी और को
भी यदि ये पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी
तो वे उसे पागल समझेंगे। किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला
क्या हो सकता है। महक होती तो कहती, 'ममा, डू व्हाट यू लाईक,
इटज़ यौर मनी आफ़्टर ऑल।' वरुण और विधि को उसके धन से कुछ लेना
देना नहीं। विधि साई बाबा ट्रस्ट की सदस्य है, कभी बाढ़
पीड़ितों के सहायतार्थ जाती है तो कभी किसी सेवा शिविर के लिए
काम करती है। अरुण कहता है कि उन्हें पैसे की कोई कद्र नहीं और
ये भी कि यदि माँ चाहें तो उनका पैसा वह किसी अच्छी जगह
इन्वैस्ट कर सकता है। इकलौती संतान के नाते, उषा को हर चीज़
अपने नाम करवाने की पड़ी रहती है। इतनी बड़ी रकम उन्होंने पहले
किसी को दी भी तो नहीं। उनकी मृत्यु के बाद कहीं बच्चे बेचारी
ममता पर कोई मुकदमा ही न ठोक दें। दुनिया में क्या नहीं होता।
माया का सोचना ही उसका दुश्मन है पर सोच पर किसी का क्या बस।
बस अब और नहीं सोचेगी माया।
अभी जाकर वह बौंड्स भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को दे देगी।
कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? हालाँकि वह
शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे संबंधियों को
सप्ताहांत मिल जाएगा। इतवार को ही स्विटज़रलैंड से वरुण और
विधि भी छुटि्टयाँ मना कर लौट आएँगे। माया को अच्छा नहीं लगा
कि आते ही उन्हें कोई बुरी ख़बर दे पर किया क्या जा सकता है।
बैंक जाते समय माया सोचने लगी
कि किसी के आख़री वक्त में सबसे विशेष बात क्या हो सकती है?
क्यों वह सीधे कपड़ों गहनों की तरफ़ भागी? क्या ये मामूली
चीज़ें उसके लिए इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती
आई थी कि उसके मरने के बाद बेटे बहु उसका तमाम बोरिया बिस्तर
बोरियों में भर कर ऑक्सफ़ैम या किसी और चैरिटी को दे आएँगे।
समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक
दें। ख़ैर, ये सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गँवा
रही? उसे क्या लेना देना इस भौतिक सामान से किंतु किसी के काम
आ जाए तो अच्छा ही है। भारत में कई परिवार इन चीज़ों से अपने
बहुत से तीज त्योहार मना सकते हैं। ऑक्सफ़ैम वाले क्या समझेंगे
भारतीय पहनावे को? वे इन्हें 'रीसाइकिलिंग' के लिए दाहित्र में
ही न कहीं डाल दें।
पिछले दो वर्षों में ही माया
ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं
छोड़ी थी। अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर
उठा लिया। जिन माँ बाप ने अपना जीवन अपने बच्चों पर न्योछावर
कर दिया था, उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने की
बजाय उनके बच्चे उन्हे ही भला बुरा कह रहे थे। ख़ैर, उसे इस सब
की परवाह नहीं है। उसने अपनी सारी जायदाद, गहने, शेयर इत्यादि
बाँट दिए हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के और
इन्हीं की वजह से वह कल रात भर ठीक से सो भी नहीं पाई थी। इन
भौतिक चीज़ों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी।
सुबह उठते ही नहा धो कर माया
बैठ गई आईने के सामने। बिना मेक अप के चेहरा कैसा बेरंग लग रहा
था, करेले-सी झुर्रियां और अर्बी सा रंग। उसने कहीं पढ़ा था कि
जिसने जीवन में बहुत दुख झेलें हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक
हो सकता है। ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर
फैल गई। किंतु ये झुर्रियों से भरा चेहरा मृत्यु के पश्चात
कैसा लगेगा? जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों
ओर घूमकर श्रृद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें कहीं मुँह न
फेर लेना पड़े। माया को आकर्षक लगना चाहिए और ये मेकअप
आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दें। शायद और लोग
भी इस बारे में चिंतित होते हों। हिम्मत करके उसने अंत्येष्टि
निदेशक का नंबर घुमाया।
'हेलो, हाउ मे आइ हेल्प यू?' मीठी आवाज़ में स्वागती ने पूछा।
माया ने झिझकते हुऐ पूछा,
'सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफ़िन फ़ॉर माइसेल्फ दि अदर
डे, आइ वंडर इफ
समवन कुड टेक केयर ऑफ माई मेकअप एंड क्लोद्स आफ़्टर आई एम डेड.
