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कहानियों के
लिये सामग्री हमें आसपास की जीवन से मिल जाती है। पात्रों के
जीवन में झाँक कर और कुछ कल्पलना के रंग भर कर कहानी बन ही
जाती है। सावधानी यह बरतनी पड़ती है कि पात्र या घटनाएँ बहुत
करीब की न हों। बच्चे क्या सोचेंगे, भाई साहब कहीं बुरा न मान
जाएँ आदि के चक्कर में रोचक उपन्यासों का मसाला धरा का धरा रह
जाता है।
कभी कभी ऐसा भी होता है कि पाठक कपोल कल्पित घटना को सच मान
बैठते हैं। 'ऐसी कल्पना तो कोई कर
ही नहीं सकता है, जरूर आपके साथ ऐसा घटा है!'
बहरहाल, आप बताइये कि यह कहानी सच्ची है या नही। मुझे तो लगता
है कि इस कहानी का नायक झूठ बोल रहा है। ....
कहते हैं युवावस्था में मन मचल जाता है, दृष्टि फिसल जाती है
इत्यादि। रूमानी साहित्य में कालेज-जीवन में ऐसी घटनाओं के
होने का वर्णन मिलता है। मेरा छात्र-जीवन अतीत के गर्त में
कहीं है तो सही पर उसका वर्णन यहाँ पर विषयांतर होगा। संप्रति
नैनीताल में मेरे पास इन सब बातों के लिये समय ही नहीं है।
अपने बारे में कभी कभी-कभार सोच लेता हूँ बस। मुझे कभी-कभी ऐसा
लगता है मानो मैंने लड़कपन से सीधे प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर
लिया हो, बीच के युवावस्था वाले भाग को लाँघ कर। |