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                      पाँच सालों से यह लुका–छिपी जारी थी। बेरोक–टोक! 
						इस दौरान ये नहीं कि नेहा ने कटाक्ष और उपहास ही झेले हों, 
						खुशियाँ भी अनगिनत पाई थीं। ऐसी 
					सन्तुष्टि उसे जीवन में कभी नसीब न हुई थी। एक बात जो उसे घुन 
					की तरह खाए जाती थी – बसंत शादीशुदा था, अपने बेटे और पत्नी को 
					उतना ही चाहता था जितना कि स्वयं उसको। बसंत के विचार में एक 
					सशक्त प्रेम–सम्बन्ध जीवन में माधुर्य भर देता है, एक नया आयाम 
					दे देता है गृहस्थी को। आवश्यक नहीं कि यह सम्बन्ध शारीरिक ही 
					हो। आरम्भ में इसी विषय को लेकर वह घंटों वाद–विवाद करते रहे 
					थे, इसी विवाद से कहिए कि उनकी दोस्ती 
					घनिष्ठ होती चली गई। क्या नहीं पाया था नेहा ने इस रिश्ते से – 
					प्यार, उपहार, सुरक्षा! 
 नेहा यह कभी न जान पाई कि क्या कमी थी उसके घर पर जो बसंत 
						खिंचा चला आया था नेहा के पास। अधिक नेह की चाहना, पुरूष 
						की एक सम्पूर्ण सम्बन्ध की अनन्त तलाश या केवल एक स्त्री 
						से उसकी असन्तुष्टि? बसंत हमेशा अपनी पत्नी और उसके परिवार 
						की प्रशंसा ही करता था! नेहा मन–ही–मन जल उठती थी। न जाने 
						क्यों? हर पल इन्तजार करती उस क्षण का जब कभी अनजाने वह 
						बुराई कर जाए अपनी पत्नी की। 
					पाँच साल में ऐसा कभी न हुआ था। अब तो नेहा बसंत 
					की पत्नी को छोटी बहन स्वीकार कर चुकी थी।
 
 बसंत भी कितना भाग्यशाली था कि पत्नी और प्रेयसी दोनों ही 
						उसे एकनिष्ठ मिली थी। पिछले महीने बसंत ने नेहा को बताया 
						था कि उसकी पत्नी दीप्ति को कुछ शक हो गया था। दीप्ति का 
						कहना था कि उसे कोई एतराज न होगा यदि बसंत स्वीकार कर ले। 
						दीप्ति की एक सहेली के पति ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि 
						वह एक अन्य स्त्री से प्यार करता था। जीवन दूभर हो गया था, 
						दो पाटों की बीच। शायद दीप्ति ने डर के मारे यह कहा था। 
						नेहा ग्लानि से भर उठी। दीप्ति को उसकी वजह से यह दिन कभी 
						न देखना पड़ेगा। इससे पहले नेहा शहर छोड़ देगी, आत्महत्या तो 
						नहीं कर पाएगी, चार वर्षीया बेटी खुशबू को कौन संभालेगा?
 
 एक ही शहर में रहते, 
					आज तक दीप्ति और नेहा का सामना नहीं हुआ था। न ही दीप्ति को 
					कोई शिकायत थी, यह वह जान गई थी पर भयवश कुछ नहीं कह पाई थी। 
					ऐसा नामुमकिन था कि पत्नी को शक हो और किसी न किसी रूप में वह 
					प्रकट न करे या बसंत नेहा को कुछ नहीं बताता हो अथवा तीनों ही 
					अपना धर्म इतनी ईमानदारी से निभा रहे थे कि सब सही चल रहा था!
 