. .।'
'ऑफ़ कोर्स मैडम, यौर विश इज़ अवर कमांड।' स्वागती की वरदायनी
अदा पर माया मुस्कराने लगी। उसने सोचा कि वह मेकअप आर्टिस्ट को
अपना भरा पूरा वैनिटि केस ही दे देगी ताकि कई अन्य भारतीय
महिला मृतकों का भी उद्धार हो जाए। गोरे गोरियों के रंग का
मेकअप तो इन लोगों के पास होता है किंतु किसी भारतीय महिला ने
शायद ही कभी ऐसी माँग की हो। उसे कहाँ फ़ुर्सत इस आडंबर की।
उसे यकायक याद आई मीना कुमारी की, जो पूरी साज सज्जा के साथ
दफ़नाई गई थी। चलो मेकअप और कपड़ों का तो बंदोबस्त हो गया।
उसने सोचा कि क्यों न वह अपने बाल भी ट्रिम करवा ले? उसे अपने
हेअरड्रैसर से भी विदा ले लेनी चाहिए। पिछले तीन दशकों में
दोनों के बीच एक अच्छा समझौता हो गया है। वह जानता है कि कब
उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ़ ट्रिम
करना है। कभी माया उल्टी सीधी माँग कर भी बैठे तो वह साफ़
इनकार कर देता है, 'नहीं, ये आप पर अच्छा नहीं लगेगा', या
'अपनी ज़रा उम्र तो देखो माया।' हालाँकि माया को आज भी लगता है
कि वह एक बार उसके बालों को किसी सुर्ख रंग में रंग दे।
माया झट से उठी और कार में
बैठकर चल दी वैम्बली हाई रोड की ओर। अभी कार को उसने दाईं ओर
मोड़ा ही था कि उसने सोचा कि पहले उसे अपने होंठ के ऊपर उग आए
बालों को ब्लीच करवा लेना चाहिए। उसने एक ख़तरनाक यू टर्न
मारा। यदि कोई पुलिस वाला देख लेता तो उसे अवश्य ही धर लेता।
'ऑन दि स्पौट फ़ाईन' अलग देना पड़ता। पर अब डर किस बात का और
ये पैसा किस काम का? यकायक उसने निर्णय लिया कि चाहे कितने भी
पाउंड लगें, वह रीजैंट स्ट्रीट पर स्थित सबसे महँगे ब्यूटी
पारलर में जाकर मसाज, ट्रिमिंग, भवें, ब्लीचिंग और फ़ेशल आदि
सब करवा लेगी।
'टी टूँ टी टूँ' का शोर मचाती एक एम्बुलेंस पास से गुज़री तो
कार को धीमा करके माया एक तरफ़ हो गई। न जाने किसको दिल का
दौरा पड़ा हो या दुर्घटना में घायल कोई दम तोड़ रहा हो। यदि
समय पर डॉक्टरी सहायता मिल जाए तो कई मौतों को बचाया जा सकता
है पर ये तो सब नसीब की बातें है। एकाएक माया को ध्यान आया कि
उसने अभी तक अपनी आँखे भी दान नहीं की थीं। आँखे ही क्यों,
गुर्दे, फेफड़े, दिल आदि उसे अपने सभी अंग दान कर देने चाहिए।
साथ तो ये जाएँगे नहीं उसके। किसी के काम ही आ जाएँ तो अच्छा
है। किंतु उसके बूढ़े अंग भला किसके काम आएँगे? डॉक्टरों को
अनुसंधान के लिए भी तो मृत शरीरों की आवश्यकता पड़ती होगी।
क्यों न वह अपना पूरा शरीर ही दान कर दे ताकि जिसे जो चाहिए,
ले ले। बाकी के बचे खुचे टुकड़ों का क़ीमा बना कर खाद में डाले
या. . .। माया भी कभी-कभी कैसी पागलों जैसी बातें सोचती है पर
अस्पतालों से जो मनो अंग प्रत्यंग प्रतिदिन फेंके जाते हैं, वे
कहाँ जाते होंगे? प्लास्टिक के थैलों से लेकर दही के डिब्बों
तक माया कूड़े में कुछ नहीं फेंकती। जहाँ देखिए कचरा ही कचरा।
लोगों को रीसाइक्लिंग की ओर ध्यान देना होगा नहीं तो ये विश्व
अवश्य तबाह होकर रहेगा।
अस्पताल जाकर वह अपना समूचा
शरीर दान तो कर आई किंतु मन में कई संदेह आते जाते रहे। एक
