| 
                     पुलिस वालों ने विनोद से लंबी 
                    पूछताछ के बाद उससे कहा कि वह यह घर छोड़ दे और वह कहीं और 
                    इंतज़ाम कर ले। साथ में यह भी हिदायत दी कि वह पूर्णिमा की 
                    मर्जी के बिना उससे नहीं मिल सकता। जब भी बच्चे से मिलना हो तो 
                    पुलिस स्टेशन आकर एक कर्मचारी के साथ मिल सकता है। उससे कहा कि 
                    वह आवश्यक सामान उठा ले। ''याई थ्रेंगेर इंगेन थिंग।(मुझे कुछ नहीं चाहिए।)'' विनोद ने 
                    कहा।
 पुन: सिपाही ने पूछा, ''तुम्हारे पास पैसे या बैंक कार्ड है?''
 ''या... या...याई हार नोक पेंगेर, याई हार योब, याई अर इके 
                    अरबाइद्सलेदी। (हाँ हाँ मेरे पास पर्याप्त धन है, मेरे पास 
                    नौकरी है, मैं बेरोज़गार नहीं हूँ।)'' विनोद ने उत्तर दिया और 
                    अपना जैकेट पहनने लगा।
 जब पुलिस वाले ने उसे साथ चलने को कहा तो वह कहने लगा,
 ''वूरफार? वा हार याई युर्ट? (क्यों? हमने क्या किया है?)
 ''तुम अब इस घर में नहीं रह सकते। तुम्हें पुलिस स्टेशन पर 
                    कर्तव्य और अधिकार की प्रति मिल जाएगी। हाँ ज़रूरत पड़ने पर 
                    तुम मुझे फ़ोन कर सकते हो।'' पुलिस के सिपाही ने कहा।
 महिला पुलिस ने पूर्णिमा से कहा, ''नोर हान बेस्योके दाई, था 
                    कोनथाक्त मे ओस मे एन गंग। (जब विनोद तुमसे मिलने आए तो एक बार 
                    में संपर्क करना।)
 ''या...थक। (हाँ, धन्यवाद।)'' पूर्णिमा ने जवाब दिया।
 जब तक पुलिस वाले और विनोद 
                    उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गए वह खिड़की से देखती रही। पुलिस 
                    वाले अपनी कार पर गए और विनोद अलग ट्राम स्टेशन की तरफ़ पैदल 
                    जाता दिखाई दिया।पुलिस और विनोद के जाते ही पूर्णिमा विचारों में खो गई। उसे 
                    अपनी शादी और विदाई का दिन स्मरण हो आया। क्या पता था कि जिसके 
                    साथ पूरा जीवन साथ रहने की कस्में खाईं थी वह पाँच साल में अलग 
                    हो जाएगा। वह अंतर्मन के रास्ते तलाश रही थी।
 विनोद ट्राम स्टेशन की ओर बढ़ 
                    रहा था। बरफ़ के ढेलों को पैरों से मारता और वे बिखर जाते। 
                    उसके मन के ज्वार-भाँटे एकदम ऐसे चकनाचूर हो जाएंगे उसने सोचा 
                    नहीं था। उसे लगता था वह सही है और पूनम ग़लत। दूसरी तरफ़ 
                    पूर्णिमा विचार करती, 'पति पत्नी का संबंध प्रेम, विश्वास और 
                    आपस में दिए जाने वाले समान आदर पर आधारित होना चाहिए। पति और 
                    पत्नी को एक दूसरे की इच्छा के विरुध्द काम नहीं करना चाहिए।' 
                    उसे अपने अंतरमन में एक नया रास्ता दिखाई दे रहा है जिसमें 
                    प्रताड़ना और अत्याचार सहने और करने का कोई स्थान नहीं है। 
                    बाहरी रास्ते जब बंद होने लगें तब व्यक्ति को अपने अंतर्मन में 
                    मनन करना चाहिए जिससे आत्मनिर्णय की शक्ति बढ़ने लगती है। वह जब यहाँ (नार्वे) आई थी, 
                    वह यह देखकर हैरान थी कि कैसे बेशरमी से लोग यहाँ खुले आम सभी 
                    के सामने चुंबन लेते दिखाई देते। प्रेम मे कोई शरम नहीं? विवाह 
                    के पूर्व वस्त्रों की तरह अपने प्रेमी-प्रेमिकायें को बदलते 
                    लोग पूर्णिमा को बहुत बेशरम लगे थे, जो आदर्श जैसे सिध्दांत से 
                    कोसों दूर और अनुशासन की सीमा जिन्होंने कभी स्वीकारी नहीं।जब नार्वेजीय औरतें उसकी मदद करतीं और वे कभी भारतीय संस्कृति 
                    की संकीर्णता की निंदा करती तो पूर्णिमा बिफर जाती और तब वह 
                    भारतीय संस्कृति और उसके पहनावे का सदा पक्ष लेती। उसका तर्क 
                    था कि पुरुष प्रधान समाज ने नारी पर मनमाना राज्य करने के लिए 
                    जो उन्हें उपयुक्त लगा उसे परंपरा और धर्म का नाम दे दिया।
 पूर्णिमा प्राय: प्रश्न करती कि शादी के पहले यहाँ लोग आपस में 
                    साथ रहकर एक दूसरे को आज़माते हैं और बाद में विवाह करते हैं 
                    तब फिर यहाँ पचास प्रतिशत तलाक क्यों होते हैं?
