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						 एक 
						आलीशान बंगले में, सामने बग़ीचा, खूब सारे पेड़–पौधे, 
						हरियाली पर एक टेबल कुर्सी डालकर काग़ज़ कलम हाथ में'...सपने 
						तो खूब सजाए जा ही सकते हैं। इच्छाएँ तो हिलोरे लेने से 
						नहीं चूकती।... पर राजन को बताकर अपनी हँसीं नहीं उड़वाना 
						चाहती थी वो। 
 शाम को लौटे तो सब कुछ तय कर के। ज़रूरत के मुताबिक उन्हें 
						फ्लैट मिल भी गया। अच्छा घर मिलने की खुशी और यहाँ की उसकी 
						सहेलियाँ दूर हो जाएँगी इस बात का ग़म भी था। रोज़ का मिलना 
						फ़ोन पर ही सीमित हो जाएगा। कुछ हद तक उनसे बिछड़ना पड़ेगा। 
						कुछ अच्छा पाने के लिए कुछ खोना पड़ता ही है। आलीशान फ्लैट 
						और उसकी सेटिंग कैसी करेंगे इस प्लान में जुही का एक महीना 
						बीत गया और नये घर में आ भी गए। नये घर को सजाने के साथ 
						गमलों में बगीचा भी बनाया था। गुलाब, मोगरा, शतावरी.... और 
						इन सबके साथ सदाफूली भी। सभी फूल मौसमी, मौसम के अनुसार 
						खिलते हैं लेकिन सदाफूली..., जैसा नाम वैसे, सदा ही फूलती 
						है। सामने वाली बिल्डिंग में दो–तीन फ्लैट खाली थे। 
						जुही–राजन भी यहाँ नये–नये थे, पहचान ज़्यादा किसी से हो 
						नहीं पाई थी। बच्चे एक अच्छा बहाना होते हैं, जान पहचान 
						बढ़ाने के लिए लेकिन जुही और राजन के बच्चे बड़े थे, परदेस 
						में आगे की पढ़ाई कर रहे थे इसलिए उनके घर में तीसरा कोई भी 
						नहीं था।
 
 थोड़े दिनों बाद देखा, सामने वाली बिल्डिंग में एक ट्रक में 
						किसी का सामान आ रहा है। भारतीय लग रहे थे, थोड़ी दिल को 
						जैसे तसल्ली मिली। नये घर में जान पहचान शुरू होगी तो शायद 
						इन्हीं से! पता चला – कोई गुलाटी परिवार है। हमउम्र तो 
						नहीं लगे लेकिन बोलने वाला कोई भी मिले, अपने देश का, 
						हिंदी बोलने वाला, तो सोने पे सुहागा। तीन बेटियाँ थी 
						उनकी। खेलती उछलती नज़र आती थी। जुही ने अकेलापन दूर करने 
						के बहाने उन्हें एक दिन अपने घर बुला लिया। बड़ी तृष्णा, 
						बाद में शिखा और नीरजा। नाम भी सबके बड़े प्यारे लगे जुही 
						को.... थीं भी सब प्यारी सी। तृष्णा थोड़ी बड़ी पंद्रह–सोलह 
						साल की होने से अच्छी बातें कर लेती थीं। उनकी माँ वासंती 
						से जुही की अच्छी जमने लगी। जब समय मिलता, दोनों एक दूसरे 
						के घर आने जाने लगी। अच्छे पड़ोसियों की तरह एक दूसरे के 
						लिए सोचने लगे।
 
 वासंती घर के काम, बेटियों के स्कूल, आने–जाने वालों में 
						ज़्यादा व्यस्त रहती थी। बड़ी क्लास में होने से तृष्णा का 
						ध्यान पढ़ाई में रहता था, लेकिन जब भी समय मिलता, आंटी–आंटी 
						करती रहती और जुही का मन बहलाती रहती। स्कूल की बातें 
						बताती। जुही की देखा–देखी उसने भी शौक में ग़मलों का बगीचा 
						बनाया। जुही की पसंद को ही अपनी पसंद बना लिया। सदाफूली 
						उसके भी घर में खिलने लगी। दोनों के यहाँ यह पौधा हमेशा 
						खिला रहता। मौसमी फूल खिलते और मुरझा जाते। सदाफूली में 
						रोज नये फूल खिलते। रंगबिरंगे फूल देखकर तृष्णा खुश हो 
						जाती थी। कभी पौधो में, फूलों को गिन कर तुलना करने लगती 
						और आख़िर में यह जताकर जाती कि उसने लगाया हुआ पौधा ही 
						ज़्यादा सही बढ़ और फूल रहा है। बच्ची है, जुही मन में हँस 
						कर चुप हो जाती।
 
