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 "तुम जानती हो मैं बड़ा भोतिकवादी हूँ। मैं महज़ 
किसी रिश्ते को इसलिए स्वीकार नहीं करता कि वह अलां-फलां रिश्ते से तुम्हारा कुछ 
लगता है। माँ का रिश्ता है ल़ेकिन फलाँ व्यक्ति माँ का कज़िन है या गाँव का है य़ा 
भाई है, इसलिए मामा लगता है, या इसी तरह कोई चाचा या कुछ और आख़िर क्या रखा है इन 
रिश्तों में?" "तुम इतने भौतिकवादी कैसे हो गए क़ब हो गए अजीत इन सबकी ज़रूरत होती है।"
 "किसलिए?"
 "व्यक्ति के विकास के लिए।"
 "मैं मानता हूँ।"
 "फिर क्या नहीं मानते?"
 "यही कि रिश्ते भावना के स्तर पर नहीं, बौद्धिक स्तर पर जीने चाहिए।"
 "तुम्हारे रिश्ते का मतलब लेन-देन से है?"
 "नहीं।"
 "मुझे तो यही लगता है।"
 "तुम्हारा वहम है, मैं यह नहीं चाहता।"
 "पर मैंने देखा है, तुमने कई बार मेरी सखियों का मज़ाक उड़ाया है कि अलां के घर गए, 
उसने क्या ख़ातिर की फलां के घर गए, तो क्या?"
 "यह मेरा संदर्भ उससे नहीं, रिश्ते के प्यार से था।"
 "फिर वही बात। तुम हर रिश्ते को एक बौद्धिक स्तर और चौखटा दे देते हो।"
 "अच्छा छोड़ो उस बात को आ़ज छुट्टी है कुछ नया करने को कह रही थीं तुम।"
 "तुम्हारे डिपार्टमेंट के रत्नवीर के घर चलते हैं क़ितना तो बुलाता रहता है।"
 "तुम्हें बुलाता होगा, मुझे तो आज तक नहीं कहा।"
 "बनो मत उसकी पत्नी ने कितनी बार कहा है?"
 "तुम जानती हो, वह कैसा आदमी है?"
 "मैंने क्या हर आदमी का बहीखाता बना रखा है?"
 "वह पूरा लंपट है, जितनी देर तुम वहाँ रहोगी, तुम्हें घूरता रहेगा त़ुम्हें अच्छा 
लगेगा?"
 "अच्छा छोड़ो ऩहीं जाना चाहते तो शर्मा के घर चलो। वह भी तो बहुत बार बुला गया 
है।"
 "मन नहीं होता।"
 "क्यों? वह भी लंपट है क्या?"
 "नहीं, ये बात नहीं।"
 "फिर क्या है?"
 "मैंने शायद तुम्हें बताया नहीं, मुझे लगता है कि वह दोस्त के रूप में दुश्मन है। 
किसी ने मुझे बताया कि वह मेरे विरुद्ध बॉस को भड़का रहा था।"
 "छोड़ो भी, किसी की बात तुम क्यों मानते हो? वह अपना उल्लू सीधा कर रहा होगा।"
 "नहीं, मुझे स्वयं भी इसका आभास हुआ है।"
 "तुम्हारे मन में पूर्वाग्रह रहा होगा?"
 "नहीं, बॉस कुछ तना रहता है।"
 "तुम तो खामखाह सोचते रहते हो शर्मा, कितना शालीन और वेल बिहेव्ड है, और उसकी तो 
पत्नी भी।"
 "पत्नी तो बिल्कुल फूहड़ है, सारा दिन गप्पें मारती है।"
 "तुम्हें इससे क्या लेना-देना? अच्छा तुम्हीं बताओ, किसके घर चलें?"
 "किसी के भी नहीं।"
 "तुम्हारी किसी से बनती हो तब न!"
 "तुम बेकार मुझसे उलझकर छुट्टी मत ख़राब करो।"
 "अच्छा तुम्हारे बॉस के यहाँ ही न चलें।"
 "उस पर तो मुझे बिल्कुल विश्वास नहीं।"
 "क्या मतलब, क्या वह मुझे खा जाएगा? तुम तो यों बात करते हो, जैसे मैं बताशा हूँ कि 
मुँह में गई और खतम।"
 "तुमने स्वयं को देखा है कभी मेरी नज़रों से?"
 "रहने दो त़ुम तो बिल्कुल बोर होते जा रहे हो, न 
किसी के घर जाना न आना आ़खिर आदमी एक परिवेश में जीना चाहता है, और तुम कटकर रहना 
चाहते हो।""मैं कटकर रहना चाहता हूँ तो कुछ कारणों से मेरे डिपार्टमेंट वाले मुझसे कितना जलते 
हैं, तुम क्या जानो?"
