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					 और 
					जीजा जी से अलग अलग बात की थी। पर पता नहीं क्यों लगा कि दीदी 
					ऐसे ही हाँ हाँ कर रही हैं...आने का या मिलने का कोई उत्साह 
					नहीं था उसमें।कपूरथला कितना तो नज़दीक है यहाँ से, कहे तो लेने 
					के लिए गाड़ी भेज देता हूँ पर पहले अपना प्रोग्राम तो बनाएँ वह 
					लोग।पता नहीं क्या हो गया है दीदी को...कैसी तो हो गयी है।’’ 
					उसकी आवाज़ में खिजलाहट 
					थी। कुछ देर वह चुप रहा था फिर बड़ी आज़िज़ी से बोला था ‘‘तुम्ही 
					उनसे बात करो माँ’’ 
 अच्छा कह कर मैं चुप हो गयी थी। इससे ज़्यादा और कहा भी क्या 
					जा सकता था। फोन रख कर मैं देर तक उलझन में रही थी। मन पर बोझा 
					बना रहा था। मैं जानती हूँ कि दीपा ने अपने आप को अजब तरह से 
					अपने आप में बंद कर लिया है। कभी कभी लगने लगता है जैसे उस तक 
					पहुँचने के सारे रास्ते बंद हो गए हों। लगता है जैसे हमसे एक 
					औपचारिक से अपनेपन का रिश्ता भर रह गया है उसका...बस। जब मैं 
					माँ हो कर उस दूरी को नहीं लाँघ पा रही तो बाकी सब की क्या 
					कहूँ। आदित्य, रुचि, दिव्या, आनन्द सब महसूस करते हैं उस दूरी 
					को और सब दुखी होते हैं। बस फर्क नहीं पड़ता है तो दीपा के पापा 
					को। उनसे इस विषय में कभी बात भी करना चाहो तो सब कुछ हवा में 
					उड़ा देते हैं ‘‘बेकार सोचने और परेशान होने की आदत है 
					तुम्हारी। अरे भई उसके बच्चे बड़े हो रहे हैं सो अपने घर 
					में...बच्चों की 
					पढ़ाई...उनके कैरियर में उलझ गयी है...और क्या। सभी के साथ तो 
					ऐसा होता है। ’’
 
 मैं चुप हो जाती हूँ। पर मैं जानती हूँ बात केवल उतनी ही नहीं 
					है। आदित्य और दिव्या भी कुछ कुछ वैसा ही महसूस करते हैं। दीपा 
					को लेकर हमारे पास केवल हमारे अनुमान रह गए थे...पर अनुमान के 
					सहारे रिश्ते नहीं चल पाते न...वह भी अपने ही बच्चों से। तब 
					लगने लगता जैसे रिश्ते घिसटने लगे हों। कभी लगने लगता कि शायद 
					उसे हमसे रिश्तों की ज़रूरत और इच्छा दोनों ख़तम हो गयी है...और 
					साथ ही लगता कि बहुत अकेली हो गयी है वह। उसका अकेलापन कभी कभी 
					मुझे एकदम अकेला बना देता है। दीपा मुझसे अपनी पीड़ा नहीं बाँट 
					पाती...मैं भी तो दीपा को लेकर अपनी पीड़ा किसी से नहीं बाँट 
					पाती ...उसके पापा तक से नहीं।
 
 00
 
 कुछ ही सालों में कितना कुछ बदल गया। अनेकों अर्थो में मैं 
					बहुत भाग्यवान हूँ... ज़िन्दगी ने ज़मीन से उठकर जैसे आसमान की 
					तरफ रुख कर लिया है ...फिर भी...फिर भी। सच कहूँ तो जीवन में 
					कभी सुखों दुखों का हिसाब नहीं किया था मैने...कभी ज़रूरत ही 
					नहीं लगी थी। हमेशा ही मेरे साथ ऐसा रहा कि कभी कोई ऐसा प्रसंग 
					आता तो वर्तमान बीते हुए जीवन से बेहतर लगता। एक बार कुछ ऐसा 
					ही बड़े भैया से कहा था तो हँसने लगे थे, कहने लगे ‘‘ऐसा होता 
					नहीं बेटा....असल में यह तुम्हारा सोचने का तरीका है। वैसे ऐसा 
					समझती हो तो अच्छा ही है’’ मैं चुप हो गयी थी। पर मैं 
					अच्छी तरह से जानती थी कि वह 
					केवल मेरी सोच ही नहीं मेरी ज़िंदगी का सच भी था।
 
