छाया सोचती है दिन भर क़्या वह अपने लिए जीती है?
कभी घर के कल्याण के लिए मंत्र जाप करती है तो कभी पति को बस में करने के। कभी
सरस्वती की साधना के, तो कभी सर्वे भवंतु सुखिन: और कभी संबंधों के संशय को दूर
भगाने के लिए, तो यह सब वह क्यों करती है? किसलिए? जब सभी संबंध नकारे जा सकते हैं
तो वही क्यों संबंधों को ढोए-ढोए चलती रहे? वही क्यों भावुक होती रहे?
वह सोचती है, अजीत ठीक ही तो कहता है। शिप्रा को
लो, क्या किया उसने? क्या जान-बूझकर अपने-आप को मारा होगा? या पति के समक्ष इतनी
बौनी हो गई वह कि उसकी प्रमोशन की शर्त बन गई और और अपने बॉस? क्या यही वह शाश्वत
संबंध है जिसे पति स्वयं बंधक रख सकता है और यही नहीं, बंधक शिकार भी मारा गया और
लाठी भी नहीं टूटी। शिप्रा के पति का प्रमोशन नहीं हो सका, क्यों कि कमेटी में उसके
बॉस को अहमियत नहीं दी गई। सचमुच संबंध नितांत खोखले हो चुके हैं। एक निरर्थकता -
एक असमर्थता म़ात्र रह गए हैं। पर आदमी जिए कैसे? स्वयं अपने को संतुष्ट करे कैसे?
परिवेश के बिना वो कैसे विकसित हो?
छाया को एक और बात याद आ रही है अपने पड़ोसी
उपमानसिंह की, उपमानसिंह ने जीवन में स्व की परितुष्टि को ही सर्वस्व माना और बड़े
धड़ल्ले से सारे समाज के भय और शंका तो ताक पर रखे जीता रहा। क्या था उसके पास?
क्या थी उसकी पूँजी? स्व की तुष्टि ही न? अजीत सच कहता है कि संबंध यात्रियों जैसे
हों, संबंध उपमानसिंह जैसे हों कि जिसको अपना बनाकर रखना चाहते हो, रखो, काहे का
डर, समाज से डरते रहे तो जिओगे कैसे?
उपमानसिंह ने एक जवान लड़की को चाहा और शहर में
अलग घर लेकर उसके साथ रहने लगा। पत्नी ने, बच्चों ने, पड़ोसियों ने हाय-तौबा की,
लेकिन उपमानसिंह पर कुछ असर नहीं। सभी ने नाता तोड़
लिया। उसके जीवन में एकांगीपन आ गया। लेकिन वह घबराया नहीं और धीरे-धीरे सारा उफान,
समुद्र का सारा ज्वार ठंडा हो गया। और पत्नी भी उसी तरह आने-जाने लगी, और बेटियाँ
भी, और बेटे भी औ़र खूबी बात की यह है कि वह लड़की उपमानसिंह को चाचा कहती है और वह
उसे बेटी, दोनों ने अपने संबंधों को नाम देकर सामाजिकता ग्रहण कर रखी थी।
छाया सोचती है कि कई बार हम किसी को देखते ही
क्यों ललक उठते हैं, या किसी को देखते ही उससे क्यों मुँह मोड़ लेते हैं। वह कैसे
संबंध होते हैं? उन्हें किन संबंधों का नाम देना चाहिए। कोई पराया भी कभी आपका इतना
अपना हो जाता है कि अपनों के मुखौटे उतरने लगते हैं।
"सुनो, आज तुम्हें एक बात बताऊं?"
"क्या?"