 बाकी हम उम्र बच्चों की टोली में शिखा और नीरजा तो समा गई 
						थीं लेकिन तृष्णा या तो घर में बैठती या फिर जुही के यहाँ 
						चक्कर लगा लेती। दोनों घरों का परिचय इस हद तक बढ़ गया कि 
						एक दूसरे के यहाँ आने जाने वाले लोगों को भी जानने लगे। छः 
						महीने से जुही ने इस बात को ग़ौर किया था कि तृष्णा के पापा 
						के ऑफ़िस में साथ काम करनेवालों में यशराज का इनके घर 
						आना–जाना काफ़ी था। अकेला रहता था इसलिए वासंती को ज़रा 
						ज़्यादा ही सहानुभूति थी। जुही से हमेशा कहती, "क्या करूं! 
						जब यशराज आता है तो बिना खाना खिलाए भेजने को मेरा मन नहीं 
						मानता। बेचारा अकेला रहता है, क्या बनाता होगा, और क्या 
						खाता होगा।" थोड़ा रुक कर कहने लगी, "इनका भी स्वभाव ऐसा है 
						कि बातों में लग जाते हैं किसी के भी साथ तो खाने की टेबल 
						पर ही ख़त्म होती हैं।" और हँसने लगी।
 
 अच्छे मौसम की पिकनिक का भी दोनों परिवारों ने साथ–साथ 
						काफ़ी मज़ा लिया। देखते–देखते गरमियाँ आ गईं। तृष्णा ने जुही 
						से कहा, "आंटी इस साल हम सब मिलकर इंडिया जाएँगे।" और दिल 
						में खुश हो रही थी। थी तो बच्ची ही ना! हामी भरवा कर ही 
						मानी तृष्णा। जब मुंबई पहुँचे तो देखा कि वहाँ गुलाटी 
						परिवार का घर काफ़ी अच्छा था। मुंबई का घर यानी फ्लॅट यही 
						सोच होती है, लेकिन उनका घर ज़रा हट कर था। थोड़ा बंगलानुमा, 
						पौधों की हरियाली से सजा। अनगिनत पौधों में वहाँ भी 
						सदाफूली खिलती नज़र आई। तृष्णा जुही से कहने लगी, "मैं हर 
						साल नहीं आती ना आंटी, इस साल मैं आई हूं तो यह सदाफूली 
						ज़रा ज़्यादा ही खिली है।"
 
 जुही ने अभी ग़ौर किया था कि गुलाटी परिवार को हर साल भारत 
						आना शायद मुमकिन नहीं था। समय मिलने पर गुलाटी परिवार भी 
						जुही–राजन के पूना वाले घर चक्कर लगा गए। दोनों परिवार आपस 
						में भारत के घरों से भी परिचित हो गए। दो महीने बिता कर 
						आते समय अलग–अलग लौट आए।
 
 रोज़मर्रा की जिं.दगी दुबारा शुरू हो गई। दिन पंछी की तरह 
						उड़ जाते हैं, समय का पता ही नहीं चलता। इम्तहान के समय 
						बाहर खेलने वाली बच्चों की टोलियाँ ग़ायब हो जाती हैं। 
						तृष्णा भी ज़्यादा पढ़ाई होने से व्यस्त रहती। लोगों का 
						एक–दूसरे के यहाँ आना जाना और भी सीमित हो गया। लेकिन इस 
						पढ़ाई के माहौल का यशराज के आने जाने पर कुछ असर होता नज़र 
						नहीं आया। वासंती से जुही इस बात का ज़िक्र करती तो जवाब 
						में कहती, "यशराज आता है तो बच्चों का थोड़ा दिल लग जाता 
						है।" सुनकर जुही चुप रह जाती। ऐसी बात घुमा–फिराकर पूछने 
						से जुही को तसल्ली नहीं मिली तो आशंकित मन से उसने वासंती 
						को कहा, "तृष्णा अब बड़ी हो रही है, यशराज..." बीच में ही 
						जुही को रोकते हुए वासंती कहने लगी, "नहीं! नहीं! ऐसा कुछ 
						नहीं, अच्छा लड़का है।" वासंती का यशराज पर इतना भरोसा 
						देखकर जुही चुप रही। शायद ग़लत सोचने पर उसे थोड़ा अफसोस भी 
						हुआ।
 