 ....पिता जी बरेली की कचहरी में मुन्सरिम थे। पाँच भाई बहनों 
					में सबसे छोटी थी मैं। घर में सम्पन्नता नहीं थी पर वे सीमाएँ 
					हमारे लिए इतनी स्वभाविक थीं कि कभी अभाव की पीड़ा मन ने महसूस 
					नहीं की। अपने अभावों को न तो अभाव समझने की अकल थी...न उससे 
					ऊँचे सपने देखने की। शहर में ही अपने कई रिश्तेदार थे 
					...मामा,मौसी,चाचा,बुआ...सब कोई अपने ही जैसे। घर के पास में 
					जो स्कूल था उससे प्रायमरी की पढ़ाई कर ली...फिर पास के ही 
					कालेज से बी.ए.। जिस दिन फर्स्ट डिवीज़न का रिज़ल्ट आया था उस 
					दिन घर में बहुत ख़ुशी मनाई गयी थी। पिता जी दौड़े हुए मंन्दिर 
					जा कर प्रसाद चढ़ा आए थे...अम्मा ने सत्य नारायण की कथा कराई थी 
					और मेरा बी.एड. में दाखि़ला करा दिया गया था।
 बाईस साल की 
					उमर में एक अपने ही जैसे परिवार में शादी हो गयी थी। दो साल 
					बाद दीपा हुयी थी। दीपा के पापा लखनऊ की कचहरी में बाबू थे। 
					सैक्रटैरियट कालोनी में बाबूओं के लिए बने घर...पीछे एक छोटा 
					सा आँगन और सामने आठ दस फीट का एक छोटा सा लॉन। सब कुछ बहुत 
					अच्छा लगता...अपने साम्राज्य जैसा। बच्चे आगे पीछे के खुले 
					हिस्से में खेलते रहते। उसी घर में तीनों बच्चे पैदा हुए। शादी 
					के दो साल बाद दीपा...उसके चार साल बाद आदित्य,फिर उससे तीन 
					साल छोटी दिव्या। परिवार बढ़ता गया था और उस दो कमरे के घर में 
					सब के लिए जगह बनती गयी थी। मैने पास के एक प्रायमरी स्कूल में 
					नौकरी कर ली थी। कुल मिला कर ज़िदगी सफल और ख़ुशहाल ही लगती। शाम 
					को साथ होते तो हम लोगों के लिए करने को ढेरों बातें 
					होतीं...इनके पास आफिस की, मेरे और बच्चों के पास अपने अपने 
					स्कूल की। 
					 दीपा के पापा 
					लोअर डिवीज़न क्लर्क से अपर डिवीज़न हुए...फिर आफिस 
					सुपरिटैन्डैन्ट...और फिर इनका क्लास टू में प्रमोशन हो गया था 
					और अफसर बन कर तबादला। नई जगह हमें आफिसर्स कालोनी में रहने के 
					लिए एक छोटा सा बंगला मिला था...घर में फोन, मदद के लिए चपरासी 
					आने लगे थे। कहीं आने जाने के लिए गाहे बगाहे जीप भी मुहैया हो 
					जाती। हम सब की निम्न मध्यवर्गीय ज़िन्दगी जैसे हवा में उड़ने 
					लगी थी। लगा था अपने घर के आँगन में जैसे आसमान उतर आया हो और 
					मन में सपने अपने पंख फड़फड़ाने लगे हों। इनका ट्रान्सफर एक शहर 
					से दूसरे शहर होता रहा था। अपने आस पास कम उम्र के अफसर 
					दिखते...नए नए नौकरियों में आए हुए और मुझे अपने बच्चों की 
					पढ़ाई, उनका स्कूल जाना...उनको लेकर अपना सपने देखना, सब कुछ 
					योजना बद्ध लगने लगा था और अपनी माँ की भूमिका बेहद 
					सार्थक लगने लगी थी।
 000
 
 सुबह आदित्य का फोन फिर आया था ‘‘दीदी से क्या बात हुयी’’ उसने 
					पूछा था।
 ‘‘मैंने अभी बात नहीं की है’’ कहने पर वह झुँझलाने लगा था। 
					उसके फोन रखते ही मैंने दीपा को फोन किया था। उसकी वही टालने 
					वाली बातचीत और धीमें धीमें रुक रुक कर हॅसी। काफी देर तक उसे 
					समझाने, मनाने और डॉटने के बाद जैसे मैं मजबूर होने लगी 
					थी..‘‘तुम्हे घर की याद नहीं आती बेटा। मिलने का मन नहीं करता 
					?’’
 उसकी हँसी एकदम रुक गयी थी, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो माँ। आते तो 
					हैं तुम्हारे पास’’
 ‘‘भाई बहन से मिलने का मन नहीं करता बेटा। उनकी याद नहीं 
					आती।’’
 टेलिफोन के उस तरफ एकदम सन्नाटा हो गया था...लगा था उधर कोई 
					नहीं है...‘‘दीपा’’ मैने पूछा था।
 ‘‘हाँ माँ’’
 मैंने फिर वही सवाल पूछा था। लगा था वह एक क्षण को झिझकी है 
					फिर लगा था जैसे उसकी आवाज़ में आँसू तैर गए हों...फिर बिना 
					किसी लाग लपेट के उसने सीधा सा जवाब दिया था, ‘‘नहीं माँ। सच 
					मुझे किसी की याद नहीं आती। बस उन दोनों को लेकर एक ही बात 
					रहती है मन में कि दोनों स्वस्थ रहें, उनकी नौकरी बनी रहे। इन 
					दोनों बातों से बहुत डर 
					लगता है मुझे। अगर वे दोनों ठीक हैं तो मुझे उनकी याद नहीं 
					आती...सच में नहीं आती।’’
 
