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सलमा कहती है आपा मैं क्या
करूँ? मैं सोचती हूँ कि मैं क्या करूँ, जो इस बेगुनाह की तकलीफ
कम हो। बिना कहे, मैं जानती हूँ कि मैं कुछ नहीं कर सकती, केवल
रोज़ सलमा की कहानी सुन लेती हूँ।
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कभी हाथ पर पट्टी बँधी, कभी मुँह सूजा, लालऌ कभी भूख से
कुम्हलाया चेहरा। रोज एक न एक नया शिगूफा! कौन है सलमा? मज़बूरी
की एक तस्वीर! पाकिस्तान की एक कुम्हलाई कली, चम्पई रंग, मोटी
मोटी आँखें, सुडौल देह यष्टि कुछ और भी चाहिये क्या? मैं सुनती
रहती हूँ लेकिन सलमा मैं तुमसे भी ज़्यादा मजबूर हूँ। मेरा मन
मुझे धिक्कारता रहता है। सलमा झेलती है, मैं कुछ न कर पाने का
दुख भोगती हूँ।
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रात में नींद नहीं आती! मैं सोचती हूँ मैं किसका किसका दुख दूर
करूँगी। कोई एक सलमा तो है नहीं, हज़ारों हैं। कभी मुझे गुस्सा
आता है! मुझे क्या करना है सलमा न मेरी हम वतन न मेरे मज़हब की,
फिर मुझे रात की नींद हराम करने की क्या ज़रूरत। पर मन है कि
वहीं जा कर फिर उलझ जाता है। ठीक है मेरा न तो वतन का रिश्ता
है न ही मजहब का। परंतु एक रिश्ता है, वह है औरत होने का
रिश्ताऌ इंसानियत का रिश्ता। लेकिन इंसानियत के रिश्ते तो मज़हब
और वतन की सरहदों में ही घुट कर रह गये। औरत का औरत से एक ऐसा
रिश्ता है जो अंतर्मन का रिश्ता है, वह बिना कहे ही सब कुछ समझ
जाती है, बेटी भी माँ के इस दुख को समझने में उम्र के तमाम
पड़ाव बिना किसी झंझट के पार कर जाती है।
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