 तो उसे जवाब मिलता कि यहाँ लोग बंधनमुक्त स्वतंत्र रहना चाहते 
                    हैं। तब वह कहती किससे बंधन और किससे स्वतंत्रता?
 वह यहाँ की पुलिस से बहुत 
                    प्रभावित है। कितनी ईमानदार और मददगार है पुलिस यहाँ। 
                    पढ़ी-लिखी और सभ्य। वह सोचती काश भारत में भी पुलिस की छवि बदल 
                    जाती। मिंटू पूछता, ''पापा कहाँ गए?''
 ''पता नहीं बेटा।'' अनिश्चितता का जवाब देकर वह अपने बेटे को 
                    चूम लेती।
 अदृश्य भविष्य की ओर समय कदम बढ़ाते चला जा रहा था और वह आयु 
                    को पीछे छोड़ते चली जा रही थी, अनिश्चितता से निश्चितता की ओर।
 दुखी विनोद अपने मित्र जग्गा 
                    सिंह के पास गया। उसने द्वार की घंटी बजाई। ईस्टर का दिन, 
                    रविवार, प्रात:काल के आठ बजे थे। ''इतनी जल्दी सुबह कौन हो सकता है?'' जग्गा सिंह की आवाज़ आई। 
                    जग्गा अपने बिस्तर से उठा। तापमानसूचक पट्टी पर देखा बाहर 
                    तापमान 6 था। पुन: घंटी बजी। उसने द्वार खोले।
 ''नमस्कार प्रा जी (भाई साहेब)!''
 ''नमस्कार, विनोद तू इतनी सुबह, कोई गल बात।''
 ''बताता हूँ। अंदर आने के लिए नहीं कहोगे?''
 ''क्यों नहीं त्वाडा (तुम्हारा) ही घर है। आओ जी बैठो।'' अंदर 
                    घुसते ही रसोई थी जहाँ दोनों कुर्सी खींचकर बैठ गए।
 ''दस्सो ( कहो) तुम्हारी क्या सेवा करूँ?'' कहकर जग्गा सिंह ने 
                    चाय के लिए पानी चूल्हे पर रख दिया और विनोद की तरफ़ मुख करके 
                    बैठ गया।
 विनोद ने सामने ऊपर खिड़की के 
                    बाहर देखा बादल छाये हुए थे पर दिन की रोशनी थी।''क्या बताऊँ?'' कहकर वह दोनों हाथों से सर को पकड़कर मेज़ पर 
                    कोहनी टेक कर बैठ गया। उसकी आँखें लाल मदभरी।
 ''बताओ सुबह-सुबह किस पार्टी से आ रहे हो?'' हरी ने पूछा।
 ''कुछ ठीक नहीं हुआ मेरे साथ। हरी! मेरी पत्नी ने मुझे घर से 
                    निकाल दिया है।'' नशे में दुत रुँआसी आवाज़ में विनोद के ओठ 
                    फड़कने लगे।
 ''वेरी सैड (बहुत दुख की बात है) पर क्यों?''
 विनोद सिसकियाँ लेने लगा। जग्गा ने पुन: प्रश्न किया,
 ''कुछ बातचीत, लड़ाई-झगड़ा कुछ तो हुआ होगा। फिर वह फ्लैट तो 
                    तेरे नाम है?''
