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                   सलमा 
					मेरी क्लास में आती है और कभी कभी मुझसे बात करती है। बातें 
					करते करते उसकी आँखों से हज़ार हज़ार आँसू निकलते हैं। उस दिन 
					सलमा बहुत उदास थी जब सब लड़कियाँ चली गई तो वह कभी सामान रखती, 
					कभी मेज़ साफ करती, मेरे आसपास मंडरा रही थी, मुझे महसूस हुआ, 
					सलमा कुछ कहना चाहती है, बार बार बैठ जाती है लेकिन जैसे 
					हिम्मत नहीं जुटा पाती है। मैं ही पूछती हूँ, सलमा क्या बात है 
					आज घर नहीं जाना है? वह हड़बड़ा जाती है पूछती है, आपा आपको देर 
					हो रही है क्या? वह जानती है, कि मैं दूर से आती हूँ। शाम को 
					जल्दी ही जाना चाहती हूँ, बच्चों को अकेले घर पर छोड़ना मुझे 
					पसन्द नहीं है। मैंने कहा, अभी देर नहीं हो रही है। तुम बोलो 
					क्या कहना चाहती हो। सलमा मेज़ पर सिर रख फफक कर रो पड़ी, 'आपा 
					मैं क्या करूँ?' मैं पास जा कर खड़ी हो जाती हूँ, कहती हूँ, 
					'क्या बात है? बात तो बताओ!' सलमा की बड़ी बड़ी आँखों में जैसे 
					सागर फैल रहा हो। एक अतृप्त प्यास आँखों में लहरा रही है। आपा 
					वे तो मुझसे बोलते ही नहीं, उसी गोरी के पीछे पागल रहते हैं। 
					आज मुझसे कहा है, अपनी शकल न दिखाना। मैं क्या करूँ? बेसाख्ता मेरे मुँह से निकल पड़ता है, 'तुम्हारी सास क्या कहती 
					है?'
 मेरी सास कहती है, 'तुम्हें तीन साल बाद भी बच्चे नहीं हुए 
					इसीलिये वह तुमसे खुश नहीं है।' पर आपा वह रात घर पर कभी रहते 
					ही नहीं है। सलमा की खाला सलमा को पाकिस्तान से लाई थी। बड़ी 
					बहन से उन्होंने कहा था, 'बाजी इसे मेरे घर भेज दो, मैं इसकी 
					शादी करा दूँगी। यह बड़े आराम से रहेगी।'
 
 सलमा भी विदेश के तमाम किस्से सुनती थी। एक सपना उसकी आँखों 
					में था कि शायद मेरे माँ बाप की गरीबी भी दूर हो जाये! अम्मी 
					और अब्बा ने भी काफी झंझटों के बाद कह ही दिया। अम्मी को बहन 
					पर पूरा भरोसा था जो करेगी ठीक ही करेगी। किसे मालूम था कि 
					किस्मत खेल खेल रही है। तमीना भांजी को लाने का इरादा जाहिर कर 
					के मन ही मन बेहद खुश थी। उसकी आँखों में सहेली का लड़का बस गया 
					था, अभी इसी साल इसने डॉक्टरी पास की है। देखने में सजीला 
					जवान, उम्र वगैरह भी सलमा के लिये बिलकुल ठीक! चार पाँच साल का 
					अन्तर ठीक रहता हैऌ उम्र का ख्याल आते ही तमीना का मन अजीब 
					अजीब हो आया। सलमा के खालू उससे नौ साल बड़े हैं उम्र में, इतना 
					अन्तर दोनों के सोचने समझने का तरीका ही बिलकुल अलग। अनजाने ही 
					एक ठंडी साँस निकल गई। फिर उसने सोचा 'चलो अब क्या उसकी उमर भी 
					तो अब चालीस पार कर रही है और फिर सलमा भी तो कोई कम नहीं, सब 
					तरह से अनवर के लायक है। पासपोर्ट बनवाते, सामान लाते सहेलियों 
					से मिलते, महीने भर का समय कपूर ही तरह उड़ गया। चलते समय सलमा 
					सबसे लिपट कर बहुत रोई, छोटे भाई बहनों को कितना प्यार किया। 
					मन में बहुत कुछ सोच कर अपने को एक अजन्मे सुख में बह जाने को 
					छोड़ दिया।
 