 मैं एकदम स्तब्ध रह गयी थी...मेरे लिए आगे बोलने के लिए जैसे 
					कुछ भी नहीं बचा था फिर भी मैंने बात को आगे बढ़ाया था, ‘‘वह 
					दोनों तुम्हे बहुत याद करते हैं दीपा।’’
 ‘‘उनसे कहो मैं एकदम ठीक हूँ माँ। मेरे लिए परेशान न हुआ 
					करें।’’ ठंडी शिला सी सर्द आवाज़। लगा था दीपा नें जैसे पूरी 
					बातचीत पर पूर्ण विराम लगा दिया हो। मन में बहुत सी बातें उमड़ी 
					थीं। मेरे पास कहने और पूछने के लिए बहुत कुछ था पर मैं चुप हो 
					गयी थी। आगे कुछ बोलने की हिम्मत ही नही पड़ी थी जैसे। दीपा यह 
					कैसी सजा दे रही है मुझे, अपने आप को भी।
 
 प्रतिभा दीपा की बहुत अच्छी दोस्त है। बचपन से लेकर कम्पटीशन्स 
					की तैयारी तक दोनों साथ पढ़े हैं। दीपा की शादी के एक दिन पहले 
					मेरे साथ उसका बक्सा ठीक कराती रही थी। अचानक उसके स्वर सहित 
					उसके चेहरे पर शिकायत आ 
					गयी थी ‘‘ आण्टी आपको दीपा की शादी की इतनी क्या हड़बड़ी थी।’’
 
 मैनें उसकी तरफ चौंक कर देखा था, ‘‘सैटिल तो करना ही होता है 
					बेटा। दीपा अगले महीने तीस साल की हो जाएगी।’’
 ‘‘सैटिल’’ वह फीका सा हॅसी थी ‘‘क्या उसे ग्रो करने का पूरा 
					मौका नहीं मिलना चाहिए था आण्टी ? अभी तक तो वह सारा समय 
					कम्पटीशन्स की तैयारी को ही देती रही थी। अब रिसर्च कर रही थी, 
					सैटिल तो वह अपनी काब्लियत से ही हो जाती।’’ वह कुछ क्षण झिझकी 
					थी, ‘‘क्या शादी ही सब कुछ है ? क्या सही मायनों में सैटिल हो 
					जाना है? वह दो बार आई.ए.एस.रिटिन में निकल जाना छोटी बात थी 
					क्या ? आदित्य आई. ए. एस. बन गया...पर सोचिए आण्टी सही बात तो 
					यही है कि दोनो के बीच सिर्फ एक कदम का ही तो फासला रह गया न। 
					उसके लिए उसे इतनी बड़ी सजा। आपने 
					तो उसे एकदम घर गृहस्थी की ज़िदगी 
					में धकेल दिया...वह भी एकदम लोअर मिडिल क्लास।’’
 
 मैं स्तब्ध सी प्रतिभा की तरफ देखती रही थी। क्या उसकी ज़़ु़बान 
					से स्वयं दीपा अपने मन की पीड़ा कह रही थी। पर अब क्या करू ?अब 
					कुछ भी सोचने, कहने या करने का समय निकल चुका था। असल में सब 
					कुछ इतनी हड़बड़ी में हुआ था कि मैने तो बस दीपा की हाँ ले ली 
					थी। उसका मन टटोलने की...सच कहूँ तो अपना भी मन टटोलने का समय 
					ही कहाँ मिला था...या शायद उस समय मुझे भी सब ठीक सा ही लगा 
					था। उन दिनों घर में एक अजब सी उत्तेजना और हड़बड़ी फैल गयी थी। 
					आदित्य के आई.ए.एस.में आ जाने की ख़ुशी...उससे फैला 
					हंगामा...रिश्ते लेकर आने वालों की 
					भीड़...दीपा की शादी से पहले 
					आदित्य का अपनी शादी की बात तक करने से इन्कार...सुरेन्द्र के 
					परिवार की तरफ से जल्दी शादी का दबाव और हम लोगों की 
					अनुभवहीनता...सब कुछ मिला कर दीपा की शादी हड़बड़ी में हो गयी 
					थी।
 
 फेरे पूरे होते तक भोर का सूरज उठ आया था। सुरेन्द्र की बहन ने 
					विदा में दीपा को पहनाने के लिए साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ा दी 
					थी। साड़ी देख कर दिव्या जैसे बौखला गयी थी और मुझे खेंचते हुए 
					कमरे के बाहर ले गयी थी...‘‘जून की इस सड़ी गर्मी में दीदी 
					आर्टिफिशियल सिल्क की बनारसी साड़ी पहन कर विदा होगी’’ उसके 
					स्वर में दुख है, ‘‘माँ मैं और आदित्य तो बाहर थे...पर तुमने 
					कुछ तो देखा होता दीदी के लिए...ऐसे धकेल दिया उसे...हाउ कुड 
					यू माँ’’ उसकी दोनों आँखो से कई धार ऑसू बहने लगे थे। मैं 
					जानती थी कि वह बिलख कर रोना सिर्फ बहन की विदा का रोना भर
					नहीं था।
 