 "मेरे दफ़्तर के लोग भी जलकर खाक हुए जा रहे हैं।"
 "पर तुम तो कह रही थीं, तुम्हारा नया बॉस अच्छा है।"
 "अच्छेपन का मुखौटा थोड़े दिन उसने बखूबी पहना!"
 "अब क्या कहता है?"
 "कहता क्या है, पहले के बूढ़े मंगलदास से भी गया-बीता है। यह तो हर समय संशय की 
कड़वी दृष्टि से देखता है, और आदमी कटकर रह जाता है।"
 "ऐसे आदमी ख़तरनाक होते हैं।"
 "आदमी किसी भी रूप में ख़तरनाक होता है।"
 "यह तो तुम व्यक्तिगत आक्षेप कर रही हो।"
 "यह व्यक्तिगत कहाँ, यह तो विशुद्ध सार्वजनिक है।" हल्के ठहाकों से वातावरण की 
बोझिलता क्षण भर में भाप की तरह उड़ जाती है।
 "अच्छा, चलो छोड़ो, पिक्चर चलते हैं।""पिक्चर? तुम जानती हो वही पुराने संबंधों को ढोते, रोते-पीटते आदर्श स्थापित करते 
वे कृत्रिम पात्र मुझे एकदम बेमानी लगते हैं, और मैं उन्हें सह तक नहीं सकता।"
 "उफ, तुम्हें क्यों रिश्तों से चिढ़ हो गई है अजीत?"
 "संबंधों में आदमी तब जीए, जब स्वयं में जीना भूल जाए, संबंधों को नाम की आवश्यकता 
नहीं। माँ, बाप, पति, भाई की मोहर की ज़रूरत नहीं।"
 "अच्छा यह बताओ, तुम्हें कौन-सा रिश्ता लगता है, जो उच्च है, पावन है, महान है? माँ 
का या पिता का?"
 "किसी का नहीं।"
 "भाई का?"
 "थोड़ा-थोड़ा"
 "पति का?"
 "बिलकुल नहीं।"
 "प्रेमी का?"
 "बहुत कुछ।"
 "मामा का, चाचा का?"
 "नहीं, यह सब बेमानी हैं।"
 "अभी तुमने कहा कि तुम माँ के रिश्ते को भी उतना महान नहीं मानते। माँ तो धरती से 
भी गहन, गंभीर और धीर होती है।"
 "हाँ, सोचता हूँ कि माँ का एक संबंध ऐसा है, जो संदर्भों से जुड़ा हुआ है अ़न्यथा, 
पिता को युधिष्ठिर ने आकाश से भी ऊँचा बताया है श़ायद इसलिए कि वह वास्तविकता से 
दूर की चीज़ है।"
 "तुम तो हर बात को नए ढंग से कूतने लगे हो।"
 "यह मेरी आदत नहीं, पाया हुआ अनुभव है।"
 "एक व्यक्ति का अनुभव सर्वसम्मत अनुभव नहीं होता।"
 "पिता का संबंध क्यों ऊँचा नहीं है?"
 "देखो छाया, अगर खून को रिश्ते का नाम देना है तो बाप का खून किस तरह बच्चे में आता 
है अ़गर केवल क्षणों के उन्माद के फूल से कोई पैदा हो जाए और इसी से वह उसको उम्र 
भर के लिए बाँध ले, तो मुझे स्वीकार्य नहीं। अगर वह उन्माद के क्षण न होते या उससे 
अधिक कुछ संबंध होता, तो डॉ हरगोविंद खुराना का टेस्ट-ट्यूब बेबी का कल्पना-प्रयोग 
सब अधूरा हो जाता ह़म सभी वातावरण की उपज है। हम संबंधों को कैसे कूतेंगे, हरगोविंद 
को ही क्या, सबको अपना बाप मानना होगा?"
 "तुम तो पता नहीं क्या हो गए हो? माँ के संबंध को बहुत मानते हो, पर अपने संदर्भ 
में देखो, माँ और पिता का रिश्ता।"
 "इसीलिए तो कहता हूँ, संबंध कुछ नहीं।"
 "आज माँ की देहरी पर भी समीकरण के सवाल लिखे हैं द़ेने और लेने के।"
 "फिर इससे बड़ा किसी को मान सकती हो?"
 "तो इसका मतलब, किसी दिन तुम मुझे भी उसी तरह नकार दोगे। यह कहकर कि यह रिश्ता अब 
बूढ़ा हो गया है या पुराना हो गया।"
 "नहीं पगली स़ंबंध केवल प्यार का होता है। एक खंूटे से बंधे गाय-भैस की तरह बँधे 
हुए पति-पत्नी का संबंध ऐसा हो सकता है, लेकिन जो प्यार साधना के तप को झेल चुका 
हो, वहाँ इस तरह होना संभव नहीं।"
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