दुर्घटना में माया के दादा की उँगली कट गई थी। उनकी मृत्यु के
उपरांत, दादी ने विशेष तौर पर कृत्रिम उँगली लगवा कर उनका दाह
संस्कार करवाया था। उनका विचार था कि यदि दादा को उनके सभी
अंगों के साथ नहीं जलाया गया तो वह अगले जन्म में बिना उँगली
के पैदा होंगे। हो सकता है, क्यों कि माया ने अपना पूरा शरीर
दान कर दिया है, कि माया का जन्म ही न हो। वह यह भी मानती है
कि हर जन्म में मनुष्य अपने को विकसित करता है और जब वह पूरी
तरह से परिपक्व हो जाता है, तब ही वह परमात्मा में विलीन होने
में समर्थ होता है। माया को लगता है कि वह तो एक बच्चे से भी
गई गुज़री हैं। बच्चे भी जब तब कहते रहते हैं, 'ममा, यू आर ए
चाइल्ड' या `ममा, यू शुड ग्रो नाओ।' वह कहाँ इस योग्य कि
भगवान उसे अपने में लीन कर सकें। अभी तो वह सांसारिक भोगों में
आकंठ डूबी है।
खुशबूदार मोमबत्तियों के
मध्यम प्रकाश में तैरते भारतीय शास्त्रीय संगीत में डूबते
उतरते उसके शरीर की मुलायम और सधे हाथों द्वारा मालिश ने उसे
स्वर्ग में पहुँचा दिया। उसे लगा कि तन से मानो मनों मैल उतर
गया हो। मन हवा से बातें कर रहा था। शायद संसार के ये
छोटे-छोटे सुख दुख ही स्वर्ग और नर्क हों। ब्यूटी पारलर से
निकली तो पहली बार माया ने जाना कि लोग अपने ऊपर इतना पैसा
क्यों खर्च करते हैं। वह सचमुच कितनी मूर्ख थी कि जीवन भर दाँत
से भींचकर पैसा खर्च करती रही। पैसा होते हुए भी ऐसे सुख का
उपभोग नहीं कर पाई। हालाँकि उसकी बहुएँ नियमित रूप से ब्यूटी
पारलर और जिम जाती हैं। विधि तो उनसे भी चलने को कहती रहती
थी। किंतु वह उसे सदा हँस कर ये जवाब देकर टाल देती थी, 'बूढ़ी
घोड़ी लाल लगाम।'
आज वह बीसियों साल बाद
गुनगुना उठीं, 'ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द जाने
कोय'
पर कमज़ोरी के मारे आवाज़ खींच नहीं पाईं और चुप हो गईं। सोचा
कि घर जाकर कुछ रियाज़ करेगी और फिर गाने की कोशिश करेगी। अभी
तो उसे ज़ोरों की भूख लगी थी। सामने ही क्रेज़ी हौर्स पब था,
जो फ़िश एण्ड चिप्स के लिए मशहूर था। माया उसमें ही जाकर एक
कोने में बैठ गई।
किसी के फ्यूनरल से लौटी भीड़ शराब और सैंडविचेज़ में डूब उतर
रही थी, 'फ़ार सच ए यंग फेलो, ही वाज़ एन एलीफैंट, माइ शोल्डर
स्टिल हर्टस', एक लंबा चौड़ा गोरा युवक अपने कंधे दबाता बोला
और उसके अन्य साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई, 'ही डाइड
ईटिंग, यू नो।'
माया ने सोचा कि अमेरिका में
अर्थी उठाने वालों का क्या हाल होता होगा क्यों कि वहाँ तो हर
तीसरा व्यक्ति मोटापे से ग्रस्त है। दो ही दिन बचे हैं खाने
को। यदि वह दो दिन कुछ न भी खाए तो भला उसका कितना वज़न कम हो
जाएगा। बेचारी ने सलाद और संतरे के जूस का ही और्डर दिया।
जल्दी से खा पीकर वह सीधे जिम पहुँची कि यदि वह जम कर व्यायाम
करे तो एक किलो वज़न तो वह घटा ही सकती है। कम से कम उसके बेटे
ये तो नहीं सोचेंगे कि ममा कितनी भारी थी, उनके कंधे तो नहीं
दुखेंगे।
खाने से उसे यह भी याद आया कि
जीजाजी की तेरहवीं के अवसर पर बनवाई गई कद्दू की सब्ज़ी को लोग