 क्या जवाब दू दिव्या को। आजकल तो मेरा मन हर पल अपने आप से 
					सवाल करता रहता है...ऐसा मैंने क्यों होने दिया। दीपा के पापा 
					की ज़िद्द के आगे ऐसे क्यों हथियार डाल दिए मैंने। उनको 
					सुरेन्द्र ठीक लगे थे...फिर उनका वही तर्क ‘‘न आपको रूप, न बाप 
					को पैसा। असल में घर बैठे आसानी से यह मैच हमें मिल रहा है 
					इसलिए हमें समझ नहीं आ रहा है। कहाँ से लाऐंगे इससे बेहतर मैच। 
					खा तो रहे हैं शादी ठहराने के लिए पूरे एक साल से धक्के। फोटो 
					और कैश के सवाल पर ही बात ठप्प हो जाती है। फिर उमर भी तो निकल 
					रही है। हम भी तो क्लास थ्री ही तो थे...हमारी ज़िदगी भी ठीक 
					ठाक कटी...कहो अच्छी कटी। ख़ुद भी ख़ुश रहे...बीवी बच्चे भी। 
					बच्चों को भी पढ़ा लिखा लिया,सैटिल कर लिया। क्या सबको अफसर ही 
					मिल जाते हैं ऐसे। वैसे भी लड़का रेलवे में है...डिपार्टमैंटल 
					परीक्षाएँ पास कर लेगा तो जल्दी ही अफसर बन जाएगा।’’ मैं 
					निरूत्तर हो गयी थी। सच कहूँ तो उनका कोई तर्क उस समय एकदम ग़लत 
					भी नहीं लगा था। फिर भी दीपा के लिए मन बहुत बेचैन था। मैं कतई 
					भी नहीं समझ पा रही थी कि उसके लिए क्या ग़लत है और क्या सही। 
					उस समय यह ध्यान में भी नहीं आया था...कि हमारे भाई आई.ए.एस. 
					नहीं थे, हम स्वयं उसकी लिखित परीक्षा में सफल नहीं हुए 
					थे...हमारे पास न उतनी लियाकत थी, न उतने ऊँचे सपने। अपने 
					चारों तरफ हमने वह स्वाद 
					नहीं जाना था। हमारे भाई बहन, पड़ोस सब हमारे जैसे ही तो थे।
 
 दीपा की शादी तय हो गयी थी... फिर शगुन। तारीख भी पक्की हो गयी 
					थी और कार्ड छप कर बॅटना शुरू हो गए थे। यह कैसी शादी हो रही 
					थी कि न दुल्हन के चेहरे पर खुशी थी, न उसकी माँ के चेहरे पर। 
					सच बात यह है कि मैं रिश्ता तय होने के दिन से ले कर बारात आने 
					के क्षण तक मनाती रही थी कि किसी तरह से यह शादी टूट जाए। मैं 
					यह बात भी बाद में समझ पायी थी कि उन दिनों ये आदित्य की सफलता 
					से बेहद उत्तेजित थे और दिव्या के प्रति आशावान...दीपा की हार 
					का मातम मनाने का समय उनके पास नहीं था...उसके लिए और रास्ते 
					तलाशने का उछाह भी नहीं। और मैं? दीपा की पराजय से पूरी तरह 
					पराजित। अभी तक मैं एकदम आसमान की तरफ देखती रही थी...वह नहीं 
					मिला तो मैं तो एकदम धरती पर आ गयी थी...मैंने तो सोचा ही नहीं 
					कि धरती और आकाश के बीच में भी बहुत कुछ था...कम से कम उसके 
					लिए थोड़ा सा और समय हम दीपा को दे सकते थे ।
 
 दिव्या फूट फूट कर रोती रही थी...‘‘दीदी कैसे मान गयी माँ’’
 
 क्या कहूँ मैं... दीपा तो बचपन से ही ऐसी थी...उसके हाथ का 
					खिलौना भी किसी को दे दो तब भी कोई शिकायत नहीं। पर 
					खिलौने और ज़िन्दगी में तो फर्क होता है न। मैंने ऐसा क्यों 
					होने दिया...
 
 000
 
 आज यह भी लगता है कि रुचि, आन्नद और दिव्या ...ये तीनों रेलवे 
					में ही अफसर न होते तो शायद दीपा इस परिवार से इस तरह टूट न 
					गयी होती। आज यह सोच कर तकलीफ होती है कि दिव्या को रेलवे लेने 
					की राय क्यों दी थी हमने...आदित्य ने तो शादी का अन्तिम निर्णय 
					हमारे ऊपर छोड़ा था तब हमने रेलवे अफसर ही क्यों चुन ली....और 
					सर्विसेस से भी मैच आए थे। पर अब कुछ कहने...या सोचने.. या नए 
					नए मुद्दे बनाने से क्या लाभ ? घड़ी की सुइयों को लौटा कर अपना 
					कोई निर्णय बदला नहीं जा सकता...न दीपा के जीवन को किसी और ढंग 
					से गढ़ा जा सकता है। दीपा जहाँ है...जैसी है...रिश्तों के जिस 
					चक्रव्यूह में घिरी है वहाँ से उसे बाहर निकालने की बात मैं 
					सोच भी नहीं सकती...वैसा तो सोचना तक गुनाह लगता है। सुरेन्द्र 
					जैसा सीधा,सरल और सज्जन व्यत्ति...कोई उलझाव नहीं...कितना तो 
					प्यार करते हैं वह दीपा को। ‘‘पर सिर्फ प्यार से ही तो ज़िदगी 
					संवर नहीं जाती...प्यार तो कभी कभी गले में पड़ा हुआ फंदा भी हो 
					सकता है, बेहद मजबूर...ऐसा लगे कि दम घुट रहा है। पूरी साँस 
					लेने के लिए ऐसे में कहीं चला जाए इंसान..पर कैसे ?’’ बहुत साल 
					पहले मुझसे दीपा ही ने कुछ ऐसा कहा था। तब वह मित्रों की तरह 
					मुझसे काफी बातें कर लेती 
					थी...अपना सुख...अपना दुख...अपनी हताशा...अपना आक्रोश, सब कुछ।
 
