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					 सर, 
					लखीमपुर प्रोजेक्ट में बादल फटने 
					से सैंकड़ों मजदूरों के बहने की है। सूचना है मैं वहाँ के लिए 
					निकल रहा हूँ। संपादक जी बोले, "यह बहुत बड़ी घटना है सभी 
					संस्करणों में जाएगी मुख्य खबर के साथ-साथ साईड स्टोरी, 
					प्रोजेक्ट प्रबंधन की मजदूरों की सुरक्षा के इंतजामों की पोल 
					खोलने वाली स्टोरी व प्रशासन व सरकार की इसमें लापरवाही पर 
					स्टोरी भी चाहिए। हाँ फोटो भी अच्छे होने चाहिए और हो सके तो 
					एक स्टोरी मानवीय पक्ष पर केंद्रित करके करना। तुम निकलो मैं 
					तुम्हारे मोबाईल पर संपर्क रखूँगा। हाँ डेडलाईन के हिसाब से 
					वापिस अपने स्टेशन पर पहुँच कर स्टोरी फाईल कर देना।" संपादक जी के 
					निर्देशों को सुनते-सुनते राकेश लगातार जी सर, जी सर करता जा 
					रहा था। राकेश के लिहाज से यह न्यूज काफी महत्त्वपूर्ण थी 
					क्योंकि सैंकड़ो लोगों की मौत इससे जुड़ी हुई थी। फोटोग्राफर 
					अनिल को गाड़ी में बिठाकर राकेश ने ड्राईवर को कहा कि तेजी से 
					लखीमपुर प्रोजेक्ट साईट पर चलो। उधर फोटोग्राफर अनिल कुमार ने 
					पूछा, सर जी, न्यूज चैनलों पर भी इस खबर की पट्टी चल पड़ी है 
					कोई ४८ लोगों के मरने की बात कर रहा है तो कोई १५० सबकी खबर 
					अलग-अलग है। मेरे कैरियर में यह ऐसा पहला हादसा है जिसमें 
					सैंकड़ों लोग मरे हैं। अरे यार इतने लोग मरे हैं तो अखबार में 
					भी लीड खबर जाएगी और स्पेस भी अच्छा मिलेगा। तूं जैसे भी फोटो 
					खींच तेरे दो-तीन फोटो सभी संस्करणों में लगने ही हैं और ७-८ 
					फोटो तेरे प्रादेशिक संस्करण में लग जाएँगे। अनिल बोला सर जी, 
					मेरा नाम मुख्य संस्करण की फोटो पर जरूर लगवा देना। लग जाएगा 
					यार मैं संपादक जी से बात कर लूँगा तूं मेहनत भी तो कर रहा है, 
					राकेश ने कहा और सबसे बेहतर कवरेज देने की योजना अपने दिमाग 
					में बनाने लगा। 
					 बचपन में 
					किसी की लाश को देख डरने वाला राकेश अब हर खबर का वजन उसमें 
					मरने वाले लोगों की संख्या के साथ तोलता था। शायद वक्त के साथ 
					व रूटीन के काम में उसकी मानवीय संवेदनाएँ मर गई हैं। अखबारी 
					युग में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण राकेश के जहन में रोज 
					एक्सक्लूसिव न्यूज का चित्रण बना रहता था। वह रात को भी सोचता 
					रहता कि कल किस नेता या किस अधिकारी की पोल अखबार में खोली 
					जाए। रोजाना घोटाले उजागर करते-करते वह उकता गया था, लेकिन 
					बहरी सरकार के कानों में शीशा पिघलाकर वह नहीं डाल सका। सरकार 
					व प्रशासन कुछ घोटालों पर तो कार्यवाही के आदेश कर देते थे, 
					कुछ में चुप्पी साध लेते थे। खबरों की दुनिया में वह भी अब 
					सारे सामाजिक सरोकारों को भुलाकर केवल खबर की फिराक में ही 
					रहता था। उसकी खबर से चाहे समाज में बुराई फैले या फिर अच्छाई 
					इससे उसे कुछ लेना-देना नहीं था। पहले-पहल जब उसने अखबारी 
					दुनिया में प्रवेश किया तो वह अस्पताल व दुर्घटना की कवरेज 
