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माँ-बेटी दोनों ही के बाल सुनहरे थे। माँ के बाल खुले थे, बेटी के सिर पर नीले रंग का हेयरबैंड था।
''कितना ख़तरनाक काम किया तुमने, कुछ हो जाता तो?''  मानू ने अँग्रेज़ महिला की ओर देखते हुए अगस्त्य से कहा।
''कुछ नहीं होता, यहाँ ये कॉमन बात है, अक्सर देखोगी ऐसा, ट्रेनवाले भी समझते हैं।''  अगस्त्य ने मानू से कहा। मगर मानू का चेहरा बता रहा था कि उसे अपने पति का ये साहस कुछ पसंद नहीं आया।

अगस्त्य सिन्हा अपनी पत्नी मानू रायचौधरी के साथ एक सप्ताह पहले ही लंदन पहुँचे थे। बंगलौर से कंपनी ने एक प्रोजेक्ट पर भेजा था। काम छह महीने में पूरा हो जाना था। फिर अगला प्रोजेक्ट मिला तो रुकना होगा वरना वापस...बंगलौर। फिर वहाँ निर्देश हुआ तो किसी और देश के लिए निकलना पड़ेगा, नए प्रोजेक्ट पर। हो सकता है फिर लंदन ही आना पड़ जाए!

शुरू में अच्छा लगता था अगस्त्य को ये देश-देश का भ्रमण। कॉलेज के दिनों में क्रिकेट काफ़ी खेला करता था वो, इसलिए दौड़-भाग उसे बहुत अच्छा लगता था। लेकिन अब थोड़ा उकता गया था वो इस दौड़-भाग से। सॉफ़्टवेयर इंजीनियरिंग में पैसा मिलता तो अच्छा है, लेकिन उसे कमाने के लिए दुनिया भर का चक्कर लगाते रहना पड़ता है। एक वर्ष भी किसी एक जगह टिक गए तो बहुत है। सात साल पहले भी आना हुआ था लंदन अगस्त्य का। बाद में पेरिस भी जाना पड़ा और ब्रसेल्स भी। लेकिन तब अगस्त्य अकेला था। शादी तीन साल पहले हुई। पिछले साल सिंगापुर के तीन महीने के, और शंघाई के पाँच महीने के प्रोजेक्ट पर मानू साथ गई थी।

लेकिन एक बात थी, देश-विदेश के चक्कर लगाते रहने के बाद भी अगस्त्य आदमी बिल्कुल देसी था। कम-से-कम खाने-पीने के मामले में तो शत-प्रतिशत देसी। चाइनीज़, पास्ता, सैंडविच, पित्ज़ा खा तो लेता था, लेकिन इन सबसे केवल पेट भरता था। आत्मा उसकी संतुष्ट होती थी भात-दाल और रोटी-तरकारी से ही। पीने के मामले में भी, पार्टी-सोसाइटी में आहिस्ता-आहिस्ता बीयर-वाइन-वोद्का से परिचय हो चुका था, लेकिन इनसे भी केवल जिह्वा संतुष्ट होती थी। आत्मा को तो तृप्ति मिलती थी चाय से। बिल्कुल देसी स्टाइल वाली। इसीलिए कहीं भी जाना हो, चाय की छलनी उनके अत्यावश्यक सामानों की सूची में शामिल रहती थी क्यों कि टी-बैग में उसे 'असली आनंद' नहीं मिलता था। चाय को उबाला नहीं और छाना नहीं तो चाय कैसी!

यही देसीपन वो कारण था कि विवाह के लिए अंग्रेज़ तबीयत वाली कन्याओं के प्रस्तावों को बिना विचार किए ही ख़ारिज कर उसने शादी की थी - मानू रायचौधरी के साथ। प्रेम विवाह।

अगस्त्य आई.आई.टी खड़गपुर में पढ़ता था। रूम पार्टनर वरुण बैनर्जी कोलकाता का रहनेवाला था। अगस्त्य की अच्छी दोस्ती हो गई थी उसके साथ। अक्सर वरुण के माता-पिता होस्टल आते तो अगस्त्य को कोलकाता आने के लिए कहते। आख़िर एक बार अगस्त्य कोलकाता की दुर्गापूजा देखने कुछ दिन के लिए वरूण के घर गया। वहीं पहली बार मिला वो मानू रायचौधरी से, जो रिश्ते में वरुण की दूर की बहन लगती थी।