आज भी याद करते हैं। पर बच्चों को तो ये भी नहीं पता होगा कि
कद्दू क्या होता है। अपनी तेरहवीं का मेन्यु भी वह स्वयं ही
बना के रख दे तो बच्चों का एक और सिरदर्द दूर हो जाए। कहीं
उसके बच्चे भी ये न सोचें कि माँ को उन पर ज़रा भी विश्वास न
था तभी तो सारे इंतज़ाम करके गई पर उसे कहाँ बस था स्वयं पर।
क्रिसमस के कार्ड तक तो वह अक्तूबर में लिख कर रख लेती है।
अच्छा हुआ कि केवल दिन का ही नोटिस मिला अन्यथा मृत्यु की
तैयारी में वह महीनों लगी रहती।
घर वापस आकर उसने अपनी तसल्ली
के लिए एक फ़ाइल खोल ही ली। पहले पन्ने पर अंत्येष्टि निदेशक,
उसकी सहायक और दो तीन जाने माने खान पान प्रबंधकों के नाम,
पते, फ़ोन और उनके ईमेल आदि लिख दिए, अपनी एक टिप्पणी के साथ
कि वे चाहें तो मौसा जी की तेरहवीं पर सपना केटरर द्वारा परोसा
गया खाना ही दोबारा ऑर्डर कर सकते हैं जो सभी को बहुत पसंद
आया था। हाँ, यदि वे कुछ नया या आधुनिक आयोजन करना चाहें तो
माया को कोई आपत्ति नहीं होगी।
आगंतुकों की भीड़-भाड़ में घर
की सफ़ाई, चाय पानी के इंतज़ाम के लिए ममता का होना आवश्यक है।
हालाँकि माया की मृत्यु का समाचार सुन कर कहीं उसके हाथ पाँव
ही न छूट जाएँ। बेटे का जीवन सँवारने के लिए ममता रात दिन
लोगों के घरों में सफ़ाई करती है। वह तो शायद कभी ये भी नहीं
जान पाती होगी कि कब फूल खिले, कब पत्ते झड़ें या कब बरसात हुई।
'नारायण, नारायण' जपती वह पोचे मारती है, 'नारायण, नारायण'
करती वह बर्तन धोती है और 'नारायण, नारायण' करके उसने माया की
नाक में दम कर रखा है। बर्फ़ में भी वह बिना मोज़े पहने निकल
पड़ती है घर से। दास्तानों की तो बात दूर है। अकड़े हाथों से न
जाने कैसे काम करती है। ठंड के मारे उसके पैरों की बिवाइयों
में खून भी जम जाता है।
ममता एक भारतीय राजनयिक और
उनके परिवार के साथ लंदन आई थी, जिन्हें कार्यवश जल्दी ही
स्वदेश वापस जाना पड़ा। वे उसे को दो वर्षों के लिए यहीं छोड़
जाने को राज़ी हो गए थे कि यहाँ वह कुछ पैसा कमा लेगी। नारायण
तुला है किसी भी क़ीमत पर माँ के पास आने को और ममता दिन रात
यही सोचकर डरती रहती है कि यदि उसकी मंशा किसी को भी पता लग गई
तो गुंडे उसका न जाने क्या हश्र करें। नारायण का पासपोर्ट बन
चुका है और माँ के पास आने की बेचैनी में उसे लगता है कि माँ
जल्दी से टिकट क्यों नहीं भेज रही। भूखे प्यासे रह कर पैसा
जोड़ने के सिवा वह और क्या कर सकती है। बच्चे कहाँ समझते हैं
माँ की मजबूरियाँ, उसकी बेबसी और उसकी चिंता।
बच्चे क्या जाने कि मृत्यु
क्या होती है। उन्हें तो छोटी बड़ी हर चीज़ चाहिए। माया की
पोती, रिया, जब केवल ढाई वर्ष की थी तो दादा की बेशकीमती घड़ी
लेने की ज़िद कर रही थी। माया ने हँसी-हँसी में कह दिया कि
दादा जी के बाद ये सब उसी का तो ही है। रिया ने झट पूछा,
'दादी, वैन विल दादु डाई?' माया सन्न रह गई थी। अरुण ने बच्ची
को एक थप्पड़ मार दिया। रोती हुई रिया को उषा घसीट कर अपने
शयनकक्ष में ले गई, क्रोध में ये कहती हुई, 'आर यू मैड, अरुण?'