 टैक्सी बाहर आ गई थी, खाला के साथ वह भी आकर बैठ गई और फिर 
					बेपनाह रुलाई का सैलाब। सलमा को लगा कि कुछ बहुत जरूरी, कुछ 
					बहुत अपना, यही छूटा जा रहा है। घर की तरफ से मुँह मोड़ कर वह 
					दूसरी तरफ देखने लगी लेकिन इस तरह मन को मना लेना आसान नहीं 
					होता। इतने में खाला बोलीं, 'सलमा अपना सामान देख लो।' खिड़की 
					से झाँक कर देखा सामान तो सब डिक्की में चला गया था। टैक्सी 
					भाग रही थी और सलमा का मन अजीब उधेड़बुन में पड़ा था। क्या हो 
					रहा है यह सब? क्या उसका सपना सच होगा?
 
 टैक्सी से उतर कर फिर वही भागमभाग सामान तौलवाना। हैन्ड बैगेज 
					ठीक करना, सलमा को सब कुछ भूल गया खाला के साथ वह आकर जहाज़ में 
					बैठ गई। शुरू में तो उसे बड़ी घबड़ाहट हुई लेकिन थोड़ी देर में सब 
					कुछ व्यवस्थित हो गया। वह अपनी सीट पर निढाल सी बैठ गई। और फिर 
					एक एक करके तमाम तस्वीरें खिसकने लगीं, छोटा भाई रोज़ आकर 'बाजी 
					मेरे लिये एक बिजली की गाड़ी भेजना' कभी 'बाजी मेरे लिये एक 
					अच्छी सी मोटर भेजना' बहुत से खिलौने, अलबम, स्वीट कितनी 
					ख्वाहिशें लेकिन जाने वाली रात वह आकर लिपट गया 'बाजी मुझे कुछ 
					नहीं चाहिये तुम कहीं मत जाओ।'
 
 उसे लगा वह उसे कस कर झकझोर रहा है लेकिन खाला उसे उठा रही थी, 
					ऐयर होस्टेस खाना ले कर आ गई थी। खाने की तरफ देखने का भी उसका 
					मन नहीं हुआ। उसने धीरे से मना कर दिया। खाला ने सोचा शायद 
					पहली बार हवाईजहाज पर आने की वजह से सलमा को कुछ चक्कर आ रहे 
					हैं, उन्होंने कुछ ज़ोर नहीं दिया। सलमा फिर अपनी दुनिया में 
					लौट गई। कभी सहेलियों की आवाज़ें उससे चुहल करती लगती, 'सलमा तू 
					तो जा रही है, मुझे भी बुला लेना।' लगा अम्मी खड़ी है, कह रही 
					है, 'सलमा उठो! देखो कितना दिन निकल आया, तेरे अब्बू चाय के 
					लिये खड़े हैं।'
 वह हड़बड़ा कर उठ गई! आँख मल कर देखा, कहीं कोई नहीं। खाला बोली, 
					'चलो तुम्हारी नींद खुल गई, अच्छा हुआ। अब हम लन्दन पहुँचने 
					वाले हैं।'
 