 मार्च महीना ख़त्म होने को है, इम्तहान ख़त्म हो चुके हैं और 
						थोड़े दिनों के लिए स्कूल और पढ़ाई से छुट्टी . .. .बच्चों 
						में खुशियाँ मनाई जा रही थी। दो दिन बाद वासंती एक दिन शाम 
						को जुही के यहाँ आई और कहने लगी, "मेरे ससुर की तबियत बहुत 
						ख़राब हो गई है, शायद हमें मुंबई जाना पड़े।" वासंती बच्चों 
						को इस वक्त साथ ले जाना नहीं चाहेगी यह सोच कर जुही ने उसे 
						तसल्ली दी, "चिंता मत करो यहाँ की, मैं हूं ना!"
 
 बाद में पता चला कि सिर्फ़ गुलाटी पति–पत्नी जा रहे हैं 
						भारत। बच्चों को साथ ले जाना संभव नहीं था और जितनी जल्दी 
						हो सके लौट कर आना भी था। जुही इस विषय में राजन से ऐसी 
						बात कर रही थी जैसे सारी दुनिया की ज़िम्मेदारी हमेशा इसी 
						के सर पर होती है। ऐसा हमेशा से होता आया है, राजन ने जुही 
						को कितनी बार समझाया भी है लेकिन आदत से मजबूर जुही कहने 
						लगी, "वासंती बच्चों को यहाँ छोड़ जाती है तो कोई बात नहीं, 
						हम उन्हें रख लेंगे।" और राजन को यह उसका कहना पसंद नहीं 
						आएगा इस विश्वास से उसकी तरफ़ देखे बिना ही वह नज़रे झुकाए 
						वहाँ से उठ गई।
 
 मुलाक़ात होने पर वासंती ने जुही से कहा,"लड़कियाँ यहीं हैं, 
						थोड़े दिन की बात है। मैं एक हफ़्ते में लौट आऊंगी। यशराज 
						यहाँ रहने के लिए राज़ी हो गया है। अब मुझे कोई चिंता नहीं। 
						मैं फ़ोन करती ही रहूंगी।" तृष्णा जिस उम्र से गुज़र रही थी, 
						उस उम्र का तकाज़ा और वासंती का यशराज को यहाँ बुलाने का 
						फ़ैसला, इसका कोई मेल नहीं था। जुही की चौंकने की बारी थी 
						अब। वासंती की सोच पर जुही हैरान थी। उनकी गहरी दोस्ती पर 
						थोड़ा सा सवालिया निशान लग गया।
 यह निशान जुही ने लगाया था। उसे लग रहा था कि कहीं ना कहीं 
						परायापन अभी भी है। यहाँ ऐसे किसी से दिल लगाने में कोई 
						होशियारी नहीं, सब कुछ यहीं का यहीं रह जाएगा, कल यहाँ से 
						चले जाते हैं तो कोई किसी को याद नहीं करने वाला... यह 
						राजन की बात किसी हद तक सच भी है लेकिन जुही मानने के लिए 
						तैयार नहीं रहती। वह सब से दिल लगाती है, सभी को अपना 
						समझती है, लेकिन बाकी सभी जुही को उतना ही करीबी समझे यह 
						कोई ज़रूरी तो नहीं!
 
