अभी
मैं अपने विशाल परिवार के भरण-पोषण में लगा हुआ हूँ। साधन कहने
को मेरे पास एक छोटा-सा होटल है, होटल क्या है, नीचे ८-१० जनों
के लिये बैठने की व्यवस्था और ऊपर रहने की थेड़ी जगह बस। ऊपर
रहने की थोड़ी जगह टूरिस्टों को ध्यान में रख कर नहीं बनाई गई
थी। ऐसा भी एक समय था, जब ऊपर के सभी कमरे मेरे एकछत्र अधिकार
में थे। जब से पिता जी क्षय रोग से ग्रस्त हो कर स्थाई रूप से
सेनिटोरियम में रहने लगे थे तब से मेरी आवश्यकताओं के साथ-साथ
मेरा आवास भी सिकुड़ गया था। सबसे छोटा कमरा अपने लिये रख कर
बाकी मैंने टूरिस्टों के लिये सजा दिये थे।
मेरे होटल की विशेषता यह है कि मेरी अँग्रेजी भाषा के ज्ञान
में पब्लिक स्कूल का टच है। सभ्यता और प्रगतिशीलता का एक
मापदण्ड यह भी है कि आप अँग्रेजी किस तरह बोलते हैं। मैं अपने
रोजमर्रा पहनने के कपड़ों में भी अपनी इस पब्लिक-स्कूली इमेज
को बरकरार रखता हूँ। इससे कुछ टूरिस्ट प्रभावित होते हैं। कुछ
तो इतने प्रभावित हुये हैं कि वे जब भी नैनीताल आते हैं मेरे
ही होटल में ठहरते हैं। मिस्टर पंडित भी ऐसे ही एक टूरिस्ट
हैं।
मैंने स्वयं को एक अनुशासन में जकड़ा हुआ है। फिर भी ऐसा नहीं
है कि मैं किसी सुंदर तरुणी को देख कर आँखें फेर लेता हूँ।
सीजन में नैनीताल में सुन्दर, विवाहित, अविवाहित और
सद्य:विवाहित रमणियों का बाहुल्य होता है। कभी क्षण दो क्षण के
लिये किसी पर दृष्टि ठहर जाती है। इससे आगे कुछ नहीं। जब
मिस्टर पंडित पहली बार मेरे होटल में ठहरने आये थे तो उनकी
पुत्री जानकी पर मेरी दृष्टि ठहरी थी। मैंने उसको अपनी ओर
देखते पाया था।
बात इतनी ही होती तो कुछ नहीं था। वैसे अब भी कुछ नहीं है। हाँ
इतना है कि बात दृष्टि के आदान-प्रदान तक ही सीमित नहीं रही
थी। कुछ आागे भी बढ़ी थी।
पहली बार वे लोग बीस दिन ठहरे थे। चार जनों का परिवार था।
मिस्टर पंडित, उनकी चुपचाप सी रहनेवाली पत्नी, जानकी और उसकी
किशोरी बहन अंजना। उनको घुमाने में कुछ अधिक ही उत्साह दिखया
था मैंने। यह अतिरिक्त उत्साह जानकी के लिये ही हो ऐसी बात
नहीं है। मिस्टर पंडित बहुत ही मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके लिये
कुछ अतिरिक्त करने को मन करता है। एक दिन मैं उनको घुमाने स्नो
व्यू के पीछे वाले जंगल में ले गया था। उन दिनों वहाँ बुरूँज
के फूलों की छटा छाई हुई थी। जंगल के बीच रास्ता तो क्या कोई
पगडंडी भी नहीं थी। मुझे याद है झाड़ियों के काँटों से सभी को
खरोंच लग गई थी। मिस्टर पंडित बहुत उत्साहित थे। सबसे आगे वही
चल रहे थे। अंजना ने अपनी माँ को सँभाला हुआ था। और जानकी भी
साथ थी। हर छोटी बड़ी झाड़ी को पार करने के लिये वह मेरा हाथ
पकड़ रही थी। यह बिना मतलब के हाथ पकड़ा-पकड़ी और छुआ-छुव्वल
का खेल आगे भी चलता रहा। यह जानकी का खेल था। इसे मैंने आरंभ
नहीं किया था।
मैं पंडित परिवार के साथ बहुत घुलमिल गया था। उनको हँसाने के
लिये मैं उटपटाँग हरकतें किया करता था। मुझे याद है कि एक बार
मैंने जानकी के उकसाने पर चाय नमक के साथ पी थी। इस पर वह इतना
