|  | पागलखाने के 
					अन्धेरे कोने में सिकुडा हुआ डरा सा भूषण तरह–तरह के चेहरे बना 
					रहा था। बड़ी बड़ी कमल सी आँखो में भय एवं दुखः के मिले जुले 
					भाव थे। गोरा मुख खिचड़ी दाढ़ी से ढ़का हुआ था जिस पर जमाने भर की 
					धूल जमा हो गई थी। सिर पर काले घने बालों ने घोंसले का रूप 
					धारण कर लिया था मुँह से लार टपक कर दाढ़ी को भिगो रही थी।
 भूषण के मुँह से हिचकियों के साथ कभी कभी चीखें निकल रही थीं 
					और वह रुँधे स्वर में कह रहा था,
 "रहमाना मैं कैसे अपने वतन को छोड़ कर जाऊँ... बूढ़ी माँ... 
					बीमार पत्नी, तीन तीन बच्चे... मेरा तो कोई रिश्तेदार भी नहीं 
					जिसके पास शरण लेने जाऊँ। हमसे क्या गलती हो गई मेरे भाई... "
 भूषण एक दम खड़ा हो गया और 
					दरवाज़े के ऊपर लगी सलाखों को पकड कर बोला, "नही मै कश्मीर छोड 
					कर नही जाऊँगा... यह मेरे पुरखों की थाती है... मेरा जीना मरना 
					बस यही मेरा प्यारा गाँव है... बोल रहमाना, फिर यकायकी 
					चिल्लाया,
 
 "भागो सब... कशमीर मेरा है... यह गाँव मेरा है... और तभी 
					फूटफूट कर रोने लगा... वीणा... देखो तुम्हारा भूषण अकेला रह 
					गया है... मुझे छोडकर मत जाओ। हम कल ही गाँव वापस चलते है। 
					वीणा... हमारा गाँव... "
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