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तब कबूतर फड़–फड़ा कर फेंके गये चुग्गे पर टूट पड़ते। बगीचे में चंचलता ही चंचलता बिखर जाती। साधना चुग्गा खिलाते हुए एक नर्सरी गीत भी गुनगुनाती – ट्विंकल–ट्विंकल लिट्ल स्टार, हाउ आइ वंडर व्हॉट यू आर... .

शायद कबूतरों को भी यह गीत अच्छा लगता था, क्योंकि वे चुग्गा खत्म हो जाने के बाद भी उसका कंठस्वर सुनने के लिये वहाँ बैठे रहते या उनमें से कोई नर कबूतर गर्दन फुलाकर ज़ोर–ज़ोर से कूजन करने लगता। कबूतरों के आने में व्यवधान तभी पड़ता, जब रात को शुरू हुई बारिश सवेरे भी झड़ी लगाये रहती लेकिन साधना इससे हतोत्साहित हुए बगैर जगदीश लाल से ज़िद करती कि पैटियो डोर खोलकर ही जाना। उसे वहाँ बैठी देखकर देर–सवेर थोड़े–बहुत कबूतर आ ही जाते।

एक दिन साधना को कबूतरों के झुंड में एक नया कबूतर दिखाई दिया, हल्के कत्थई रंग का। उसके पंखों में से कुछ का रंग हल्का कत्थई न रहकर लगभग सफेद हो गया था। परों के किनारों पर गहरी भूरी धारियाँ थीं और लाल आँखों के बाहर चम्पई घेरा। गर्दन पर जगरमगर करता नीला चकत्ता था, मानो कोई पंखों वाली गुड़िया हो। मिसेज कालड़ा को वह कबूतरी प्रतीत हुई। उस दिन उसने चुग्गे की रोज की मात्रा समाप्त हो जाने के बा पहियेदार कुर्सी को चलाते हुए रसोईघर में जाकर कुछ और कॉर्न फ्लेक्स निकाले और आकर कबूतरों को चुगाने लगी। कत्थई कबूतरी बड़ी चंचल और तेज़ थी बिल्कुल उसकी अपनी बबली जैसी। चुग्गे पर उसकी चोंच अन्य कबूतरों से जल्दी पहुँच जाती। बबली भी तो ऐसी ही थी। मेज़ पर ममी–पापा के साथ नाश्ता शुरू करती लेकिन उनसे पहले ही अपने टोस्ट और कॉर्न फ्लेक्स खत्म कर देती। ये दोनों चीजें उसे इतनी अच्छी लगती थीं कि वह बार–बार और माँगती और तब साधना को अपना नाश्ता अधबीच ही छोड़कर उसके लिये और टोस्ट तैयार करने पड़ते। वह उससे कहती – "बबली डार्लिं स्लोली प्लीज़। धीरे खाओ। यू मे चोक योअसैल्फ।

लेकिन बबली को खाने की जल्दी पड़ी रहती। जब तक टोस्ट तैयार होते, वह जार से कॉर्न फ्लेक्स निकालकर रूखे ही खाने लगती या पापा की प्लेट से टोस्ट का टुकड़ा तोड़ लेती। मिसेज कालड़ा को लगा बबली ही वर्षों बाद उससे मिलने आई थी। जिस दिन वह माँ को बिलखता छोड़ गई थी, उस दिन उसने फूलों वाला कत्थई फ्रॉक ही तो पहन रखा था और घ
र आने पर ट्विंकल ट्विंकल वाला नर्सरी गीत गाती हुई सदा के लिये मौन हो गई थी।

बबली को अचानक मेनिंजाइटिस हो गया था और साधना के आकाश के सारे इन्द्रधनुष काले होकर अंधेरे में बदल गये थे।