 बसंत को अपनी पत्नी का जन्मदिन, शादी की सालगिरह और अच्छे 
						डाक्टर से जाँच की तारीखें उतनी ही मुस्तैदी से याद रहती 
						जितनी नेहा से सम्बन्धित तिथियाँ। कहीं कभी कोई कमी नहीं। 
						उसके हाथ सदा उपहारों में भरे होते। चेहरे पर हमेशा सन्तोष 
						रहता। काश! कि नेहा भी इतनी ही सन्तुष्ट हो पाती। जितना वह 
						देता, उससे अधिक की वह कामना करती। चाहती कि बसंत केवल उसे 
						दे, उसकी बेटी को चाहे, किसी और की ओर आँख तक न उठाए। कभी 
						स्वार्थी हो उठती तो कभी आत्मनिंदा करती। आत्मतिरस्कार से 
						भरकर एक बार वह बसंत से कह बैठी कि जिस दिन दीप्ति जान 
						जाएगी इन सम्बन्धों के बारे में, नेहा सारे सम्बन्ध तोड़ 
						लेगी, वह कभी बसंत को अपने पास फटकने नहीं देगी।
 
 नेहा सबसे अधिक सन्तुष्ट थी खुशबू के प्रति बसंत के 
						व्यवहार से। वह जान देता था उस पर। उसके मुँह से कुछ निकल 
						जाए, अगले ही पल बसंत हाजिर कर देता था। नेहा की एक नहीं 
						चलती थी इन दोनों के बीच। खुशबू के लिए 'बसंत अंकल' भगवान 
						से कम न थे। महँगे से महँगे होटलों में रहना, खाना और 
						इंग्लैंड–भर में घूमना, जो मन आया खरीद लेना।
 
 कभी–कभी नेहा सोचती कि यह सब कहीं पैसों का ही तो खेल नहीं 
					है? वह अपने आपको टटोलती रहती। बसंत का व्यापार ठप्प हो जाए तो 
					क्या वह फिर भी उसे इतना ही चाह पाएगी? बसंत उसे हर मायने में 
					पत्नी का दर्जा देता और नेहा भी पूरी तरह पत्नी का दायित्व 
					निभाती। भूल जाती कि वह पत्नी न थी। जाने–अनजाने जब आत्मा 
					कचोटती तो नेहा अपराध भावना से भर उठती। स्वयं को दीप्ति के 
					स्थान पर रखती, महसूस करती और पाती कि वह कभी न निबाह पाएगी, 
					दूसरी स्त्री को बसंत के साथ। किसी के पति को फुसला लेना, उसकी 
					पत्नी के साथ अन्याय नहीं तो और क्या है? सारी दुनिया से छुपा 
					लेगी पर अपनी आत्मा से तो नहीं छिपा पाएगी। जब–तब कटघरे में 
					खड़ा कर वह स्वयं को कड़े से कड़ा दण्ड देती। कभी–कभी वह बसंत को 
					छोड़ने का फैसला कर लेती, किन्तु जैसे ही वह मुस्कराता घर में 
					कदम रखता, सब कुछ भूलकर, 
					लिपट जाती उससे। खुशबू का भी मानो संसार बसंत से ही था।
 
 एक बार खुशबू के मुँह से बरबस बसंत के लिए 'पापा' निकल गया 
						था तो नेहा ने तुरन्त उसको टोक दिया था। बसंत इस बात पर 
						उससे आज तक रुष्ट था। अगर पिता कहलवाना है तो मन्दिर जाकर 
						उससे शादी करे। बसंत इसके लिए भी तैयार था, वह स्वयं ही 
						पीछे हट गई। जब खुलेआम बेटी का दर्जा नहीं दे पाएगा तब वह 
						खुशबू का कपट उससे बर्दाश्त नहीं हो पाएगा। बसंत दुखी था 
						कि नेहा को उस पर विश्वास न था। भविष्य किसने देखा है। आज 
						के कड़वे सत्य को वह खुशबू का भविष्य नहीं बिगाड़ने देगी। 
						दीप्ति ने रिपोर्ट कर दी तो बसंत को जेल हो जाएगी। 'अंकल' 
						कहने से कलई तो नहीं खुलेगी, पर्दा पड़ा रहेगा। बातें तो 
						लोग अब भी बनाते हैं, तब भी बनाएँगे। नेहा को केवल भय था 
						उस दिन का जब खुशबू प्रश्न पूछेगी। अभी तो केवल वह पूछती 
						है, "अंकल रात को हमारे यहाँ क्यों नही रहते?" नेहा अन्दर 
						तक काँप जाती है। प्रेम सचमुच अंधा, बहरा और गूँगा कर देता 
						है अच्छे–खासे लोगों को भी।
 