हँसी थी कि दूसरे दिन मैंने अपनी चाय में टमाटर की सॉस मिला ली
थी। चुटकुलों की किताब से खोज-खोज कर चुटीले चुटकुले उनको
सुनाता था। उन दिनों मैं बहुत प्रफुल्लित रहता था। क्यों न
रहता, मुझे मिस्टर पंडित से बीस दिनों के रहने-खाने के लिये
मोटी रकम जो मिलने वाली थी। उन दिनों जानकी मुझे सर के बल खड़ा
हाने को कहती तो शायद हो जाता।
छह महीने बाद ही वे १५ दिनों के लिये फिर नैनीताल आये थे। होटल
की बुकिंग के लिये जानकी ने मुझे पत्र लिखा था। पत्र लंबा था।
कुछ विशेष नहीं, उसके पहली बार के नैनीताल प्रवास की घटनाओं का
जिक्र था। पत्र मैंने सँभाल कर रखा हुआ था। टूरिस्टों से
मिलनेवाले सभी पत्र मैं सँभाल कर रखता हूँ।
मैं बहुत सुबह ही इंतजाम आदि करने रेस्तराँ में आ जाता था।
मेरे नीचे उतरने के कुछ क्षणों बाद ही जानकी भी नीचे उतर आती
थी। हम दोनों अक्सर सुबह की चाय एक साथ पीते थे। जाने किस बात
को लेकर एकदिन मैंने उससे मजाक में पूछा था,
'कोई खोज रखा है अपने लिये क्या!'
'हाँ।' उसने कहा था। एक हाथ की अँगुलियाँ उसने दूसरे हाथ में
फँसा रखी थीं। जुड़े हुये हाथों से अपना निचला होंठ दबाते हुये
उसने उत्तर दिया था। उत्तर देते समय वह स्थिर-चित नहीं थी। या
हो सकता है यह मेरा वहम रहा हो। मैं उससे नकारात्मक उत्तर की
आशा कर रहा था। उसके हाँ कहने से मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था। उस
समय मैंने लक्ष्य किया कि वह मेरी ओर ही देख रही थी। मुझे लगा
था जैसे वह जानना चाहती हो कि उसकी हाँ का मेरो ऊपर क्या
प्रभाव पड़ा।
'वह क्रिश्चियन है' मेरे साथ आँखें चार होते ही उसने कहा था।
'कब से जानती हो उसे?'
'वैसे तो उसे मैं बहुत दिनों से जानती हूँ। मेरे साथ ही पढ़ता
था।'
'और ऐसे कब से जानती हो!'
'एक साल से।'
'शादी करोगी उससे?'
'हाँ।
'तुम्हारे घरवाले जानते हैं?'
'नहीं।'
'मान जायेंगे!'
'नहीं।'
'फिर!'
'पता नहीं। मैंने बहुत सोचा पर कुछ समझ में नहीं आता।'
'लड़का क्या कहता है?'
'कुछ नहीं।'
'कुछ तो कहता होगा।'
'नहीं, इस बारे में कुछ नहीं कहता। बस कहता है कि समय आने पर
देखा जायेगा।'
'और समय कब आयेगा?'
'आ गया है। कुछ रिश्ते आये हैं। एक पर मम्मी और डैडी गंभीरता
से सोच रहे हैं।'
'और तुम्हें अभी तक पता नहीं है कि तुम दोनों क्या करने वाले
हो?'
उत्तर में जानकी ने नकारात्मक में सिर हिलाया था।
'उसके माँ-बाप क्या कहते हैं?'
'वे तो मुझे बहुत मानते हैं। ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे मनमोहन
मुझसे एक या दो दिन में ही शादी करने वाला हो।'
'और मनमोहन तुमसे कुछ नहीं कहता है!'
वह चुप ही रही थी।
'उसे मालूम है तुम्हारे लिये रिश्ते आ रहे हैं?'
'हाँ।'
'फिर वह चुप कैसे रह सकता है!'
'वह कहता है कि मैं अपने मॉ-बाप से बात करूँ।'
'अपने माँ-बाप से बात करने का साहस है तुममें?'
फिर एक बार वह चुप रही थी।
'वह करता क्या है?'
'नौकरी की तलाश में है।'
'जानकी, तुमने कभी सोचा है कि वह तुम्हारे साथ केवल समय बिताना
चाहता है?'
'यह कैसे कह सकते हैं आप!'