बली नर्सरी से लौटी तो कहने लगी – "ममी, मुझे ठंड लग रही है। अचानक उसे तेज बुखार हुआ और सिर में भयानक दर्द भी। फिर उसे उल्टी हुई और उसकी गर्दन अकड़ गई। जितनी देर में एम्बुलेंस पहुँची, वह होश खो चुकी थी। एम्बुलेंस वालों ने हालाँकि हर तरह की एहतियात बरतते हुए उसे बहुत जल्दी अस्पताल पहुँचा दिया था, लेकिन बबली के लिये बहुत देर हो चुकी थी। मैंनिंजाइटिस के रोगियों के समान अस्पताल में उसे बिल्कुल अंधेरे और एकान्त कमरे में रखा गया, जहाँ केवल उसकी ममी को ही जाने की इजाजत मिली। डॉक्टरों ने बबली को एंटीबायॅटिक्स के और न जाने किस–किस के इंजेक्शन दिये, लेकिन वे उसे बचा नहीं सके। चार दिनों में ही वह कत्थई फूलों वाला फ्रॉक मटमैले कफन में बदल गया और साधना की बसी–बसाई गृहस्थी का भी उसके साथ ही दाह–संस्कार हो गया।

रूप
लाल कालड़ा की पत्नी बनने से पहले वह साधना दीवान कहलाती थी। मोटी–मोटी सुन्दर आँखों वाली गोरी, चुलबुली और हाजिर जवाब। वह दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलिज में पढ़ती थी, जब उसका मनचले हीरोनुमा देविंदर से प्रेम हो गया था। वह खालसा कॉलिज में पढ़ता था और अन्य लड़कों के साथ किरोड़ीमल की तितलियों पर डोरे डालने के लिये वहाँ के चक्कर लगाया करता। वह सिख था – देविंदर सिंह, जिसने खालिस पंजाबी लहजे में लड़कियों से छेड़–छाड़ करने का पुराना फार्मूला उछाला था – "हाय जांडिस, कभी हमपर भी मेहरबानी करो न मोतियाँवालिओ।"

जांडिस यानि पीलिया, जो उन दिनों दिल्ली में महामारी के रूप में फैला था, लेकिन कॉलिज के लड़कों ने उसे दिल की चाट पेश करने का दोना बना लिया था।

साधना अपनी सहेलियों के साथ कॉलिज के गेट से निकल रही थी और देविंदर दिल फेंक मजनुओं की टोली के साथ आइस्क्रीम वाले के पास अड्डा जमाये खड़ा था। साधना ने बिना जरा भी संकोच किये आगे बढ़कर कहा था –
"क्या
मेहरबानी करें जूड़े वालिओ? जूँ तो हम बन नहीं सकते।"

वह खिलखिलाती हुई लड़कियों के साथ आगे बढ़ गई थी, लेकिन देविंदर को अपनी फबती का जवाब दिलेरी से देने वाली साधना अच्छी लगी थी। उसने बिना हतप्रभ हुए पीछे जाकर नहले पर दहला फेंका था –– "अजी जूँ ही बन जाओ, हर वक्त साथ तो रहोगी। सिर आँखों पर रखेंगे।"

"अच्छा, जूँ आँखों पर भी रहती है! "–– विस्मित होते हुए साधना ने कहा था और चलना जारी रखा था। देविंदर और उ
सके साथी इस तरह के डायलॉग में उलझने–उलझाने के लिये ही थे। उन्हें पूरा मज़ा आ रहा था। वे लड़कियों का पीछा करने लगे थे और देविंदर ने साधना को जवाब देते हुए कहा था –– "प्यारिओ, हमारी जूँ आँखों में तो क्या, दिल में भी रह सकती है।
"दिल न हुआ जंगल हुआ" –– साधना ने बिना एक पल सोचे कहा था।
"हमारा जंगल भी मुगल गार्डन हैं सोहणिओं। सैर करके देखो तो सही एक बार। अगर मज़ा न आये तो टिकट के पैसे वा
पस" –– देविंदर ने आँख मारते हुए निमन्त्रण दिया था।

साधना और उसकी सहेलियों को उन बेशर्मों के इतना आगे बढ़ जाने की उम्मीद नहीं थी। वे बिना कुछ कहे चलती रही थीं।
तब देविंदर ने आखिरी पत्ता फेंका था – "क्यों जी, जूँ अपने आप आएँगी, या लेने आएँ?