 उन दिनों वह अजब तरह से उलझी सी रहने लगी थी...कभी सुरेन्द्र 
					के लिए अतिरिक्त रूप से संवेदनशील...वह आने वाले होते तो बार 
					बार खिड़की से झाँक कर आहट लेती रहती।...कभी एकदम कटी कटी 
					सी...जैसे उनके सामीप्य से कतरा रही हो। मेरे पास आती तो अक्सर 
					उसके चेहरे पर फैले सन्नाटे को देख मुझे डर लगने लगता। कभी 
					मेरी ज़रा सी बात पर भड़क जाती ‘‘माँ तुम लोगों ने तो मेरी सफलता 
					के सारे रास्ते ही बन्द कर दिए। अलीगढ़ में रहती तो शायद किसी 
					दिन मेरी यूनिवर्सिटी में नौकरी ही लग जाती। पार्ट टाइम पढ़ा 
					रही थी वहाँ...कितने ही पार्ट टाइम रैगुलराइस हो गए। यहाँ 
					प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही हूँ...दूर दूर तक कोई तरक्की 
					नहीं...कोई स्टेटस नहीं।’’ कभी बड़ा मजबूर सा सवाल पूछती ‘‘शादी 
					इतनी ज़रूरी चीज़ थी माँ...मैं तो नहीं करना चाहती थी...फिर 
					क्यों कर दी’’ और कभी उसके स्वर में आक्रोश भर जाता‘‘पापा को 
					मुझे सैटिल करने की जल्दी थी या आदित्य के लिए रास्ता खुलने 
					की’’वह बड़बड़ाई थी ‘‘आदित्य ने भी बड़ी महानता ओढ़ ली थी कि दीदी 
					की शादी से पहले शादी की बात भी नहीं करूगा। अपना फर्ज़ पूरा कर 
					लिया...दीदी कहाँ जा रही है...कहाँ फेकी जा रही है किसी बात से 
					मतलब नहीं था उसे। या सोच लिया था उसने भी पापा की तरह कि दीपा 
					तो है ही इन्फिरियर।’’एक समय ऐसा आया था कि मुझे लगने लगा था 
					कि दीपा सबसे नाराज़ है...अपने पापा से, मुझसे, आदित्य से, छोटी 
					होते हुए भी दिव्या तक से। उसके स्वर में सबके लिए रोष झलकने 
					लगा था। मुझे दीपा से डर जैसा लगने लगा था...उसके लिए चिन्ता 
					भी रहने लगी थी। लगने लगा था कि वह आत्म दया में 
					जीने लगी है...मुझे पता था यह 
					उसके लिए स्वस्थ नहीं है...उसके परिवार के लिए भी नहीं।
 
 कभी कभी दीपा को ले कर इतना हताश होता है मन कि लगने लगता है 
					कि काश हमने उतने ऊँचे सपने देखना शुरू न किया होता...आदित्य 
					और दिव्या भी न निकले होते इतनी अच्छी नौकरियों में तो कम से 
					कम मेरी दीपा तो यों अकेली न छूट गयी होती। अगले ही क्षण मैं 
					जैसे अपनी ही सोच से डर जाती...जैसे उन दोनों का कोई अपशकुन 
					चाहा हो मैंने। कुछ ऐसा ही एक बार दिव्या ने भी तो कहा था 
					मुझसे...काफी देर तक दीपा की बात करती रही थी फिर लगा था उसकी 
					आँखें पसीजने लगी हैं ‘‘ दीदी की बहुत याद आती है माँ। मेरे 
					पास तो सभी कुछ है...पैसा, पोज़ीशन, प्यार। पर अपनी हर ख़ुशी... 
					हर उपलब्धि पर ऐसा लगता रहता है जैसे कोई अपराध हो गया है 
					मुझसे। कितनी अधूरी सी हो गयी है 
					ज़िदगी।’’ उसकी आवाज़ भर्राने लगी 
					थी...‘‘इससे अच्छा तो बैठे ही न होते सर्विसेस में।’’
 
