| 
					 उस 
					स्थान पर वह जाना नही चाहता था, दूसरी ओर कम्पनी के आदेश को 
					मानने की बाध्यता। यह एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट था जो उसके कैरियर 
					को ऊँचाइयाँ प्रदान कर सकता था। ‘‘यह प्रोजेक्ट तुम्हारी 
					किस्मत बदल सकता है।’’ मैनेजर का यह वाक्य उसके कानों में 
					रह-रहकर गूँज रहा था। 
 शहर की सड़कें भ्रष्टाचार की गाथा कह रही थीं जिन्हें बनाने में 
					लाखों रुपये खर्च हुए थे ... सड़क पर उतना व्यय नहीं किया गया 
					वरन् उच्च अधिकारियों की भेंट चढ़ाया गया। शहर में पक्के मकान 
					दिखायी दे रहे थे, उनमें से अधिकांश सिस्टेमेटिक नहीं थे...कुछ 
					में कार गैरेज नदारद...सो कुछ घरों के बाहर फोरव्हीलर खड़ी 
					दिखायी दे रही थी। ...आजकल मकान बनाते समय चारपहिया वाहन गैरेज 
					की कल्पना अवश्य की जाती है। महानगर में ऊँची-ऊँची 
					अट्टालिकायें अपने अस्तित्व को समेटे मानव के व्यक्तित्व से 
					होड़ लगाए हुए थीं, उनके अन्तिम छोर को देखने के लिये मनुष्य को 
					अपनी गर्दन पीछे की ओर पूरी झुकानी पड़ती है।
 
 जीप एक छोटे से होटल के बाहर आकर रुक गयी। कम्पनी ने कमरा पहले 
					से बुक करवा दिया था। इसी होटल में उसे ठहरना था। उसने होटल पर 
					एक नजर डाली ... होटल बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था पर दीवारों 
					का रंगरोगन और ऊपरी चमक जो आकर्षित कर ले यात्रियों को, ऐसा 
					कुछ नहीं था। उसने बुरा सा मुँह बनाकर ड्रायवर से कहा, ‘‘कोई 
					बढ़िया होटल नहीं है यहाँ? ’’
 ‘‘ये यहाँ का सबसे अच्छा होटल है।’’ उसने दलील दी।
 
 परेश जीप से उतरकर काउन्टर पर आ गया। अपना नाम और कम्पनी का 
					नाम बताया .... होटल के मैनेजर ने उसे कमरे की चाबी थमा दी। 
					नौकर ने उसका सामान कमरे तक पहुँचाया। उसने कमरे का मुआयना 
					किया.. पन्द्रह बाइ पन्द्रह का कमरा... जिसमें नीचे लाल रंग का 
					कारपेट बिछा है। दो खिड़कियाँ गैलरी की ओर खुलती हैं। दरवाजे और 
					खिड़कियों में हल्के पीले रंग के पर्दे कमरे के कलर से मैच कर 
					रहे हैं...दीवार से सटा पलंग पड़ा है... एक कोने में छोटी सी 
					मेज और दो कुर्सियाँ रखी हैं...मेज पर काँच के गिलास उल्टे रखे 
					हैं...साथ में एक प्लास्टिक का जग ढक्कन लगा रखा है...। अटैच 
					बाथ है जिसमें जाने से पहले छोटा-सा तैयार होने का कमरा 
					...उसमें ड्रेसिंग टेबिल का लम्बा शीशा फिट है।
 
 मौसम में गुलाबी ठण्ड की दस्तक थी। उसने कमरे की चटकनी चढ़ा दी। 
					...अपना ट्रॉली बैग खोला ..नहाने के कपड़े निकालकर बाथरूम की ओर 
					चल दिया। देशी लोग विदेशी सुविधाओं की कितनी भी नकल कर लें पर 
					कोई न कोई चूक अवश्य हो जाती है जिससे सुविधा असुविधा का रूप 
					अख्तियार कर लेती है। कमोड लैटरीन आज की आवश्यकता और विदेशी 
					नकल है पर वैसी ही व्यवस्था और वैसा ही उपयोग सबके बस की बात 
					नहीं। अन्दर गन्दगी देख उसकी त्यौरियाँ चढ़ गयीं। जल्दी नहाकर 
					बाहर आ गया।
 
