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                       "सच कहूँ तो, असल में 
                      हमारे-अपने लोग स्वयं दोगली मानसिकता रखते हैं। फिर जिस 
                      पत्तल में वह खाते हैं उसी में छेद करते हैं। दशकों यहाँ 
                      रहने के बावजूद इस देश को पराया समझते हैं। रत्ती भर भी इस 
                      समाज के साथ ताल-मेल बैठाने का यत्न नहीं करते और अपने को 
                      असुरक्षित तथा दोयम दर्जे का नागरिक कहते हुए थकते नहीं हैं। 
                      क्यों? हर तरह की सुविधा है यहाँ, सोशल-सेक्युरिटी, मेडिकल 
                      फेसीलिटी, एज्युकेशन, रिटायरमेन्ट पेन्शन। पर फिर भी ये लोग 
                      रोते हुए खुद को अलग थलग रखते हैं। परिवार और बच्चों को तो 
                      यहाँ की हवा भी नहीं लगने देना चाहते हैं। जैसे अंग्रेज़ कोई 
                      छूत का रोग है। वैसे पुरुष वर्ग के मन में अंग्रेज़ लड़कियों 
                      से हमबिस्तर होने की अदम्य लालसा रहती है पर विवाह इंडियन 
                      वर्जिन से ही देश जा कर करेंगे। सच बात तो यह है कि हमारे 
                      अपने ही लोग रंगभेद, जातिभेद, लिंग-भेद और नस्ल-भेद के 
                      जन्मदाता और पालक हैं। मैंने अंग्रेज़ों में सदा मानवता, 
                      सहृदयता और उदारता ही पाई है। 'एक्चुअली वी सफर फ्रॉम 
                      इनफीरियारिटी कॉम्प्लेक्स, स्लेव मैंटेलिटी एन्ड एन एटरनल 
                      इनसिक्यूरिटी।"  वस्तुत: शशांक ने थोड़े ही 
                      समय में ब्रिटेन के दोनों ही समाज में अपना विशेष स्थान बना 
                      लिया था। ऑफिस में सभी उसके याददाश्त, तत्कालबुद्धि, 
                      हाजिर-जवाबी तथा समकालीन राजनीति के प्रति उसके मौलिक 
                      दृष्टिकोण और ज्ञान के कायल हो गए थे। विभाग के कोड-बुक के 
                      नियम, अधिनियम और उनकी व्याख्याएँ तो जैसे उसको जबानी रटी 
                      हुई थी। जब भी किसी उच्चाधिकारी को किसी निर्णय पर शंका होती 
                      तो आचार-संहिता की व्याख्या के लिए शशांक को ही बुलाया जाता। 
                      और यही कारण था कि उसके साथी शफी गोयल, चौहान, शर्मा, एन्डी 
                      और बॉब जो सिविल सर्विस में उसके ही साथ नियुक्त हुए थे अभी 
                      भी उसी पद पर आसीन थे जिन पर उनकी नियुक्ति हुई थी। और शशांक 
                      उनसे कही ऊँचे पद पर पदासीन हो चुका था। कभी-कभी नैराश्य और 
                      ईर्ष्या से बुझे उसके अधीनस्थ साथी पीठ पीछे उसे अंग्रेज़ी 
                      का पिट्ठू या खुद को बदकिस्मत, रंगदार और नस्ल-भेद से पीड़ित 
                      कह कर संतोष कर लेते, पर अपनी अंग्रेज़ी वाक्य विन्यास, 
                      तौर-तरीके और व्यक्तित्व को सँवारने-सुधारने की कोशिश कभी 
                      नहीं करते। कुछ काहिल और ज़ाहिल अंग्रेज़ भी ऐसे थे जो उसे 
                      'ब्लडी ब्रेन-बॉक्स' 'ब्लडी-वर्कोहालिक', 'ब्लडी इंडियन नो - 
                      हाऊ' और 'बास्टर्ड' कह कर अपनी भड़ास निकालते।  इसी बीच शशांक कई आयामों से 
                      गुज़रा। प्रखर कार्य-क्षमता, श्रम और सरस आचार-विचार के कारण 
                      उसकी पदोन्नति हर तीसरे साल होती रही। इस तरह उसे 
                      सिविल-सर्विस के कई महत्वपूर्ण विभागों में, उच्च पदों पर 
                      काम करने का अवसर मिला तो उसने अपनी क्षमताओं और व्यक्तित्व 
                      को खूब निखारा। साथ ही ब्रिटेन में रहने वाले अपने देसी समाज 
                      को भी बड़ी प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाता रहा। इस बीच जब 
                      कभी उसे कोई मानसिक द्वंद दुविधा या आशंका होती तो वह मेरे 
                      पास विचार विमर्श के लिए अवश्य आता। वास्तव में गए वर्षों 
                      में उसे मेरी कम ज़रूरत पड़ी, मुझे ही उसकी ज़्यादा ज़रूरत 
                      पड़ी। शशांक 'नॉलेजिबुल' था उसके पास मेरे मतलब की हर तरह की 
                      तत्कालीन सूचनाएँ होती थीं। यदि मुझे कभी कोई इनकम-टैक्स, 
                      इमिग्रेशन इंश्योरेन्स अथवा बड़ी खरीददारी की समस्या होती तो 
                      मैं उसे बुला भेजती और वह हर तरह से विविध नियमों के अंतर्गत 
                      मेरी सहायता करता।  उस दिन वह अपनी पत्नी शैलजा 