					करने खुद न जाकर अपने किसी सहयोगी को भेज देता था, अगर वह 
					अस्पताल चला भी जाए तो डॉक्टर के कमरे में बैठ जाता था और उसके 
					कुलीग घायलों की सुध लेते थे। हाँ उसे खबर उनसे जरूर मिल जाती 
					थी। आज लंबे सफर के कारण राकेश के जहन में यह विचार कौंधने लगे 
					कि मैं पत्रकार पहले हूँ कि मानव। क्या मेरा समाज के साथ सिर्फ 
					वैसा ही नाता है जैसा कि अखबार व पत्रकार का। मैं क्या सनसनी 
					फैलाने के लिए ही इस धरती पर पैदा हुआ हूँ। ऐसे सवाल आज पहली 
					बार उसके दिमाग में टक्करें मार रहे थे। 
					 इतने में 
					गाड़ी लखीमपुर कस्बे में पहुँच गई जहाँ से लिंक रोड पर 
					प्रोजेक्ट साईट तक पहुँचना था। ड्राईवर बोला, जनाब किस तरफ 
					चलना है लखीमपुर तो यह है। इतने में अनिल को साथ लिए राकेश 
					थोड़ा आगे पहुँचा तो एक तरफ राहत कैम्प लगा हुआ था तो दूसरी 
					तरफ खाना बन रहा था। रिमझिम बारिश में ठिठुरते चेहरों पर दुख 
					की शिकन साफ नजर आ रही थी। घटना कहाँ हुई है और नुकसान क्या है 
					उसकी जानकारी राकेश ने राहत कैम्प से ली और टूटे पुल को पार कर 
					टनल साईट की तरफ चलने लगा। फोटोग्राफर अनिल भी फोटोग्राफी करता 
					हुआ उसके पीछे चलने लगा। रास्ते में बचा-खुचा सामान लेकर 
					रोते-बिलखते लोग भी उसे मिलते रहे। इंसानियत का तकाज़ा यह था 
					कि राकेश उन्हे थोड़ा दिलासा देता लेकिन नहीं वह तो एक पत्रकार 
					था उसे किसी के गम से ज्यादा अपनी खबर से लगाव था। इतने में 
					रास्ते में उसे कश्मीरी लेबर के कुछ आदमी रोते हुए दिखे बस इस 
					खबर को सरहदी आतंकवाद के मारे इन बेबस कश्मीरियों के साथ जोडकर 
					करने की योजना उसने मन ही मन में बना ली। 
					 राकेश ने 
					उनके साथ थोड़ी सी अधेड़ उम्र के एक शख्स को देखा और सवाल 
					दागने शुरू कर दिए। अशांत हो चुके कश्मीर से यहाँ काम को आए 
					मीर बख्श ने रोते हुए कहा, हमारे कश्मीर को तो किसी की नजर लग 
					गई परिवार को छोड़ हम यहाँ पर इसलिए आए थे कि दो पैसे कमा 
					सकें। लेकिन हमारी बुरी किस्मत की परछाई शायद यहाँ पर भी पड़ 
					गई। मैंने बेटी बानो के निकाह के लिए पिछले चार महीने से जो 
					पैसा जोड़ा था वह भी बाढ़ में बह गया। हमारे साथ आया शकील भाई 
					भी इस पानी में चला गया। मीर बख्श अब रोते-रोते हिचकियाँ लेने 
					लगा था और उसके साथ फटे कपड़ों में ठिठुरते हुए बाकि कश्मीरी 
					भी रोने लगे थे। लेकिन राकेश मन ही मन उनके रोने-धोने से खीझ 
					रहा था। लेकिन उसे तो खबर चाहिए थी सो उनकी बात सुनने से भी वह 
					टल नहीं सकता था। इतने में मीर बख्श के साथ खड़ा युवक तनवीर 
					अहमद बोल उठा, साब सब बर्बाद हो गया, शकील भाई मेरे गांव का था 
					उसके दस साल के बेटे के दिल में छेद है और दूसरी औलाद होने को 
					है। बेटे के ईलाज के बारे में वह रात भर मुझसे बातें करता रहा 
					लेकिन इस मनहूस रात ने कब मेरा दोस्त छीन लिया पता नहीं चला। 
					मैं रात के अंधेरे में उसे तलाशता रहा लेकिन वह कहीं नहीं 
					मिला। अभी-अभी कंपनी के बाबू जी ने बताया है कि शकील भाई की 