 खाला के घर जब उतरी तो उसे लगा यह तो एक नई दुनिया है। न कहीं 
					बहते नाले, न गन्दा पानी, सब कुछ चमकता हुआ साफ शफ्फाक, सब कुछ 
					इतने करीने से था कि उसे डर लगता कहीं कुछ खराब न हो जाये। हर 
					कदम सम्हाल कर रखती अपने में एकदम संकुचित, कभी सोचती, हबीबपुर 
					का घरऌ क्या करते होंगे? अब्बा शायद घर आ गये हों, 'सलमा चाय 
					लोगी?' आवाज सुनते ही सपने टूट गये। वह उठी, बोली, खाला मैं 
					चाय बना लूँ और धीरे से आकर किचन में खड़ी हो गई। अभी वह देख ही 
					रही थी कि देखे कहाँ क्या रक्खा है कि खाला ने चाय का कप थमाते 
					हुए कहा 'चलो देखें' फ्रीज में क्या रक्खा है? फ्रीज में से 
					थोड़े से कबाब निकाल कर गर्म होने को रख देती है, सलमा चाय का 
					कप लेकर बैठी रही।
 
 उसे याद ही नहीं रहा कि वह खाला के घर, पाकिस्तान से हज़ारो मील 
					दूर बैठी है। उसे लगा शाम हो गई है और अब्बा फल की दुकान बंद 
					कर के थके थके उदास घर आये हैं, कहते हैं 'ला सलमा बेटी, जरा 
					वजू के लिये पानी दे दे।' वह एकाएक उठी तो चाय का प्याला छलक 
					गया, खाला बोलीं, ' कोई बात नहीं, मैं साफ कर दूँगी।' क्या 
					कहेंगी खाला कारपेट गंदी कर दी। जैसे तैसे चाय पीकर खतम की, उस 
					रात कबाब रोटी खाकर सलमा सोने चली गई। हवाई जहाज की थकावट एक 
					जगह बैठे बैठे सारा जिस्म जकड़ गया था। वह लेट गई। आँखों में 
					कितनी परछाइयाँ मचलने लगीं उन सब से बातें करते करते वह सो गई। 
					सुबह फिर जल्दी ही नींद खुल गई, वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। फिर खयाल 
					आया, वह सात समुद्र पार बैठी है खाला के घर परदेश में। सुबह 
					धूप की रोशनी में मन कुछ शांत हो गया।
 
 धीरे धीरे काई की परत की तरह मन में भी कुछ फट रहा था। चाय 
					पीकर बैठी तो खाला बताने लगी, 'यहीं पास में छोटा बाज़ार है 
					वहाँ सब कुछ मिल जाता है। एक कार्नर शॉप है वहाँ दूध, अंडा, 
					अखबार, चाय, रोजमर्रा की छोटी मोटी चीजें मिल जाती हैं।' फिर 
					तमाम फोन के नम्बर, यहाँ किस किस कपड़े की ज़रूरत होगी, उसे लेकर 
					जायेंगी नये कोट कार्डिगन वगैरह लाने का प्रोग्राम बना लिया। 
					ताला चाबी सब कुछ समझाया क्यों कि उसे घर में अकेले यही कोई 
					चार पाँच घंटे रहना होगा। तमीना जानती थी, बड़ी बहन के घर दो 
					जून की रोटी किसी तरह चल रही थी। फलों की छोटी सी दुकान थी। 
					आधे फल सड़ जाते फिर महँगे फलों को कौन खरीदता। पाकिस्तान में 
					पैसा तो बहुत हुआ, पर क्या सबकी गरीबी चली गई। मजबूर आम आदमी 
					अभी भी दवा–इलाज और दुनिया की तमाम बुनियादी जरूरतों के लिये 
					परेशान ही रहता है। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि सलमा का निकाह 
					किसी अच्छे घर में कर दें तो फिर घर की हालत अपने आप ही सुधर 
					जायेगी। यही सब सोच कर वह सलमा को लाई थीं।
 
