कहते कहते भूषण जैसे अतीत की किसी गहरी खाई मै डूबता चला गया।
भूषण का प्यारा सा
गाँव शहर श्रीनगर से
पचास मील दूर पहाड़ियो के
बीचो बीच बसा हुआ था, शहर की चहल पहल से, दिखावट से, यह
गाँव,
यहाँ के लोग बिलकुल अछूते थे। श्रीनगर से जो बस शहर आती थी वह
सिर्फ गाँव से लगी हुई बड़ी सड़क तक ही छोड कर जाती थी। फिर एक
छोटी सी नदी को पर करना पड़ता था जिसका पानी घुटनो तक आता था,
फिर दो बड़ी पहाडियों "टॅग बाल" और "सिरय बाल" को पर करना पडता
था। हरे भरे वृक्षों से लदे दूब की चादर ओढ़े मैदान जैसे उनके
संसार के प्रहरी थे।
गाँव का जीवन आत्मनिर्भर था, खाने पीने की
सारी चीजे
गाँव मे ही मिलती थीं। कुछ वर्षों पहले यहाँ बिजली
भी आ गई थी पर भूषण की
माँ नियमित "संधया चोंग" जलाती थी। भूषण
अपनी माँ को
प्यार से 'काकन्य' कहता था, पढ़ा
लिखा होता तो शायद मम्मी या मॉम कहता।
कोई कमी नहीं थी उसके
संसार मे, न प्यार की न सौहार्द की, न
संसाधनों की।
गाँव मे सब समान थे, एक सूत्र मे बँधे
गाँव मे कश्मीर के बाकी इलाकों की तरह मुसलमान बहुसंख्या मे थे
पर सदियों से हिन्दू मुसलमान शीर शक्कर की तरह प्यार व सुकून
से रह रहे थे। सुबह जहाँ गाँव के छोटे से मंदिर से शंख व घंटियों की आवाज
आती, वहीं पास की मस्जिद से अज़ान का स्वर उसमे समाहित होकर एक
अलौकिक ध्वनि का एहसास कराता था। सब अपने थे, रमज़ान चाचा,
हमीदा मामी, शादीलाल, हलींमा आपा, कृषण जू, राहत मौसी... और
जैसे भूषण गहरी नींद से जागा हो। यह सब याद आते ही भूषण की
आँखे भर आई और जो चहरा उसकी
आँखो के सामने आया उसकी याद आते ही
जैसे किसी ने उसका दिल अपनी मुठ्ठी में
भींच लिया। यह चेहरा था वीणा का, उसकी वीणा का जो न केवल उसकी
जीवन संगिनी थी परन्तु उसकी
बचपन की साथिन और पहला व अंतिम प्यार।
भूषण ओर वीणा का बचपन एक ही
गाँव में गुजरा था। वीणा
गाँव के
एक किसान श्यामलाल की इकलौती संतान ओर भूषण
गाँव के दुकानदार
माधवराम का बेटा। दोनो
गाँव की प्राथमिक पठशाला मे पढ़ते थे और
बचपन के इस साथ ने ही शायद उनके प्यार को परवान चढ़ाया। पाठशाला
मे वीणा की एकमात्र सहेली थी "ग़ज़ाला"। एक जान ओर दो शरीर, दोनो
का प्यार सगी बहनों से बढ़कर था। ग़ज़ाला
गाँव के हकीम "आहद जू"
की बेटी थी।
कितना स्वच्छंद था उनका बचपन, सब साथ पठशाला जाते, अपने–अपने
घरो के जानवर चराने के लिए पास के जंगल में जाते, कभी नदी
किनारे रेत के महल और घर बनाते तो कभी केसर के खेतो में खिले
हुए फूलों पर मँडराती तितलियों को पकड़ते। वीणा के घर में दो
गाएँ और एक बकरी थी जिनकी सेवा सुश्रुषा वह चाव से करती थी।
गज़ाला भी अपनी काली गाय "लिली" को लेकर आती, फिर दोनों सखियाँ
अपने जानवरों को चरने छोड़कर बड़े चिनार की छाँव तले बैठकर घर
से चुराए खट्टे सेब व कच्ची खोबानियाँ नमक मिर्च मिलाकर खाते।
कश्मीर के ठण्डे मौसम की वजह से घर मे बच्चों को यह सब चीज़े
खाना सख्त मना था। अगले दिन पठशाला में दोनो भूषण को यह सब
सुनातीं। भूषण भी उनका खूब साथ देता था। किसी भी पेड पर चढ़ना
भूषण के लिए उतना ही आसान था जितना लड़कियों के लिए लंगडी
खेलना। जब हरे–हरे अखरोंटों का मौसम होता तो वह बंदरों की तरह
अखरोट के पेड़ों पर चढ़कर उन के लिए ढेर सारे अखरोट तोड कर लाता।
सारे लड़को में चाकू से हरे अखरोट को खोलकर साबुत दूधिया गिरी
निकालने मे उसका कोई सानी न था।
तीनों बालपन से ही कुशाग्र बुद्धि और धुन के पक्के थे। पाठशाला
मे प्रथम आने की होड़ सी लगी रहती थी। पाठ्य पुस्तकों से उन्हे