और फिर देविंदर अगले दिन से हर रोज तब तक उसके पीछे पड़ा रहा था, जब तक वह उसकी हो नहीं गई थी।

जब साधना के घर वालों को पता लगा तो बड़ा तूफान उठा। उन्हें न केवल इस तरह का लड़का आवारा और बदमाश ही लगा, बल्कि उसका सिख होना और भी बड़ी आफत बन गया। साधना के डैडी ने उससे साफ शब्दों में कह दिया –– "देखो साधना, अगर हम कॉलिज में पढ़ने की छूट दे सकते हैं, तो तुम्हारा घर से निकलना बंद भी कर सकते हैं। बल्कि हमारे खयाल में अब तुम्हारी शादी कर दी जाये, तो ज्यादा ठीक होगा।

इसके बाद उन्होंने और भी क्रोधित होते हुए धमकी दी थी –– "अगर आज के बाद मैंने तुम्हें उस लफंगे जानवर के साथ देखा,
तो अपने हाथों से दोनों का खून कर दूँगा।"

तब साधना और देविंदर ने चोरी से सिविल मैरिज कर ली थी, लेकिन प्रकटतः साधना ने अपने घर वालों को वचन दिया था कि वह उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कोई काम नहीं करेंगी। वह निश्शंक होकर बी.ए. की पढ़ाई पूरी कर लेना चाहती थी। कुल दो महीने ही तो रहते थे परीक्षाओं में।

व्ही
ल चेयर पर बैठी साधना स्मृतियों की ढलान पर लुढ़कती जा रही थी। अभी उसने परीक्षा दी ही थी कि उसके देविंदर से बिछुड़ने के दिन आ गये थे। वह अपने कुछ रिश्तेदारों के बुलाने पर इंग्लैंड जा रहा था। एक तरह से तो अच्छा था, क्योंकि उसकी देविंदर के साथ घर से भागने की इच्छा उसके साथ ही इंग्लैंड चले जाने से पूरी हो सकती थी, लेकिन वह उसके साथ जा न पाई। साधना कितना रोई थी। तब उसने ममी–डैडी के आगे एक और झूठ बोला था कि मैं इंग्लैंड जाकर ऊँची पढ़ाई करना चाहती हूँ और उसने उन्हें मना लिया था।

उन्हें साधना का प्रस्ताव एक तीर से दो शिकार मारने जैसा प्रतीत हुआ था, क्योंकि इंग्लैंड भेजकर वे उसे न केवल देविंदर से दूर कर सकते थे, बल्कि भारत की तुलना में उत्तम शिक्षा भी दिला सकते थे। पैसों की उन्हें कोई कमी नहीं थी। और चूँकि लड़की सीधे रास्ते पर आ गई थी और कैरियर बनाना चाहती थी, इसलिये उन्हें बेहद खुशी हुई थी। साधना इंगलैंड पहुँच गई थी और दो महीने पहले वहाँ देविंदर से आ मिली थी, लेकिन आज उसे अपने माँ–बाप के साथ किये छल को लेकर बहुत पश्चाताप हुआ।

देविंदर लंदन में अपने रिश्तेदारों के पास उनके छोटे–से घर में आ टिका था। उसे नौकरी तो मिल गई थी, लेकिन बहुत ही हल्के किस्म की। वह अंडरग्राउंड रेलवे स्टेशन की खिड़की पर टिकट बाबू बन गया था। उन दिनों जालंधर की ओर के पंजाबी हर महीने सैंकड़ों की संख्या में इंग्लैंड पहुँच रहे थे, जिन्हें मज़दूरी और मामूली दर्जे वाले काम आसानी से मिल जाते। वे खुशी से ड्राइवर, कंडक्टर, क्लीनर, मज़दूर, डाकिये और बैरे बन रहे थे।

देविंदर भी भेड़ बकरियों के इस रेवड़ में खुशी से शामिल हो गया था और दिल्ली के दिनों की सारी चौकड़ियाँ भूल गया था। साधना को बड़ी
निराशा हुई। उसके सपनों के बुलबुले फूटने लगे।

उसे देविंदर के रिश्तेदारों के घर में केवल डबल बेड जितनी जगह मिली। अलमारी उसे शेयर करनी पड़ती थी। सबसे बड़ी कठिनाई थी कि घर में टॉयलेट केवल एक था और घर के सब प्राणियों को सवेरे उसमें पहले घुसने की जल्दी होती। अगर कोई पाँच मिनट से ज्यादा देर अंदर रहें, तो जल्दी निकलो जल्दी निकलो का शोर मच जाता।