 लगभग दो घण्टे बाद एक कॉल मोबाइल पर उभरा। दोनों के बीच बातचीत 
					हुयी। पन्द्रह मिनट बाद वह व्यक्ति होटल के गेट पर था। उसने 
					अपना दाँया हाथ आगे बढ़ाकर परिचय देते हुए कहा, ‘‘महेन्द्र’’
 परेश ने भी दाँया हाथ आगे बढ़ाकर कहा, ‘‘परेश’’
 
 महेन्द्र स्थानीय नेता है उसकी गहरी पैठ है सरकारी महकमों में 
					...। वह इस डील का मीडियेटर है। गाँववालों और कम्पनी के बीच 
					सहमति और सरकारी अनुमति दिलवाने में उसकी अहम् भूमिका अदा होना 
					है। बदले में कम्पनी ने उसे बीस लाख रुपये देने का वादा किया 
					है इसलिये वह बहुत उत्साहित है।
 
 महेन्द्र परेश को लोकेशन दिखाने ले गया। परेश गाड़ी में बैठा 
					अपने बचपन की यादों को ताजा कर रहा था। खेत, पगडंडियाँ, 
					कच्चे-पक्के मकान सब अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। गाँव में 
					बीस सालों का बदलाव साफ दिखायी दे रहा था। कच्चे घर पक्के घरों 
					में तब्दील गये...बिजली और दूरसंचार क्रांति गाँव में प्रवेश 
					कर चुकी है... दूर-दूर तक फैला घना जंगल अब कांक्रीट के जंगल 
					में बदल गया...रहन-सहन, आचार-व्यवहार सबमें बदलाव...। खेतों 
					में भी मकान बन गये। किसी-किसी खेत में बँटवारे की दीवार खड़ी 
					दिखायी दे रही है। पश्चिमी सभ्यता भी यहाँ की चौहद्दी में 
					प्रवेश कर चुकी है।
 
 महेन्द्र ने जीप रुकवाकर हाथ का इशारा करते हुए बताया, ‘देखो 
					ये है ओर नदी’।
 परेश ने देखा नदी सागर जैसी इठला रही थी। उसका ओर-छोर दिखायी 
					नहीं दे रहा था। लहरें तेज गति से बह रही हैं... लगता था अपने 
					बहाव में सब कुछ बहाकर ले जायेंगी। उसकी धड़कनें तेज हो गयीं... 
					यही वह नदी है जिसने.... जिसने उसका सब छीन लिया। उसके चेहरे 
					पर भाव बनने बिगड़ने लगे। उसे याद आया इस नदी का बहाव तेज होने 
					के कारण बच्चों को यहाँ न जाने की हिदायत दी जाती थी।
 झरने-सी आवाज उसका मन मोह रही थी।
 
 ‘‘इतनी मधुर आवाज और मोहक दृश्य को देख महानगर में तो पिकनिक 
					स्पॉट बन गया होता।’’ वह महेन्द्र की ओर मुखातिब हुआ।
 ‘‘अरे सर! इसके प्रबल वेग के कारण संक्रांति पर्व पर भी सब 
					गाँव वाले एक दूसरे का हाथ पकड़कर समूह में घुड़की (डुबकी) लगाते 
					हैं। यह इस गाँव की ही नहीं आसपास के क्षेत्र की पुण्यसलिला 
					है... जन्म ये लेकर मृत्यु तक के सभी धार्मिक एवं अन्य आयोजन 
					इसके घाट पर होते हैं। बच्चा पैदा होने के बाद घाट पूजन 
					(घटबरिया) हो या मृत्यु के बाद मृत देह का अस्थि-विसर्जन सब 
					काम इस नदी में होते हैं। गंगा दशहरा, सोमवती अमावस्या आदि 
					पर्व इस घाट पर मनते हैं। करये दिन (पितृपक्ष) में तो सभी लोग 
					सामूहिक रूप से पितरों को अर्ध्य देते हैं ...कार्तिक नहान के 
					समय यहाँ महिलायें सुबह नीम अँधेरे आकर बालू के शिवलिंग बनाकर 
					पूजा करती हैं। यहाँ भुजरियों का विशाल मेला लगता है ...बड़मावस 
					पर महिलायें पतिरूप में यहाँ के बटवृक्ष को कलावा बांध 
					बटसावित्री की पूजा करती हैं...।’’
 
 उसने अपने आपको संभाला और पूछने लगा, ‘‘ इसके उस पार क्या कोई 
					बस्ती है ?’’
 