शांत, सुशील, सुंदर मानू शांतिनिकेतन में पढ़ रही थी तब। विश्वभारती विश्वविद्यालय के फ़ाइन आर्ट्स विभाग में। फिर अगस्त्य और मानू के बीच मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ा - अगस्त्य शांतिनिकेतन घूमने गया, मानू आईआईटी घूमने आई। और फिर छात्रावस्था के उन दिनों के कोई पाँच वर्ष बाद, इस समय दोनों एक दूसरे के जीवनसाथी बनकर लंदन की ट्यूब में सफ़र कर रहे थे।

''चलो सीट खाली हुई, बैठते हैं।''  मानू ने अगले स्टेशन पर कहा और दोनों पति-पत्नी आराम से खाली हुई सीट पर बैठ गए। इस स्टेशन पर ट्रेन में भीड़ सच में कम हो गई थी। सब लोगों के बैठने के बाद भी कई सीटें खाली रह गई थीं।
अँग्रेज़ महिला भी अपनी बेटी के साथ अगस्त्य के सामनेवाली सीट पर बैठ गई। बेटी सामने, यानि अगस्त्य के सिर के ठीक ऊपर, स्टेशनों के नामों को देखकर माँ से कुछ पूछ रही थी। माँ सूची की ओर उँगलियाँ दिखाते हुए समझा रही थी कि अभी वे किस स्टेशन से निकले और उनको जहाँ उतरना है वो स्टेशन और कितनी दूर है।

''देखो ये है टिपिकल अँग्रेज़ घरेलू परिवार मानू, मगर घूरना मत, यहाँ अच्छा नहीं माना जाता है।''  अगस्त्य ने मानू से कहा।
''हूँ-हूँ...देख रही हूँ, सुंदर बच्ची है।''  मानू ने कहा।
''अपने यहाँ अक्सर लोग समझते हैं कि अँग्रेज़ लोग बड़े मैटेरियलियस्टिक होते हैं। पश्चिम की संस्कृति का ही मतलब भोग की संस्कृति है जहाँ रिश्ते-नाते कोई मायने नहीं रखते। अब मुझे ऐसा कोई बहुत अनुभव तो नहीं है, लेकिन आस-पास देखता हूँ तो लगता है कि अंग्रेज़ों में भी फ़ैमिली वैल्यूज़ को कम महत्व नहीं दिया जाता।''
''हूँ...सच में, अच्छा-बुरा तो हर जगह होता होगा।''
''मगर अपने यहाँ लोगों ने ऐसा जनरलाइजेशन कर दिया है कि लगता है अंग्रेज़ी सभ्यता का मतलब ही है केवल ग्लैमर। जो चमक-दमक होती है, या जो कुछ दिखता है सिनेमा में-टीवी पर, उसी के आधार पर लोग मान्यताएँ बना लेते हैं। लेकिन उनकी भी क्या ग़लती, असलियत क्या है उसे बिना अनुभव किए कैसे समझा जा सकता है। हमारे देश में भी तो जिसने गाँव की मिट्टी में पैर नहीं रखा, वो तो गाँव को उसी निगाह से देखता होगा, जो टीवी-सिनेमा दिखाते हैं।''
''मैंने तो भई गाँव को काफ़ी देखा है, शांतिनिकेतन से अक्सर हम संथालों के गाँवों में जाया करते थे। वहाँ तो हर आदमी-जानवर, झोपड़ी-घर, पेड़-पहाड़, नदी-नाले अपने-आप में एक आर्ट थे। मैंने बहुत सीखा वहाँ जाकर।''
''अब देखो ये माँ-बेटी जिस तरह से बात कर रही हैं उससे क्या लगता है कि कहीं हमारे यहाँ से बिल्कुल अलग हैं ये लोग?''
''बिल्कुल नहीं। कितने प्यारे लग रहे हैं दोनों।''