					लाश नीचे मिल गई है हम लोग कैम्प में जा रहे हैं। बारिश हटने 
					का नाम नहीं ले रही थी और राकेश को अभी भी एक अच्छी स्टोरी 
					मिलने की आस थी सो वह और आगे बढ़ गया। 
					एक पत्थर के नीचे अधेड़ से दिखने 
					वाला एक नेपाली पुरूष व एक महिला बैठे रो रहे थे। गम की तपिश 
					से शायद उन्हे ठंड महसूस नहीं हो रही थी। राकेश बोल उठा, अरे 
					आप नीचे कैम्प में जाकर कंबल वगैरह ले लो और कुछ राशन भी। 
					नेपाली रोते हुए बोला, साब जी हम कैसे जाएँ हमारा बेटा पत्थर 
					के नीचे दबा हुआ है उसे निकलवा दो भगवान आपका भला करेगा। राकेश 
					ने थोड़ा आगे होकर देखा तो एक चट्टाननुमा पत्थर के नीचे एक 
					युवक आधा दबा हुआ था उसकी टाँगें ही बाहर रह गईं थी। बाहर 
					निकली टाँगों से पैंट भी पानी के तेज बहाव के साथ बह गई थी। 
					इतनी बेदर्द मौत को देख हर कोई तौबा कर देता और भगवान को जरूर 
					कोसता। लेकिन ऐसा न कर राकेश ने नेपाली का बायोडाटा लेना शुरू 
					कर दिया। इतने में उसे कंबल बाँटता एक सरकारी कर्मचारी नजर आया 
					तो उसने इन दोनों ठिठुरते नेपालीयों को कंबल देने को कहा और 
					नंगी लाश को ढकने के लिए एक कंबल खुद ले लिया। इतने में अनिल 
					बोल उठा, सर जी चार बज गए हैं और हमें स्टेशन पर पहुँचना है। 
					राकेश जिसे एक पल के लिए उसके अंदर के मानव ने थोड़ा झिंझोड़ा 
					था वह एक दम से उठे पत्रकार के आगे खामोश हो गया और राकेश ने 
					नेपाली को कंबल देते हुए कहा, बाबा इसे अपने बेटे के ऊपर दे 
					देना। साब जी, मेरे बेटे को पत्थर के नीचे से निकलवा दो बस, 
					नेपाली रोते हुए बोला। इतने में उसकी बीवी भी रोते हुए बोली, 
					साब जी मेरे बेटे को जल्दी बाहर निकलवा दो कहीं उसका दम न घुट 
					जाए। राकेश ने कहा, मैं नीचे जाकर मशीन व कुछ आदमी भिजवाता 
					हूँ। 
					 राकेश व अनिल 
					अब तेजी से सडक़ की तरफ चल पड़े। राकेश को न तो इन लाशों से कोई 
					मतलब था और न ही बचे लोगों की सिसकियाँ उसके कानों को बेध पा 
					रही थीं। वह दिमाग में कवरेज का पूरा प्लॉन बनाने में मस्त था। 
					इतने में उसे जेसीबी मशीन से मलबे से नीचे दबी लाश निकालते 
					राहत कर्मी नजर आए तो वह रूक गया और उसने देखा जेसीबी मसीन से 
					लाश निकालते हुए उसकी एक टांग उखडऩे लगी थी। बस उसके अंदर का 
					पत्रकार जाग गया औ उसने तुरंत अनिल को फोटो खींचने की हिदायत 
					दे डाली। राकेश को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि इस कठिन 
					परिस्थिति में लाश किसी और ढंग से शायद कोई नहीं निकाल पाता। 
					लेकिन प्रशासन के खिलाफ लिखने को तो भी कुछ चाहिए बस उसे यह 
					मसाला भी मिल गया। राहत कैम्प में अब लाशों की संख्या दोगुनी 
					हो चुकी थी। रैस्ट-हाउस में ही राहत कैम्प बनाया गया था और 
					उसके आँगन में सफेद कपड़े में लिपटी कई लाशें थीं। अब यहाँ पर 
					केवल इलाका मैजिस्ट्रेट व पुलिस उपकप्तान ही थे। उनसे बातचीत 
					कर राकेश वापिस लौट पड़ा। जैसे ही वह मोबाईल की रेंज में 