 यशराज अपने थोड़े सामान के साथ यहाँ आया और गुलाटी 
						पति–पत्नी मुंबई के लिए रवाना हो गए। तृष्णा शायद घर के 
						कामों में शायद उलझी रहती। एक बार जुही ने ही उनके यहाँ 
						चक्कर लगा लिया। सब सही चल रहा सा दिखा तो उसने तसल्ली कर 
						ली। 'कुछ ज़रूरत हो तो आंटी को बुला लेना बेटा!' ऐसा कहकर 
						अपने पड़ोसी होने का फ़र्ज़ अदा कर जुही लौट आई। दो दिन बाद 
						तृष्णा ने आकर बताया, "माँ का फ़ोन आया था, चार दिन में 
						लौटेगी।" तीनों बेटियाँ खुश हो गई।
 वासंती अकेली लौटी थी। जुही के पूछने पर उसने कहा, "अभी 
						थोड़ी तबियत और संभल जाय तो तृष्णा के पापा भी लौट आएँगे।"
 
 दो महीने भी बीत गए...आजकल तृष्णा ज़्यादा नज़र नहीं आती थी। 
						वासंती भी थोड़ी अलग–थलग रहने लगी थी। राजन से इसका ज़िक्र 
						नहीं किया लेकिन यह बात जुही को खलती ज़रूर थी। शांति–सी छा 
						गई थी। ज़्यादा किसी के यहाँ दख़लअंदाज़ी करना सही नहीं यह 
						सोच कर जुही चुप बैठी। एक दिन अचानक वासंती दुपहर में जुही 
						के यहाँ अकेली आई और जैसे शब्दों को तलाशते हुए कहने लगी, 
						"हम यशराज और तृष्णा की शादी कर रहे हैं।" चाय के कप ला 
						रही जुही के हाथ से ट्रे छूटते–छूटते बच गई। यह बात बताते 
						हुए वासंती के स्वर में जैसे पीड़ा छलक रही थी। क्या पता 
						शायद उन दिनों ऐसे तृष्णा को यशराज के भरोसे छोड़ जाने का 
						पछतावा भी हो। सुनकर जुही सुन्न हो गई थी। बात आगे बढ़ाते 
						हुए वासंती ने कहा, "यशराज के माता पिता को अभी नहीं 
						बताया।" जुही के चेहरे पर सवालिया निशान शायद और बढ़ गए थे। 
						यशराज दक्षिण भारत का लड़का था और गुलाटी परिवार उत्तर भारत 
						का। होगा यह सही मेल?...लेकिन जुही बेजुबान हो गई।
 
 उन्होंने जल्दबाज़ी में दोनों की शादी करवा दी। बाद में पता 
						चला कि यशराज के माता पिता इसके खिलाफ़ थे।
 
 यशराज पहले तो कहीं शेयरिंग में रहता था। अब तृष्णा के साथ 
						रहने के लिए उसने एक कमरा किराये पर ले लिया। वासंती के 
						साथ होनेवाली बातों से जुही को पता चला कि यशराज की कम 
						तनख्वाह के कारण उन दोनों का काफ़ी खर्चा यही उठाते हैं। 
						कैसी और क्या रही होगी मजबूरी इस शादी में? शादी के बाद 
						जुही ने तृष्णा को इधर कभी आते देखा नहीं। जुही के साथ 
						आंटी आंटी करनेवाली तृष्णा ने जैसे एकदम ही मुँह मोड़ लिया 
						था।
 
 राजन जब जुही को इन बातों को सोच कर उदास देखते तो, "मैंने 
						कितनी बार कहा है कि आजकल की दुनिया में किसी से इतना दिल 
						लगाना ठीक नहीं, लेकिन तुम हो कि इतनी ठोकरें खाने के बाद 
						भी वही ग़लतियाँ पता नहीं कितनी बार दोहराओगी!" ऐसा कहने से 
						राजन भी नहीं चूकते थे।
 
 दो तीन महीने ऐसे ही बीत गए। एक दिन वे दोनों कहीं बाहर 
						जाने के लिए निकले तो वासंती से मुलाकात हुई। उसने बताया 
						कि यशराज और तृष्णा भारत लौट रहे हैं। आगे कहने लगी, "वहीं 
						यशराज कोई नौकरी कर लेगा और अभी हमारा घर है, कोई और 
						इंतज़ाम होने तक वहीं रहेंगे। वहीं रहकर तृष्णा आगे की पढ़ाई 
						भी कर लेगी।" सुनकर उन्हें थोड़ा अच्छा लगा।
 
