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प्रतीक्षा में पहले चाय परोसी गई।
''उनके किसी दोस्त को संपर्क करके देख लो,'' सरिता ने कहा।
''मैं अपने पति को जानती हूँ। बच्चे तो हैं नहीं कि गुम हो जाएँगे। रात ग्यारह बज गए। चलो खाना खाते हैं। अब मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकती।''
''पूर्णिमा, यह तो बताओ तुम्हारे और विनोद के बीच लड़ाई झगड़ा थमा कि नहीं?'' सरिता ने उसकी दुखती नब्ज़ को छू लिया था।
''अजी कहाँ, यही तो रोना है। विनोद रोज़ शराब पीकर आता है। मुझे समझ नहीं आता क्या करूँ?'' कहकर वह उदास हो गई।
''चिंता न करो, सब ठीक हो जाएगा।'' कहकर सरिता पूर्णिमा के पास आई और उसे गले लगा लिया और उसने हौसला बँधाया,
''रो मत पूर्णिमा, धीरज से काम लो।''
मिंटू सो गया।
पूर्णिमा बहुत चिंतित है, आख़िर वह क्या करे? वह कहने लगी,
''इस देश की भाषा नॉर्विजन मुझे आती नहीं है, बस केवल अपना किसी तरह गुज़ारा हो जाता है। अपनी बात किसी को अच्छी तरह समझा नहीं सकती हूँ न ही दूसरे की बात अच्छी तरह समझ आती है। भाषा के महत्व का मुझे अब ज्ञान हो गया है और भाषा के बिना मैं लगभग गूँगी-सी हो गई हूँ।

उनकी पीने की बुरी लत से तंग आ गई हूँ। जब देखो सुबह से पीने लगते हैं विनोद यह भी नहीं सोचते कि मिंटू पर क्या प्रभाव पड़ेगा। आए दिन लड़ाई-झगड़ा।
जब भारत से विवाह करके आई तो वहाँ सभी लोगों को लगा था कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मेरा विवाह विदेश में रह रहे लड़के से हुआ है। यह मेरे दिल से पूछो मेरे ऊपर क्या बीतती है।''
खाना खाने के बाद सरिता चली गई।

वह सोफ़े पर बैठी प्रतीक्षा करते-करते पता नहीं कब सो गई।
...........

द्वार की घंटी बजी। मिंटू को अलग लिटाकर उठी और द्वार फ़ोन उठाकर पूछा,
''कौन है?''
''मैं विनोद और कौन। दरवाज़ा खोल।''
उसने बटन दबाकर बाहर का द्वार खोल दिया और अपने बिस्तर पर आकर लेट गई। घड़ी पर दृष्टि डाली सुबह के छह बजे थे। कमरे के अंदर आकर विनोद ज़ोर से चीखा,
''मैं उधर ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें दे रहा था, घंटी बजा रहा था और तुमने बड़ी देर में दरवाज़ा खोला।'' कहकर वह लड़खड़ाता हुआ सोफे पर जाकर बैठ गया।
''तू कमाई करके कौन आया है, क्लब ही तो गया था। अपने बीवी बच्चों का भी ख्याल नहीं।'' वह रजाई के अंदर से बोली।
''बडी ठंड है, चल चाय बना दे।''
''चाय खुद बनाकर पी लो।''
''तू बहुत गुस्से में लगती है।''
''गुस्से की तो बात है। परसों तुमने शराब पीकर बहुत ऊधम मचाया था और आज पूरी रात क्लब में शराब पीते रहे। देखो कितनी गंध आ रही है।''
''शराब तो आधुनिक लोग पीते हैं।''
''मैंने देख लिया कि तुम कितने आधुनिक हो। बात-बात पर कितनी गंदी-गंदी गालियाँ देते रहे।''
''ऐसा कैसे हो सकता है। पूर्णिमा, मैं तुम्हें गालियाँ कैसे दे सकता हूँ? मैं तो तुम्हें प्यार करता हूँ।''
''बहुत प्यार करते हो। इतना प्यार करते हो कि तुमने मेरी ज़िंदगी ही ख़राब कर दी। यह ज्ञात होता कि मेरा पति इतना शराबी होगा तो मैं शादी के लिए कभी भी हाँ न करती।''
''क्यों नाराज़ होती हो, यहाँ तो अस्सी प्रतिशत लोग शराब पीते हैं।''
''पर मैंने यहाँ किसी को अपनी पत्नी को इतनी भद्दी गालियाँ देते नहीं देखा।''
''कौन गालियाँ नहीं देता। तुम भी गालियाँ देती होगी, चाहे मन मे ही क्यों न देती हो।''
''अब मेरा दिल ऊब चुका है यदि मिंटू साथ न होता तो मैं शायद अपने मायके चली जाती।''
''धौंस क्यों देती हो, अभी चली जाओ।'' गंदी गालियाँ देते हुए वह सोफ़े से उठकर चाय बनाने रसोई में गया।