 ‘‘यह आदिवासी बाहुल इलाका है जंगल की जड़ी-बूटियों से दवाई 
					बनाते हैं वे लोग...नदी पास होने से जड़ी-बूटी भी खूब फल-फूल 
					रही हैं। ये नदी उनकी जीवनदायिनी है।’’
 
 ‘‘...यह नदी तो गाँव से बहुत दूरी पर थी। वहाँ जाने का रास्ता 
					भी सँकरा था।’’
 ‘‘हाँ ! पर अब इसका क्षेत्र यहाँ तक फैल गया है। इस नदी के 
					कारण ही यहाँ फसल अच्छी हो रही है । आसपास के लोग भी इसका पानी 
					लेने आते हैं। पूरे संभाग में यहाँ की फसल का नाम है। ’’
 ‘‘यह नदी मई-जून में तो सूख जाती होगी ?’
 महेन्द्र उत्साहित होकर बोला, ‘‘नहीं सर ! गर्मी में आसपास की 
					सब नदियाँ सूख जाती हैं ...बोरिंग में भी पानी खत्म हो जाता 
					है, तब भी यह नदी बारिश के मौसम जैसी लबालब भरी रहती है। 
					इसीलिये तो आपकी कम्पनी को मैंने प्लान्ट लगाने की सलाह दी है 
					।’’
 ‘‘इस गाँव का विकास नहीं हुआ...मसलन पक्की सड़के आदि...’’
 ‘‘सर यह क्या कम बात है यह गाँव ट्रेन रूट से जुड़ा हुआ है। जब 
					कोयले बाली ट्रेन चलती थी तो इसी नदी से पानी लेती थी।’’
 ‘‘नदी के घाट पर गाँव के लोग दिखाई नहीं दे रहे ? ’’ परेश ने 
					जिज्ञासा प्रकट की।
 ‘‘इस घाट पर गाँव वाले नहीं आते वे दूसरे घाट पर जाते हैं... 
					यहाँ बहाव तेज है और मिट्टी में फिसलन भी... यहाँ किसी का पैर 
					फिसल जाये तो उसे बचाना मुश्किल होता है। ’’
 
 परेश को शांत देख महेन्द्र ने जानकारी देते हुए कहा, ‘‘ घाट के 
					दक्षिणी ओर एक मन्दिर है इसके पुजारीजी कभी गाँव में प्रवेश 
					नहीं करते...गाँव वाले ही हर पर्व, मावस (अमावस) और पूनो 
					(पूर्णिमा) पर सीधा (आटा, घी, शक्कर या गुड़, नमक, मिर्च आदि) 
					दे जाते हैं।
 परेश ने बात बदलते हुए कहा,‘‘अच्छा ये बताओ इसके पूर्वी ओर 
					बिजली के खम्बे तक किस-किसके खेत हैं ?’’
 महेन्द्र उसका मतलब समझ गया, उसने उँगलियों पर नाम सहित गिनती 
					की और बताया,‘‘ लगभग पन्द्रह लोगों के खेत लेने पड़ेंगे। ’’
 परेश के माथे पर बल पड़ गये... महेन्द्र ने परेश को ध्यान से 
					देखा ... थोड़ा रुककर वह फिर बोला, ‘‘लेकिन ये प्रॉब्लम आपकी 
					नहीं है। मैंने उन लोगों से बात कर ली है, उन लोगों से लिखित 
					में सहमति ले लूँगा और खेत के कागज भी ...।’’
 ‘‘बदले में उनको कितनी कीमत मिलेगी ये मालूम है उन्हें...’’ 
					परेश ने बीच में टोका।
 ‘‘कीमत...! ’’ वह हँसा,‘‘ अरे सर! आपके मैनेजर साहब ने आश्वासन 
					दिया है कि जिनकी जमीन ली जायेगी उन लोगों को कारखाने में 
					नौकरी दी जायेगी।...’’
 ‘‘...और दाम कुछ भी नहीं...’’
 महेन्द्र ने उसे विस्फारित नेत्रों से देखा, कोई उत्तर नहीं 
					दिया।
 परेश ने कहा,‘‘आप जाना चाहो तो जाओ मैं गाँव देखना चाहता हूँ।
 ‘‘ ठीक है सर .... आप शाम को सरपंचजी से जरूर मिल लेना।’’
 