साधना का
दिल्ली वाला घर कितना बड़ा था। हर बेडरूम के साथ अटैच्ड बाथरूम। सबके अपने अलग कमरे। ममी–पापा का अलग। भैया संजीव का अलग और उसका अपना अलग। मेहमानों के लिये दो अलग कमरे हर समय सजे रहते। वहाँ तो नौकर तक को कमरा मिला हुआ था। एक हफ्ते में ही साधना का दम घुटने लगा। उसने घर वालों को अपने पहुँचने तक की सूचना नहीं दी थी। देती भी क्या? आठवें दिन उसने देविंदर से अपने लिये अलग कमरा लेने का प्रस्ताव किया तो वह चिढ़ गया और जली–कटी सुनाते हुए बोला ––
"देखती नहीं हो, मैं अभी तुम्हारे रईसी नखरे उठाने योग्य नहीं हूँ।"
साधना उसका मुँह ताकने लगी। इसी देविंदर ने चलते समय कहा था –– "तुम्हारे बिना एक–एक दिन एक–एक साल की तरह बीतेगा।
फौरन आने का जुगाड़ करना, चाहे जैसे भी हो।"

वह सोच रही थी, देविंदर ने लंदन पहुँचकर अपने एक मित्र के माध्यम से सिवाय अपना पता–ठिकाना बताने के और कोई समाचार नहीं दिया था। लेकिन अब जब वह आ ही गई थी, तो खीझने की बजाय क्या वह उसे प्यार से नहीं समझा सकता था? जनाब ने खुद तो सचाई को छिपाये रखा और अब हालात का गुस्सा मुझपर निकाल रहे हैं। मुझे क्या ख्वाब आता
कि मैं अब आऊँ या बाद में?

साधना और देविंदर ने दो महीने उसी छोटे ओर गंदे मकान में काटे थे, फिर देविंदर ने साउथॉल में एक कमरा किराये पर ले लिया था
। उसमें भी दोनों को एक अन्य किरायेदार के साथ रसोई और बाथरूम शेयर करने पड़ते, लेकिन पहले जैसी बुरी हालत नहीं थी।

कुछ दिन
बाद साधना ने अपने माता–पिता को झूठ–मूठ लिख दिया था कि मैंने लंदन यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया है, मैं युनिवर्सिटी के पास ही होस्टल में रहती हूँ और अँग्रेजी में एम.ए. कर रही हूँ। जल्दी ही वह इस झूठ से भी उकता गई थी और उसने अपने घर वालों को साफ–साफ लिख दिया था –– मुझे मालूम है कि आप मेरे इतने सारे गुनाहों को कभी माफ नहीं करेंगे, लेकिन जो बात जिंदगी की हकीकत बन चुकी है, उसे छिपाने की कायरता अब मैं और नहीं दिखाऊँगी। मैंने देविंदर से शादी कर ली थी और यहाँ आकर पढ़ने की बात केवल बहाना थी।

इसके बाद जो होना था, वही हुआ। साधना के घर वालों ने उससे सब नाते तोड़ लिये थे। यहाँ तक कि जब संजीव की शादी हुई, तो उन्होंने उसे बुलाना तो दूर, इसकी सूचना तक न दी थी। अगर देविंदर अनुकूल रहता, तो साधना को घर वालों की कमी इतनी न खलती। उसका जीवन कोई ज्यादा बुरा नहीं बीत रहा था। वह कुछ पढ़ाई और टीचर्स ट्रेनिंग करने के बाद नौकरी करने लगी थी और दोनों की आय को मिलाकर घर की जरूरतें एक हद तक पूरी हो रही थीं।
उन्होंने एक मकान भी
खरीद लिया था जिसकी मॉरगेज की किस्त को चुकाने के बाद भी वे कुछ–न–कुछ बचा लेते थे। लेकिन देविंदर ने उसे धोखा दिया... .