 एक तरफ विष्णु था, जो नेहा को जी–जान से चाहता था, चाहता 
						रहा था, पिछले सात वर्षों से चुपचाप इन्तज़ार कर रहा था। 
						साल में दो या तीन बार फोन करता, हालचाल पूछता और फिर मजाक 
						में वही प्रश्न, "क्या वह अब भी अकेली है या इनवाल्व्ड है। 
						यदि नहीं तो क्या वह फिर प्रपोज करे?" हर बार मायूस होकर 
						फोन रख देता। नेहा के बीसियों 'इन्कारों' के बावजूद यही 
						कहता कि वह इन्तजार करेगा।
 
 कई बार तो विष्णु की निष्ठा से नेहा इतनी अभिभूत हो जाती 
						कि इंग्लैंड छोड़कर डेनमार्क जा बसे, सोचती। कितना अच्छा 
						होता। दीप्ति से 
					आँखे तो मिला पाती, उसे अपने यहाँ बुला 
						पाती, ढेर–सा मान–सम्मान, उपहार देती और अपनी दी हुई चोट 
						को सहला पाती।
 
 कहीं गहरे सोचती तो नेहा को लगता कि वह बसंत के अलावा किसी 
						को चाह ही नहीं पाएगी। 'हाँ', कहने का मतलब था विष्णु से 
						शादी, शादी का मतलब था विष्णु को पति के रूप में 
						स्वीकारना, यहीं आकर बात बिगड़ जाती। जिस पुरूष को वह प्यार 
						नहीं करती, उसका स्पर्श कैसे झेलेगी? कैसे नकारेगी पतित्व? 
						आदर ही आदर था विष्णु के लिए नेहा के मन में, प्रेम 
						टुकड़ा–भर नहीं। कभी सोचती, शादी कर ले, बाद की बाद में 
						देखी जाएगी। पर नेहा का पति कहाँ कर पाया था नेहा को 
						प्यार। वह चाहता था किसी और को। माँ के कहने पर उसने शादी 
						कर ली, किन्तु गृहस्थी न बसा पाया था वह। खुशबू के पैदा 
						होने के बावजूद अनिल नेहा को छोड़कर ऑस्ट्रेलिया जा बसा। वह 
						भारत भी नहीं जहाँ लोग प्यार किसी से करते हैं, शादी किसी 
						और से। न जाने कैसे निबाहते जाते हैं? बच्चे होना, प्यार 
						का विकास समझ लिया जाता है और 
					फिर, वहाँ जीवन स्वयं कब 
						किसी का होता है? जीते हैं इसके लिए, उसके लिए।
 
 शारीरिक आकर्षण कभी महत्वपूर्ण नहीं वहाँ, न सेक्स ही। 
						कट्टर भारतीय परिवार में पली नेहा बसंत से जब मिली तो जाना 
						जीवन इतना गम्भीर और संजीदा नहीं था। अनिल ने शायद कोशिश 
						की थी, नेहा की तरफ हाथ बढ़ाने की, किन्तु नेहा सिमटती चली 
						गई थी। वह किसी और को चाहता था, नेहा को स्पर्श करने का 
						उसे कोई अधिकार नहीं था। अनिल को प्रायश्चित करना पड़ा था, 
						पत्नी और बेटी को सदा के लिए छोड़कर।
 
 स्वयं नेहा सोचती थी कि यह कोई पिछले कर्मों का दण्ड था जो 
						वह भुगत रही थी। यह जो पाप अब कर रही थी, उसका दण्ड अगले 
						जन्म में भोगेगी। कभी प्रायश्चित कर पाएगी? क्या यह पाप था 
						भी? वह किसी को दुःख नहीं पहुँचा रही और न कभी पहुँचाएगी। 
						फिर भी, काश! यह आकर्षण विष्णु के प्रति उपजता तो कितना 
						उपयुक्त होता।
 