यह पता चला कि संसार उनके प्यारे
गाँव से कई गुना समृद्ध और
विशाल है। बसों के अलावा तेज गति से चलने वाली रेल गाडियाँ और
बादलों में उड़ते वायुयान है जो कुछ ही घंटों में विश्व के कोने
का भ्रमण करा सकते हैं। शहर मे रेल गाड़ी उपलब्ध नहीं थी।
निकटतम स्टेशन जम्मू में था, परन्तु वहाँ तक बस मे
बारह घंटे का
समय लगता था।
वीणा के पिता श्यामलाल की अपनी जमीन थी। जहाँ वह धान उगाते थे,
फिर बादाम ओर अखरोट के बाग थे जिनसे साल भर अच्छी ख़ासी आमदनी
हो जाती थी। वीणा की
माँ उसके बचपन मे ही ईश्वर को प्यारी हो
गई थी पर श्यामलाल ने दूसरी शादी
नहीं की। बेटी को पिता का ही
नहीं, माँ का भी प्यार दिया।
कोई कमी नहीं थी उसके संसार में पर एक दिन ऐसी घटना घटी जिसने
भूषण के परिवार पर गाज गिरा दी। भूषण के पिता को रात के वक्त
दुकान से वापिस आते हुए जहरीले साँप ने काट लिया। घर पहुँचते
पहुँचते जहर सारे बदन मे फैल गया था। हकींम साहब के बहुत
प्रयासो के बावजूद उन्हें बचाया न जा सका। उसकी
माँ को तीन–तीन
बच्चों के साथ इस बेरहम संसार में रोता बिलखता छोडकर मृत्यु को
प्राप्त हो गए। भूषण की
माँ ने हिम्मत कर के, सूत कात कर,
गाँववालों के कपड़े सी सी कर भूषण और उसकी दो बहनों को बड़ा
किया। पढ़ाई छोड़ कर भूषण ने बचपन मे ही अपने पिता की किराने की
दुकान सम्भाल ली ओर परिवार चलाने मे अपनी
माँ का हाथ बटाया।
बड़े जतनों के साथ किसी तरह से भूषण
ने अपनी बहनों का विवाह
बिरादरी के ही अन्य गाँवों मे किया।
उसका अपना विवाह उसके बचपन के प्यार के साथ ही हुआ। भूषण को
वही दिन याद आया जब छः साल पहले वीणा उसके छोटे से घर मे दुल्हन
बन कर आई थी। आज उसके प्यार की जीत हुई थी। लाल साड़ी मे लिपटी
वीणा उसे स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा लग रही थी। कितना खुशहाल
था उनका जीवन! बस वह दो और उसकी बूढ़ी
माँ 'काकन्य'। वीणा को घर
की चाबियाँ थमाकर काकन्य ने ईश्वर से लौ लगा ली थी। वीणा ने भी
भूषण का घर और बाहर सँवारने मे कोई कमी न रखी। सुबह सूरज की
पहली किरन के साथ उसका दिन शुरू होता था। नदी से पनी लाकर वह
आँगन बुहारती घर के पलतू जानवरों को दाना पानी खिलाती, फिर
चूल्हा चक्की मे दिन कैसे निकल जाता पता ही नहीं चलता। भूषण
की किराने की दुकान घर के पास ही पड़ती थी जहाँ एक छोटा सा
"आरा" बहता था। दोपहर को वीणा नियमित अपने हाथों से बना खाना
लेकर दुकान पर जाती और अपने हाथों से परोसकर खिलाती। भूषण को
पास मे पहाड़ी से बहते मीठे पनी के 'आरे' के किनारे खाना खाने
में एक अलग ही मजा आता था। उसे सूखी शलगम और राजमा बहुत पसंद
थे। उसे खाता देख वीणा उसे निहारती, बच्चों
जैसे भाव आते थे भूषण के चेहरे पर जब बह उसे खाना परोसती। और
वीणा उसे देखकर भाव विभोर
हो जाती।
वीणा अपने माता पिता की इकलौती सन्तान थी। बचपन में ही उसकी
माँ चल बसी थी, पिता ने लाड प्यार तो दिया ही, संस्कार भी बेटी
को घुट्टी मे पिला दिए। कच्ची उमर मे ही उसकी शादी हो गई थी,
सरकार का बाल विवाह कानून शायद
गाँव की सरहदों तक पहुंच न सका
था। वीणा की सास बहुत सुलझी हुई औरत थी, बिन
माँ की बच्ची को
खूब प्यार दिया। भूषण भी सीदा सादा भगवान से डरने वाला, सच्चा
प्यार करने वाला पति था। पिता की छोडी हुई गल्ले की दुकान को
उसने अपने परिश्रम और लगन से
गाँव में अच्छा खासा स्थापित कर
लिया था। सप्ताह में एक बार वह शहर जा कर दुकान के लिए माल