                      के साथ एक समारोह मे कैफे रायल आया हुआ था। समारोह का आयोजक 
                      मेरा पुराना अवसरवादी 'क्लाइंट' था। अत: मैं भी आमंत्रित थी। 
                      हम सब बार के पास खड़े विभिन्न विषयों पर बात-चीत कर रहे थे। 
                      शशांक सबके आकर्षण का केन्द्र था। अभी हाल ही में उसकी, 
                      ब्रिटिश सिविल सर्विस के एक ऐसे महत्वपूर्ण विभाग में 
                      नियुक्ति हुई थी जिसमें अब तक कोई प्रवासी प्रवेश नहीं पा 
                      सका था। उगते सूरज की पूजा करने वाले समाज के लिए यह गर्व की 
                      बात थी। लोग उससे संबन्ध जोड़ने को आतुर थे। लग रहा था यह 
                      आयोजन उसी के लिए बड़े ही सावधानी से विशेष प्रयोजन के तहत 
                      आयोजित किया गया था। मेज़बान उसे हर तरह का सत्कार दे रहा था 
                      और वह सहृता से उसे ग्रहण कर रहा था। एक अनन्य दर्पीला सुख 
                      उसके चेहरे पर आ और जा रहा था। उसे यह आभास हो चुका था कि 
                      वही आज माननीय और विशिष्ट अतिथि है।  बार में खड़ा, वह एक अच्छे 
                      राजनेता की तरह आए हुए अन्य अतिथियों के साथ राजनीति और 
                      ब्रिटिश अर्थ-व्यवस्था पर अपना विशेष मत साधिकार प्रगट कर 
                      रहा था। लोग तन्मयता से सुनते हुए उससे तरह-तरह के प्रश्न 
                      पूछ रहे थे। मदिरा और पद के मद के साथ ऐसा कलात्मक आनन्ददायक 
                      आतिथ्य उसका विवेक सुप्त हो रहा था। वह बातों ही बातों में 
                      सूचनाओं के कुछ ऐसे गोपनीय सूत्रों को खोल गया जो उस जैसे 
                      वरिष्ठ अधिकारी के आचार संहिता के विरुद्ध था। वह तो अच्छा 
                      हुआ वहाँ कोई पत्रकार नहीं था।  अवसर देख कर चतुर, चापलूस 
                      और स्वार्थी उससे दोस्ती बढ़ाने की कामयाब कोशिश कर रहे थे। 
                      शशांक का अहं तुष्ट हो रहा था। उसका सामाजिक दायरा दिनों दिन 
                      बढ़ता चला जा रहा था। पद के अनुरूप उसके व्यक्तित्व में 
                      गरिमा आती जा रही थी पर थोड़े ही दिनों में उसमें दम्भ और 
                      अहंकारयुक्त हठ के लक्षण भी परिलक्षित होने लगे थे। 
                       शशांक बहुत व्यस्त हो चला 
                      था। हमारी मुलाक़ातें भी कम होती जा रही थी। शायद काम का 
                      दबाव बढ़ गया था। या कुछ अनहोनी घटी है? इधर कुछ दिनों से लोग दबी-दबी जबान मे रस ले-ले कर शशांक के 
                      बारे में कुछ कहने लगे हैं। ये वही लोग हैं- जो कहते नहीं 
                      अगाते थे, शशांक जी आपके सम्पर्क में आना और आपको जानना 
                      हमारे लिए अति गर्व की बात है। आपने हम प्रवासियों का मस्तक 
                      गर्व से ऊँचा कर दिया। आप उस शिखर पर पहुँच गए है, जहाँ आज 
                      तक कोई प्रवासी नहीं पहुँच सका है। हम सब आपके अनुग्रहीत 
                      हैं। आपने हमारी आने वाली संतति के लिए मार्ग प्रशस्त किया 
                      है। शशांक जी प्रसन्न हो कर कुछ विनीत शब्द कहते और उनकी मदद 
                      के लिये जी-तोड़ परिश्रम करते हैं। कुछ अच्छे संतुलित 
                      मनोवृत्ति के लोग कहते है भाई शशांक जी बहुत ही सज्जन, 
                      सावधान, दूरदर्शी और सुलझे हुए व्यक्ति थे। अचानक यह हुआ 
                      क्या? वह कभी ऐसा काम नहीं करते थे जिससे उनके ऊपर कोई आँच 
                      आए। पर कुछ तो हुआ है।
 आखिर यह 'इनक्वायरी' क्यों 
                      हो रही है? आज वही लोग उससे इस तरह कन्नी काट जाते हैं, मानो 
                      वह कोई छूत की बीमारी हो। और मन-ही-मन खुश होते हैं कि चलो 
                      यह सब कुछ होने से पहले उनका काम तो हो ही गया ना। उड़ती 
                      ख़बरों में रस सभी लेते हैं। कोई गहराई में नहीं जाता है। 
                      सभी अपनी-अपनी इज्ज़त बचाने की फिक्र में हैं। दुश्मनों की 
                      भी कोई कमी नहीं है जिनके काम शशांक किन्ही कारणों से नहीं 
                      कर पाया वह और बेसिर पैर की मारते हैं लोग यहाँ तक कहते हैं 
                      कि शशांक ने 'ऑयल बैरन' से मिल कर 'मिलियन्स' बनाया है। 
                      शशांक आखिर इन सब बातों का तगड़ा जवाब क्यों नहीं देता?