 तमीना के जाने के बाद सलमा चुपचाप सोफे पर बैठ गई, उसका मन 
					होता कि वह फोन करे लेकिन उसे तो कुछ मालूम नहीं कैसे करते 
					हैं, और फिर उसके घर में तो फोन है ही नहीं। देखा बाहर आसमान 
					में बादल घिर गये हैं, उसके अंदर भी कुछ घिरता जा रहा है, एक 
					घुटन है, उसका मन छटपटा रहा है, अभी तो थकावट पूरी तरह से उतरी 
					नहीं थी, वह फिर नींद के आगोश में बेसुध होने लगी। दरवाजे पर 
					घंटी सुन कर उसकी नींद खुल गई। वह करीब करीब दौड़ती हुई भागी पर 
					याद आया खाला ने कहा था कि दरवाज़ा न खोलना। वह वही चुपचाप खड़ी 
					रही! कोई एक कागज़ छोड़ कर चला गया।
 
 शाम को जब खाला आई तो उसे लगा कि जैसे कुछ गुमसुम है। कहीं 
					उसकी वजह से तो नहीं। पर खाना बनाने में, बरतन साफ करने में 
					समय निकल गया। शाम कब घिर आई। कुछ देर में घंटी बजी! खाला किसी 
					से फोन पर बात कर रही थी। जाने क्यों उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ 
					है। खाला कुछ ऊँचा ऊँचा बोलने लगीं। उसने सुना मैंने तो 
					तुम्हारे कहने से लड़की बुला ली अब तुम क्यों पीछे हट रही हो? 
					उधर की कोई बात उसे सुनाई नहीं दी। मनमें एक फिकर सी हो गई। 
					सुना था खाला की सहेली का लड़का है, इस से ज़्यादा वह कुछ नहीं 
					जानती थी। फिर हफ्ते भर उसने कुछ नहीं सुना। लेकिन उसे यह 
					अहसास होता जा रहा था कि कहीं कुछ है जो खाला को अन्दर ही 
					अन्दर परेशान कर रहा है। वह चाहती तो है कि खाला उसे बता दे 
					किन्तु उसकी पूछने की हिम्मत नहीं होती।
 
 उसके बाद तो सब कुछ इतनी तेज़ी से गुजरा कि सलमा को लगा कि उसकी 
					दुनिया घूम रही है। उसके हाथ पैर ठंडे पड़ने लगे! अब क्या होगा? 
					उसके अपने दिल में पनपता अनजाना प्यार का पौधा भाई बहन अम्मी 
					अब्बू सब कुछ गडमड होने लगे। खाला की सहेली कहती है कि उसका 
					लड़का बिना साथ रहे शादी नहीं करेगा, तुम मेरी मजबूरी भी तो 
					समझो। वह साथ रहने के बाद ही तय करेगा। खाला मुझसे भी पूछती 
					है! मैं क्या जानती हूँ यहाँ के रीत रिवाज का यह कैसा ढँग है। 
					दो चार दिन की परेशानी के बाद खाला ने खुद ही कह दिया कि वह तो 
					इसकी इज़ाज़त नहीं दे सकती। बाद में अगर अनवर ने मना कर दिया तो 
					सलमा का क्या होगा। वह सोचती है कि सभी तो इतने समझदार नहीं 
					होते। देखना हो, सिनेमा जाना हो या थोड़ी देर बातचीत करनी हो तो 
					ठीक है। लेकिन यह साथ रहने की बात उसकी समझ में नहीं आती।
 
 सलमा के मन में एक कसक सी उठती है शायद वह देखने में यहाँ की 
					लड़कियों की तरह नहीं होगी। वह जा कर शीशे के सामने खड़ी हो जाती 
					है! साथ रहने पर मुझे देख ही तो सकते है, बाकी तो मैं जितना 
					चाहूँ अपने को छिपा सकती हूँ! कौन जानेगा इसे जो प्यार करते 
					हैं वे तो साथ रहें या न रहे, अपनी सारी आदतें भी बदल डालते 
					हैं, अपना सब कुछ दे देने की तमन्ना रखते हैं, शायद मगरिब के 
					लोगों को यह अजीब लगे लेकिन मशरिक में हम औरतें अपनी अलग 
					शख्सियत बनाती कब है? उसे याद है कि उसकी एक सहेली थी उसके 
					शौहर को सिर ढकना एकदम पसन्द नहीं था उसने मजलिस में जाना छोड़ 
					दिया, जब कि वह इतने स्वर में कुरान पढ़ती थी। सबने कितना कहा, 
					इसमें क्या है! तू आकर यहीं सर ढक लिया कर। लेकिन उसने तो साफ 
					इन्कार कर दिया।
 