लेकर आता। कई बार काकन्य की नजर बचाकर वीणा के लिए कभी चूड़ियाँ
तो कभी नकली मोतियों का हार लेकर आता। वीणा जानती थी कि इन सब
चीजों में भूषण का असीम प्यार छुपा था।
वीणा की कभी इच्छा नहीं होती शहर जाने की। सुना था श्रीनगर
काफी बडा शहर है। वहाँ
चौडी चौडी सड़कें, बड़े बड़े बंगले हैं,
दुनिया भर में मशहूर मुगल बागान हैं। खूबसूरत दूर तक फैली हुई
डल झील है।
डल झील मे पानी पर तैरते
खूबसूरत घर है जिनका लुत्फ उठाने दुनिया भर के सैलानी साल भर
श्रीनगर आते रहते हैं। सुना था "हाउस बोट" का एक रात का किराया
हजार रुपया था। शहर मे बड़े बड़े सिनेमा घर भी थे।
गाँव मे पटवारी कौल साहब के घर टेलिविज़न
पर उसने कई फिल्में देखी थी। भूषण ने अपने वायदे के मुताबिक
कुछ साल पहले एक छोटा टेलिविज़न खरीदा था जो बिजली के साथ साथ
बैटरी पर भी चलता था। सरदियों के मौसम में बिजली की बहुत
किल्लत हो जाती थी। ऐसे में बैटरी वाला टेलिविज़न एक वरदान
साबित हुआ। इतवार के रोज घर में "रामायण" देखने वालों की
भीड़
जमा हो जाती थी। भिन्न धर्मों के अनुयायी होने के बावजूद
गाँव
के मुसलमान "रामायण" की लीला में एैसे रम गए थे कि क्या कहना।
काकन्य तो अपने आराध्य देवी देवताओं को सजीव पाकर धन्य हो जाती
थीं। उसे आजकल के लटके झटके वाले गाने बिलकुल पसंद
नहीं थे।
प्यारा सा घर, लिपा हुआ चूल्हा, छोटी सी बगिया, गोधन, पति का
प्यार व सास का दुलार। यह था वीणा का सुखी संसार। आगमन हुआ
प्यारे से रतन का, काकन्य द्वारा दिया गया नाम "रतन लाल"।
रतन अभी एक साल का ही हुआ था कि रोशन का जन्म हुआ, फिर बबली
पैदा हुई। कच्ची उम्र की कमसिन वीणा, तीन तीन बच्चों की
माँ बन
गई पर शायद यह कश्मीर की आबो हवा का असर था या शुद्ध खाने पीने
से वीणा की काया और निखर गई। मातृत्व का भाव उसकी सुन्दरता को
चार चाँद लगा रहा था।
वीणा का दिन सदा की तरह सूरज की पहली किरन से शुरू होता रहा।
पहले सारा घर लीप कर वह नीचे झरने से घर का पानी भर लाती, गाय
बकरियों को दाना पानी डालकर घर में बने मन्दिर में "शिवलिंग" पर
पानी चढ़ाती। फिर वह भूषण को उठाती, उसे नाश्ता पानी करा कर
दुकान भेजती। काकन्य और बच्चों को सम्भालने को बाद उसे जो समय
मिलता, वह अपनी छोटी सी बगिया मे गुज़ारती। अपनी बगिया मे कई
तरह के फूलो के अलावा वह सब्जियाँ भी उगाती थी। जब कभी इस सब
से वक्त बचता, वीणा भूषण के साथ दुकान पर भी उसका हाथ बटाती,
हर मायने मे वह एक सच्चे साथी की तरह अपने पति के साथ कंधे से
कंधा मिलाकर जीवन का सफर तय कर रही थी।
तीनों बच्चे बड़े हो गए थे, रतन तो
गाँव की पाठशाला भी जाने लगा
था। भूषण का रोजगार भी ठीकठाक चल रहा था। पिछले साल के
मुकाबिले इस साल फल फसल भी अच्छी हुई थी! उपर वाले की कृपा थी।
वीणा
की प्यारी सखी गज़ाला की शादी भी हो चुकी थी। शादी के सात साल
बीतने पर भी उसकी गोद सूनी थी और संयोग से वह वीणा के पड़ोस मे
बसने के लिए आ गई। बचपन की मित्रता अगाध स्नेह मे बदल गई थी।
बच्चे गजाला को मौसी कहते थकते न थे ओर गज़ाला ने भी अपनी सारी
ममता बच्चों पर वार दी। वीणा को गज़ाला के इस खालीपन का
एहसास था ओर एक दिन उसने गज़ाला से वादा किया कि अगर ईश्वर ने
उसे एक और सन्तान दी तो वह उसे गज़ाला की कोख का मोती बना देगी।
मित्रता का प्यारा तोहफा जो जाति, धर्म, समाज के बन्धनों से
परे होता है। गजाला का पति रहमान भी बहुत मीठे स्वभाव वाला,
मिलनसार और सुलझा हुआ व्यक्ति था। वह पेशे से कुम्हार था और
गाँव में उसका काम अच्छा चल रहा था।