                       वह है कहाँ?मैं चिंतित हो जाती हूँ। शैलजा को फोन करती हूँ। वह हॉस्पिटल 
                      में हैं। उसके पेट में सिस्ट हैं, आपरेशन होने वाला है। मैं 
                      नाराज़ होती हूँ। इतना सब कुछ हो गया और मुझे खबर तक नहीं। 
                      शैलजा फोन पर ही सिसकने लगती है। मैं बेड और वार्ड का नम्बर 
                      पूछकर फोन रख देती हूँ। रात में डाक्टर ने कार चलाने को मना 
                      किया है, पर मैं रिस्क लेती हूँ। पार्किंग बे में गाड़ी खड़ी 
                      कर वार्ड में प्रवेश करती हूँ।
 शैलजा संतुलित होने का 
                      प्रयास करती है। दु:ख और चिंता से चेहरा विवीर्ण और मलीन है। 
                      मैं उसकी आँखों में सीधा देखती हुए पूछती हूँ, "बिना किसी 
                      भूमिका के बताओ शशांक कहाँ हैं?" शैलजा कुछ रूआँसे और कंपित स्वर में, आँख में भर आए आँसुओं 
                      से लड़ती हुई कहती है," दीदी उनके साथ अन्याय हुआ। उन्होंने 
                      सदा सबका भला चाहा और अपने देसी लोगों की तो उन्होंने हर तरह 
                      से सहायता की, शायद वही उनके लिए जाल बन गया। उनकी वरिष्ठता, 
                      प्रतिभाशक्ति का आयस और उसका समुचित प्रयोग उनके अंग्रेज़ 
                      साथियों और अधिकारियों के आँख की किरकिरी बन गई। संभवत: वे 
                      लोग उनकी बुद्धि और जानकारियों से भयभीत हो उठे। उन्हें पता 
                      नहीं था कि ऑफिस में अंदर ही अंदर उनपर नज़र रखी जा रही थी। 
                      उन्होंने कभी कुछ गलत नहीं किया। ऑफिस वालों ने कोई चाल चली, 
                      क्या हुआ, कैसे हुआ, मुझे नहीं मालूम। उनकी प्रतिष्ठा, 
                      विश्वास और मान्यताओं को ऐसी ठोकर लगी कि वह अंदर तक हिल गए 
                      और उन्हें नींद आनी बंद हो गई। वह सारा दुख अपने अंदर ही 
                      समोए रहे फिर एक लंबे अरसे तक अवसाद में रहे। मैंने बहुत 
                      चाहा वह कुछ कहें, मन का गुबार निकालें पर उनका मुँह नहीं 
                      खुला। बस लगा उनका अहं बुरी तरह से आहत हो चुका है। अंत में 
                      वह नैराश्य से पीड़ित हो मनोबल खो बैठे फिर संसार से विरक्त 
                      और विमुख हो, तिब्बत बौद्ध-भिक्षुओं के पास शांति की खोज में 
                      चले गए। मैं असहाय कुछ भी न कर पाई।"
 मैं अपने भावनाओं पर संयम न 
                      रख पाने के कारण, विवेक खो, क्रोधित हो उठती हूँ और उसके 
                      कंधे पकड़ कर झकझोरते हुए तेज़ी से पूछती हूँ, "मैंने कहा न, 
                      आगे बताओ, आखिर हुआ क्या, वह डर जाती है और कंपित स्वर में 
                      कहती है, "दीदी, वह..." वह संतुलित होने का असफल प्रयास करती 
                      है। अचानक खट की आवाज़ के साथ खिड़की पर पर्दा गिर पड़ता है। 
                      बाहर तेज़ हवा चल रही है। पेड़ से टूटा एक बड़ा पीला सीकामोर 
                      का पत्ता काँपता बवंडर में गोल-गोल दिगभ्रमित-सा उन्नमदित 
                      घूम रहा है।  उनपर अविश्वसनीयता का आरोप 
                      लगा कर उन्हें अनंतकाल के लिए निलंबित कर दिया गया..."'अ विक्टिम ऑफ इन्सटीट्यूशनल रेसिज़्म' मैं तीव्र दुख के 
                      आवेग से चीख उठती हूँ।
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