 कल ही रात को तो विष्णु ने पूरे एक साल बाद फोन किया था। 
						भारत होकर आया था, नेहा के परिवार से मिलकर। नेहा जानती थी 
						कि उसके परिवार ने उसे अभी तक माफ नहीं किया था। अब वह 
						चाहते थे कि वह विष्णु से शादी कर ले और इज्जत से रहे। एक 
						नारी का अकेले रहना समाज को न जाने इतना क्यों खलता है? 
						अपना घर–बार है, अपने 
					पाँव पर खड़ी है। कल खुशबू बड़ी हो 
						जाएगी, फिर? नेहा अकेली नहीं रह जाएगी? बसंत, जरूरी तो 
						नहीं बुढ़ापे तक साथ निबाहेगा ही! और क्या गारंटी है कि 
						विष्णु ही आजन्म साथ देगा? यद्यपि विष्णु से विवाह का अर्थ 
						था अवमानना, ग्लानि और समाज के भय से मुक्ति।
 
 माँ का पत्र भी आया था। उनकी नजर में, जो हुआ सो हुआ। अब 
						विष्णु से अच्छा वर दीया लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलेगा। 
						तारीफों के पुल बाँधे गए थे। असत्य न थे किन्तु कितनी 
						मजबूर थी नेहा? विष्णु साहस जुटाकर काफी कुछ कह गया था। 
						शायद यह उसके परिवार की फूँक थी वह हतोत्साहित होकर अन्तिम 
						जोर लगा रहा था।
 
 "बुला लो न नेहा अपने पास या यहाँ आ जाओ। तुम्हें डेनमार्क 
						कितना पसन्द है। चौबीसों घण्टे तुमसे बँधा रहूँगा। क्या 
						करूँ, तुम्हारे सिवाय मैं किसी को चाह क्यों नहीं पाता? 
						सच, कितनी बार कोशिश की है। इस बार भी दिल्ली में कितनी 
						लड़कियाँ देखकर आया हूँ, पर मेरी नज़र किसी पर टिकती ही 
						नहीं। जितना तुम्हें भुलाना चाहता 
					हूँ, उतना ही ज़्यादा 
						तुम्हें चाहने लगता 
					हूँ।"
 
 विष्णु की आवाज़ अन्दर तक झिंझोड़ गई। वह चुपचाप सुने चली 
						जाती है, बीच–बीच में मानो उपहास उड़ा हो, ऐसी 
					हँसी हँस 
						देती है। वह कहे चला जाता है।
 
 "जानती हो, नेहा, कितना टैक्स देता 
					हूँ यहाँ की सरकार को? 
						मर गया तो कोई भोगने वाला भी नहीं, किसके काम आएगा यह 
						धन–जायदाद? मुझसे इसलिए शादी कर लो कि यह सब तुम्हें मिल 
						जाए और मैं चैन से मर तो सकूँ।"
 
 क्या कहे नेहा? कौन ले जाता है धन–जायदाद अपने साथ? आज रात 
						बहुत निराश है विष्णु। काश! वह जा पाती उसके पास। उसको 
						सीने से लगा, उसका नैराश्य हर पाती। यह क्या सोच रही थी 
						नेहा? लज्जित हो उठी। बसंत क्या सोचेगा? क्यों, क्या वह 
						नहीं रखता होगा अपनी पत्नी का सिर गोद में? वह किसी को 
						शान्ति क्यों नहीं दे सकती? कहीं कुछ ठीक न था। वह झल्ला 
						उठी।
 
 "हाँ, कह दो प्लीज नेहा! . . .अच्छा कल तक और सोच लो, मैं 
						इसी समय कल फिर फोन करूँगा।"
 
 "क्यों पैसे बर्बाद कर रहे हो? मालूम है कितना बिल आएगा?" 
						नेहा ने उसे चुप कराने की खातिर कहा।
 
 "तुम्हें बिल की पड़ी है, व्हॉट अबाउट माई दिल?" विष्णु ने 
						हल्का होते हुए कहा।
 
 दोपहर जब नेहा ने बसंत को यह सब बताया तो वह मुस्करा रहा 
						था। क्रोध–सा आ गया नेहा को। वह समझी थी कि एक पति की 
						भांति बसंत चीखेगा, चिल्लाएगा कि विष्णु की हिम्मत कैसे 
						हुई यह सब कहने की, पर वह बोला, "हाँ क्यों नहीं कह देती, 
						विष्णु सचमुच बहुत अच्छा आदमी है। पढ़ा–लिखा, धनवान और 
						हैंडसम। सात साल से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा है। चौबीसो 
						घंटे तुम्हारे साथ चिपका रहेगा और क्या चाहिए तुम्हें?"
 