 खाला ने सोचा शायद डाक्टर अनवर कुछ दिनों में मान ही जायें। 
					खाला ने तो यहाँ तक कहा था कि तू अनवर को मना लेऌ मैं तेरी सब 
					ख्वाहिशें पूरी कर दूँगी। अनवर एक सरकारी अस्पताल में डाक्टर 
					था। सलमा को यही अच्छा लगता था। बंधी बंधाई तनख्वाह हो तो आदमी 
					अपने रहने का एक ढँग बना लेता है, रोजगार में तो कभी दस तो कभी 
					दोऌ चैन नहीं। लेकिन यह तो बाद की बात है। सलमा को चैन कहाँ?
 
 उस दिन खाला सलमा को ले कर बिरादरी में सोग करने गई थी। वहीं 
					मिले हाजी साहब और उनकी बीबी, उन्होंने सलमा को देखा तो देखते 
					ही रह गये। सोचा अगर उनके मझले बेटे से इसकी शादी हो जाये तो 
					शायद बेटा रूप के बंधन में बँध कर सुधर जाये। फिर इधर उधर पूछा 
					तो, तो खाली के कान तक भी बात पहुँच गई। चार दिन बाद पैगाम भी 
					आ गया। तमीना का दिल एक बार तो छटपटा कर रह गया। कहाँ अजरा का 
					डाक्टर बेटा और कहाँ ज़मीर? लेकिन फिर भी खूब खुश होकर बोलीं, 
					'चलो, जब समय होता है तो सब कुछ हो ही जाता है। उनकी अपनी कपड़े 
					धोने की दुकान है। खूब चलती है। किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी। 
					ज़मीर ज्यादा पढ़ा नहीं है तो क्या, देखने सुनने में तो कोई बुरा 
					नहीं हैं। सलमा ने भी राहत की सांस ली। जो है वही ठीक है। 
					तमीना चाहती थी कि निकाह दो महीने बाद हो लेकिन, हाजी साहब 
					राजी नहीं हुये, बोले अगले हफ्ते ही निकाह करा दें तो ठीक 
					रहेगा। निकाह में मेहर की रकम के लिये खाला ने ज़ोर देना चाहा, 
					लेकिन हाजी साहब कुछ साफ बोल नहीं रहे थे। तो उन्होंने भी सोचा 
					कि करना ही क्या है, अगर ज़मीर ठीक रहे तो फिर मेहर की ज़रूरत ही 
					क्या पड़ेगी। और फिर कहीं इसी चक्कर में हाजी साहब भी मुकर गये 
					तो हाथ आया मौका निकल जायेगा। पाकिस्तान भी खबर कर दी। सीधे 
					सादे ढँग से निकाह करा कर सलमा ससुराल आ गई। माँ बाप भी खुश 
					हुये, गाने करवाये, मिठाई बँटी, बस अब अल्लाह सलमा को खुश 
					रक्खे।
 
 सलमा बीच बीच में खाला को फोन करती रहती। मैं तो बहुत खुश हूँ, 
					सब मेरा खयाल रखते हैं, मुझे कोई कमी नहीं है। लेकिन सलमा को 
					लगता, ज़मीर अधिकतर तो बाहर ही रहता है। पर जब घर में रहता भी 
					है तो मीलों दूर ज़ज़बाती तौर पर वह हमेशा अलग सा हो जाता है। 
					जिस्म ही तो सब कुछ नहीं होता।
 