"ट्रांसपोर्ट के एंप्लाइज को घर जाना था। मैनेजर ने एक बस उन्हें दे दी। मेकॅनिक
चलाने लगा, सभी लोग शायद नशे में धुत्त थे। मैनेजर उसमें स्वयं बैठा था। मेकॅनिक ने
ज्यों एक्सीलेटर पर पैर रखा, तो बस उसे दबाता ही चला गया। रात की शिफ्ट से वापस आता
गोपाल उस स्पीड की लपेट में आ गया और बस एक पेड़ से जा टकराई। गोपाल के शरीर के अंग
छितर-छितरकर यों उड़े, जैसे किसी एयरक्रैश में जहाज़ की किरच-किरच उड़ जाती है।"
"ओफ स़रकार लाख कानून बनाती रहे, लेकिन यह ट्रांसपोर्ट वाले कभी नहीं मानेंगे। इनकी
बस के सभी स्टॉपेज शराब के ठेके पर ही होते रहेंगे। बिचारे ग़रीब की जान चली गई!"
"नहीं, यही बात नहीं।"
"फिर क्या?"
"वह मेरा पिछले साल स्टूडैंट था।"
"सच!"
"हाँ, तब तो तुम्हें सच ही सुनकर सदमा लगा होगा।"
"वह तो है ही - क्या तुम अभिभूत नहीं हो रहे।"
"हाँ, क्यों नहीं, मैं कोई पत्थर तो नहीं।"
"जानते हो उसकी माँ के साथ कितनी बड़ी ट्रेजडी हुई?"
"जिस माँ का जवान कमाऊ बेटा चला जाए, उसके साथ ट्रेजडी नहीं होगी तो क्या होगा?"
"फिर वही बात।"
"क्या बात?"
"कमाई वाली बात कहकर तो तुम जैसे यह कहना चाह रहे हो कि अब माँ खाएगी कहाँ से?"
"नहीं-नहीं छाया, मेरा यह मतलब बिल्कुल नहीं था।"
"सुनो! गोपाल की माँ परित्यक्ता थी। उसके पति ने उसे तभी त्याग दिया था, जब गोपाल
मात्र डेढ़ वर्ष का था।"
"ओह! मगर कोई कारण रहा होगा।"
"वही पुराना कारण - जो सदियों से पुरुष करता आया है। पुराने ज़माने में राजा बनकर
वह सौ-सौ रानियाँ रखकर अपनी हवस पूरी करता रहा और आज के युग में कानून बदल गया- पर
आदमी की प्रवृत्ति थोड़े ही बदल सकती है?"
"छाया, तुम्हारी बड़ी बुरी आदत है। कोई भी बात करते हुए तुम व्यक्तिगत धरातल पर
पहुँच जाती हो।"
"मैंने युग की बात की है, किसी एक व्यक्ति की नहीं। गोपाल की माँ ने चाव-चाव में
पिछले साल उसकी शादी भी कर दी थी और एक सोलह साल की विधवा।"
"ओह, सच छाया, यह तो तुम आज क्या सुनाती जा रही हो? हम आदमी को इतना सस्ता मानने
लगे हैं, ऐसा क्यों हो गया है!"
"लगता है, तुम्हें ज़िंदगी और संबंध कहीं छूने लगे हैं।"
"कभी-कभी तो छूते ही हैं।"
"और जानते हो, गोपाल की माँ ने क्या किया उ़से गोपाल की टुकड़े-टुकड़े लाश जब नहीं
दिखाई गई, तो वह वहीं आ गई।"
"क्यों?"
"वह कहती थी, मेरा गोपाल साइकिल छोड़कर कहीं गया है- अभी आ जाएगा।"
"पागल हो गई है शायद।"
"नहीं, पूरे होशो-हवास में हैं क़पड़े में वही तीन रोटियाँ, साग और एक हरी मिर्च
उसके पास थीं।"
"वह क्यों?"
"वह कहती है, गोपाल को देर हो जाती है तो चिल्लाता है। अगर एक मिनट भी रोटी में देर
हो जाए ऱोटी वह अभी आकर माँगेगा। लोग उस पर हँसते भी हैं और रोते भी।"
"छाया, तुम उसकी मदद करो तो मुझे खुशी होगी।"
"मदद, कैसी मदद! जो लोग भी पैसे देते हैं, हथेली पर से उछालकर फेंक देती हैं। कहती
है, पति ने छोड़ा तब से स्वयं कमाकर खाया है। अब बेटा कमाने लायक हुआ तो तुम कौन
होते हो मुझे देने वाले।"
"उफ!"
