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कहानियाँ  

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
यू के से दिव्या माथुर की कहानी—फिर कभी सही।


भयंकर दर्द था। बाईं कनपटी पर जैसे हथौड़े से लगातार चोट हो रही हो। नब्ज फड़क–फड़ककर प्रतिवाद कर रही थी। प्रहार और प्रतिवाद को दबाने हेतु नेहा ने अपना सिर दुपट्टे से कस कर बाँध लिया। झीना दुपट्टा भला क्या मदद करता! कहीं ब्रेन हैमरेज न हो जाए! दिल के दौरे से मरने का अन्देशा कम ही था। उसके परिवार में कोई भी इस वजह से नहीं मरा था। न ही रक्तचाप या मधुमेह की किसी को शिकायत थी! टूटा दिल था, दर्द दिमाग में क्यों था?

नेहा ने कभी न सोचा था कि एक छोटी–सी घटना से उसे इतना बड़ा धक्का लगेगा! अन्तर्मन में कहीं वह जानती थी कि ये सम्बन्ध शायद स्थायी न रहें! फिर यह रोना–धोना, यह दर्द, यह मातम क्यों?

"कहा था न बाज आ जाओ, पर मानी थीं तुम? अब भुगतो।" अपनी ही आत्मा के कटाक्ष अलग कुतरे चले जा रहे थे।

"जानते–बूझते आग में कूदी थी, तीसमार खाँ समझ रही थी स्वयं को।" उसने सोचा था कि जब सम्बन्ध चटखेंगे तो वह चुपचाप एक तरफ हो जाएगी। अपने आपको मानसिक तौर पर तैयार कर रही थी। जब पाँव जमीन पर कसकर रख पाई थी, फिर क्यों गिरी? तो यह चोट कैसी? यह आहें क्यों? शायद यह दर्द शारीरिक ही हो, बेवजह वह जोड़ रही है इसे दर्द के रिश्तों से।

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