 महेन्द्र के जाने के बाद उसके कदम नदी की ओर बढ़ गये। वह उस नदी 
					को पूरी तरह देख लेना चाहता था जिसकी वजह से उसके मन में वर्षो 
					से ज्वाला धधक रही है। नदी किनारे चलता रहा... उद्विग्न, 
					अशांत, निरुद्देश्य। वह गाँव के घाट से बहुत दूर निकल आया...। 
					उसे प्यास लगने लगी... उसका मन नहीं हुआ कि वह और आगे जाये। वह 
					गाँव की ओर चल दिया । वह गाँव में जहाँ जाता लोग उसके सम्मान 
					मे खड़े हो जाते और राम जुहारू करने लगते। अपनी ही धुन में वह 
					उनको उत्तर देता हुआ आगे बढ़ता गया। कुछ लोग झुण्ड बनाये ताश 
					खेल रहे थे वहाँ उसे आग्रहपूर्वक बिठाकर मठा पिला दिया। ऐसा 
					सम्मान पाकर वह अभिभूत था... उनके लिये तो वह जैसे ईश्वर का 
					भेजा हुआ दूत...इस गाँव को महानगर में बदले हुए देखने की 
					कल्पना को साकार करता हुआ प्रतिरूप...।
 
 उसने एक युवक से पूछा, ‘‘बद्रीप्रसाद का मकान कौन-सा है ?’’ उस 
					युवक ने उसे ऐसे घूरा जैसे किसी अपरिचित व्यक्ति का नाम ले 
					लिया हो। वह बोला, ‘‘सर इस नाम का तो कोई नहीं इस गाँव में । 
					’’ क बुजुर्ग की ओर इशारा करके बोला, ‘‘ आप उनसे पूछ लीजिए।’’
 
 परेश ने देखा नीम के पेड़ के नीचे एक वृद्ध बैठा हुक्का गुड़गुड़ा 
					रहा था। परेश ने नमस्ते करते हुए वही प्रश्न दोहराया, ‘‘ बाबा 
					बद्रीप्रसादजी का मकान कौन-सा है ?’’
 बुजुर्ग ने बूढ़ी मिचमिची आँखों से उसे ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा 
					जैसे उसने कोई गुस्ताखी की हो, बुजुर्ग रुक-रुककर बोला, ‘‘ ऊ 
					के मकान की का कहें तुमसे ...मुकते सालन से यहाँ नहीं रहतौ कोई 
					...एक बिटवा हतौ बाये बाकी नानी लै गयी।’’
 फिर एक पुराने खण्डहरनुमा कमरे की ओर इशारा करके बोला, ‘‘ वो 
					रही बदरी की मढ़इया...’’
 ‘‘...उसमें कोई रहता नहीं है ? ’’
 ‘‘... ऊ के जावे के बाद खाली पड़ी रहतै...’’
 
 वह अधिक देर वहाँ नहीं ठहर पाया। होटल के कमरे में लौट आया...। 
					स्मृति की काली परछाइयाँ उसका पीछा कर रही थीं। उसे कभी गाँव 
					के खेत दिखायी देते तो कभी कुँआ, कभी पगडंडी तो कभी इमली के 
					पेड़ .... जिन पर वह चढ़ जाया करता था। उसकी माँ खेती करती...वो 
					ही कमाती..घाट के मन्दिर के पुजारी से दीक्षा लेकर पिता साधु 
					वेश में रहने लगे थे। वो आठ वर्ष का ही तो था जब उसकी माँ चल 
					बसी थी । पिताजी उनकी अस्थियाँ लेकर इसी ‘ओर नदी’ में विसर्जन 
					के लिये गये तो वापस ही नहीं लौटे।
 
 लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि उसके पिता बद्रीप्रसाद 
					अकर्मण्य थे... बेटे को पाल-पोसने का जिम्मा लेना नहीं चाहते 
					थे इसलिये उन्होंने नदी में डूबकर मुक्ति पा ली ...आत्महत्या 
					कर ली... जलसमाधि ले ली... अरे साधु थे तो भक्ति की समाधि 
					लेते...अध्यात्म की... ये तो घोर पलायन है जिन्दगी से... कैसे 
					साधु थे...कोई भी धर्म पलायन करना नहीं सिखाता... धर्म तो कर्म 
					पर जोर देता है...वो न धर्मयोगी रहे न कर्मयोगी बन सके... इस 
					बालक के बारे में तो सोचा होता .... न जाने कैसा बाप था.... 
					अरे हम सबसे ही कह देता कि जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ है... 
					गाँववाले दो जून की रोटी का इन्तजाम कर देते ...कम से कम लड़के 
					के सिर से बाप का साया तो न छिनता...बाप की मक्कारी सामने आ 
					गयी...कौन से चार-छह बेटे थे जो परेशानी होती, एक ही तो बेटा 
					था, लोग तो बेटे को तरसते हैं... बेचारा छोटी-सी उम्र में अनाथ 
					हो गया...अरे! मेहनत नहीं कर सकता था तो माँग कर खुद खा लेता 
					और इसे भी खिला देता...गाँव बाले इतने बेेदर्द नहीं हैं।
 