 सलमा के दिन अच्छी तरह बीत रहे थे। उसका मन होता कि कभी वह 
					ज़मीर के साथ घूमने बाहर जाये, लेकिन सास कभी भी उसे कहीं जाने 
					को कहती नहीं थी। अगर कहीं जाना हो तो वह अकेले ही जाती थी। 
					सुबह शाम बस खाना बनाना, घर साफ करना, घर में अगर कोई आये भी 
					तो सास उसे चाय बनाने या कोई और काम के बहाने वहाँ से हटा 
					देती। कभी वह खिड़की के पास खड़ी हो जाती, बड़ी बड़ी बसों को 
					देखती, मन होता कि वह भी बसों में बैठकर घूमने जाये। ज़मीर के 
					साथ जाकर अच्छे–अच्छे कपड़े खरीदे, फिर सोचती कि शायद कुछ दिन 
					बीतने पर उसकी सास खुद ही कहेगी, एक दिन घर में बहुत से 
					रिश्तेदार आये थे, दूध खतम हो गया था। उसकी सास ने कहा, 'सलमा 
					ज़मीर से कुछ पैसे ले आ! पास की दुकान से कुछ दूध ले आऊँ।'
 
 सलमा ऊपर गई, ज़मीर वहाँ नहीं मिला पर उसका कोट टँगा था। उसने 
					जेब में हाथ डाला कि कुछ चेंज निकाल कर सास को दे आये। चेंज के 
					साथ साथ एक फोटो भी हाथ में आ गई। फोटो देख कर उसकी आँखों के 
					आगे अँधेरा छा गया। उधर नीचे से सास आवाज़ लगा रही थी। जैसे 
					तैसे कर के वह नीचे गई। सास को पैसे दे कर फिर वापस उपर आ गई। 
					फोटो थी ही इतने बेतुके ढँग से कि कुछ भी सफाई की ज़रूरत नहीं 
					थी। सलमा यही सोचती रही कि क्या करे सास से कुछ कहे या चुप ही 
					रह जायें। सलमा को लगा था जैसे जीते जी उसे किसी ने बर्फ की 
					सिल्लीपर लिटा दिया। वह क्या करे? क्या खाला के पास फोन करे। 
					नहीं! यह लड़ाई अब उसे अकेले ही लड़नी है।
 
 शायद सास को भी न मालूम हो। हाज़ी साहब तो ज़रूर ही ज़मीर को 
					समझायेंगे। कि सास की तेज़ आवाज़ आई, 'सलमा नीचे सारा काम फैला 
					पड़ा है।'
 
 वह झुलसते मन से नीचे आई, जैसे ही चाय के बरतन समेटने लगी, 
					उसके काँपते हाथ से ट्रे छूट गई।
 हाजी साहब भी बाहर से दौड़े आये, बोले, 'ज़रा काम सँभाल कर किया 
					करो। सारी चीजें इतनी महंगी हो रही है।'
 
 सलमा ने कुछ कहा नहीं, बस दौड़ी गई और ऊपर से फोटो ला कर सास के 
					हाथों में रख दी और खुद ऊपर जाकर बिस्तर पर गिर पड़ी। सारी 
					मज़बूरी, बेबसी ही उसके हिस्से में पड़ी थी। सलमा को लगा कि वह 
					हर तरफ से हार गई। घर छूटा, माँ बाप भाई बहन सब को छोड़ कर वह 
					एक सपना लेकर यहाँ आई थी। सास ऊपर आकर बोली, 'कोई मुसीबत की 
					बात तो नहीं है! मर्द जात तो रहते ही इसी तरह है।'
 