 आँसू आ गए नेहा की 
					आँखों में। लगा, सब कुछ खत्म हो गया। 
						अधिक बात न हो पाई, क्योंकि वह खुशबू को तैराने ले जा रहा 
						था। बेटी के सामने वह कुछ भी न कह पाई। हालाँकि 
					बसंत जाने से पहले तक व्यंग्य कसता रहा और मुस्कुराता रहा। 
					नेहा को यह बात कहनी ही नहीं चाहिए थी पर वह कब छिपा पाई है 
					कुछ बसंत से?
 
 "सब ठीक हो जाएगा, तुम्हारा परिवार भी खुश हो जाएगा," कहता 
						हुआ बसंत खुशबू को लेकर चला गया।
 
 नेहा का मन हुआ कि जोर से चीखे और पूछे, "व्हॉट अबाउट अस?" 
						यह घायल थी बुरी तरह। क्या बसंत अपनी पत्नी को भी यही सलाह 
						देता? पर वह पत्नी थी, कानूनन पत्नी। नेहा कौन होती थी 
						उसकी? बसंत उसे पत्नी का दर्जा देता आया था। पर आज साबित 
						हो गया कि सही मायनों में वह क्या है? शायद बसंत छूटना 
						चाहता हो अब? यह सम्बन्ध बासी हो चुका था या उसे कोई और 
						मिल गई थी? वह कौन शादीशुदा थी कि जोर चलता और फिर 
						शादीशुदा होना ही क्या आश्वासन है निष्ठा का? या बसंत अपनी 
						पत्नी की ओर वफ़ादार हो चला था। शायद उसने पत्नी से सब कुछ 
						कह डाला था और दीप्ति ने उसे फिर भी सहृदयता से गले लगा 
						लिया था। इस शर्त पर कि वह अब नेहा से नहीं मिलेगा। ऐसा 
						होता तो आज क्यों आता? खुशबू को आज क्यों तैराने ले जाता? 
						शायद यह दोष वह नेहा पर लगाना चाहता हो कि पहल नेहा की तरफ 
						से हुई थी, वह छूटना चाहती थी। अपने जीवन के 
					पाँच 
						महत्त्वपूर्ण वर्ष वह व्यक्ति को अर्पण कर 
					चुकी थी इसी आशा में कि 
					वे साथ–साथ बूढ़े होंगे। अच्छा हुआ बसंत से उसे कोई सन्तान नहीं 
					थी यद्यपि वह हमेशा कहता रहा था कि उसे एक बेटी चाहिए। कहाँ जाती फिर दो बच्चियों को लेकर?
 
 इसमें बुरा क्या है? शायद बसंत ठीक ही कह रहा था। टूटने का 
						दुःख शायद बसंत को भी था, पर वह भी जानता था कि ये सम्बन्ध 
						कब तक घसीटे जा सकते थे। प्रेम को तन से ऊपर उठाने का 
						मुकाम आ पहुँचा था, पहल नेहा ने की तो भी क्या बुरा था?
 