					पहुँचा तो उसके आफिस से फोन आ गया, सर जी, संपादक जी के कई फोन 
					आ चुके हैं वह आपसे बात करना चाहते हैं। ठीक है मैं उन्हे फोन 
					करता हूँ, राकेश बोला। 
					 राकेश अभी 
					फोन मिला ही रहा था कि संपादक जी का फोन आ गया, राकेश तुम कहाँ 
					थे मैं कब से तुम्हे फोन लगा रहा हूँ। तुम्हें नहीं पता कि यह 
					न्यूज सभी संस्करणों में जानी है, इसे जल्दी भेजो। सुबह से 
					बिना कुछ खाये-पीये काम पर जुटा राकेश संपादक जी की इस बाते से 
					खिन्न हो उठा लेकिन बॉस के साथ नम्रता से बोला, सर, आपको तो 
					पता है कि मैं कितनी दूर कवरेज के लिए गया हूँ और घटनास्थल भी 
					चार किलोमीटर दूर था वहाँ तक हमें पैदल पहुँचना पड़ा है। मैं 
					दो घंटे में आफिस पहुँचकर आपको मेन न्यूज भेज रहा हूँ और फोटो 
					भी उसके बाद लोकल पेज के लिए कुछ स्टोरीयाँ फाईल कर दूँगा। ठीक 
					है जल्दी करो मैं ज्यादा इंतजार नहीं कर सकता, संपादक जी बोले 
					और उन्होने फोन काट दिया। पत्रकार के तौर पर मानवता से कोसों 
					मील दूर जा चुका राकेश अब अपने पेशे को घृणित समझते हुए सोचने 
					लगा मैं किसी दफ्तर में क्लर्क ही लग जाता तो ठीक होता। इतनी 
					मेहनत के बाद संपादक जी के एक फोन ने जो सारी किरकिरी कर दी 
					थी। इतने में उसके लोकल पत्रकार नारायण सिंह का फोन आ गया और 
					वह बोला सर, आपने जो कहा था मैं अस्पताल से भर्ती हुए मजदूरों 
					की लिस्ट ले आया हूँ और जिला प्रशासन की लिस्ट भी मैंने ले ली 
					है। ठीक है जल्दी से इसे फैक्स कर दो नाम पते ठीक होने चाहिए 
					और राहत राशि का भी ब्यौरा हो राकेश ने कहा और फोन काट दिया।
					
					 आफिस पहुँचकर 
					राकेश ने खबरें निपटाई और चला गया। रात हुई तो नींद की बजाय 
					लाशों के ढेर व रोते-बिलखते लोगों के चेहरे उसकी आँखों के आगे 
					आने लगे। खासकर चट्टननुमा पत्थर के नीचे दबी नेपाली युवक की 
					लाश व पास रोते उसके मां-बाप की तस्वीर बार-बार उसकी आँखों में 
					तैर रही थी। पत्थर के नीचे नेपाली युवक की दबी लाश उसे बार-बार 
					कह रही थी कि, मुझे निकालने में तो तुमने मदद नहीं की लेकिन 
					तेरे अंदर की मानवता भी ऐसी ही चट्टान के नीचे दबी हुई है उसे 
					जरूर निकाल लेना। रात भर राकेश ठीक से सो नहीं सका और सुबह 
					अखबार पकड़ कर बैठ गया। आज का अखबार उसके नाम का था। मुख्य 
					संस्करण की लीड से लेकर लोकल पेज की लीड व बॉटम स्टोरी भी उसी 
					की थी। हादसे के भयानक फोटो भी खूब छपे थे। थोड़ी ही देर बाद 
					बेहतर कवरेज के लिए उसे दोस्तों व अधिकारीयों के फोन आने लग 
					पड़े। लेकिन राकेश की आत्मा को आज उस नेपाली की लाश ने झिंझोड़ 
					कर रख दिया था। उसे इस बात का दुख था कि अगर व पत्रकार न होता 
					तो मुसीबत में पड़े उन लोगों की कुछ तो मदद कर सकता था। 
					मां-बाप को अंतिम संस्कार के लिए उनके बेटे की लाश दिलाने में 
					वह मदद कर सकता था। मगर डैडलाईन में बँधा वह कुछ नहीं कर सका। 
					उसे आज दुख था कि वह मानव होकर भी मानवता का परिचय देने में 
					कंजूसी कर गया।  |