 जितने मुँह उतनी बातें... सुन-सुनकर परेश का दिमाग खराब हो 
					जाता। ये वाक्य आज तक परेश के मन पर हथौड़े के समान चोट करते 
					हैं। तभी से वह अपने पिता से और इस गाँव से नफरत करता है। किसी 
					भी फार्म या आवश्यक जानकारी की पूर्ति में पिता का नाम भरते 
					समय मन में अजीब-सी कसक और पीड़ा रहती थी ...उसका वश चलता तो 
					पिता के नाम वाला कॉलम खाली ही रहने देता...।
 
 वो तो उसकी नानी उसे अपने साथ ले गयीं। उन्होंने ही 
					पढ़ाया-लिखाया, पालन- पोषण किया। वो न होतीं तो ... सोचकर ही 
					सिहर जाता वह... आज इस गाँव में भीख माँग रहा होता..। समझ आने 
					लगी तो वह जल्दी ही जान गया कि नानी ने उसे पालने में 
					मामा-मामी का कितना विरोध सहा होगा। वो दिन भी याद आ जाता है 
					जब उसको भरपेट खिलाकर नानी भूखी सोयी थी ... मामी ने कहा था एक 
					व्यक्ति का ही खाना मिलेगा।
 
 अन्दर ही अन्दर बहुत कुछ खदबदा रहा था। उसने दोपहर का भोजन भी 
					नहीं किया। उसके मन में द्वन्द्व चलता रहा...गाँव वालों को 
					धोखा मिले तो मिलता रहे...मेरी बला से ...गाँव के खेत उजाड़ हो 
					जायेंगे... उन पर कारखाने की दीवारें खड़ी हो जायेंगी, इससे 
					मुझे क्या ? ...इस गाँव से मेरा रिश्ता ही क्या है? इस गाँव ने 
					मुझे दिया ही क्या है - दुःख-दर्द, उत्पीड़न और मानसिक क्लेश के 
					सिवा... ये तो उसे पता है कम्पनी किसी गाँव वाले को काम नहीं 
					देगी वरन् यहाँ का पानी बेचेगी ऊँची कीमत पर...एक समय ऐसा 
					आयेगा गाँववालों को भी रोजमर्रा के लिये पानी खरीदना पड़ेगा। 
					खुद के गाँव का पानी और खुद मोहताज हो जायेंगे बूँद-बूँद के 
					लिये...
 ....मेरे लिये जो जी न पाया वह इसी गाँव का था। यदि नानी न ले 
					जाती तो मैं इसी गाँव में भटकता ... दूसरों के टुकड़ों पर 
					पलता...अच्छा है अब ये गाँववाले भटकेंगे...ये भी मोहताज 
					होंगे...। पर जल्द ही उसका इन्सान उस पर हावी होने 
					लगा...गाँववालों ने उसका क्या बिगाड़ा है... वे सब लोग तो उसे 
					सम्मान दे रहे हैं।...
 