दोनों घरों का मेलजोल काफी अपनत्व से भरा था। ईद पर वीणा के
बच्चों को गज़ाला के यहाँ से नए कपड़े तो मिलते ही थे, रहमाना से
ईदी भी मिलती थी।
महाशिवरात्रि पर दोनो घर खुशियाँ मनाते। काश्मीरी पण्डित
परम्परागत इस महापर्व पर मिट्टी से बना शिवलिंग व भगवान शिव के
परिवार व उनके गणों को पूजते हैं। यह काम सदियों से उनके
मुसलमान भाई करते आए हैं और इसी परम्परा को निभाते हुए रहमाना
अपने पण्डित पडोसियों के लिए बड़े चाव व श्रद्धा से पवित्र
"वटुक" बनाता था। दोनों घरों को कभी इस बात का एहसास तक न हुआ
कि वह भिन्न धर्मों के अनुयायी हैं पर एक
माँ की सन्तान
"मअज्य" कश्मीर की सन्तान, जिन्हें कोई अलग नहीं कर सकता।
जीवन की यह नैया यूँ ही चिरकाल तक मीठी बयार की तरह चलती, पर
होनी को कुछ और ही मंजूर था। ऋषियों की भूमि को पपियों की नज़र
लग गई। प्यार व सौहार्द का यह माहौल जहर से भर गया। सन
१९८९ के
अन्त तक सूफियों की थाती भूषण का प्यारा
गाँव, आतंकवादियों और
शैतानों का अड्डा बन चुका था।
प्यार की पवन गंगा जैसे इन
आतंकवादियों और शैतानों के डर से
किसी मरुस्थल मे विलीन हो चुकी थी।
प्यार का गुलाबी रंग न
जाने कैसे हरा होने लगा, इस्लाम के नाम पर अपने भाई जैसे
पण्डित अब कट्टर दुश्मन नज़र आने लगे थे। कोई काफिर तो कोई
हिन्दुस्तानी एजेन्ट था जो काश्मीर में निज़ामे मुस्तफा कायम
करने मे सबसे बड़े बाधक थे। मस्ज़िदों से अब
अजानों के बदले इस्लामी कट्टरवाद के स्वर गूँजने लगे थे। "यहाँ
इनशाअल्लाह पाकिस्तान की स्थापना होगी जहाँ इन दालखोर काफिर
पण्डितों की कोई जगह
नहीं होगी। हाँ उनकी बहनों और बेटियों के
साथ निकाह करके हम एक नई कायनात कायम करेंगे।
सरहद पर से आए
गाँव के ही कुछ युवक
गाँव के कर्णधार बन गए।
निजामे मुस्तफा के तहत कई फतवे जारी किए गए।
गाँव की हर बालिग
लड़की व औरत को बुरका पहनना अनिर्वाय कर दिया गया। पुरुष को
दाढ़ी रखने का हुकम मिल गया।
गाँव का पुराना लडकियों का स्कूल
आग की भेंट चढ़ा दिया गया कारण यह कि इस्लाम मे लड़कियों की
शिक्षा पर मनाही है।
जवान लड़कियों के माता पिता अपनी लडकियों को छुपा रहे थे
क्योंकि कई मुसलमान जवान उनसे निकाह की बातें कर रहे थे। धीरे
धीरे गाँव के सारे पण्डित वहाँ से भाग निकलने की योजना बना रहे
थे पर भूषण और वीणा का मन नहीं मान रहा था। यह उनका प्यारा
स्वर्ग सा सुन्दर
गाँव, उनका घर जिसे तिनका तिनका करके जोड़ा,
उनका आशियाना था। यह प्यारे कल कल करते झरने अमृत सा मीठा पानी
यह सर्वांगिक प्रभात यह स्वप्नीली शामें, उनकी नन्हीं सी
बगिया, अखरोट और बादाम के बाग, उनका गौ धन, इन सबको छोड़ कर
जाने की तो वह कल्पना भी
नहीं कर सकते थे।
पर होनी को कौन टाल सका है एक दिन रहमान और गज़ाला पड़ोसियों की
नज़र बचाकर उनसे मिलने आए और भरे गले से गज़ाला ने भूषण और वीणा
से कहा कि उन्हें यह
गाँव शीघ्र छोड़ना पड़ेगा क्योंकि
गाँव के
अधिकांश पण्ड़ितो के घर खाली हो चुके थे ओर कल रात ही कुछ
सरफिरे कातिलों ने
गाँव के एक पण्डित युवक को यातनाएँ देकर
बड़ी
बेरहमी से कत्ल करके उसकी लाश को
गाँव की चौपल वाले पेड़ पर
लटका दिया था। अपने ही घर से दूर होना कितना त्रासदिक था! खयाल
मात्र से ही वे मन ही मन काँप रहे थे, पति पत्नी के
आँसू अविरल
बह रहे थे जैसे आने वाले दिनों की कहानी के लिए वह ऊपर बैठा
सबसे बड़ा कहानीकार
आँसुओं की स्याही जमा कर रहा था।
अब सवाल था जाए तो कहाँ, कश्मीर से बाहर तो क्या कभी "जवाहर