वह एक गोरी मेम के चक्कर में था और साधना से लम्बे समय से छिपाता आ रहा था। उसके देर से लौटने या अवकाश के दिन भी घर से चले जाने को लेकर अगर वह पूछती, तो वह कह देता –– "सातों दिन मजदूरी करनी पड़ती है, मैडम। आपकी तरह टीचर नहीं हूँ कि आधे दिन काम किया और आ गये घर। अगर ओवरटाइम न करूँ तो मॉरगेज की किस्त अदा न हो।"

वह चुप हो जाती। वह दो जिंदगियाँ जी रहा है, साधना को इसका गुमान तक न था। यह तो एक घटना के कारण सारा भेद खु
ला।

हुआ यों कि देविंदर का कुछ स्किन हैंड्स से झगड़ा हो गया। वह डयूटी खत्म करके लौट रहा था कि वे 'पाकी पाकी' कहकर उसके पीछे पड़ गये और उसे मारने लगे। देविंदर सख्त जान जरूर था, लेकिन वह था अकेला और नस्लपरस्त गुंडे थे चार। उन्होंने उसे लहू–लुहान करने के बाद यह धमकी देते हुए छोड़ा कि अगर जिंदा रहना है, तो आगे से शाइला की तरफ आँख उठाकर भी न देखना। स्किन हैंड्स को भारतीयों और पाकिस्तानियों से अन्य बातों के अलावा, इस बात से
और भी सख्त नफरत थी कि वे गोरी औरतों को 'खराब' करते हैं। वे जिस एशियाई को किसी गोरी लड़की से प्रेम करते या उसके साथ जाते देखते, उसकी पिटाई कर देते। देविंदर और शाइला एक दूसरे को सच्चे दिल से चाहते थे, लेकिन स्किन हैड्स ने पूरी गोरी कौम को ठेका ले रखा था। जब वह घायल हुआ और उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, तो उसका हाल–चाल पूछने शाइला भी वहाँ पहुँच गई। साधना को उसकी बातों और चाल–ढाल से जो शक हुआ, उसकी पुष्टि बड़े निर्लज्ज भाव से खुद देविंदर ने कर दी। साधना का दिल ऐसा खट्टा हुआ कि वह पुराने दिनों का लिहाज करके केवल अस्पताल में रहने तक उसकी तीमारदारी करती रही। फिर वह घर छोड़कर चली गई और अलग रहने लगी। इसके बाद कई तरह के झगड़े हुए, तलाक हुआ और सम्पत्ति के बँटवारे को लेकर मार–पीट तक हुई।

कत्थई कबूतरी ने फिर तेजी दिखाते हुए बाकी कबूतरों से ज्यादा हिस्सा हड़प लिया था। साधना मुस्कराई –– कितना खायेगी री बबली? बस, अब कल आना। साधना का दिल आज अन्दर जाने को न हुआ। वह वहीं व्हील चेयर पर बैठी आसमान में घिरते बादलों को देखती रही।

बगीचे में ज्या
दा पेड़–पौधे नहीं थे, क्योंकि एक तो अकेले जगदीश लाल को घर और बाहर के अन्य कामों से ही फुर्सत नहीं थी, दूसरे बागबानी जैसा कमरतोड़ काम उसे महँगा भी लगता। एक–एक पौधा पाँच–सात पाउंड से कम में आता नहीं। जब साधना ने यह घर लिया था, तो इसमें बहुत कम पौधे थे। पेड़ एक भी न था और छोटे–से बगीचे में बस घास लगी हुई थी। पहले तो वह और रूपलाल कालड़ा मिलकर बागवानी करते और उसे साफ–सुथरा रखते, लेकिन जब से रूपलाल ने उसे छोड़ा था, तबसे जगदीश लाल घास के पूरा जंगल बन जाने पर ही उसे काटता। कल रविवार होने से उसमें जाने कैसे घास काटने का उत्साह पैदा हो गया था और उसने बड़े यत्न और सफाई से बगीचे को एकदम चमका दिया था। साधना को घास को देखना बहुत अच्छा लग रहा था। जिस जगह कबूतर रोज़ आते थे, वहाँ की घास थोड़े अलग रंग की हो गई थी।

घास की भी अच्छी या बुरी किस्मत होती है। अगर महल, हवेली या अमीरों के खास बगीचों में पहुँच जाए, तो उसकी परवरिश रईसज़ादियों की तरह होती है, वर्ना पैरों के नीचे रौंदी जाती, जानवरों का चारा बनती या उपेक्षित पड़ी रहती है। साधना अपनी तुलना घास से करने लगी। क्या वह दिल्ली में रईसजादी नहीं थी? अगर यहाँ न आती, तो क्या उसका ब्याह
किसी ऊँचे और अमीर खानदान में न होता? वह भी रानी बनी अन्य अमीर औरतों की तरह बस कपड़े और गहने ही खरीदती रहती। कभी शॉपिंग करने निकल जाती, कभी घूमने या सहेलियों से मिलने। यहाँ आकर उसे क्या मिला?