 मोबाइल की घण्टी ने उसकी विचार-तन्द्रा भंग कर दी। महेन्द्र 
					याद दिला रहा था आज रात का उसका भोजन सरपंचजी के यहाँ है।
 वह अनमने भाव से सरपंचजी के यहाँ भोजन करने आया। रामसनेही जी 
					को गाँव बालों ने एकमत से अपना सरपंच स्वीकर कर लिया था और 
					मतदान की स्थिति नहीं आयी थी। सरपंचजी ने उसका खूब अतिथि 
					सत्कार किया और खुशी से बोल पड़े, ‘‘पूरा गाँव जश्न मना रहा है 
					कि यहाँ कारखाना खुलेगा.. गाँव का नाम रौशन होगा और जिनके खेत 
					लिये जायेंगे उन लोगों को कारखाने में काम भी मिलेगा...।’’
 ‘‘ हूँ...’’
 ‘‘ये आपकी कम्पनी का दूसरा प्लान्ट है... पहला प्लान्ट कैसा चल 
					रहा है ?’’
 परेश बड़ी सहजता से बोला, ‘‘ देखिये सरपंचजी ये प्लांट तब तक 
					चालू रहते हैं जब तक पानी का स्रोत बना रहता हैं.... फिर कोई 
					नदी कितने वर्षों तक पानी दे सकती है ? ...आखिर देते-देते तो 
					कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है।
 .... सुनकर चौंक गये सरपंचजी, बोले, ‘‘ फिर क्या हुआ वहाँ के 
					लोगों का ?...’’
 ’’ कुछ नही...बदहाल हो गये हैं वो लोग। पानी का नामोनिशान नहीं 
					है अब वहाँ ...फसल, खेत, जानवर सब चौपट हो गये हैं। ’’
 उसने ध्यान से सरपंचजी का चेहरा देखा, अप्रत्याशित उत्तर सुनकर 
					उनका चेहरा सफेद हो रहा था।
 
 अपनी बात जारी रखते हुए वह बोला, ‘‘आप कह रहे हैं गाँववाले 
					जश्न मना रहे हैं क्योंकि आप सब हकीकत से अनजान हैं...। कम्पनी 
					ट्रेन्ड लोगों को काम पर रखती है इसलिये यहाँ के लोगों को काम 
					मिलना मुश्किल है। ...कारखाना खुलने के बदले इन लोगों का 
					क्या-क्या छिन जायेगा इसकी कल्पना तक नहीं है सबको ...जनजीवन 
					पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा कारखाने से...। बिजली, स्वास्थ्य, 
					पानी, पर्यावरण सब प्रभावित होंगे।... जानवर और फसल क्या आदमी 
					भी बूँद-बूँद को मोहताज होंगे और कम्पनी कीमती दामों में पानी 
					बेचेगी।’’
 