''अब मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। अपने बेटे का हक माँगूँगी। मैं यहाँ पर ही रहूँगी।'' कहकर वह पलंग पर उठकर बैठ गई।
''यहाँ कैसे रहोगी? मेरे साथ तो रहना नहीं चाहती। क्या यह तुम्हारे बाप का देश है? जो...''
''मेरे बाबूजी का नाम न लो। ... (एक लंबी साँस भरकर) तुमने उन्हें न जाने क्या पढ़ाया था कि वह तुम्हारी मेरे साथ शादी करने को राज़ी हो गए। मैं तो अभी शादी करना ही नहीं चाहती थी, पर वहाँ लडक़ियों की कोई सुनता ही कहाँ है? लड़की तो बोझ होती है। वह शांति और स्वतंत्रता से रह भी नहीं सकती। जैसे गाय! हे भगवान! मेरी भी क्या किस्मत है कि मेरा पति बैल मिला।'' उसके अंतर्मन में न जाने से कहाँ से बोलने की शक्ति आ गई थी।
''तुम मुझे बैल कहती हो, ...(विनोद ज़ोर से हँसकर) ...मैं तुम्हारा पति परमेश्वर हूँ।''
''कोई पति परमेश्वर नहीं होता। हमारी जैसी बेबस औरतें पति-परमेश्वर के धोखे में कसाई की गाय बन जाती हैं। पर मैं न बनूँगी।''
''तो क्या करोगी?'' विनोद ने हाथ मटकाते हुए कहा।
''मैं अपने बेटे का हक माँगूँगी। अपना हक माँगूँगी। देखो विनोद अब मैं बिल्कुल बरदाश्त नहीं कर सकती। तुमने मुझे बहुत सताया, मारा पीटा। कितनी बार पुलिस आई और मैंने तुम्हें बचाया। तुम मुझे इतना पीटते थे कि कभी गुलम तो कभी खून तक निकल आया था। पर मैं यह कहकर बचा लेती थी कि मेरे शरीर के निशान और गुलम तुम्हारी मार से नहीं बल्कि मेरे गिरने से लगे हैं। महिला पुलिस कहती भी थी कि ये निशान अपने आप नहीं लग सकते।''
''तुम मुझे पुलिस की धमकी दे रही हो?''
''मैं तुम्हें धमकी नहीं वरन चेतावनी दे रही हूँ। तुम मुझे मारते-पीटते हो मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती।''
''कौन आदमी अपनी पत्नी को नहीं पीटता। मेरा दोस्त जग्गा सिंह आए दिन अपनी पत्नी को ठोंक देता है पर प्यार भी तो बहुत करता है।''
''पर मैं अब और अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती। उस दिन जब महिला पुलिस ने मेरे माथे पर पड़े गुलम को देखकर मुझसे पूछा था, ''यह तुम्हारे माथे पर कैसा गुलम है? क्या पति ने मारा है?'' मैंने तब 'नहीं' कहा था। वह गुलम तुम्हारी शराब की छूँछी बोतल से बना था जो तुमने मुझे फेंककर मारी थी, जब मैं खाना बना रही थी। पड़ोसन नूरजहाँ ने तब मेरी मरहम पट्टी की थी। बहुत भली और सीधी औरत है वह। उसी ने मुझे रोका था, वह कहती थी, 'मरद का क्या है, बाहर धक्के खाकर हमारे लिए ही काम करता है। अगर मरद ने दो-चार थप्पड़ रख ही दिए तो क्या है?' नहीं-नहीं मैं अब और मार नहीं खा सकती? मैं अंतरमन की आवाज़ सुनूँगी।''

विनोद ने अचानक अपनी पत्नी का सामान फेंकना शुरू कर दिया और चीखने लगा,
''जाओ जहाँ जाती हो चली जाओ, पर मिंटू मेरे पास रहेगा,'' कहकर विनोद ने मिंटू को अपनी गोद में उठा लिया। उसने धक्का देकर पूर्णिमा को घर से बाहर निकालकर दरवाज़ा बंद कर लिया।

पूर्णिमा ने निश्चय किया कि वह अब नूरजहाँ और जग्गा सिंह को अपनी समस्या के लिए परेशान नहीं करेगी। वह बिना कुछ कहे पुलिस स्टेशन चली गई।
महिला पुलिस ने पूर्णिमा की सारी बातें सुनीं और लिखकर उस शिकायत पर पूर्णिमा के हस्ताक्षर कराए। मिंटू को छीनने की छीनाझपटी में उसके गले पर विनोद के नाखून के निशान बन गए थे और खून की बूँद छलक आई थी। सरदी से ठिठकी पूर्णिमा के चेहरे पर चोट के निशान देखते ही पुलिस महिला को समझते देर न लगी।

जब पूणिमा दो पुलिस वालों के साथ अपने ब्लाक के मुख्य द्वार पर पहुँची तब द्वार खुला था लोग आ जा रहे थे जो एक नज़र पूर्णिमा पर डाल लेते थे। दो पुलिस वाले जिसमे एक महिला और एक पुरुष थे। भले ही वे मुख्य द्वार खुला होने से ब्लाक के अंदर आ गए थे परंतु पुलिस वाले ने पूर्णिमा को मुख्य द्वार पर नाम के साथ लगे घंटी के बटन को बजाने के लिए कहा।
उसने बटन दबाया। छोटे से लगे स्पीकर से आवाज़ आई,
''कौन?''
''मैं पूनम ! (पूर्णिमा को विनोद पूनम कहकर ही संबोधित करता था।)''
''मम्मा है, पापा।'' मिंटू के स्वर सुनाई पड़े।
''बड़ी जल्दी अकड़ निकल गई। चल आ मर।'' विनोद का द्वेष उसके स्वरों में साफ़ स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था। द्वार खुलने की पीप बजी।
वे सभी उसके निजी फ्लैट के द्वार पर आ गए। उसने द्वार पर लगी घंटी बजाई।
द्वार खोलकर विनोद बाहर आया। पुलिस को देखकर वह ठिठका। पुलिस ने अपना परिचय पत्र दिखाया और कमरे में प्रवेश कर गई। घर का सामान बिखरा पड़ा था। महिला पुलिस ने मिंटू को पूर्णिमा को दिला दिया और उसे शयन कमरे में जाने के लिए कहा।

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