देविंदर से तलाक लेने के बाद वह कितने ही बरस इस जिद में अकेले रहती चली गई कि उसे किसी के पैरों तले बिछने वाली घास नहीं बनना है। उसे औरत की इस तरह की ज़िन्दगी से नफरत हो गई थी। सारे आदमी औरत को रौंदना या दबाकर रखना चाहते हैं। लेकिन धीरे–धीरे साधना को अकेली ज़िन्दगी भी व्यर्थ लगने लगी थी। अगर वह बीमार हो जाय, तो उसे कोई पानी पिलाने वाला तक न हो। आगे चलकर बुढ़ापे में जाने क्या होगा। बबली होती, तो वह उसी के सहारे
जिन्दगी काट लेती। स्कूल से लौटने के बाद उसे अपना कमरा काटने को दौड़ता, इसलिये कभी विंडो शॉपिंग करने के बहाने और कभी व्यर्थ समय काटने के लिये वह किसी–न–किसी सुपर स्टोर या शॉपिंग माल में जा पहुँचती और थक–टूट कर शाम को लौट आती। न उसका कुछ पकाने को दिल करता, न खाने को। अगर बाज़ार से वह कुछ खा लेती, तो टी.वी. आगे लेटे–लेटे सो जाती, वर्ना भूखी ही सोफे पर अधजगी–अधसोई पड़ी रहती। मायके से पूरा नाता टूट चुका था। जब ममी की मृत्यु हुई, तो किसी ने खबर दे दी थी, लेकिन इस चेतावनी के साथ कि वे उसकी सूरत तक देखना नहीं चाहते। फिर पापा की भी मृत्यु हो गई, जिसकी सूचना उसे किसी जान–पहचान वाले से पूरे दो वर्ष बाद जाकर मिली।

एक दिन उसकी गुजराती सहेली शोभा ने उसे सलाह दी कि वह किसी से शादी कर ले। छोड़ो, सब बेकार है – उसने टालते हुए कहा।

तुम समझने की कोशिश करो, यह बेकार नहीं है। यह जरूरी है –– शोभा ने सहानुभूतिपूर्वक कहा। क्या करूँगी इस उम्र में शादी करके? अगर वह भी धोखेबाज़ या जालिम निकला, तो जिन्दगी इससे भी बदतर हो जाएगी –– साधना ने पिछले अनुभवों को याद करते हुए कहा।
"को
ई जरूरी नहीं साधना बेन, सारे मर्द खराब ही नहीं होते।"
"चलो मान लिया, लेकिन ऐसा मर्द ढूँढूँगी कहाँ?"
"अगर तुम हाँ कहो, तो मर्द बताती हूँ। तुम्हारी ही तरह पंजाबी है और बहुत अच्छा है।"
साधना ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की।
"चलो, तुम उससे एक बार मिल तो लो। क्या पता तुम्हें पसंद आ ही जाय, नहीं तो क्या बिगड़ता है –– शोभा ने प्रेक्टिकल बनते हुए सुझाव दिया।

साधना के मौन
को आधी सहमति मानते हुए शोभा ने उसकी मुलाकात अपने पति के मित्र रूपलाल कालड़ा से करा दी। आदमी देखने में मिलनसार लगा उसे। उसकी पहली पत्नी मर चुकी थी। दो बच्चे थे, दोनों बड़े –– लड़का अठ्ठारह वर्ष का, लड़की सत्रह की। दोनों यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे और केवल कभी–कभार ही घर आते थे। माँ के अभाव में उनके लिये घर में कोई आकर्षण नहीं रह गया था। वैसे माँ होती, तो भी शायद उन्हें अपनी उम्र वालों के साथ समय बिताना ज्यादा अच्छा लगता। रूपलाल कालड़ा होंगे कोई पैंतालीस के। साधना ने तुलना करके देखा –– वह हैं तैंतीस वर्ष की। बारह साल का सीधा अन्तर है। मैच्योर आदमी का स्वभाव गन्ने जैसा नहीं रहता, जिससे पेरने पर रस निकले। वह बाँस या बेत बन जाता है। साधना ने उससे मुलाकात करने के बाद काफी समय तक मौन साधे रखा।