'मैं तुमसे केवल पूछ रहा हूँ। कभी गौर किया है इस बारे में
तुमने?'
'वह मुझसे शादी करना चाहता है। उसने मुझे अँगूठी भी दे रखी
है।'कुछ उत्तेजित होते हुये उसने कहा था।
'तुम मुझे यह सब क्यों बता रही हो!'
'आप पूछ रहे हैं, इसलिये।'
खैर, जो भी करना सोच समझ कर करना। मैंने बुजुर्गी ओढ़ते हुये
कहा था। बात मेरे लिये विशेष महत्व नहीं रखती थी। मेरे विचार
से लड़की गलती कर रही थी। उसे सावधान करना मेरा कर्तव्य था, वह
मैंने कर दिया। आगे वह जाने।
मेरी बात जानकी को अच्छी नहीं लगी थी। उसके हाव-भाव यही बता
रहे थे। मैं सोच रहा था कि वह अब उठ कर चली जायेगी। वह गई
नहीं, बैठी रही। बातों का सिलसिला कायम रखने के लिये मैंने
उससे पूछा था,
'गर्मी की छुट्टियों में जब तुम आई थीं, तो तुमने उस लड़के के
संबंध में कुछ नहीं कहा था।'
'आपने पूछा ही नहीं था।' उसने कहा था।
'मुझे क्या मालूम था जो पूछता! जिस तरह तुम मुझसे घुलमिल गई
थीं, उससे मैं तो कुछ और ही सोच रहा था।' मैंने कहा था और कहने
के साथ ही मैं सोचने लगा था कि यह मैं क्या कह गया। जानकी यदि
यह पूछे कि मैं क्या सोच रहा था तो असमंजस में पड़ जाऊँगा।
जानकी ने पूछा भी था। 'कुछ नहीं, ऐसे ही..' कह कर मैंने बात
वहीं समाप्त करने की चेष्टा की थी।
'नहीं, बताइये न।' जिद करते हुये जानकी ने कहा था।
किसी लड़की के साथ आपने बुरूँज के फूल तोड़े हों और वह जानकी
की तरह आपके पास बैठ कर जिद कर रही हो तो वह लड़की आपको उस समय
प्यारी लगेगी ही। जानकी उस समय मुझे भी प्यारी लग रही थी। उसका
हाथ मैंने अपने हाथ में ले लिया था। उसने भी छुड़ाने का कोई
प्रयत्न नहीं किया था। उसी समय अंजना उसे खोजती हुई आई थी। वह
उठ कर उसके साथ चली गई थी और मैं सोचता रह गया था।
मेरे पास ढेरों काम थे। मैं उनमें जुट गया था। लेकिन दिमाग में
जानकी थी। मैं यही सोच रहा था कि कहीं वह बेवकूफी न कर बैठे।
दोपहर खाने के बाद जब पंडित परिवार आराम कर रहा था वह फिर नीचे
मेरे पास आई थी।
'जानकी मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था। मुझे नही लगता कि
तुम्हारी जोड़ी मनमोहन के साथ बैठेगी।' मैंने कहा था।
'यह कैसे कह सकते हैं आप?' उसने पूछा था। इस समय उसके स्वर में
उत्तेजना नहीं थी।
'तुम जानती ही कितना हो उसको? चोरी छिपे मिलती होगी, वह भी
थोड़े समय के लिये। मुझे तो यह भी विश्वास नहीं है कि तुम उससे
प्यार करती हो।'
'करती हूँ।' जानकी ने कहा था। मुझे उसकी आवाज खोखली लगी थी।
'मुझे पूर्णतया विश्वास नहीं होता।' मैंने कहा था। 'अच्छा एक
बात बताओ, मेरे साथ बात करना तुम्हें कैसा लगता हे?'