सुरंग" तक जाने की भी आवश्यकता
नहीं पड़ी थी। इस स्वर्ग स्थान को
छोड़ने का विचार कभी स्वप्न मे भी
नहीं आया था। सब लोग जम्मू या
उधमपुर जा रहे थे, यह स्थान इस्लाम के अनुयायियों से खाली थे,
ऐसा तो नहीं था पर इस्लामी कट्टरवाद का हरा साया अभी वहाँ फैला
था। अनजाना शहर, अनजाने लोग, जहाँ न जबान अपनी, न वातावरण की
शीतलता, पथरीले शहर मे कैसे और कहाँ अपने और अपने बच्चों के
लिए फिर से एक नीड़
का निर्माण करेंगे और वह भी ऐसे वक्त
जब वीणा का पाँव फिर से भारी था? क्या इस स्थिति मे अनजाने शहर
मे विस्थापन करना उचित है फिर वहाँ कौन शरण देगा? हज़ारों
प्रश्न थे पर कोइ चारा भी न था। यहाँ जुनूनी दरिंदों की वहशत
का शिकार बनने से उस अनजान शहर मे दरबदर होना उन्हे बेहतर लगा।
बहुत सोच विचार के बाद यह फैसला लिया गया कि भूषण, वीणा,
बच्चों और बूढ़ी "काकन्य" को लेकर कल सुबह
गाँव छोड़कर जम्मू की
तरफ रवाना होगा। तीन तीन बच्चे, गर्भवती पत्नी और वृद्धा
माँ
को कहाँ लेकर जाएगा, यह सवाल रह रह
कर भूषण के अस्तिव को झंझोड़ रहा था।
शायद गज़ाला को भूषण की मनास्थिति का एहसास हो गया था। उसने
नन्हे "रौशन" को अपने पास रखने का प्रस्ताव रखा। जब वादी मे
हालात ठीक हो जाएँगे। वह लौटकर अपने बेटे को वापस ले ले। अपने
जिगर के टुकडे को भूषण और वीणा अपने से अलग कैसे कर सकते थे पर
हालत ही कुछ ऐसे थे कि उन्हे अपने दिल पर पत्थर रख कर गज़ाला का
प्रस्ताव मानना पड़ा। फिर गज़ाला और रहमाना तो सगे सम्बंधियों से
भी बढ़कर थे।
गाँव में ही बसे अपने सगे वालो ने पलायन की खबर तक
न दी।
आँसू बहाते हुए भूषण और वीणा ने अपना सामान बाँधा पर समस्या यह
थी कि गाँव मुख्य सड़क से इतना दूर था कि बहुत सा सामान ले जाना
सम्भव न था और
गाँव मे कोई ऐसा शख्स न था जो उनकी मदद को आगे
आता। कुछ तो इस ताक में थे कि उसके जाते ही उसकी मिल्कियत पर
कब्जा कर ले। काफिरो को खदेड़ कर "माले गनींमत" लूटना तो लुटेरे
अरबों के समय से चली आ रही परिपाटी थी। और जो चाह कर भी सामने
चाहते थे जिन्हें अभी भी अपने पाक परवरदिगार का खौफ था जो सही
मायनो मे मुसलमान थे, उनके कदम आतंकवादियों के डर से रुक गए
थे। काफिरों का साथ देकर कौन इन सिरफिरे लोगों की दुश्मनी मोल
लेता। पर गजाला और रहमाना ने अपनी जान की परवाह करे बिना उनका
पूरा साथ दिया।
गाँव की सारी दुकानदारी उधारी या 'बदल' पर चलती थी। इसलिए भूषण
के पास ज्यादा नगदी न थी पर वीणा के बचाए कुछ रुपए इस वक्त काम
आए। भूषण ने कई लेनदारों के दरवाजे पर जाकर तकाज़ा भी किया पर
सबने टका सा जवाब दिया।
सब को पता था कि भूषण तो वादी छोड़कर जा रहा, ऐसी स्थिति मे कोई
उसे उधारी क्यों लौटाता। फिर एक बार
रहमाना ने उसकी यह मुश्किल आसान कर दी। भूषण और वीणा के मना
करने के बावजूद भी उसने उन्हें पाँच
हजार रुपए दे दिए।
वह मनहूस दिन, जनवरी
१९८९ का महीना था, कडाके की ठंड पड़ रही
थी। टीन के दो ट्रंकों मे चन्द जोड़ी कपड़े और कुछ बरतन थे। भूषण
के पास एक गठरी मे थोड़ा बिस्तर था और वीणा ने एक बोरी उठा ली
थी। बूढ़ी "काकन्य" से तो "फेरन" मे चला भी नहीं जा रहा था।
गज़ाला और रहमाना उन्हें छोड़ने बाहर सड़क तक आए। नन्हा रोशन तो
अपनी माँ की छाती से ऐसे चिपका हुआ था, जैसे उसे एहसास हो रहा
था कि उसकी जननी उसे छोड़कर हमेशा के लिए जा रही थी।
सब चुप थे, सिर्फ रह रह कर वीणा और गज़ाला की सिसकियों की
आवाजें शांत वातावरण को भंग कर रही थी। सबकी नजरें कोहरे से