 समय ने जैसे करवट बदल ली, अब तो 'नमस्ते तक ही उनकी दोस्ती 
						सीमित रह गई थी, दिल की बात कहना तो दूर। वासंती या दोनों 
						बेटियाँ नज़र नहीं आ रही थी इसलिए जुही ने पता करने की 
						कोशिश की तो गुलाटी जी से पता चला कि वासंती दोनों बेटियों 
						के साथ भारत गई हैं। इसका मतलब अब यहाँ तक दूरी बढ़ गई थी 
						दो परिवारों के बीच कि वासंती को जाते समय जुही को बताना 
						भी गवारा नहीं हुआ। स्कूल से छुट्टी करा कर बच्चों को साथ 
						ले जाने जैसी मजबूरी क्या हो सकती है? गुलाटी जी ने ज़्यादा 
						कुछ बताया नहीं और कहीं से और पता लगने की उम्मीद नहीं। इन 
						हालातों पर जुही गैरज़रूरी सोच में पड़ गई थी लेकिन राजन के 
						सामने कुछ कहना यानी दुबारा वहीं बात दोहरायी जाएगी..."मैं 
						कहता हूं हमेशा... . । बैठे–बैठे और पेपर पढ़ते राजन की 
						सारी खीज जुही पर निकलने की संभावना को टाला नहीं जा सकता 
						था।
 
 जब वासंती लौटी तो जुही को मिठाई का डिब्बा देते हुए 
						सहजरूप से कहने लगी, "आपकी तृष्णा को बेटा हुआ है, मुँह 
						मीठा कीजिए।"
 पंद्रह–सोलह साल की चुलबुली तृष्णा का यह नया रूप जुही 
						अपनी आंखों के सामने लाने की कोशिश करने लगी।
 
 जुही का बावला मन हाथ में मिठाई का डिब्बा, उसे बधाई 
						देते–देते यह सोचने से भी नहीं चूका कि तृष्णा की शादी को 
						कितने महीने हुए हैं! शादी के बाद का समय इतना नहीं बीता 
						था। अब सारी बीती घटनाओं का सिलसिला जुही की आंखों के 
						सामने आया और वह जल्दबाजी में की गई शादी की मजबूरी भी समझ 
						गई थी। तृष्णा के दादाजी की बीमारी का बहाना मिला था इस 
						ऊंच–नीच होने में। यहाँ बदनामी के डर से उन्हें भारत भेज 
						दिया गया था।
 
 किसी शादी के सिलसिले में जुही को भारत जाना था। तृष्णा के 
						लिए अभी भी जुही के दिल में वैसे ही प्यार था इसलिए उसने 
						वासंती से कहा था कि हम तृष्णा से मिलने जरूर जाएँगे। उम्र 
						में इतनी छोटी है, उससे कैसा मनमुटाव रखना। इंडिया जाने पर 
						जब समय मिला, वे दोनों तृष्णा से मिलने गए। सोलह–सत्रह साल 
						की तृष्णा को कितना बदला हुआ पाया जुही ने। कुछ बताना तो 
						चाह रही थी लेकिन हमेशा खिली–मुस्काती आंखों में आज उदासी 
						ही दिखी। तृष्णा में इतना यह परिवर्तन क्यों? लेकिन इस 
						परिवर्तन की जड़ तक जाना शायद जुही के बस की बात नहीं थीं। 
						बेटे को गोद में लिए खड़ी तृष्णा में पहलेवाले अल्हड़पन का 
						कहीं नामोनिशान तक नहीं था। यशराज से मुलाकात नहीं हो पाई। 
						तृष्णा थोड़ी उदास लगी। शायद की हुई ग़लती का अफ़सोस अपनी 
						जुही आंटी के पास करती भी तो कैसे? मन के कोने में बसाए 
						दुख को वो शायद बयान करना नहीं चाहती थीं। तृष्णा के ना 
						बताने के बावजूद जुही के दिल ने सब कुछ जान लिया था। लौट 
						कर इस बात का ज़िक्र वासंती से ज़रूर करूंगी ऐसा उसने सोच 
						लिया।
 