 सलमा को धक्का लगा। वह समझ गई कि यहाँ कोई भी उसकी बात समझने 
					वाला नहीं है। एक शर्त अनवर ने रक्खी थी शादी से पहले साथ रहने 
					की, अब यह दूसरा जाल। अनवर की शर्त से तो निज़ात मिली पर क्या 
					वह सही मायनों में आज़ाद हुई है। पहाड़ से गिर कर वह नीचे 
					लुहूलुहान हो कर पड़ी है, सहारा कौन देगा। उसके सारे वजूद पर एक 
					सवालिया निशान लगा है। सास ने घुमा फिरा कर यह भी बता दिया कि 
					घर की इज़्ज़त घर में ही रहनी चाहिये। मतलब खाला या किसी से भी 
					इसका ज़िक्र करना गुनाह ही होगा। और यह भी कि कुछ गलती उसकी भी 
					होगी।
 
 सलमा के लिये घुटन बढ़ती जा रही थी, न कोई रोशनी का एक कतरा 
					दीखता न ऐसा अँधेरा कि उसमें डूब कर सब कुछ खतम हो जाये। सलमा 
					को आज यह एहसास हुआ कि कुछ दुख ऐसे भी होते हैं जो न मरने देते 
					हैं न जीने। वह जिस गहरी खाई में धँसती जा रही थी, वहाँ से 
					निकलना कैसे होगा। उसका सिर दर्द से फट रहा था। उसने बड़ी 
					हिम्मत करके ज़मीर से शिकायत की लेकिन वह उसके तेवर देख कर दंग 
					रह गई।
 
 ज़मीर बोला, 'मैं उसे घर में लाकर नहीं रखता यही क्या कम है। 
					खबरदार अगर आज के बाद कुछ कहा। तुम्हें खाना कपड़ा चाहिये और 
					क्या? मैं जैसे भी चाहूँ रहूँ तुम्हें कुछ भी बोलने का हक नहीं 
					है।'
 सुनते ही सलमा के सारे शरीर में आग फैल गई। उसने काँपते हुए 
					पूछा, 'क्या हाज़ी साहब के सामने भी तुम ऐसी बात कह सकते हो।'
 
 ज़मीर ने हँस कर कहा, 'तुम किस घमंड में हो? उन्हें सब कुछ 
					मालूम है।'
 
 दुख और क्रोध से काँपती सलमा वहीं बैठ कर सिसकने लगी। ज़मीर पैर 
					पटकता हुआ बोला, 'मैं उसे कलमा पढ़ा कर दूसरा निकाह करा लूँगा। 
					तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम चुप रहो।' और चीखता चिल्लाता 
					घरसे बाहर चला गया। थोड़ी देर बाद फोन की घंटी बजी, सलमा ने बड़ी 
					हिम्मत करके फोन उठाया, उधर से खाला की आवाज़ आई, सलमा ने खाला 
					से बड़ी आरजू की,'खाला मुझे ले चलो वर्ना मैं मर जाऊँगी।'
 
 उस समय इत्तफाक से घर पर कोई न था। खाला ने बहुत समझाया हाज़ी 
					साहब और उनकी बीबी कोई भी सलमा को भेजने के लिये तैयार नहीं 
					हुए। सलमा समझ गई कि इस घरके दरवाजे बंद है और वह इस घर की 
					दीवारों को कभी भी न लाँघ पायेगी। न ये दरवाजे कभी खुलेंगे न 
					रोशनी का कोई टुकड़ा उसके हिस्से में आयेगा। सलमा सोचती शायद 
					खुदकशी ही उसे छुटकारा दिला सकती है। मीग्रेन की शीशी देखती 
					रहती, हाथ बढ़ाकर उसे छूती, फिर डर से खींच लेती। वह हर समय 
					सोचती कि उसके पास कौन सी ताकत है, वह तो आठवी तक पढ़ी है। 
					अकेली कहाँ रहेगी? चली भी जाये तो क्या वह ज़मीर के बिना रह 
					लेगी? और तब आई उससे भी भयानक हादसे की रात। पुलिस ने घर को 
					घेर लिया। वह ज़मीर की तलाश में आई थी। पुलिस औरत ऊपर आकर ज़मीर 
					के कमरे में तलाशी ले रही थी। फिर नज़ीर की जेब में ड्रग मिली। 
					ज़मीर के हाथों में हथकड़ी पड़ गई।
 