'अच्छा लगता है।' उसने कहा था।
'केवल अच्छा लगता है, बस! यह जो अपने भेद बता रही हो मुझे,
पिछली गर्मी में इतना घूमीं मेरे साथ, यह सब क्या यह नहीं
दिखाता कि यह अच्छा लगने की सीमा से कुछ अधिक ही है।'
'हाँ, बहुत अच्छा लगता हे।' उसने कहा था।
'क्या यह अच्छा लगना प्यार में नहीं बदल सकता!' मैंने कहा था।
आशा के विपरीत वह मेरी बात से विचलित नहीं हुई थी। शांत और
सयाने भाव में उसने उत्तर दिया था,
'प्यार और अच्छा लगना एक बात थोड़े ही है।'
'प्यार जब होता है तो कोई धमाका थेड़े ही होता है? बस ऐसे ही
तो आरंभ होता है।'
'शायद।' उसने बहुत धीमे स्वर में उत्तर दिया था।
'शायद क्या? ऐसे ही होता है।' मैने कहा था। 'मान लो, तुमको
किसी कारणवश छह या सात महीनों के लिये यहीं मेरे होटल में
रुकना पड़ जाय तो क्या हमारे संबंध गाढ़े नहीं हो जायेंगे? तुम
मेरे संबंध में बहुत कुछ जान जाओगी और मैं तुम्हारे संबंध में।
मेरा तो विश्वास हे कि तुम मुझसे ही प्यार करने लग जाओगी।
मनमोहन अतीत का विषय हो जायेगा।'
'मैं क्या जानूँ?' उसने कहा था।
'यह जो तुम मैं क्या जानूँ बोलद रही हो न, मैंने अपने तर्क को
आगे बढ़ाते हुये कहा था,'उसी से पा चलता है कि बात संभव है।
नहीं तो तुम कहतीं कि ऐसा हो ही नहीं सकता है। तुम बोलतीं कि
मनमोहन को प्यार करने के बाद कोई दूसरा व्यक्ति तुम्हारे जीवन
में आ ही नहीं सकता।'
'मैं क्या जानूँ?' उसका एक ह उत्तर था।
इसके बाद हम दोनों के बीच थेड़ी चुप्पी छा गई थी। वह क्या
सोचने लगी थी यह तो वही जाने, लेकिन थोड़ी देर केलिये मेरे जहन
में यह सवाल उभरा था कि क्या यह संभव है? थेड़ी देर से अधिक
मैं इस सवाल पर हीं ठहर सका था। मेरे मामा-चाचा क्या कहते! भाई
भूखे हैं, बहन अनब्याही है, बाप क्षय रोग का मरीज है और
द्वारका अपनी जिम्मेदारी को ताक पर रख कर इश्क फरमा रहा है।
लेकिन मनमोहन के प्रति जानकी का मोह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था
या यूँ कहना चाहिये गलत लग रहा था। इसलिये उसी बात को आगे
बढ़ाते हुये मैंने जानकी से कहा था,
'अच्छा जानकी, एक बात बताओ। अभी जो परिस्थिति मैंने बाताई है,
उसमे तुम मुझसे प्यार करने लगोगी या नहीं?'
'पहले आप बताइये।' जानकी ने कहा था।
'मैं क्या बताऊँ?' मैंने पूछा था। जान कर अनजान बनते हुये।
'उस परिस्थिति में आप मुझसे प्यार करने लगते या नहीं?' शब्दों
में लटकते हुये जानकी ने पूछा था।
अब मैं उसे अपने मामा-चाचा, भाई-बहन की बात क्या बताता। मैंने
उत्तर दिया था,
'मैंने यह प्रश्न ही इसलिये पूछा है कि यह संभव है। कम से कम
मेरी ओर से। तुम्हार बात तुम बताओ।'
'मैं क्या बताऊँ?' उसने कहा था। जैसे मुझसे कह रही हो कि मेरे
इस 'मैं क्या बताऊँ' में तुम अपने मन की बात खोज सकते हो खोज
लो।
'जो तुम्हारी समझ में आता है, बताओ।' मैंने उसे प्रोत्साहित
करते हुये कहा।
'हो सकता है जो आप कह रहे हैं वह संभव हो।' जानकी ने कहा था और
कहने के साथ उसने अपनी आँखें झुका ली थीं।
उसका चेहरा रक्तिम हो रहा था। शायद वह नहीं चाहती थी कि उसके
मन के भाव मैं उसके चेहरे पर पढ़ूँ, इसीलिये वह 'अभी मैं चलती
हूँ' कह कर झट से उठ खड़ी हुई थी। मैं भी उसके साथ उठ गया था।
पल के शतांश भर के लिये वह ठिठकी खड़ी रही, जिस समय मैंने उसका