उस
ने अकेले और विवाहित जीवन के नफे–नुकसान पर हर दृष्टि से विचार किया। उसे लगा यह सम्बन्ध अगर बहुत अच्छा नहीं रहेगा, तो खास बुरा भी नहीं होगा। छः–सात साल में रूपलाल के बच्चे अपने अलग घोंसलों में जा रहेंगे। मैं भी चालीस की हो जाऊँगी। शरीर का क्या भरोसा। कल को अगर किसी बीमारी आदि ने सचमुच मुहताज कर दिया, तो कम–से–कम कोई पानी पिलाने वाला तो पास होगा। इस एक तर्क रूपी बादल ने बढ़ते–बढ़ते उसके विरोध रूपी सारे आकाश को ढक लिया। उसने हामी भर दी।

फिर बबली पैदा हुई और साधना को लगा, जीवन के इस रस से मैं वाकई वंचित रह जाती। मातृत्व ने उसकी आँचल में फूल ही फूल भर
दिये। वह मानो दूध का एक गाछ बन गई, जिससे वात्सल्य की धाराएँ बहा करतीं।

लेकिन रूपलाल की पहली सन्तानों को अपने बाप का दूसरा विवाह करना अपनी मृत माता का अपमान प्रतीत हुआ। उन्हें लगा जैसे सारा अपराध साधना का ही है, जिसने बाप का बुढ़ापा तो खराब किया ही था, अब बबली को पैदा करके उनका रहा–सहा हक भी छीन लिया है। छुट्टियों में वे घर आये तो सीधे साधना पर बरसने लगे। उन्होंने उसे मर्दों की भूखी और 'होअ' (वेश्या) तक कह डाला। रूपलाल ने उस समय तो साधना का साथ दिया और दोनों को 'दफा हो जाओ' कहते हुए आगे
उनकी सूरत कभी न देखने की कसम खा डाली, लेकिन बबली के जाते ही सारी दुनिया बदल गई।

भी बबली को मरे केवल तीन महीने ही हुए थे कि रूपलाल ने साधना को उसकी मृत्यु का दोषी बताते हुए विचित्र रूख अख्तियार करना शुरू किया। वह उसे लापरवाह बताता कि तुमने उसके रोग के लक्षणों की परवाह नहीं की थी। हालांकि साधना ने एम्बुलेंस को बुलवाने में ज़रा भी देर न की थी और बबली को तत्काल अस्पताल ले गई थी, लेकिन रूपलाल का मानना था कि बबली में मैंनिजाइट्स के लक्षण अवश्य पहले से विद्यमान थे, जिनकी ओर उसने दिन का आधा समय उसके साथ होने पर भी ध्यान नहीं दिया और उसे डॉक्टर को नहीं दिखाया। फिर रूपलाल ने साधना पर यह आरोप लगाया कि तुम मेरे पहले दो बच्चों को अपनाना नहीं चाहतीं। अगर तुमने उनसे प्यार का बर्ताव किया होता, तो वे तुम्हारे दुश्मन न बनते। साधना ने याद दिलाया कि आपने भी तो उनके आचरण को गलत करार दिया था और उन्हें घर से निकाल दिया था। जवाब में रूपलाल ने कहा ––
"दरअसल तुमने ही यह स्थिति पैदा कर दी थी। अगर तुमने बच्चों को अपना लिया होता, तो यह नौबत आती ही न कि वे तुम्हारा अपमान करते। मेरे बच्चों का पहले ऐसा स्वभाव नहीं था। मैं तो कहीं का न रहा। न मैं पहली सन्तान का बाप बन सका, न तु
म्हारी वजह से बबली को ही बचा सका।"
रूपलाल और भी कई तरह से सारा दोष साधना के मत्थे मढ़ता रहा। उसने कब अपनी पहली दोनों सन्तानों से सुलह कर ली थी, साधना को उसने यह भी मालूम न होने दिया।