 नेहा को याद आया, एक दिन वह अपने दोस्त की आपबीती सुना रहा 
						था। फिनलैंड में पोस्टिंग के दौरान इस दोस्त की पत्नी वही 
						के एक निवासी के साथ रहने लगी। वह भारत वापस जाना नहीं 
						चाहती थी। तीन साल के बाद दोस्त को वापस जाना पड़ा। बेटी को 
						पत्नी ने वही रख लिया। सब कुछ लुटाकर दोस्त महोदय भारत लौट 
						गए। कुछ सालों के बाद, बड़ी मुश्किलों से बेटी से मिलने गए 
						भी तो बेटी विदेशी हो चुकी थी, उन्हें पिता कहने में भी वह 
						कतराती रही। इस किस्से को बसंत ने कुछ यूँ सुनाया था मानो 
						सारी पत्नियाँ धन और आराम के लालच में पति बदलती रहती हैं।
 
 असुरक्षा की भावना सम्भवतः दोनों के मन में ही थी। 
						पति–पत्नी तो थे नहीं। वह एक प्रेयसी थी। अन्य पर्यायवाची 
						शब्दों से वह स्वयं को अलंकृत नहीं करती थी। वह सोचती थी 
						कि वह उन स्त्रियों जैसी नहीं हो सकती, वह उनसे कही 
					ऊँची 
						थी। बसंत सदा उसे 'पत्नी' कहकर ही उसका सम्मान करता था या 
						शायद वह जानता था कि वह नेहा से कुछ नहीं 
					पाएगा, बिना उसे 
						पत्नी का आदर दिए। एक शब्द कहने से उसका घिस क्या गया? रही 
						तो वह फिर भी 'प्रेयसी' ही, पत्नी तो हो नहीं गई। पत्नी की 
						तरह हाथ पकड़कर सड़क पर साथ चलकर दिखाए तो जानें। सार्वजनिक 
						स्थानों पर कैसा चौकन्ना हो जाता था बसंत, नेहा जानती थी।
 
 नेहा के यूँ तो कोई खास दोस्त न थे। और जो थे भी, उसके 
						यहाँ आने से घबराते थे। नेहा जब–तब बहाने बनाकर ऐन वक्त पर 
						उन्हें अपने यहाँ आने से रोक देती थी क्योंकि बसंत का फोन 
						आ जाता कि वह आ रहा है। वह नहीं चाहता कि जब वह आए नेहा का 
						कोई अड़ोसी–पड़ोसी या दोस्त–सहेली घर पर हो। एक–आध बार ऐसा 
						हुआ भी कि बसंत के घर रहते कोई मेहमान आ टपका तो बसंत 
						जल्दी ही अभिवादन करके खिसक लिया। धीरे–धीरे नेहा ने स्वयं 
						को सबसे काट लिया ताकि बसंत समय–असमय बेरोक–टोक आ–जा सके।
 
 कभी–कभी जब बसंत विदेश में होता तो नेहा और खुशबू कितने 
						अकेले पड़ जाते थे। मन होता कि चलो, बेहिचक किसी को बुला 
						लें या किसी के यहाँ चले जाएँ। फिर यह सोचकर रूक जाती कि 
						यह सिलसिला शुरू करने का औचित्य ही क्या था। बसंत के आते 
						ही फिर पटरी पर आना होगा। लोग और बुरा मान जाएँगे। इससे तो 
						अच्छा है, उन्हें सोचने दें कि वह सनकी है। जब कभी मुम्बई 
						से भाई–भाभी लन्दन आते, नेहा स्वयं बसंत को आगाह कर दिया 
						करती। अपने परिवार के विचारों से नेहा अवगत थी। वे कभी भी 
						इन सम्बन्धों को स्वीकार नहीं करेंगे। विष्णु को न स्वीकार 
						कर पाने पर वे लोग नाराज थे। कोई उचित कारण भी तो नहीं बता 
						पाई थी वह। न उन्हें, न विष्णु को। कैसे बताती?
 