रिया बच्ची थी और नहीं जानती
थी कि उसे घड़ी तो अवश्य मिल जाएगी पर वह अपने प्यारे दादु को
खो देगी। वैसे कितने ही लोग हर रोज़ अपने संबंधियों के मरने की
राह देखते हैं। अभी हाल में ही केवल एक हज़ार डॉलर्स के लिए दो
पोतों ने मिल कर अपनी दादी की हत्या कर डाली। दहेज की वजह से
बहुओं की हत्या का भी कारण यही लालच है। माया सोचती है कि अपने
जीते जी ही बच्चों को सब दे देना चाहिए। किंतु हवस का तो कोई
ठिकाना नहीं। जितना पैसा माँ बाप दहेज़ में लगाते हैं, कितना
अच्छा हो कि यदि वे अपनी बच्चियों की पढ़ाई लिखाई पर खर्च करें
ताकि वे अपने पाँव पर खड़ी हो सकें, उनके बुढ़ापे की लाठी बन
सकें पर न जाने क्यों आज भी इसकी अपेक्षा तो बेटों से ही की
जाती हैं।
दो बेटों के होते हुए भी आज
माया कितनी अकेली है। हालाँकि वे माँ को अपने पास रखने को
सहर्ष तैयार हैं, पर उनका मन किसी के साथ रहने को माने तब न।
एक महक ही है जो बिना नागा फ़ोन पर उनका हालचाल पूछती रहती है।
जब मौका मिलता है, आ जाती है, उनके सिर में तेल मलती है, उनके
नए पुराने कपड़े छाँटती है और अब भी उनसे चिपट कर सोती है। महक
और पीटर कभी-कभी उसे ज़बरदस्ती सेंट एंड्रूज़ ले जाते है।
किंतु वही बेटियों के घर में रहने खाने की बात उसे खटकती है।
जबकि यहाँ सासें दामादों के यहाँ रहती हैं। माया सोचती है कि
वह स्वयं भी कितनी दोगली है कि एक तरफ़ जहाँ वह दर्शन और आदर्श
बघारती है, दूसरी तरफ़ उन्हीं बातों के लिए दूसरों की निंदा
करती है। जैसी भी है, माया अब तो बदलने से रही। बुराइयाँ
किसमें नहीं होतीं, अच्छाइयाँ भी उसमें कम नहीं। कोई ज़रा माया
से सहायता माँग तो ले, चाहे उसके पास समय या हिम्मत हो न हो,
वह न नहीं कर सकती। उत्साह में तो वह ये भी भूल जाती है कि
किसका काम है, क्या काम है, उसके पास समय होगा भी कि नहीं।
पूरे ज़ोर शोर से जुट जाती है। व्यवस्था का कोई भी पहलू मजाल
है कि उसकी आँख से छूट जाए। शवपेटिका की व्यवस्था माया कर ही
चुकी थी। बच्चों पर छोड़ देती तो वे सबसे महँगी लकड़ी का
सुनहरी कुडों से जड़ा बक्सा ही ख़रीदते। शव को कपड़े में
लपेटकर भी काम चलाया जा सकता है। भारत में लोग कितने यूज़र
फ्रेंडलि हैं। हर चीज़ को रीसाईक्ल करते हैं। भाड़ ही में तो
झोंकना है, पानी में पैसा बहा देने का क्या फ़ायदा। इससे तो वो
पैसा किसी ग़रीब के काम आ जाए तो अच्छा हो। पर कौन देकर जाता
है कुछ ग़रीबों को। कब से सोच रही है माया कि रॉयल स्कूल ऑफ़
ब्लाइंड की सहायता करने को पर बात है कि बस टलती चली जाती है।
वह कल अवश्य जाएगी। हालाँकि पिछले हफ़्ते ही उसने कुछ धन हरे
रामा हरे कृष्ण वालों को दिया था पर उस दान से उसे कुछ भी
तृप्ति नहीं मिली थी। वह घंटों बैठी सोचती रही कि उन्हें कितना
पैसा दान दे, सब कुछ उन्हीं को दे दे, या दे भी कि नहीं।
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