इस बीच एक और सड़क दुर्घटना हो गई।

साधना
सड़क पार कर रही थी कि अंधाधुंध गाड़ी चलाने वाला एक व्यक्ति उसे कुचलते हुए निकल गया। सौभाग्य से उसकी टाँगे ही पहियों के नीचे आई थीं, इसलिये जान तो बच गई, लेकिन वह अपाहिज हो गई। उसकी नौकरी भी छूट गई। उसकी सेवा–टहल करना रूपलाल को और भी अखरने लगा। एक राहगीर ने कार का नम्बर नोट कर लिया था, जिसके कारण आगे चलकर साधना को इंश्योरेंस से पैसे मिलने वाले थे, लेकिन रूपलाल को बिस्तर पर पड़ी साधना की सुश्रुषा करना मुसीबत लगने लगा। कभी वह कहता –– सारी दुनिया दायें–बायें देखकर सड़क पार करती है, तुम न जाने कहाँ खोई रहती हो। कभी ताना कसता –– अगर आत्महत्या ही करनी थी, तो ख्वाहमख्वाह किसी कार वाले को मुसीबत में क्यों डाला?

साधना की ज़िंदगी अज़ाब होती जा रही थी। यह तो अच्छा था कि मकान में जगह ज्यादा थी और उन्होंने एक कमरा जगदीश लाल को किराये पर दे रखा था, वर्ना साधना का न जाने क्या होता। जगदीश लाल को साधना से सहानुभूति थी। वह उसे उठाने–बिठाने और व्हील चेयर पर घर के बगीचे में पहुँचाने के लिये जरा भी आनाकानी न करता। रूपलाल को यह
बात और बुरी लगती और वह संकेतों से जगदीश लाल के चरित्र पर भी छींटाकशी कर देता।

तुम आजाद हो –– एक दिन रूपलाल ने सारे नाते तोड़ते हुए कहना शुरू किया – तुमसे मेरा नाता केवल बबली तक था, अब मैं अपने बच्चों के साथ रहूँगा।
जब तुमने पार्टनर बनने की हामी भरी थी, तब तो तुमने कहा था कि मुझे अब और सन्तान नहीं चाहिए, लेकिन तुम चाहोगी तो कर लेंगे।
"तो तुम्हारे चाहने से ही तो हुई थी बबली" –– रूपलाल ने दानाई दिखाई।
नहीं, यह झूठ है। हम
दोनों ने इसकी योजना बनाई थी।
"चलो बनाई होगी, लेकिन अगर आदमी साथ न निभा सके तो क्या उसे पत्नी को गले का फंदा बनाये रखना चाहिए?"
"क्यों, साथ न निभा पाने की ऐसी कौन–सी अड़चन आन पड़ी है और मैं गले का फंदा कबसे लगने लगी?" – साधना ने प्रश्न के उत्तर में अपनी ओर से प्रश्न करते हुए ऐतराज किया।

रूपलाल ने उत्तर देना बेकार समझा और अपना सामान बाँधता रहा। जाते हुए उसने अच्छी तरह से बाय–बाय भी नही की।

दस वर्षों
से साधना व्हील चेयर से बँधा जीवन व्यतीत कर रही है। इन दस वर्षों में एक बार फिर तलाक हुआ और सम्पत्ति को लेकर भी तू–तू मैं–मैं हुई। आखिर यह मकान साधना के हिस्से आया और जगदीश लाल किरायेदार के स्थान पर साधना का सब कुछ हो गया। बैठे–बैठे साधना सोच रही थी, मुझे मुसीबत समझकर आज अगर जगदीश लाल भी साथ छोड़ दे, तो मेरा क्या होगा? क्या इंशोरेंस से मिले एक लाख पाउंड पास होने पर भी मेरा शेष जीवन अकेले कट सकेगा?

उसने इस खयाल को झटक दिया और इस आशा में आकाश की ओर देखने लगी कि शायद कत्थई कबूतरी एक बार फिर आ जाय।

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९ अक्तूबर २००२

 
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