ऐसे में अगस्त्य अकेले लंदन
निकल पड़ा। मगर मन उदास था, आँखें भी नम हो आई थीं। ऐसा नहीं
था कि मानू से तब उसका रोज़ मिलना होता था, लेकिन लंदन-कोलकाता
की दूरी की तुलना में बंगलौर-कोलकाता की दूरी बहुत अधिक तो
लगती ही थी।
अगस्त्य लंदन की फ़्लाइट में
बैठा तो बुझे मन से लेकिन एक बार जब लंदन पहुँच गया तो फिर
उसका मूड ठीक हो गया। ऑफ़िस की तरफ़ से रहने-खाने का प्रबंध
पहले से था और काफ़ी अच्छा था। ऑफ़िस में सारे सहकर्मी
अँग्रेज़ थे, लेकिन उन्होंने इतनी आत्मीयता से बातें की उसके
साथ कि एक-दो दिन में ही वह सहज होकर काम में रम गया। छुट्टी
के दिन आस-पास घूमने निकला तो हर जगह भारतीय, या भारतीय जैसे
लोग दिखने लगे। एक दूकान में गया तो वहाँ दाल-चावल से लेकर
अचार-पापड़ सब दिखाई दिया। साफ़-सुथरा और अच्छी तरह से पैक्ड।
और तो और एक दिन तो उसे पारले बिस्कुट और सनलाइट साबुन भी दिख
गया जो अब भारत में भी मुश्किल से दिखता है
अगस्त्य को लंदन में मज़ा आने
लगा।
ऐसे में ही एक शाम को अगस्त्य निकला हिंदी फ़िल्म देखने। काम
ख़त्म किया और जल्दी से स्टेशन की तरफ़ लपका। हिंदी फ़िल्म लगी
थी एक देसी इलाक़े में। थिएटर का नाम - हिमालया सिनेमा।
''सोचो तो मानू, कोलकाता में तुम सिनेमा देखोगी न्यू एंपायर और
मेट्रो में, और यहाँ लंदन में मैं कहाँ देखूँगा - हिमालया
सिनेमा में!'' फ़ोन पर हँसते हुए बताया था सुबह मानू को उसने
और मानू भी खिलखिला उठी थी।
स्टेशन पहुँचकर
ट्रेन पकड़ने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतर ही रहा था अगस्त्य,
कि देखा ट्रेन आ रही है प्लेटफ़ॉर्म पर।
'भागूँ तो ट्रेन मिल जाएगी वरना फिर इंतज़ार करना होगा अगली
ट्रेन का' ये सोचते हुए अगस्त्य दो-दो सीढ़ियाँ फाँदते हुए
भागा ट्रेन की ओर। प्रयास सफल रहा। ट्रेन के दरवाज़े के खुलने
से पहले ही अगस्त्य प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच चुका था और कुछ ही पल
में ट्रेन के भीतर था।
दरवाज़ा बंद होने को था कि तभी अगस्त्य ने देखा, एक अँग्रेज़
महिला, एक और वृद्ध महिला का हाथ थामे, घबराई हुई-सी, ट्रेन की
ओर आ रही है।
''कमॉन मॉम...कमॉन...वी कैन कैच द ट्रेन'', महिला ने कहा और
अपनी माँ का हाथ थामे ट्रेन की ओर लपकी।
अँग्रेज़ महिला
ट्रेन में चढ़ पड़ी। तभी दरवाज़ा बंद होने लगा। महिला ने देखा
कि माँ बाहर ही रह जाएगी तो वो वापस उतरने लगी। लेकिन इस सबके
बीच उस महिला के हाथ का पॉलिथिन दरवाज़े में फँस गया। महिला तो
बाहर आ गई लेकिन उसके हाथ का पॉलिथिन ट्यूब के भीतर रह गया।
दरवाज़ा बंद हो चुका था और पॉलिथिन भीतर फँसा था, दरवाज़े के
दोनों पल्लों के बीच अटका।
''ओ माई गॉड!'' महिला चीखी। उसने हाथ खींचा। लेकिन उसके हाथ
खींचने के साथ ही पॉलिथिन का हैंडिलुनमा ऊपरी हिस्सा, टूट गया।
तबतक ट्रेन चल पड़ी।
ट्रेन के भीतर
बैठे-खड़े सभी लोग ये नज़ारा देख रहे थे। अगस्त्य ने भी देखा,
दोनों महिलाएँ बिल्कुल परेशान थीं। कुछ ही पल में ट्रेन चल
पड़ी। पॉलिथिन दरवाज़े में अटका रहा। उसके भीतर से गुलाब का एक
फूल बाहर झाँक रहा था। सफ़ेद गुलाब।
दरवाज़े के पास ही खड़ा अगस्त्य, भौंचक-सा ये सोचने लगा कि अब
क्या होगा। उसने देखा, ट्यूब के भीतर सब जैसे हैं वैसे ही बैठे
हैं, खड़े हैं। कुछ मुस्कुरा भी रहे हैं। मुस्कुराते लोगों को
देख अगस्त्य के होठों पर भी मुस्कान आ गई। ट्रेन चलती रही,
पॉलिथिन फँसा रहा, सब देखते रहे, किसी ने उसको नहीं छुआ।
कोई तीन-चार मिनट
बीते होंगे कि अगला स्टेशन आ गया। दरवाज़ा खुला और एक झटके में
पॉलिथिन नीचे ट्यूब में ही जा गिरा। एक शीशी के टूटने की आवाज़
आई। अगस्त्य ने देखा, एक शीशी गिरी है, जिससे दवा जैसी कोई
चीज़ बहने लगी है, लाल, ख़ून के रंग की। कुछ कैप्सूल्स और
टैबलेट के पैकेट भी गिरे हैं। और वो गुलाब का फूल भी गिरा है।
मगर अब वो लाल दवा में सन चुका है।
प्लेटफ़ॉर्म पर भीतर आनेवाले यात्री, फ़र्श पर गिरे पोलिथीन को
देखकर चौंके। फिर एक ने पैर से उसे प्लेटफ़ॉर्म पर गिरा दिया।
अगस्त्य ने दरवाज़ा बंद होने से पहले एक बार फिर पलटकर देखा,
पॉलिथिन पर लिखा है – बूट्स।
ट्रेन फिर चल पड़ी।
अगस्त्य समय पर पहुँचा हिमालया सिनेमा। फ़िल्म देखी, और फिर
गुनगुनाता हुआ वापस अपने रूम पर लौट आया।
उसी रात, कोई दो बजे होंगे, कि अचानक अगस्त्य का गला सूखने
लगा। वो बिस्तर पर ही बेचैनी में कसमसाने लगा। एक कराह-सी भी
निकली। अचानक वो घबराकर उठ गया।
एक सपने ने अगस्त्य को कड़ाके की ठंड में पसीने-पसीने कर दिया।
उसने सपने में दोनों महिलाओं को देखा, जिनका पॉलिथिन ट्यूब में
रह गया था।
महिला भरी हुई आँखों से अपनी माँ से कह रही थी, ''इतनी महँगी
दवा थी माँ, अब मैं क्या करूँ, अब तो हमारे पास पैसे भी नहीं
हैं?''