हाथ अपने हाथ में ले लिया था और उसके साथ ही वह मुझसे
आलिंगनबद्ध हो गई थी।
उन लोगों के नैनीताल से जाने के बाद, एक-दो दिन में ही मुझे
जानकी का पत्र मिला था। उसने पूछा था कि वह मेरे प्रति क्यों
आकर्षित हो रही है जब कि वह मनमोहन से प्रेम करती है! मनमोहन
के साथ तो उसका व्यवहार बातों तक ही सीमित था, लेकिन मेरे साथ
तो वह बहुत आगे बढ़ गई थी। पत्र के अंत में जानकी ने हमारे
संबंध के औचित्य पर भी शंका प्रकट की थी।
इसके बाद उसका दूसरा पत्र नहीं आया। ऐसा नहीं कि मुझे उसके
दूसरे पत्र की प्रतीक्षा नहीं थी। प्रतीक्षा थी। स्वभावत: मैं
जानकी को लेकर सपने देखने की बेवकूफी तो नहीं कर सकता था। हाँ,
मुझे यह चिंता अवश्य थी कि कहीं जानकी मनमोहन को ले कर बचपना न
कर बैठे। इसलिये जानकी का पत्र न आने पर मुझे बेचैनी हुई थी।
दूसरी और महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे लोग मेरे अच्छे ग्राहक
थे। नैनीताल में बड़ी तगड़ी प्रतिद्वंद्विता रहती है। अपने
बँधे-बँधाये ग्राहक खोना कोई नहीं चाहता है।
दो-तीन महीने तो ऐसे ही बीत गये। फिर मैंने मिस्टर पंडित को
लिखा कि इस गर्मी के सीजन की बुकिंग के लिये पत्र आ रहे हैं।
यदि वे लोग आ रहे हैं तो मैं अपना होटल उनके लिये ही बुक करना
चाहूँगा, क्यों कि वे लोग मेरे पुराने, नियमित और अच्छे ग्राहक
हैं। फिर परिवार की कुशलक्षेम के साथ मैंने जानकी की कुशलक्षेम
भी पूछी थी। उत्तर मिस्टर पंडित ने ही दिया था। मेरे पत्र के
लिये उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था। लिखा था 'हम लोग
कुशपूर्वक हैं'। इस 'हमलोग' में जानकी के साथ उनके परिवार के
सभी सदस्य आ गये थे। उन्होंने मई की ७ तारीख से १० तारीख तक
होट की बुकिंग के लिये भी लिखा था। मैंने बुकिंग पक्की करके,
इस आशय का पत्र लिख भेजा था। जिसका उत्तर नहीं आया था।
खैर, मई की ७ तारीख की सुबह वे लोग पहुँच गये थे। मैं उनको
लेने बस अड्डे गया था। बस अड्डे से वापस होटल आते समय जानकी
अपनी माँ-बहन के साथ ही रही थी। पिछली बार की तरह दो कदम ठिठक
कर मेरे साथ नहीं हुई।
होटल पहुँच कर वे लोग अपना सामान खोलने लगे और मैंने चाय भिजा
दी। मैं नीचे रेस्तारॉ में ही बैठा रहा। आशा थी कि शायद पहले
की तरह जानकी मेरे साथ चाय पीने नीचे आये। सीढ़ियों से पहले
अंजना उतरी थी। आते ही उसने कहना आरंभ किया था,
'द्वारका जी आपको एक ताजा खबर सुनाती हूँ, जानकी दीदी...' वह
अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी। जानकी ने, जो उसके पीछे ही
सीढ़ियाँ उतर रही थी, उसे डाँट कर चुप करा दिया था।
'चलो भई, हम चुप हो जाते हैं। तुम्हीं बताओ अपनी सगाई की बात।'
अंजना ने कहा था। तब मेरी समझ में आया था कि क्यो जानकी मुझसे
कतरा रहीं थी।
'सगाई हो गई जानकी?' मैंने पूछा था।
'जी।' जानकी ने कहा था।
'बधाई हो।' मैंने कहा था।
अंजना एक बार मेरी ओर और एक बार अपनी दीदी की ओर देखते हुये
बोली थी,
'द्वारका जी, आपने पूछा ही नहीं कि सगाई किसके साथ हुई है!'
'मनमोहन के साथ?' मैंने अंजना की ओर देखते हुये पूछा था।
'मनमोहन के साथ! अरे आप गलती कर ही गये न। मनमोहन का केस तो
शुरू से ही बहुत कमजोर था। वह तो किसी गिनती में था ही नहीं।
आपका केस जो...'