 उनके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें दिखने लगीं...‘‘ लेकिन 
					महेन्द्र तो कह रहा था गाँव का नाम पूरे देश में छा जायेगा 
					...गाँव का विकास हो जायेगा ... महानगर जैसी सुविधाएँ उपलब्ध 
					हो जायेंगी...’’
 ‘‘ पानी के बिना यदि जीवन की कल्पना की जा सकती है तो कोई 
					परेशानी नहीं है ...भविष्य में जब पानी ही नहीं बचेगा तो इन 
					सुविधाओं का लाभ कैसे उठाएंगे आप...पानी के अभाव में गाँव के 
					गाँव खाली हो रहे हैं, लोग वहाँ से पलायन कर रहे हैं... जब 
					आपको और आपकी फसल को पानी नहीं मिलेगा तो जीवन जी पायेंगे क्या 
					? ... रही बात महेन्द्र की तो उसको इस डील पक्की करवाने के बीस 
					लाख रुपये कम्पनी दे रही है...इतना ही नहीं आप सबको झांसा देकर 
					खेतों को औने-पौने दामों में खरीदा जायेगा... पानी के इस 
					स्त्रोत की अन्तिम बूँद तक चूस लेंगे ये व्यावसायिक लोग...। 
					छत्तीसगढ़ की इरावती नदी को बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अधिग्रहीत 
					कर लिया था। अब वहाँ के निवासी बूँद-बूँद के लिए संघर्ष कर रहे 
					हैं ... जो कम्पनी के खिलाफ आवाज उठा रहा है उनको झूठे केस में 
					फँसाया जा रहा है....यही सब आप लोगों के साथ होगा...।’’
 पूरी हकीकत सुनकर सरपंचजी के पैरों तले जमीन खिसक गयी। वे 
					बोले, ‘‘ लेकिन डील नहीं हुई तो तुम्हारी नौकरी का कुछ बिगड़ेगा 
					तो नहीं...’’
 परेश चिन्तित होकर बोला,‘‘ ये सही है यह खबर जल्द ही उन तक 
					पहुँच जायेगी और मुझे कम्पनी से निकाल दिया जायेगा... पाँच 
					वर्षों से यहाँ काम करते हुए प्रमोशन का ख्वाब मन में पलने लगा 
					था ... मैनेजर ने भी यही कहा था कि यह डील मुझे ऊँचाइयों तक 
					पहुँचा सकती है ....’’
 ‘‘ फिर क्यों ले रहे हो तुम ये खतरा ...’’
 ‘‘... बस कुछ कर्ज उतार रहा हूँ...’’
 ‘‘मैं समझा नहीं ...’’
 ‘‘...छोड़िए इन बातों को ... अब ये सोचो आपको कोशिश कैसे करना 
					है..’’
 ‘‘...आप ठीक कह रहे हैं ... मैं सब गाँव वालों को समझाता 
					हूँ... बल्कि मैं अभी एक बैठक बुला लेता हूँ ...आप साथ रहेंगे 
					तो वो लोग जल्दी समझ जायेंगे...आप जब तक पौर में बैठिए मैं 
					तैयारी करता हूँ...’’
 ‘‘आपका गाँव आदिवासी बाहुल इलाका है... नदी उनके लिये जीवन 
					दायिनी है और अपनी जीवनदायिनी के लिये वो कुछ भी कर गुजरने को 
					तैयार रहते हैं ...’’
 सरपंचजी उसका इशारा समझ गये, वे उसे लेकर पौर में आये तो 
					दरवाजे पर वही वृद्ध बैठे मिले जिनसे वह दिन में मिल चुका था। 
					सरपंचजी ने कहा, ‘‘ इनसे मिलो.. ये मेरे पिताजी हैं।’’
 उसने उन्हें नमस्ते किया
 वृद्ध ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा,‘‘बिटवा तुम बदरीपरसाद 
					को कैसे जानत हो।’’
 ‘‘बस यों ही ...सुना था उन्होंने आत्महत्या की थी इसलिए 
					जिज्ञासा थी मन में ...’’
 वृद्ध हड़बड़ा गया अपने पोपले मुँह से बोला,‘‘न ..नई बिटवा.. 
					लोगन ने बात फैलाई हती कि ऊ जान समझकर नदी में डूब गया 
					..आतमहत्या कर लई..। पर बाद में घाट के पुजारी से पतौ पड़ौ कि ऊ 
					कौ पैर फिसल गयो हतो... वो तैरवो नहीं जानतो हतो सो बहौ चलौ 
					गयो..पंडज्जी पुकारत रह गये वा बखत..’’
 वृद्ध की आँखें नम हो गयी थीं...
 सुनकर परेश के दिल पर पड़ा बर्षों पुराना बोझ हट गया था ।
 
 ...सब लोग इकट्ठे हो गये थे पंचायत मैदान में... सरपंचजी के 
					साथ परेश बैठा था। सरपंचजी ने सारी हकीकत उन लोगों के सामने 
					रखते हुए कहा अब आप लोग ही बतायें क्या करना है ?
 ‘‘ महेन्द्र के एक रिश्तेदार ने प्रतिप्रश्न किया,‘‘लेकिन हम 
					इनकी बात पर कैसे विश्वास कर लें ? ’’
 सरपंचजी के चेहरे पर क्रोध का भाव झलकने लगा। परेश ने उनके 
					कंघे पर हाथ रखकर शांत रहने का इशारा किया और कहने लगा ‘‘आप 
					लोग ही बतायें इसमें मेरा क्या फायदा हो सकता है.. बल्कि मेरी 
					तो नौकरी चली जायेगी...’’
 ‘‘...वही तो...! फिर आप क्यों हमारा भला चाह रहे हो... ?’’
 ‘‘ अपनी जन्मस्थली का कर्ज जो मुझ पर था, वही उतार रहा हूँ... 
					मैं बद्रीप्रसादजी का बेटा हूँ जिन्होंने वर्षों पहले इसी नदी 
					में जलसमाधि ले ली थी... मैं नही चाहता आप लोग जल के बिना 
					समाधि लेने को मजबूर हो जायें और ये गाँव उजाड़ हो जाये...’’ 
					उसकी आँखें भर आयीं थीं। खुद को बदरीप्रसाद का बेटा कहने में 
					अब कतई शर्मिन्दगी नहीं हो रही थी।
 सब हैरत से उसे देख रहे थे। सरपंचजी आश्चर्यचकित थे...
 थोड़ा रुककर वह बोला,‘‘ आप लोगों का जो भी निर्णय हो मुझे कल 
					सुबह तक बता देना...’’ कहकर वह अपनी गाड़ी की ओर चल दिया।
 |