''चिंता मत करो बेटी, हो सकता है कोई भला आदमी पॉलिथिन निकालकर
रेलवे कर्मचारियों को दे दे, हम अगली ट्रेन से चलकर देखते हैं,
अगले स्टेशन पर'' महिला की माँ ने कहा।
फिर सपने में ही, आगे अगस्त्य ने देखा कि वो महिला एक बिस्तर
के पास खड़ी रो रही है। बिस्तर पर उसकी माँ है, जो अब इस
दुनिया को छोड़ चुकी है।
यहीं पर अगस्त्य की
नींद खुल गई। गला सूख रहा था। अगस्त्य ने उठकर गिलास से पानी
पिया और फिर सोचने लगा, 'आज तो बड़ी ग़लती हो गई। मैंने क्यों
नहीं पॉलिथिन उठाया? क्यों नहीं तत्काल अपना दिमाग़ लगाया?
क्यों मैं देखता रहा कि कोई और उसे उठाए? सिनेमा के लिए देर
होती तो होती! क्या हो जाता? क्यों मैं दूसरों का चेहरा देखे
जा रहा था? मैं…मैं तो मुस्कुरा रहा था, जैसे ये कोई हँसने
वाली बात हो!'
उसके बाद कई दिनों
तक अनमना-सा रहा अगस्त्य। लोगों ने पूछा भी कि क्या हुआ, पर वो
चुप रहा। मानू ने भी फ़ोन पर बात करते समय उसकी आवाज़ में
उदासी को पकड़ा और इस बारे में पूछा। पर अगस्त्य चुप रहा। फिर
कुछ दिनों बाद वो अपने-आप सामान्य हो गया।
''हमें इसी स्टेशन पर उतरना है या अगले वाले पर?'' मानू की
आवाज़ सुनकर अगस्त्य ख़यालों से बाहर आया।
''कौन-सा स्टेशन आ रहा है?''
''ऐक्टन टाउन।''
''नहीं, हमें इसके बाद वाले स्टेशन पर उतरना है।''
ट्रेन एक स्टेशन पर
रुक रही थी। अगस्त्य अभी भी सात साल पहले की उस घटना में खोया
था। तभी उसने देखा, सामने बैठी महिला और बच्ची अपनी सीट से
उठकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ रहे हैं। अगस्त्य की नज़रें बच्ची से
मिलीं, बच्ची ने भी उसे कुछ पल तक देखा। और मुस्कुराई। अगस्त्य
उसे देखता रहा।
अचानक महिला ने अपने बैग से एक चीज़ निकालकर बच्ची से कहा, ''
कैन यू कीप इट इन द पोलिथिन, बेबी?''
बच्ची ने महिला के हाथ से सामान लेकर अपने हाथ में रखे पॉलिथिन
बैग में रख लिया। ट्रेन तबतक रुक चुकी थी प्लेटफ़ॉर्म पर।
दरवाज़ा खुला और माँ-बेटी बाहर निकल गए।
अगस्त्य एकटक उनको दरवाज़े से निकलते देख रहा था। और फिर उसे
एक ऐसी चीज़ दिखी, जिसने उसे काठ बना दिया।
अँग्रेज़ माँ, एक
हाथ में काला बैग और दूसरे में बच्ची का हाथ पकड़े प्लेटफ़ॉर्म
पर जा रही थी। बच्ची के हाथ में बूट्स का पॉलिथिन बैग था। और
उससे एक गुलाब झाँक रखा था, सफ़ेद गुलाब। कुछ देर पहले उसकी
माँ ने बैग से जो चीज़ निकालकर बच्ची को दिया था, वो यही गुलाब
था। सफ़ेद गुलाब।
''क्या हुआ? अभी तो तुम ही मुझसे कह रहे थे कि यहाँ किसी को
घूरना अच्छा नहीं माना जाता?'' मानू ने अगस्त्य की ओर देखकर
कहा।
''नहीं, ऐसे ही कुछ…'' अगस्त्य ने मानू की तरफ़ देखकर कहा, और
हथेली से अपने माथे पर आई पसीने की बूँदों को पोंछने लगा। |