"तुम इस संबंध को किस चौखटे में रखते हो, बोलो।"
"छाया! मैं ऐसे संबंध की बात नहीं करता। ऐसे संबंध कहीं-कहीं अभी भी ज़िंदा हैं, और
वह भी भोले-भाले, निरीह, अनपढ़ गँवार लोगों में। शहरों में संबंधों को पैसे की चेचक
दाग गई है।"
"और दूसरी ओर जब बस में जाते हुए एक चीज़ देखी।"
"वह क्या?"
"एक एकांत मकान, एकाध तंबू लगा हुआ, एक छोटी-सी
झुग्गी और झुग्गी के आसपास अपनी सामर्थ्य से जुटाए गुलाबी खद्दर की धोती और गुलाबी
पगड़ी में एक जोड़ा फेरे ले रहा था। झुग्गी पर दो-चार औरतें फुल्ले (मक्की के दाने)
न्यौछावर कर रही थीं। सोचती हूँ, यह कैसे संबंधों को हम डोरों में बाँध लेते हैं।
एक आँचल के दूसरे आँचल से बंधकर जन्म-जन्मांतर के संबंध कैसे हो जाते हैं। फिर वही
पुनीत और पुलक से बँधे संबंधों में दरारें उठ खड़ी होती हैं, आखिर क्यों?"
"यथार्थ की आँधी आती है और वह स्वप्नों के सारे तार छितरा देती है, इसीलिए तो कहता
हूँ कि आर्थिक स्तर पर संबंध नहीं जिए जा सकते।"
"तुम्हारी बात कुछ अर्थों में ठीक है। कितनी निरर्थकता का बोध होता है आज की
ज़िंदगी में।"
"यह तो है ही। अब भी, जब मुझे मेरे रूप में, मेरे स्व में न जाना जाए, अलां-फलां के
रिश्ते से जाना जाए तो कितनी कोफ्त होती है मुझे।"
"लगता है, तुम कहीं टूटकर बात कर रहे हो।"
"जैसे तुम नहीं जानती?"
"जानती हूँ, लेकिन चाहती हूँ कि तुम फिर जुड़ सकने की कोशिश करो।"
"टूट कर जुड़ना बड़ा कठिन है छाया, तुम जानती हो कि मैं किन्हीं संबंधों के हाथों
इस कदर टूटा हूँ कि बिखरी हुई तस्वीर को जोड़ना भूल गया हूँ।"
"तुम ठीक कहते हो।"
"छोड़ो।"
"अच्छा छोड़ो, कहीं चलने-वलने की बात करो।"
"कहीं जाने को कहूँगी तो फिर वही संदर्भहीनता बघारने लगोगे।"
"अच्छा तुम कहो तो सही, हो सकता है तुम्हारी बात मान ही ली जाए।"
"अच्छा, आज कहीं भी न चलकर एअरपोर्ट चलो।"
"नितांत संदर्भहीन जगह है वह तो।"
"लेकिन वह क्यों?"
"वह इसलिए कि कुछ क्षण इस धरती से ऊपर उठकर संदर्भहीन होकर उड़ा जाए और एरोप्लेन की
खिड़की से देखा जाए कि धरती पर चलते यह संबंध वहाँ से कितने बौने लगते हैं।"
"खूब, भ़ई वाह, क्या आइडिया मारा है!"
"तीस रुपए हम दोनों के लगेंगे और सारे शहर का चक्कर काट लेंगे। मेले की वजह से टिकट
भी सस्ता है।"
"यह कौन-सा मेला है भाई?"
"इसी साल लगा है।"
"कहते हैं बड़ी भीड़ होती है।"
"होती होगी लेकिन टिकट तो मिल ही जाएँगे।"
"नहीं मिलेंगे तो किसी की सिफ़ारिश।"
"ओह-हो! फिर वही बात।"
"अच्छा न, सही न, सही!"
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