 मैं क्या कहूँ... मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है फिर भी 
					मैं देर तक उसे समझाती रही थी। दिव्या को अपनी बेचैनी बता कर 
					क्या करूँ...बाँटने से हर पीड़ा घट तो नहीं जाती। दिव्या जिस 
					दिन एलाइड्स में निकली थी तो दीपा अनायास बहुत याद आई 
					थी...सबसे पहले यह खुशख़बरी उसे ही देनी थी मुझे...पर मैं काफी 
					देर तक फोन पर हाथ रखे हुए चुपचाप खड़ी रही थी, जैसे बात करने 
					की हिम्मत जुटानी पड़ रही हो मुझे। उन दिनों काफी समय तक मुझे 
					यही लगता रहा था कि इससे अच्छा सुरेन्द्र दीपा को तंग करते 
					होते तो मैं अपनी लड़की वापिस ले आती। एक बार फिर उसके 
					सामने तरक्की के ...अपनी इच्छा से जीने के रास्ते खोल देती... 
					पर सब कुछ इतना आसान तो नहीं होता।
 
 000
 
 दीपा की शादी के करीब दस साल बाद मैं पहली बार उसके घर गयी थी। 
					उसके घर जाने की बात कभी दिमाग में ही नहीं आई थी...जब कभी 
					उसकी बहुत याद आती तो उसे ही बुला लेती थी। पर दिव्या अपनी 
					शादी के कुछ ही महीनों के अन्दर एक तरह से घसीट कर मुझे अपने 
					साथ ले गयी थी...उसने मेरी किसी बात को सुना ही नहीं था...। 
					बिना किसी मौके के...बिना किसी काम के बेटी के घर जाने की बात 
					ही मुझे अटपटी लगी थी। मेरी अपनी माँ अपने पूरे जीवन में केवल 
					दो बार मेरे घर आई थीं...दीपा और आदित्य की शादी में। दिव्या 
					की शादी में वह जीवित नहीं थीं। पर दिव्या नहीं मानी 
					थी...‘‘कैसी माँ हो तुम...अपनी बेटी का घर देखने की इच्छा नहीं 
					होती तुम्हारी?’’दिव्या के घर जा कर सच में बहुत अच्छा लगा था। 
					लगा था उनके घर रह कर मैंने आनन्द को पहली बार जाना है। कुछ ही 
					दिनों में उनसे एक अपनेपन का रिश्ता बन गया था। तब इतने सालों 
					तक कभी दीपा के घर न जाने की बात सोच कर अजब सा दुख हुआ था 
					...लगा था दीपा को इतने सालों तक ऐसे कैसे छोड़ दिया मैंने...यह 
					भी लगा था कि इतने सालों में भी सुरेन्द्र को तो 
					अभी तक मैंने जाना ही नहीं।
 
 दीपा के घर गयी थी। रेलवे की बहुत बड़ी कालोनी...अंदर जाती कई 
					सारी पतली सड़कें... उनके दोनो ओर बने एक से घर...मिले मिले। 
					मेरा अपना आधे से अधिक जीवन ऐसे ही घरों में बीता है। तब यही 
					सब बहुत अच्छा...बहुत सुविधा जनक लगता था...दो कमरों के छोटे 
					छोटे घर...पीछे एक आँगन...आगे छोटा सा लॉन...घर में एकाध आम 
					अमरूद के पेड़..आस पास सब अपने साथ के, अपने पहचान के लोग। और 
					क्या चाहिए। पर अब यही सब बेहद उदास...बेहद फींका लगता है। इस 
					सबके बीच अपनी दीपा को पा कर एक अजब सी पीड़ा होती है....आदित्य 
					और दिव्या के घर याद आते हैं...उन दोनों का रहन सहन का तरीका 
					और सलीका। उन दोनों के घरों में सब कुछ होते हुए भी कितना कुछ 
					तो मैं बता और सुझा देती हूँ...पर यहाँ तो दीपा से बात करते 
					हुए भी डर लगता है...पता नहीं किस बात पर उसके चेहरे पर 
					झुँझलाहट तैरने लगती है और किस 
					बात पर हताशा।
 
 उस दिन मैं अकेले ही टहलने के लिए निकल गयी थी...लगा था इतने 
					दिनों से बैठे बैठे हाथ पैर जम जैसे गए हैं। मैं काफी दूर तक 
					निकल गयी थी। दो लेन छोड़ कर मैं बाएँ हाथ को उस पतली सी सड़क पर 
					मुड़ गयी थी। इस तरफ बने मकानों का नक्शा एकदम दीपा के मकानों 
					जैसा ही लगा था ..पर पता नहीं क्यों वह मकान साफ सुथरे और 
					बेहतर लगे थे। लौट कर आ कर दीपा से कही थी यह बात तो क्षण भर 
					के लिए चुप रही थी वह फिर उसने मेरी तरफ देखा था ‘‘हाँ 
					माँ...आफिसर्स के लिए घर कम पड़ रहे थे तो उस लेन के घरों में 
					अफसर रह रहे हैं...सो वे घर बेहतर मेन्टेन्ड हैं और उनमें एक 
					कमरा और बना दिया गया है।’’
 
 ‘‘अच्छा’’ कह कर मैं चुप हो गयी थी। वह एक साधारण सा सवाल था 
					जिसका दीपा ने सीधा सा जवाब दे दिया था...पर न जाने क्यों मैं 
					खिसिया सा गयी थी...और न जाने क्यों लगा था कि दीपा खिन्न सी 
					हो गयी है। हो सकता है वह मेरे 
					मन का भ्रम ही रहा हो। पर कौन 
					जाने...
 