ढँकी सड़क पर जमी हुई थी। जहाँ शहर से बस आने वाली थी। आखिरकार
कोहरे की घनी चादर को काटती हुई बस नज़र आई तो भूषण उसकी ओर
भागा। दोनों ओरतों की रुलाई फूट पड़ी। एक दूसरे के गले लग कर
दोनों फूट फूट कर रोई। दोनों को रोता बिलखता देखकर बच्चे भी
रोने लगे। बूढ़ी "काकन्य" भी अपने दुपट्टे का कोना
मुँह में
लेकर अपनी रुलाई को रोकने की असफल कोशिश कर रही थी।
"यह कैसा बवंडर उठा है रहमाना भाई, किसने यह आग लगाई है हमारे
आशियाने में। भाई को भाई से, बहन को बहन से जुदा होना पड़ रहा
है। भाई मैं अपना यह प्यारा
गाँव, अपने पुरखों का घर छोड़ना
नहीं
चाहता" पर उसका यह रुदन व्यर्थ था। घर की चाबियाँ रहमाना को
थमाते हुए "काकन्य"
रुँधे गले से बोली, "बेटा, सब तेरे हवाले
कर के जा रहे हैं
पुरखों का घर, बाग बगीचा और मैरा गौधन, मेरी लिली गाय का खास
खयाल रखना। उसे मैंने और मेरे बच्चों ने घर के सदस्य की तरह
पाला है।
बस में बैठा भूषण तेजी से भागते हुए और पीछे छूटते हुए खेत
खलिहानों को, कल कल करते आबशारों को, केसर के खेतों को, उनमें
विचरते पंछियों को
आँसुओं के गीले परदे के पीछे से देख रहा था
और आने वाले समय के बारे मे चिन्ता में घुला जा रहा था। दूसरी
और वीणा की रुलाई थमने का नाम नहीं ले रही थी। उसको ऐसा लग रहा
था कि जैसे कोई उसका दिल मुठ्ठी में भींच रहा हो। नन्हे रौशन
का बिलखता चेहरा बार बार उसकी
आँखो के सामने आ रहा था, "मैरे
लाल, मेरे चंदा, अपनी इस मजबूर
माँ को माफ करना बेटा।
रोते पिटते यह परिवार देर रात उधमपुर पहुंचा। उधमपुर शहर
श्रीनगर से कोई
२२८ किलोमीटर की दूरी पर था। जिला जम्मू मे
होने की वजह से यह शहर शांत था, आतंकवाद का काला साया अभी यहाँ
से दूर था। बस मे उन्हें अपने जैसे कई परिवार मिले। कुछ उनके
आसपास के गाँव वाले थे और कई परिवार श्रीनगर से थे। रात मन्दिर
मे बिताई जहाँ पर खाने पीने की व्यवस्था स्थानीय लोगों ने की
थी।
कुछ दिन मन्दिर मे बीते। एक दिन स्थानीय सरकारी अधिकारी आकर
उनसे मिले और उन्हें कहा गया कि सरकार की तरफ से उन्हे फिर से
बसाने की कोशिशें की जा रही है। एक खेल के मैदान को साफ कर के
वहाँ टेन्टों में उनके रहने का इन्तज़ाम किया गया। कुछ
स्वयंसेवी संस्थाओं ने बरतन, कपबड़े, कम्बल व दाल चावल का
इन्तज़ाम किया और फिर से अपने ही देश मे रिफ्यूजी हुए यह लोग
अपने बिखरे तिनके समेटने मे लग गए।
भूषण ने अपने टेन्ट के बाहर ही एक छोटी सी दुकान शुरू की, साथ
लाए रुपए कब तक चलते। वीणा का गर्भ भी समय के साथ बढ़ रहा था,
पर वह दिन ब दिन कमजोर होती जा रही थी। होती भी क्यों नहीं,
कहाँ वह वादी की आबो हवा, और कहाँ यह पथरीला शहर। न ढंग का
खाना पीना न मन की शांति।
वादी के हालात बद से बदतर होते चले गए। आतंकवादियों ने पूरी
कश्मीर घाटी को हिन्दू रहित करने की जो कसम सीमा पार अपने
आकाओं से ली थी, उसे पूरा करने में उन्हाने कोई कसर
नहीं छोड़ी।
घाटी के मशहूर ओ मारूफ अल्पसंख्यक हिन्दूओं को चुन चुन कर अपने
जुल्मों सितम का निशाना बनाया। फलस्वरूप पलायन जोर पकड़ता चला
गया और टेन्टों मे बसे लोगों का वापस घर जाने का सपना निराशा
में बदलने लगा।
दो महीनों के बाद महाशिवरात्रि का पावन पर्व फिर से आ गया।
कहते हैं इन्सान किसी भी स्थिति में हो, अपने जीने की राह ढूँढ
ही लेता है। वनवास के इस माहौल में भी भूषण और उसके परिवार ने
यह पर्व मनाने की ठान ली। आज भूषण और वीणा को रहमाना की बहुत
याद आ रही थी। उन्हें रहमाना का बनाया "वटुक" याद आ रहा था।