 पंद्रह दिन बाद वापस लौटे तो पता चला कि गुलाटी परिवार 
						यहाँ से कहीं और फ्लैट में चले गए हैं। किसी को पता नहीं 
						था, कहाँ गए हैं। सारे संबंध टूट गए थे, दूरियाँ भी ऐसी आ 
						गईं की कभी ख़त्म नहीं हो पाएंंगी। कहाँ ढूंढ़े, क्या करें। 
						तृष्णा के बारे में वासंती से बात करनी थी वो तो जुही के 
						दिल में ही रह गई।
 
 आदत से मजबूर और सबसे दिल लगाने वाली जुही जब दुबारा 
						इंडिया गई तो तृष्णा को याद करने से नहीं चूकी। तृष्णा के 
						घर जा पहुँची। दोपहर का समय था, तृष्णा के घर दरवाज़े पर 
						ताला देखकर जुही चकित रह गई। बिना पूछे वापस चले जाना 
						जुही–राजन ने ठीक नहीं समझा और उसके बारे में कुछ तो 
						मालूमात कर लें इसलिए पड़ोसियों से पूछा। पर जो बात पता चली 
						वह सुनकर उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
 
 पड़ोसी ने बताया, "अब तो यहाँ कोई भी नहीं है। तृष्णा ने छे 
						महीने पहले जलकर आत्महत्या कर ली। छोटा सा बेटा है। यशराज 
						की मम्मी आई थी और दोनों को मद्रास ले गई। बाद में उनके 
						बारे में हमें भी कोई ख़बर नहीं हैं।" इतना सब कहते–कहते वह 
						औरत जैसे सहम गई थी। आगे जो बात उसने जुही को बताई उस बात 
						से वह खुद शायद अभी तक सदमें में थी। कहने लगी, "पता चला 
						था कि यशराज ही तृष्णा की मौत का ज़िम्मेदार था। उसे जलाए 
						जाने की भी बात कही जाती रही। अब सुन रहे हैं कि यशराज ने 
						भी आत्महत्या कर ली।" जुही तृष्णा के शोक में आकंठ डूबने 
						की मर्यादा तक पहुँच चुकी थी।
 
 अब लगने लगा कि यशराज की आत्महत्या तृष्णा को जला कर मारने 
						वाली बात की पुष्टि तो नहीं करती। शायद वह अफ़सोस में पहले 
						ही जलकर राख हो गया हो। सुनने में आया है कि तृष्णा के 
						बेटे को कौन रखेगा इस पर बहस शुरू हो गई है। अधर में झूल 
						रहा मन कैसे अनुमान लगाए कि क्या हुआ होगा। जुही आगे 
						वासंती के बारे में पूछने का हौसला नहीं जुटा पाई। कैसी है 
						यह दुनिया पत्थर की। कैसी किस्मत उस बच्चे की।
 
 बालकनी में बैठकर दूर समंदर में देखती जुही के मन में पता 
						नहीं कैसे–कैसे तूफ़ान उठते रहते हैं। "आंटी" सुनती है तो 
						तृष्णा की याद से मन मसोस कर रह जाती है। यहाँ जुही के घर 
						में सदाफूली खिल रही है, लेकिन सदाफूली जैसी हरदम 
						महकने–खिलनेवाली तृष्णा की याद से दिल बैठने लगा है।
 
 वैसे मुहब्बत करने की कोई उम्र नहीं होती। तृष्णा जैसी 
						उम्र का तकाज़ा यही है कि कोई प्यार से बात करें और बिना 
						सोचे समझे कि नफ़ा है या नुकसान– ही यह हो जाता है। लेकिन 
						यह प्यार मुहब्बत का तूफ़ान जब थम जाता है तो समझ में आता 
						है कि जिस किनारे हम खड़े हैं वह कितने खाली हैं। पाया तो 
						कुछ भी नहीं, खोया ही खोया है। रेत फिसलकर पानी की तरह बह 
						गई। उस समय यदि सचेत करनेवाला कोई मिलता तो...। लेकिन यह 
						संभव नहीं हो पाता।
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