 नेहा भारत जाना नहीं चाहती थी क्योंकि लोग रिश्ते बताने 
						लगते थे – बाल–बच्चों वाले विधुर जिन्हें घर चलाने को एक 
						पत्नी चाहिए थी या कोई बौड़म जिसकी शादी किसी वजह से अब तक 
						न हो पाई थी। अधिकतर प्रत्याशी वे थे, जो नेहा से विवाह 
						करके, विदेश में आकर बसना चाहते थे। नहा–धोकर शाम को आरती 
						के पश्चात् नेहा ने प्रार्थना की, एक ऐसे तूफान की जो 
						खींचकर उसे बसंत से अलग ले जाए, कहीं और दूर पटक दे या 
						उसकी स्मरण–शक्ति हर ले। जीवन शुरू हो जाए कही और, दूर 
						कहीं, फिर से। फिर 
					न भय रहे, न ग्लानि हो, न तिरस्कार अपनी ही अन्तरात्मा का। कब 
					तक जी पाएगी इन हालात में? कबतक लड़ेगी स्वयं से? समाज से? बसंत 
					से कहेगी कि यदि वह सही मायने में उसका हमदर्द है तो उसकी 
					सहायता करे कि वह उसके बगैर जी सके। पहले भी तो जी रही थी, अब 
					क्यों नहीं जी पाएगी? बसंत, मानो बसंत 
					बनकर आया था उसके जीवन में, पतझड़ छोड़कर जाएगा। यादें पत्रों–सी 
					उड़ती फिरेंगी इधर–उधर।
 
 शायद, यह इतना कठिन न हो जितना वह सोच रही थी। सम्बन्धों 
						को आरम्भ की स्थिति में ले जाएँगे, वहाँ से दो अलग दिशाओं 
						में मुड़ जाएँगे। कठिन होगा विदा लेना, विलग होना? कहीं 
						बसंत ने आत्महत्या कर ली तो? बस – कुछ रूक गया। साँसें थम 
						गई, ऐसा हो सकता था, हुआ है। या बसंत अकेला उसे डरा रहा 
						था? त्याग इतना आसान न था। दो जगह दो जिस्मों का 
						जलना–तड़पना, अपने से सम्बन्धित लोगों को पीड़ा पहुँचाना, 
						विरह से उपजे अपने नैराश्य को प्रत्यक्ष व्यक्तियों द्वारा 
						भुगतना।
 
 दुविधा ही दुविधा बढ़ाएगा यह त्याग भी। यह बेकार–सा आवेग, 
						यह आवेश और यह मनोविकार, कई जीवन बर्बाद करके ही दम लेगा 
						क्या?
 
 मन की उलझनों के साथ सिर का दर्द बढ़ने लगा। वह सोचना बन्द 
					कर देना चाहती है पर उसका बस है क्या, दिल और दिमाग पर? सारे 
					अंगों को अहसास है, दिल की चोट का मातम हो रहा है, जोर–शोर से। 
					एक आत्मा ही है, जो सिर उठाए दर्प 
					से दप–दप करती खड़ी है। इस जन्म में तो शान्ति मिलने से रही, 
					बसंत को छोड़े या न छोड़े, सब बराबर था।
 
 झुंझलाकर नेहा ने अखबार खोला, 'एगोनी 
					आँट' से पूछे गए 
						प्रश्न पढ़े तो वह अकेली नहीं थी इस मझधार में। न जाने 
						कितने लोग इन त्रिकोणों में खड़े छटपटा रहे थे। उत्तर कोई 
						व्यावहारिक न था। कभी स्वयं ने प्यार किया हो तो जाने। 
						सलाह देना कितना आसान है? सम्बन्ध केवल शारीरिक हो तो 
						तोड़ना आसान है पर जहाँ आत्मिक और अध्यात्मिक हो जाए तो 
						तोड़ना असम्भव है, मृत्यु ही तोड़ सकेगी उन्हें। दूरी केवल 
						उत्तेजना को प्रचंड कर देगी। समाज को इन सम्बन्धों को 
						अवश्य छूट देनी होगी। त्रिकोणों में हत्याओं या 
						आत्महत्याओं को बचाने के लिए ही सही, समाज को स्वीकार करने 
						होंगे ये रिश्ते। और इन सम्बधों को प्रियकर नाम देने 
						होंगे।
 
 क्यों वह विष्णु को धोखा दे? बसंत के परिवार को अपने त्याग 
						से बचाने के लिए एक अन्य भले इन्सान को क्यों ठगे? यह कहाँ 
						का न्याय हुआ? सब समाज की खातिर? समाज ही क्यों नहीं 
						समाधान निकालता, समझौता करता? जानती तो है, समाज केवल 
						उँगली उठाने के लिए बनाया गया था। तनावग्रस्त नेहा इस 
						निर्णय पर पहुँची 
					कि क्या समाज ने अब तक कुछ किया है जो अब करेगा? उसे स्वयं ही 
					कुछ करना होगा। आत्मा धिक्कार रही है तो शायद वह ही स्वयं गलत 
					रास्ते पर होगी।
 