भूषण को जो सामान बाजार से मिला, ला कर
माँ व पत्नी के हाथों
में सौंप दिया। सास बहू ने मिलकर पूरी श्रद्धा से पूजा की
तैयारियाँ की और शाम का इंतज़ार करने लगी।
सुबह से वीणा को हलका हलका दर्द महसूस हो रहा था पर उल्लास के
उस माहौल मे उसने इस ध्यान न देकर रात की पूजा मे ध्यान लगाया।
संध्या होते होते आकाश मे काले काले बादल मँडराने लगे।
सारा आकाश डरावनी आकृतियों से भर गया। बादलों के फटने और बिजली
कौंधने से ऐसा लग रहा था कि असंख्य देवो और दानवों में युद्ध
हो रहा हो। दोनों बच्चे रतन व बबली दुबकर कर टेन्ट के एक कोने
में छुप गए। घर के बड़े भी कुदरत की इस विक्रालता पर घबरा रहे
थे कि टेन्ट में लगे एकलौते बल्ब की रोशनी गुल हो गई। शायद
बिजली चली गई। भूषण ने झट से लालटेन जला ली। लालटेन के पीले
प्रकाश में उसे वीणा का चेहरा और पीला नज़र आने लगा। वीणा की
प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी। भूषण बाहर जाकर मदद लेने की सोच ही
रहा था कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। ऐसा लग रहा था कि स्वर्ग
के सारे बाँध तोड़कर सारी नदियों मे होड़ लग गई हो। भूषण ने
चिल्ला कर साथ वाले टेन्ट में रह रहे अमरनाथ को आवाज दी पर
बारिश का जोर इतना था कि उसकी आवाज कोई सुन
नहीं पाया। वह दौड़कर
गया और अमरनाथ के टेन्ट को झंझोड़ कर चिल्लाया, "अमरनाथ भाई,
बाहर आओ, मेरी पत्नी मर रही है।"
भूषण का चिल्लाना सुनकर बूढ़ा अमरनाथ और उसकी पत्नी टेन्ट से
बाहर आ गये। उधर भूषण के टेन्ट मे वीणा दर्द से छटपटाने लगी
थी। रह रह कर उसके हलक से निकलती चीख भूषण को टेन्ट में से
बाहर जा कर मदद के लिए चिल्लाने पर मजबूर कर रही थी। "भाई,
बाहर आओ! कोई तो मेरी मदद करो। मेरी पत्नी मर रही, कोई डाक्टर
बुला कर लाओ।" बूढा अमरनाथ उसके साथ था लेकिन ऐसे मौसम और
मूसलाधार बारिश मे कोई समर्थ जवान उसकी मदद को बाहर नहीं आया।
काकन्य और अमरनाथ की घरवाली ने ईश्वर का नाम लेकर खुद ही वीणा
का प्रसव करने का फैसला किया। कुछ देर बाद वीणा की चीखें शांत
हो गई और उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। काकन्य सोंच रही
थी कि यह कैसा चमत्कार प्रभु, शिवरात्रि के पवन पर्व पर यह
कृष्ण का जन्म कैसे? "वीणा बेटी, देख तो केसा प्यारा है हमारा
मुन्ना, देख कैसे टुकर टुकर देख रहा है अपनी दादी को। पूरा
अपने दादाजी पर गया है, वहीं सुतवाँ नाक,
वहीं चौडा माथा, वीणा
बेटी, देख तो।"
वीणा को आवाज देती काकन्य का घबराया चेहरा देखकर भूषण अपनी
पत्नी के पास आया और आवाज दी पर वह तो न जाने कहाँ खो गई थी,
शायद उसकी आत्मा अपने कश्मीर चली गई थी। वीणा चली गई। बहुत दूर... इतना दूर... जहाँ से कोई पलटकर वापस
नहीं आता। विस्थापन
का जहर उसे रास न आया। अन्जाना शहर, अन्जाने लोग, कोई उसके मन
को न भाया।
आज शायद देवता भी रुष्ट थे। पानी के वेग से कुछ टेन्ट उखड गए
थे। भूषण का टेन्ट भी तूफानी बारिश को सह न पाया। सारे टेन्ट
मे पानी भर गया। करीने से कोने मे सजा "वटुक" पानी मे तैर रहा
था। उफ्! यह कैसी रात थी। स्वयम् महादेव रुष्ट नज़र आ रहे थे।
जीवन मृतयु का यह खेला! कैसी अनोखी रात थी! देखने वालों के
कलेजे मुँह को आए! यह किस पाप की सजा मिल रही थी इन मासूमों
को। बेटी जैसी बहू के निष्प्राण शरीर पर पछाबड़े खा खा कर अपना
सीना पीटते और बिलखते हुए बूढ़ी काकन्य को देखकर आसपास खड़े
लोगों के गले
रुँध गए। " है भगवान मुझ वृद्धा को क्यों
नहीं