जानकी ने उसकी बात पूरी नहीं करने दी थी। जोर से डाँट कर कहा
था,
'अंजू, क्या बकवास लगा रखी है। जो मुँह में आता है बक देती
है।'
'ठीक है बाबा, मैं चलती हूँ। लगता है मेरी यहाँ आवश्यकता नहीं
है।' कह कर और मुँह बना कर अंजना वहाँ से चली गई थी।
'आप अंजना की बातो का बुरा मत मानियेगा। मुँह में जो आता हे बक
देती है।' जानकी ने कहा था।
'बुरा मानने लायक उसने कुछ कहा ही नहीं।' मैंने कहा था। फिर
मैंने जानकी पूछा था कि क्या वह चाय पीयेगी?
'नहीं मैं ऊपर पी चुकी।' जानकी ने कहा था।
'पहले तो ऊपर नहीं पीती थीं। मेरे साथ ही पीती थीं। अब क्या हो
गया? मंगनी हो गई है, इसलिये?'
'नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है। आपने ऊपर भिजवाई थी, वहीं पी
ली।'
'एक और कप पीओ।' मैंने जोर दे कर कहा था।
चाय पीते हुये बातों का टूटा हुआ सिलसिला जोड़ने की चेष्टा
करते हुये मैंने कहा था,
'क्या तुम अपनी सगाई से खुश हो जानकी?'
'मैं इस संबंध में सोचती ही नहीं। जैसे पहले थी वैसी ही अब भी
हूँ।' उसने कहा था।
'तुमने मनमोहन से क्या कहा?'
'कुछ नहीं।'
'तुमने उसे बताया तक नहीं कि तुम्हारी सगाई हो गई है!'
'उसे मालूम है।' उसके उत्तर में कुछ रुखाई थी। एक
निश्चयात्मकता थी, जैसे कह रही हो कि मनमोहन जब था तब था। अब
मनमोहन से कहीं अच्छा पात्र मिल गया है, इसलिये अब उसमें मेरी
दिलचश्पी नहीं रही। एक कठोरता थी, जैसे कह रही हो कि सभी भूल
करते हैं, मैंने भी की है, जिसे याद दिलाये जाने की आवयश्यकता
नहीं है।
'तुम्हारा नया मंगेतर कैसा है?' मैंने पूछा था।
'अच्छे हैं।'
'उससे तुम्हारी चिट्ठी चलती है?'
'हाँ'
'क्या लिखता है वह?'
'इससे आपको क्या?'
जानकी से मुझे ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। कहा भी उसने बड़ी
रुखाई के साथ था।
'हाँ मेरा पूछना गलत हो सकता है, 'मैंने कहा था, 'लेकिन पिछली
बार जब तुमने मुझे मनमोहन के साथ घटी सभी छोटी-बड़ी बातें
बाताई थीं, उसी से...'
'पिछली बार भी मैं आपको ऐसा ही उत्तर देने वाली थी, लेकिन आप
बुरा मान जायेंगे कर के...' आखिरी शब्द को लंबा खींचते हुये
उसने वाक्य पूरा किया था।
उसका उत्तर सुन कर मेरे अंदर एक तीव्र इच्छा यह जागी कि किसी
तरह जानकी को चोट पहुँचाओ। कुछ ऐसा कहो कि वह तिलमिला जाय। मैं
केवल इतना भर कह कर रह गया, 'नहीं जानकी, पिछली बार तुम मुझको
ऐसा उत्तर नहीं देने वाली थीं, क्यों कि पिछली बार तुम्हें
मेरी आवश्यकता थी जो अब नहीं रही।'
इसके बाद फिर कभी जानकी से मेरी एकांत में बात नहीं हुई। अब तो
थोड़े ही दिनों में उसकी शादी होने वाली है। बात आई गई हो गई
है।
जानकी के बारे में कभी कभार सोच लेता हूँ, बस। जानकी इतने
दिनों मेरे होटल में रही। उसकी याद तो आयेगी ही। जितने भी
टूरिस्ट नियमित रूप से मेरे होटल में आते हैं, उनकी याद आती ही
है। उन्हीं को ले कर तो मेरा व्यवसाय है। अब मिस्टर पंडित अगली
बार जब आयेंगे तो उनसे जानकी के बारे में पूछना स्वाभविक ही
होगा। मैं अपने अनुशासन की जकड़ से कभी बाहर निकल ही नहीं
सकता। अपने ही अनुशासन को ताक पर रखना दुर्बलता है, और मैं
द्वारकानंद कभी दुर्बल हो ही नहीं सकता। दुर्बल होना मेरे लिये
विलासिता है। बस इतना ही कह सकता हूँ कि जानकी के साथ बीते कुछ
अंतरंग क्षणों में मैंने अपने आप को सीमित रूप से निरंकुश कर
दिया था। |