ट्रेन की गति बढ़ गई थी और इस कारण हो रहे शोर के कारण बात करना मुश्किल हो रहा था। दोनों चुप हो गए।
अचानक अगस्त्य की निगाह बच्ची की गोद में रखे पॉलिथिन बैग पर गई। बी.ओ.ओ.टी.एस. - बूट्स लिखा था बैग पर। दवाएँ, साबुन, टूथपेस्ट, चश्मा, कॉस्मेटिक्स और ऐसी आम ज़रूरत की कई चीज़ों के स्टोर का नाम। ब्रिटेन का एक जाना-माना स्टोर।
कई बार ऐसा होता है कि किसी छोटी-सी चीज़ से एक झटके में पुरानी यादें उभर आती हैं। अगस्त्य को भी एक झटके में सात साल पहले की एक शाम याद आ गई। लंदन की एक शाम।

विदेश यात्रा का पहला अवसर था अगस्त्य का। आई.आई.टी. में प्रायः, पढ़ाई पूरी होने से पहले ही कैंपस रिक्रूटमेंट में अच्छी नौकरियाँ मिल जाया करती हैं। फिर उसका ट्रेड - कंप्यूटर साइंस – तो ऐसा कोर्स था जिसके बारे में आई.आई.टी. में किंवदंती-सी बना दी गई थी...छात्र कहते – ''अगर कंप्यूटर साइंस के किसी छात्र को जीवन से बिल्कुल ही निराशा हो गई हो, और ऐसे किसी पल में, अगर वो घुप्प अँधेरे में, जान-देने के लिए किसी छज्जे से छलाँग लगाएगा, तो भी, गारंटी है कि वो किसी-ना-किसी बड़ी कंपनी की गोद में गिरेगा!''
अगस्त्य को भी देश की सबसे अच्छी कंपनी का बुलावा मिला। नौकरी में आकर उसने अपनी क़ाबिलियत साबित भी की, जिसके कारण साल भी नहीं बीता था कि कंपनी ने उसे एक प्रोजेक्ट पर लंदन भेज दिया।

मानू तब खुश भी हुई थी और उदास भी। खुश इसलिए कि अगस्त्य को अच्छा मौक़ा मिला। उदास इसलिए कि वो सात समुंदर पार जा रहा है। चाहता तो अगस्त्य भी था कि शादी कर मानू को लेकर लंदन जाए, लेकिन समय नहीं था। शादी तो आजकल झट से हो जाती है, लेकिन यहाँ स्थिति ये थी कि अगस्त्य ने अपने माता-पिता को अभी मानू के बारे में बताया तक नहीं था।

अगस्त्य के पिताजी बिहार के पूर्णिया शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल - ज़िला स्कूल - में अर्थशास्त्र पढ़ाते थे। पहनावा - धोती-कुर्ता, चेहरा - हमेशा क्लीन शेव्ड और आँखों पर - मोटे फ्रेम और तगड़े पावर वाला चश्मा। चेहरे पर सदा एक सौम्य-सी गंभीरता रहा करती थी जिससे बाहर से तो पुराने संस्कारों में विश्वास रखनेवाले व्यक्ति लगते थे अगस्त्य के पिता। लेकिन सोच उनकी आधुनिक थी। बचपन से सुनता आया था अगस्त्य ये ब्रह्मवाक्य अपने पिता के श्रीमुख से - व्यक्ति को केश और कपड़ों से नहीं, सोच से मॉडर्न होना चाहिए। इसलिए अगस्त्य को इतना तो विश्वास था कि जाति-भाषा-समाज-प्रदेश के नियमों को ताक पर रखकर, मानू के साथ संबंध के प्रस्ताव पर पिता जी आपत्ति नहीं करेंगे। लेकिन अगस्त्य नहीं चाहता था कि ये बात जल्दबाज़ी में बताई जाए। वह उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन पढ़ाई के बाद बंगलौर में नौकरी, और अब अचानक लंदन की तैयारी, इन सबके बीच वो उचित अवसर नहीं आ सका।

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