 सलमा पत्थर बन सब कुछ देखती रही। सलमा को कुछ समझ में नहीं आ 
					रहा था। क्यों करता है ज़मीर यह सब गन्दे और खतरनाके काम! घर 
					में सभी दुखी थे, एक तरह का गुस्सा, जैसे सलमा की जिम्मेदारी 
					ज़मीर से अच्छे काम कराना भी था। समीना ने बाप के घर गरीबी तो 
					देखी थी पर बेइमानी, झूठ फरेब और चरित्रहीनता नहीं देखी थी। जब 
					होश आया, पुलिस ज़मीर को लेकर जा चुकी थी। हाज़ी साहब सर झुकाये 
					बैठे थे। निहायत गमगीन। सबेरे का उज़ाला थोड़ा थोड़ा फैल रहा था। 
					सलमा उठी अपने कमरे में एक निगाह डाली, सब कुछ तहसनहस पड़ा था। 
					उसमें कुछ सोचने की ताकत नहीं बची थी। जिस दवा की शीशी से उसे 
					डर लगता था, उसखी तरफ इस समय सलमा ने ललचाई निगाह से देखा, एक 
					पक्के इरादे से उठी, जग से एक गिलास पानी लिया और सब दवा एक 
					बार में खाने की कोशिश करने लगी। धीरे धीरे सारी गोलियाँ खा कर 
					लेट गई।
 
 सलमा की ननन्द शमा ऊपर आई, उसने सलमा को बाजू पकड़ कर पूरी ताकत 
					से झकझोर दिया, नीचे चलने को कहा। सलमा ने पूरी कोशिश की लेकिन 
					एक तरफ लुढ़क गई। शमा ने वहीं पास में खाली दवा की शीशी देखी, 
					भागी भागी नीचे गई। दूसरे दिन जब सलमा होश में आई तो उसने अपने 
					को अस्पताल में पाया। एक डॉक्टर बार बार उसका नाम लेकर उससे 
					पूछ रहा था, 'अब कैसा लग रहा है?' सलमा चौंक गई। कौन है जिसे 
					उसकी इतनी फिकर है, यह कौन है जो उसकी ज़बान में बार बार उसे 
					पुकार रहा है। डाक्टर हाल पूछ कर नर्स को तमाम हिदायतें कर के 
					चला गया। दूसरे दिन हाजी साहब आये लेकिन डाक्टर ने सलमा को घर 
					जाने की इज़ाज़त नहीं दी। हाजी साहब से कहा कि यह तो अब पुलिस ही 
					तय करेगी कि सलमा कहाँ जाये। डाक्टर अनवर ने सलमा से पूछा कि 
					वह कहाँ जाना चाहती है। सलमा ने अपनी खाला का पता बता दिया और 
					कहा कि उन्हें खबर कर दे तो बड़ी मेहरबानी होगी।
 
 दूसरे दिन डॉक्टर की डयूटी बदल गई। सोशल सर्विस वालों ने सलमा 
					से पूछा कि वह लड़कियों के होस्टल में रहना चाहती है क्या? सलमा 
					ने सोचा कि शायद अब यही उसके लिये सबसे अच्छा रास्ता है? और वह 
					होस्टल में चली गई।
 
 डाक्टर अनवर एक कागज़ पर होस्टल का पता और सलमा की खाला का पता 
					लिख कर लाये थे। अपनी माँ से सब बताया कि जैसे एकाएक सब कुछ 
					समझ में आ गया, यही वह लड़की है। एक बेचैनी ने डाक्टर अनवर को 
					घेर लिया। सफेद कागज़ का टुकड़ा उनकी उँगलियों में फड़फड़ाता रहा।
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