 वैसे इस बार मिलने पर मुझे लगा था कि दीपा ठीक है...उसने अपने 
					आप को एकदम संभाल लिया है...शायद खु़श भी है वह। बच्चों की 
					पढ़ाई में जुटी है ...अपने सपनों को अपने बच्चों में साकार करना 
					चाहती है। मैं भी तो यही चाहती थी। ईश्वर उसके बच्चों को वह सब 
					कुछ दे जो वह पाना चाहती थी, किन्तु नहीं पा सकी। मैं जानती थी 
					कि दीपा बहुत समझदार है...बहुत सहनशील भी। पर साथ ही मुझे यह 
					भी लगा था कि वह पूरी तरह से अपने आप में सिमट गयी है...वह और 
					उसका परिवार...बस। वह हमारी पहुच के परे चली गयी है...एकदम 
					अपनी दुनिया में बंद। वैसे सब ठीक जैसा ही तो है...सीधे सादे 
					हैं सुरेन्द्र...दीपा का ख़्याल करते हैं....शिकायत जैसा तो कुछ 
					भी नहीं। फिर भी दीपा के लिए एक कसक बनी रही थी मन में...कितना 
					तो काम पड़ता है उस पर। सुबह अंधेरे उठ कर घर का काम 
					निबटाना...फिर जल्दी से उल्टा सीधा तैयार हो कर स्कूल चली जाती 
					है।
 दुपहर को कुछ 
					समय मिलता जब उसके बगल के पलंग पर लेट कर हम लोग 
					बतियाते,...बच्चों की पढ़ाई...उनके रिज़ल्ट...उनकी हारी बीमारी 
					के बारे में छिटपुट बातें...जैसे अपनेपन का कोई सेतु तैयार 
					करने की कोशिश करनी पड़ रही हो उसे। बातचीत में कभी व्यक्तिगत 
					मुद्दे पर नहीं आती वह...आना ही नहीं चाहती। कभी लगता सहज 
					स्वभाविक ढंग से कोई संवाद संभव नहीं हो पा रहा। बातों को 
					खींचना पड़ रहा है...उसे भी...मुझे भी। कितनी बार मन आया था कि 
					दीपा से सुरेन्द्र की विभागीय परीक्षाओं के बारे में या फिर 
					उनके प्रमोशन की संभावनाओं के बारे में पूछूं पर कभी साहस ही 
					नहीं पड़ा था। बहुत साल पहले एक बार बात की थी इस बारे में तो 
					बड़ा तीखा सा जवाब दिया था उसने ‘‘माँ मेरे बारे में सपने देखना 
					छोड़ दो तुम लोग। सुरेन्द्र ने अपने बारे में जितना बताया था और 
					जो कुछ बताया था वह एकदम सच था...वे उतने और उस जगह पर हैं। 
					उससे ज्यादा बनने का दबाव उन पर हम कैसे डाल सकते हैं।’’ उसके 
					बाद वह काफी समय तक सुस्त और गुम्म सी रही थी।
 दस दिन रह कर मैं आ गयी थी। पर दीपा के लिए एक कसक मन में बनी 
					रही थी। थोड़े से नम्बरों की गिन्ती ने उसके 
					जीवन की दिशा ही बदल दी जैसे...मेरे सुख की सीमा भी तय कर दी 
					जैसे।
 
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 आजकल आदित्य के घर में ख़ूब रौनक है। दिव्या के दोनों बच्चे 
					छोटे ही हैं अभी...अन्दर बाहर दौड़ते खेलते रहते हैं। आदित्य के 
					बच्चे कुछ न कुछ कहानी किस्से सुनाते रहते हैं...स्कूल 
					के...दोस्तों के...टीचर्स और अपने मम्मी पापा के। पिछले सालों 
					की तरह दीपा और उसका परिवार इस बार भी नहीं आया है। ये हमेशा 
					की तरह बेहद खुश...बेहद उत्तेजित लगते हैं...किसी सृष्टि 
					विजेता जैसे।
 
 रुचि नें लंच पर कुछ रेलवे अफसरों को बुलाया था...शायद आनन्द 
					और दिव्या आए हैं ,इसलिए। रुचि और आनन्द एक ही बैच के 
					हैं...दिव्या इन दोनों से तीन साल जूनियर है। दो तीन दिव्या के 
					बैच मेट्स और कुछ रुचि के कलिग्स आए थे। दिव्या के कोई मित्र 
					अभी दो तीन महीने पहले ही यहाँ आए हैं...अभी तक उन्हें घर नहीं 
					मिल पाया है...इसलिए ख़ाली घर या ख़ाली होने वाले घरों की बात 
					होती रही थी...तभी किसी ने कहा था..‘‘नहीं वह घर एकदम बेकार 
					हैं, वह मत लेना...उसके 
					दोनों तरफ के घरों में प्रमोटीस रह रहे हैं।’’
 
 दिव्या मेरी बेटी है...सोचने और महसूस करने वाली...फिर उसका 
					अपना अतीत भी तो कहीं वहीं से जुड़ा हुआ है। वह सिमट सी गयी 
					थी...उसने उस प्रसंग को काफी टालना चाहा था...पर बात चीत काफी 
					देर तक उसी विषय पर अटकी रही थी ।
 
