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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
सुमति सक्सेना लाल की कहानी— विस्थापित


आदित्य का फोन आया था...अपनी दिल्ली की पोस्टिंग से बहुत ख़ुश है वह। काफी सालों तक उत्तर प्रदेश से दूर प्रांत में रहने के बाद दिल्ली आ गया है...अलीगढ़ से कुछ ही घंटों का तो रास्ता है...फिर अब की से उसे घर बहुत ही बढ़िया मिला है...वैल मेन्टेन्ड। चाहता है कि दिवाली सब लोग उसके घर पर मनाएँ। कह रहा था ख़ूब जश्न रहेगा ...पिछले साल हम लोग दीवाली पर इकट्ठा भी नहीं हो पाए हैं। मुझे भी यह कार्यक्रम सही लगा था.. इधर कुछ समय से बच्चे यह जमावड़ा अपने घर पर करने लगे हैं...कभी आदित्य..कभी दिव्या।

आदित्य बता रहा था कि उसने दिव्या और दीपा दी दोनों से बात कर ली है।
दिव्या बहुत खुश है इस प्रोग्राम से। उसका दिल्ली के आस पास की जगह घूमने का मन है । आदित्य चाहता है कि कम से कम हफ्ते दस दिन का प्रोग्राम बना लें यह दोनों तो आगरा, मथुरा, भरतपुर, जयपुर घूमने भी चला जा सकता है। ख़ूब बढ़िया फैमिली गैट टुगैदर रहेगा...साथ में घूमना। पर दीपा को लेकर परेशान था। कह रहा था ‘‘दीदी का कुछ समझ ही नहीं आता...मुझे लग रहा है कि कहीं इस बार भी डिच न कर दें...अजब टाल मटोल वाली मुद्रा में बात करने लगीं हैं दीदी’’
‘‘सुरेन्द्र से बात की’’ मैंने पूछा था।
‘‘कैसी बात करती हो मॉ...यह भी कोई कहने की बात है। मैंने और रूचि ने उनसे

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