शक्तिशाली चंदेल राज की डोर मदनवर्मन से यशोवर्मन
द्वितीय और उससे दो वर्ष के स्वल्प काल के बाद परमादिदेव (परमालदेव) के हाथों में
आई। परमाल के सेना नायक थे बनाफर राजपूत कुल के अप्रतिम योद्धा, दो भाई आल्हा और
ऊदल। कहते हैं आल्हा की तलवार इतनी भारी थी कि आम आदमी उसे उठा भी नहीं सकता था।
महोबा वीरों से भरी पड़ी थी। ब्रह्मा, मलखान, सुलखान, ढेवा, ताला, सैयद, रणजीत, अभय
मानो पानी नहीं मान पीते थे। प्रसिद्ध था "बड़े लड़इया महुबे बाले जिन से हार गई
तलवार।"
आल्हा ऊदल यानी पराक्रम की पराकाष्ठा। इनकी
शौर्यगाथाएँ अमिट हैं। कहते हैं आल्हा कांड की प्रतियाँ छावनियों में सैनिकों को
पढ़ने के लिए दी जातीं थीं। सन 1860 में ईस्ट इंडिया
कंपनी का आफ़िसर विलियम वाटरफील्ड आल्हा कांड से इतना उत्साहित हुआ था कि उसने इसका
अंग्रेज़ी में अनुवाद आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस से छपवाया था। आज भी लोग वीर
काव्य "आल्हा कांड" को पढ़ कर जोश में झूम उठते हैं।
जब उमड़-घुमड़ कर कजरारे बादल छा जाते हैं, लोग चौपाल पर जमा हो कर नगाड़े की चोट
पर आल्हा अलाप उठते हैं। जैसे-जैसे बादलों का गर्जन बढ़ता है वैसे-वैसे ही उनकी तान
ऊँची उठती जाती है मानो एक दूसरे को चुनौती दे रहे हों। यहाँ झम-झम कर बौछारें हो
रही होती हैं वहाँ पढ़ने सुनने वाले पूरे जोश में भरे आल्हा के शौर्य में डूब उतरा
रहे होते हैं।
परमाल के समकालीन थे दिल्ली के सुप्रसिद्ध नरेश
महारथी पृथ्वीराज चौहान। पृथ्वीराज चौहान का राजकवि चंदवरदायी प्रसिद्ध है जिसने
"पृथ्वीराज रासो" की रचना की। चंदेलों का राजकवि जगनीक, चंदवरदायी की ही टक्कर का
था, जिसने आल्हा कांड की रचना की। यह इतिहास की कितनी बड़ी विडंबना है कि यह दो
महाबली नरेश एक दूसरे के दुश्मन बने रहे। एक दूसरे से भिड़ते रहे। नहीं तो इतिहास
और ही होता। मुहम्मद गौरी भारत में कदम नहीं रखने पाता।
इनकी वैमनस्यता का कारण बहुत ही निजी था। यह उसकी कहानी है।
समय काल बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध। सावन का महीना।
वैसे तो सावन का मौसम है ही मनोहारी पर इसकी छटा बुंदेलखंड में न्यारी है। सावन का
महीना आया नहीं कि ससुराल में लड़कियाँ अपने भाइयों की राह देखने लगतीं हैं। कब
उनके भाई लेने आएँगे। फिर अपने घर जाएँगीं।
फिर पुरानी सखियाँ जमा होंगी। जगह-जगह झूले
पड़ेंगे। सावन की रिमझिम फुहारों के बीच भरी जाएँगीं झूले पर पेंगें। साथ ही कजरी
की तानें। वही अल्हड़ उल्लास भरे दिन लौट आएँगे।
महोबा भी सावन में सजधज गया। महोबा बड़ा ही रमणीक नगर था। चारों ओर सरोवर थे-
रामकुंड, सूरजकुंड, दिसरापुर सागर, रहिला सागर, विजय सागर, कीरत सागर, मदन सागर।
इनके चारों ओर परकोटे बने हुए थे जिनके भीतर रम्य बाग बगीचे, मंदिर थे। बागों में
झूले लग गए। मंदिरों में झाँकियाँ सज गईं, कहीं बर्फ़ के पहाड़ पर शिव जी, कहीं
पानी भरे आँगन में झूला झूलते राम जी और कहीं रास रचाते कृष्ण जी। रोज़ झाँकियाँ
बदली जातीं। सावन का "समैयाँ" बन गया।
रक्षाबंधन का दिन आया। परमालदेव की रानी मल्हना
पूरी सजधज और तामझाम के साथ कीरत सागर में कजली पूजन के लिए गईं। मल्हना रानी
अद्वितीय सुंदरी थीं, छहहरी लंबी स्वर्ण-सी आभा लिए हुए देह। कमल-सा आनन। नैन
नासिका अधर ग्रीवा साँचे में ढले हुए। पूर्ण विकसित देह वल्लरी। मस्त कुंजर-सी चाल
और घंटी से मधुर बैन। उनके साथ उनकी सहेलियाँ थीं सब अतीव सुंदरी- बहुमूल्य वस्त्र
धारण किए, बेंदी, कर्णफूल, हार, किंकणी, मेंहदी रचे करों में कंगन और माहुर सजे
पैरों में नूपुर पहने हुए।
उनके साथ थी अश्व-आरोहित स्त्रियों की सैना। सब दायें हाथ में त्रिशूल लिए थीं और
बायें हाथ से लगाम सँभाले थीं। सिर पर पगड़ी बँधी थी जिसमें मणिखचित कलगी लगी हुई
थी। कटि-बंधन कसे हुए थे। कंचुकी-कवच बाँधे हुए थीं।
सरोवर पहुँच कर रानी और सहेलियाँ भव्य झूले की ओर बढ गईं। दासियाँ पूजा की तैयारी
में लग गईं। स्त्रियों की सेना परकोटे के अंदर घेरा बना कर परिक्रमा-सी करने लगीं।
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