 ‘‘इन लोगों को रहने की तमीज़ नहीं होती’’ किसी एक ने कहा था।
 
 किसी दूसरे ने टिप्पणी दी 
					थी, ‘‘वह हैं तो मिसेस सियाल, उनके सारे अनाज मसाले, कपड़े 
					सामने के लॉन में ही सूखते हैं।’’
 
 मेरे मन में रोष पनपने लगा था। मिसेस दीक्षित की याद आई 
					थी...पति आई.आर.एस. और स्वयं भी हाई कोर्ट जज की बेटी। रहने, 
					सहने, चलने, बोलने किसी की तमीज़ नहीं। इन में से भी एक अफसर के 
					तो घर भी जा चुकी हूँ मैं...इतना बढ़ बढ़ कर बोल रही 
					हैं...प्यालों में रैडीमेड चाय, आधी ट्रे में झलकी हुयी लेकर 
					नौकर एकदम सिर पर खड़ा हो गया था। हूँह...सारा क्लास तो इन 
					डायरैक्ट अफसरों की बपौती है जैसे। पर मैं चुप रही थी। दिव्या 
					मेरी बेटी है...मेरी ज़िदगी का हिस्सा...पर न जाने क्यों अपने 
					ही बच्चों के सामने अजब शर्म सी महसूस हुयी थी।...दीपा के पापा 
					का प्रमोशन...अपनी कोठी बंगलों में रहने की ख़ुशी भी याद करके 
					बड़ी दीनता भरी लगी थी। दीपा बहुत ज़्यादा याद आई थी...मन मे 
					उसके लिए बेहद पीड़ा हुई थी...सुरेन्द्र तो अभी प्रमोटेड भी 
					नहीं हैं। अचानक लगा था कभी दीपा के सामने ऐसी कोई बात हुयी है 
					क्या जो इन भाई बहन के यहाँ..और इनकी मौजूदगी में मेरे यहाँ 
					आना ही नहीं चाहती, पर मैं आदित्य, रुचि, आनन्द, दिव्या चारों 
					को जानती हूँ...वे कुछ भी ऐसा कह और कर नहीं सकते जिससे दीपा 
					के सम्मान को ठेस लगे। किन्तु अपमान केवल अपमानित किए जाने ही 
					से तो नहीं होता...वह तो कभी कभी अतिरिक्त सम्मान से भी होता 
					है। आज सोचती हूँ तो दीपा का न आना...भाई बहन से दूरी बनाए 
					रखना समझ आने लगता है। आप स्वयं जिस भीड़ का हिस्सा ही न बन 
					पाओ...चाहे ग़लती किसी की भी न हो...तो वहाँ जाने से क्या 
					फायदा। लगता है शायद सही है वह। ....पर किसी के...या सबके सही 
					होने से ही स्थितियाँ तो सही नहीं हो जाती...उससे कोई तसल्ली 
					भी नहीं मिलती।...रिश्तों की पीड़ा तो बनी ही रहती है...मन पर 
					लगी खरौचें भी रिसती ही रहती हैं...भले ही सब मल्हम लगाने
					को तैयार हों।
 
 उस पूरी रात मैं सो नहीं पायी थी...लगता ज़िन्दगी की दौड़ में सब 
					तो आगे निकल गए...मेरी दीपा बेचारी कहीं अकेली छूट गई...जैसे 
					बेसहारा...तन्हा। मन में अजब बेचैनी सी बनी रही थी। आँखें बंद 
					करती तो लगता दीपा अंधेरे में बैठी है...अकेली। आँखो के आगे 
					खिंची उस तस्वीर को हटाती तो मन की स्लेट पर वह छवि दुबारा 
					खिंच जाती। मैं जानती हूँ कि दीपा अकेली नहीं है...सुरेन्द्र 
					और बच्चे हैं उसके साथ...वहाँ अंधेरा भी नहीं है...कोई सन्नाटा 
					भी नहीं...वहाँ भी दीए जलेंगे...पटाखे छूटेंगे...हंसी खुशी सब 
					कुछ होगी वहाँ। पर क्या करू कोशिश कर के थक गयी वह चित्र आँखो 
					के आगे से हटता ही नहीं। अचानक लगता है दीपा की ज़िन्दगी 
					में...उसके उल्लास और हताशा में...उसके अंधेरे और उजाले में 
					मेरा सम्मिलित होना बेहद अनिवार्य है। मन में एक निर्णय पनपता 
					है कि कल की दीवाली मैं दीपा और उसके परिवार के साथ ही 
					मनाऊँगी। अपने ऊपर आश्चर्य होता है कि इतने वर्षो से यह बात 
					मेरे दिमाग में क्यों कभी नहीं आई थी...ऐसे कैसे मैने उसे पूरे 
					परिवार से अलग छूट जाने दिया। वह नहीं आई तो क्या, मैं तो उसके 
					पास पहुँच सकती हूँ। इस निर्णय से अजब सा सुकून महसूस किया था 
					मैंने...और मुझे नींद आ गयी थी।
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