 आज यह पहली बार न था जब नेहा ने ठान लिया कि आज बसंत के 
						लौटने से पहले वह स्वयं को चट्टान बना लेगी। अपने निर्णय 
						पर अटल रहेगी। चली जाएगी खुशबू को लेकर विष्णु के पास। 
						साफ–साफ बता देगी। सब–कुछ जानकर भी यदि विष्णु उसे स्वीकार 
						कर लेता है तो ठीक, वरना अभी उसमें दम है अपने 
					पाँव पर खड़ी 
						हो सकती है। 
					आँखों और मुठ्ठियों को बन्द कर लिया नेहा ने, 
						ताकि दृढ़ता कहीं से निकल न भागे। पुरूष की आवश्यकता ही 
						क्या है? क्या वह अकेले जीवन नहीं काट सकती? यदि यह कदम 
						अभी नहीं उठाया तो बहुत देर हो जाएगी। अभी तो वह जवान है, 
						सह लेगी, बेहतर भी कर लेगी। अधिक उम्र हो जाने पर तो न रह 
						पाएगी, न भर पाएगी और खुशबू को अकेला छोड़कर क्या करेगी। वह 
						चौंककर उठ बैठी।
 
 रात के दस बजने को आए। खुशबू और बसंत का कहीं पता न था। 
						कहीं कोई दुर्घटना तो नही हो गई?
 
 "हे भगवान रक्षा करना। मेरी भूलों को क्षमा करना। आज 
						सही–सलामत भेज दो दोनों को, मैं कभी कुछ नहीं माँगूँगी। 
						किसी का दिल नहीं दुखाऊँगी।" डर के मारे वह प्रार्थना भी 
						नहीं कर पा रही थी। कुछ हो हो गया तो यहाँ रेडियो और 
						टीवी वाले विशेष अंक निकाल देंगे। सारी पोल खुल जाएगी। 
						सारा शहर थू–थू करेगा। भय और आशंका से ग्रस्त नेहा सोफे पर 
						धम्म से गिर पड़ी। परिवार, पड़ोसी, दोस्त सब उँगलियाँ 
					उठाए धिक्कार रहे थे उसे। पोर्च में कार रूकी तो नेहा का दिमाग 
					ठिकाने आया, किन्तु वह उठ न सकी। उसकी सारी शक्ति निचुड़ चुकी 
					थी। उसने भगवान का लाख–लाख धन्यवाद किया, पर 
					उसकी दृढ़ता तिरोहित हो चुकी थी।
 
 खुशबू कूदती हुई कमरे में आई। लाल गुलाब के फूलों का 
						गुलदस्ता नेहा को पकड़ाकर वह उसके गले से लटक गई।
 "हैपी मदर्स डे", की आवाजें गूँज उठी कमरे में।
 बसंत ढेर सारे उपहार लिए खड़ा हुआ मुस्करा रहा था, आश्वस्त, 
						आत्मसंतोष से परिपूर्ण कि उससे अच्छा इन्सान नेहा को संसार 
						में नहीं मिलेगा। नेहा भूल चुकी थी सारे गिले–शिकवे, भगवान 
						को दिया वचन, और 
					पाँच मिनट पहले की गई अपनी प्रतिज्ञा। 
						खुशबू एक बड़ा–सा चाकलेट का डिब्बा लिए चहक रही थी।
 
 "यू नो मम्मी, अंकल बॉट मी द बिगेस्ट बॉक्स इन द शॉप," 
						आत्मा ने कचोटा, याद दिलाया पर वह साफ नकार गई।
 यह सब बसंत का कसूर था। नेहा के मनपसन्द गुलाब लाने की 
						क्या आवश्यकता थी? कैसे दिल तोड़े अब वह बसंत का?
 फिर कभी सही...
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