उठा लिया! इस बच्ची ने तो अभी कुछ देखा तक न था।"
इतनी देर में बारिश कुछ थम गई थी और लोगों का हुजूम जमा हो गया
था। कोई पास की कालोनी से एक डाक्टर को ले आया था पर तब तक तो
बहुत देर हो चुकी थी। लोगों ने बिखरा हुआ टेन्ट सीधा किया तो
कोई बच्चों को उठाकर अपने टेन्ट में ले जाकर उन्हे गर्म खाना
खिला रहा था। अनजाने चेहरे भूषण को सांत्वना दे रहे थे पर उसे
यह सब किसी दुःस्वप्न जैसा लग रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि
अभी उसकी आँख खुलेगी तो सब कुछ उसे सामन्य मिलेगा पर क्या ऐसा
होगा। वह भयानक रात भूषण ने
आँखों आँखों में काटी। उसे किसी
बात की सुध न थी। उसकी प्यारी वीणा को उसकी आखिरी सफर तक ले
जाना था। यह सारा काम आस पास के टेन्टों मे रहने वालों ने दौड़
दौड़ कर किया।
फिर सुबह जल्दी ही काकन्य ने अपने हाथों से वीणा का
शृंगार
किया। उसने वीणा को
वहीं साड़ी पहनाई जो कुछ वर्ष पहले पहनकर वह
उनके घर आई थी। जब वीणा के पार्थिव शरीर को शव पाटिका पर रखा
गया, दोनों बच्चे और गोद में नवजात शिशु को लिए काकन्य का रुदन
सुनकर शायद आकाश का सीना भी फट गया था, क्योंकि फिर से
बूँदाबाँदी शुरू हो गई थी।
चिता पर लेटी वीणा, अपने चहरे पर दर्द की एक अमिट छाप छोड गई
थी जो शायद इस बात का संकेत था कि आने वाले दिन इन दरबदर लोगों
को क्या क्या देखना पडेगा। बीच सडक पर नन्हें रोशन का जनेउ
संस्कार हुआ और फिर उसी के हाथों से वीणा का दाह संस्कार हुआ।
सब कुछ लुटाकर भूषण वापिस अपने टेन्ट मे आ गया। कुछ ही समय मे
खिली हुई बगिया की तरह उसकी ज़िन्दगी एक पल में कांटेदार
मरुस्थल में बदल गई थी।
सांत्वना देने वाले लोग भी एक एक करके चले गए और जम्मू से उसी
की तरह विस्थापित हुई उसकी बहनों ने उसके टूटे घर को सम्भाला।
भूषण की मानसिक हालत देखकर वे अपनी घर गृहस्थी छोड़ कर वहीं
टिकी रहीं। भूषण को दुखों ने नींमपागल बना दिया था और वह
गुज़रते वक्त के साथ व पागलों की सी हरकतें करने लगा था। "वीणा,
देख तो जरा, गैया भूखी है, उसे चारा तो खिला दे। अच्छा तू रहने
दे, ऐसी हालत में हामिला औरत को ज्यादा काम
नहीं करना चाहिए।"
और जब कभी नवजात शिशु रोता तो वह उठ खड़ा होता। "काकनी देख तो
अपना मुन्ना कितना रो रहा है, यह तेरी बहू भी कितनी भुलक्कड़
है, शायद बगिया में होगी। मैं उसे बुला कर लाता
हूँ।" फिर
टेन्ट से निकल कर वीणा को ढूँढ़ने निकल पडता। फिर दौड़ कर टेन्ट
मे वापिस आकर फूट फूट कर रोता। "काकनी,
मेरी वीणा तो चली गई
मुझे छोड़ कर, मैं किसे ढूँढ रहा था। वीणा, मेरी अच्छी वीणा! तू
मुझे छोड़ कर कहा चली गई। मुझे
नहीं रहना यहाँ तुम्हारे बिना।
यहाँ कुछ अच्छा
नहीं है। यहाँ ना मुझे बहुत डर लगता है। तू बस
एक बार वापिस आजा, फिर हम वापिस अपने कश्मीर चले जायेंगे। तू
बस्स वापिस आजा।"
जवान बहू की अकाल मृत्यु और एकलौते बेटे को गम मे तिल तिल
घुलता देखकर काकन्य भी ज्यादा देर न रह पाई और कुछ ही सप्ताह
बाद वह भी इस पापी संसार को छोड़ कर चली गई। भूषण को स्थानीय
पागलखाने मे भेजा गया और नन्हे बच्चों को उनकी बुआएँ ले गई।
भूषण का संसार उसके कश्मीर की तरह उजड चुका था। न भूषण के
सुधरने के हालात नज़र आते थे न कश्मीर के।
आज भी पागलखाने में भूषण के
मुँह से हिचकियों के साथ चीखें निकलती है और वह आज भी यही कहता
है, "नहीं मैं कश्मीर छोड़ कर
नहीं जाऊँगा... यह मेरे पुरखों की थाती है... मेरा जीना
मरना बस यही मेरा प्यारा
गाँव हैं। मैं यहाँ से कहीं
नहीं
जाऊँगा। |