 ''फ्लैट की छोड़ो। वह तो किराये का है। मेरा सब कुछ लुट गया। 
                    बहुत गंभीर बात हो गई। उसने पुलिस को बुला लिया था। तुम तो 
                    जानते हो कि यहाँ की पुलिस पहले बच्चों और औरतों की सुनती 
                    है।''
 ''कुछ और बात होगी इतनी सी बात के लिए कोई घर थोड़े ही छोड़ता 
                    है।'' हरी ने आशंका व्यक्त की।
 ''असल में पहले मैंने अपनी बीवी को निकाल दिया था।'' विनोद ने 
                    रुककर अपनी बात पूरी की।
 ''यह तूने क्या किया विनोद? मुझे फ़ोन कर लिया होता तो मैं 
                    तुम्हें कभी ऐसा करने न देता।''
 जग्गा ने अपने माथे पर हाथ रख लिया।
 ''कुछ खाने को मिलेगा, जग्गा!''
                    ''हाँ, क्यों नहीं, मेज़ की प्लेट में रखा पिज़्ज़ा उठा ले, कल 
                    का बचा रखा है। एक बात बताओ विनोद! तुम सुबह से ही पीने लगे। 
                    जानते हो ऐसा करोगे तो शराब तुम्हे पी जाएगी।''
 ''हिम्मत से काम लो और अपने आपको संभालो। अपने अंतर्मन की 
                    आवाज़ सुनो।''
 विनोद खाकर उठा और चलने को हुआ।
 ''कहाँ जाओगे विनोद?''
 ''जहाँ समय ले जाए।''
 विनोद ने जग्गा से विदा ली और बाहर आ गया।
 अब सूरज निकल आया था। कुछ 
                    पक्षी कलरव करते हुए उड़ रहे थे। पक्षी या तो घोंसले में वापस 
                    लौट आएंगे या मौसम के अनुसार किसी दूसरे बसेरे के लिए उड़ 
                    जायेंगे, परंतु विनोद जिस दशा में पहुँच गया है वहाँ कोई 
                    घोंसला उसकी प्रतीक्षा नहीं करेगा।वह नेशनल थिएटर के पास बैठ गया जहाँ एक संगीतकार वायलेन बजाकर 
                    कुछ सिक्के एकत्र कर रहा था। विनोद ने अपना मुख कैप से ढँक 
                    लिया और हाथ में एक काग़ज़ का कप लिए संगीतकार के साथ ही दीवार 
                    के सहारे बैठ गया।
 मैट्रो आई और उससे यात्री 
                    निकलकर बाहर आ रहे थे। उसे जानी पहचानी आवाज सुनाई पड़ी। उसके 
                    कप में सिक्के पड़ने की खनक पड़ी। उसने अपनी टोपी मुख से उठाई। 
                    सिक्के डालने वाले बच्चे ने कहा,''मम्मी, ये पापा।''
 ''कौन पापा।'' विनोद ने ध्यान से देखने की कोशिश की और हटात कह 
                    उठा, ''ओह मिंटू, मेरे बच्चे।''
 मिंटू को उसने गले लगा लिया। पूर्णिमा दूर खड़ी अविश्वसनीय 
                    दृश्य देख कर दहल उठी।
 पिता बेटे का मिलन वह भी इस दशा में, ऐसा उसने कभी स्वप्न में 
                    भी नहीं सोचा था।
 व्यक्ति को कर्म के प्रांगण 
                    में असावधानी में अनुकूल परिस्थितियाँ किस तरह प्रतिकूल हो 
                    जाती हैं वह यह सत्य अपने नयनों से देख रही थी। उसकी आँखों में 
                    अश्रुधार बह निकलती है जो उसे दु:ख में एक सीमा तक साथ तो दे 
                    सकती है परंतु परिस्थितियाँ तो बदल नहीं सकती।''पापा! तुम भी साथ चलो।'' मिंटू विनोद का हाथ खींच रहा था।
 ''मुझे यहीं रहने दो, मिंटू!'' कहकर विनोद ने हाथ छुड़ा लिया 
                    और मिंटू को अलग कर दिया।
 अपने पिता का इस तरह हाथ 
                    छुड़ाना उस नन्हे मिंटू को अच्छा नहीं लगा। वह रोता हुआ दूर 
                    खड़ी अपनी माँ के पास जाकर गले से लिपट गया। पूर्णिमा ने मिंटू 
                    को गोद में उठा लिया। मिंटू और विनोद एक दूसरे को देखते रहे जब 
                    तक वे एक दूसरे की आँखों से ओझल नहीं हो गए।  |