घर पहुँचकर देखा, रवि अभी सो ही रहा था। सोते हुये रवि के
मासूम चेहरे को देखकर मेरे मन में यह ख्याल आया की यदि आज हम
अरुण की लाश ले कर लौटते तो, रवि का तो रो-रो कर बुरा हाल हो
गया होता, मेरे सामने वह कभी रोता नहीं था पर मुझे मालुम था कि
वह छुप-छुप कर रोता रहताहै। । मैं चादर से रवि को ढक ही रही थी
कि रवि की नींद एकदम से टूट गई, मुझे इतनी सुबह तैयार हुआ देख
कर उसनें हैरानी से पुछा, माँ इतनी सुबह- सुबह कहाँ गई थी तुम।
मेरे पुलिस चौकी से फोन आने और शिनाखत करने की बात सुनकर वह
बेहद उदास हो गया।
माँ, तुमनें मुझे उठाया क्यों नहीं, अकेले क्यों चली गई इतनी
सुबह। मैं कुछ बोले बैगर रवि को एकटक देखती रही। रवि अब पहले
जैसा अबोध बच्चा नहीं रहा। अरुण के चले जाने के बाद से वह एक
परिपक्व इंसान की तरह से ही बरताव करने लगा है। हर वक्त मेरे
आस पास रहने की कोशिश करता है। मेरे चेहरे पर उदासी की हलकी
लहर उस के सहन नहीं होती। जहाँ पहले रवि हमेशा दोस्तों से घिरा
रहता था, छोटी-छोटी बातों पर इतनी जिद करता था की हमें अंत में
उसकी बात माननी हि पडती थी। अरुण से उसने वादा लिया था बारहवीं
की परीक्षा में अच्छी ड़िविजन आने पर उसे बाईक लेकर देंगें।
"माँ पापा अपनी मर्जी से घर छोड़ कर गये हैं, पापा ज़रूर आयेगे
"
मेरे पापा बहुत हिम्मती इंसान है माँ
"भगवान करे, ऐसा ही हो बेटा " यह कहते ही मेरी आँखों में से
आँसू बह निकले। " माँ बैठो में चाय बना कर लाता हूँ " रवि ने
मुझे कंधे पकडकर सोफे पर बैठा दिया। कमरे के पंखा का स्विच
चालू कर रसोईघर की और मुड गया।
अरुण, तुम्हारी यह तलाश कब खत्म होगी। वह सिरा कब मिलेगा जिस
पर कदम रखते हुए तुम घर आओगे। न जाने कब तुम अँधेरे की गिरफ्त
में चले गये, कौन सी शक्तियाँ तुम्हें अँधेरे की ओर धकेल रही
थी, उस अँधेरे की ओर जहाँ पहले ही ढेरों दुख मौजूद थे अपने
पूरे लाव-लश्कर के साथ, अँधेरों ने तुम्हें अपना साथी बना लिया
था और तुम पिछले कुछ समय से लगातार अँधेरे में भी क्या ढूँढने
की कोशिश कर रहे थे, यह में लाख कोशिशों के बाद भी नहीं जान
पाई थी तुम नहीं जानते की अँधेरा डस लेता है, फिर कोई भी नहीं
उतार पता अँधेरे का ज़हर। मैं तुम्से, तुम्हारी उदासी का सबब
बार-बार पूछती तुम बार-बार टाल जाते।
तब कहीं से मुझे उड़ती-उड़ती खबर मिली थी की अरुण जब अपनी
ट्रेनिंग के दौरान देहरादून गये थे, तीन महीनें के लिये, तब
उनकी एक वहाँ दूसरे किसी राज्य से ट्रेनिंग करने आई लडकी से
करीबी दोस्ती हो गई थी और इसके बाद उससे बिछुड़ना अरुण सहन
नहीं कर पाए और इसी कारण उनकी मानसिक स्थिति इतनी ख़राब हो गई
थी। हम कुछ समझ नहीं पाये थे। रवि का मुझसे कटे-कटे रहना। बात
करने पर अरुण का जवाब ज्यादा से ज्यादा हाँ या ना में होता।
फिर उनकी मानसिक हालत इतनी ज्यादा ख़राब हो गई थी कि पानी सिर
से ऊपर से गुजरने लगा था। डाक्टर ने सभी तरह से जाँच पडताल
करने पर बताया। तब हमें पता चला, वे अवसाद की चपेट में आ गये
थे। अरूंण की रात की नींद और दिन का चैन सब ख़त्म हो गया था।
उन्हें बार-बार लगता था जैसे कोई उन्हें मारने की कोशिश कर रहा
है, कई बार वे खाना खाते-खाते एकदम से फेंक देते, उन्हें लगता
था कि मैं उन्हें मारने के लिये खाने में ज़हर मिला कर दे रही
हूँ। पूरे दिन घर में शोर शराबा रहता था।
रवि की पढाई घर के वातावरण के कारण ठीक से नहीं हो पा रही थी।
अपने जिंदादिल पिता की हालत देख कर वह सहमा-सहमा रहता था।
ये हालत पूरे दो साल तक चलते रहे। इस बीच डाक्टर मोहन दिवाकर
ने हमारी पूरी मदद की, इसी बीच अरुण का मानसिक तनाव इतना बढ
गया की उन्होनें दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की, जिससे
एकबारगी सारे परिवार को हिला कर रख दिया था।
देखभाल और दवाईयों की सहायता से धीर-धीरे सब कुछ ठीक होने लगा
था अरुण जीवन की ओर और लौटने थे मैं उसी पुरानी हरियाली को
अपने भीतर महसूस करने लगी थी, चिड़ियों ने घर के आँगन में उतरना
शुरू कर दिया था। मुझे ऐसा लगने लगा था कि दुःख के इन दिनों ने
अपनी राह बदल ली है पर मेरी यह ख़ुशी चंद दिनों की ही थी।
एक दिन, दिसम्बर की सर्द सुबह अरुण टहलने निकले तो फिर लौट कर
नहीं आये तब से आज तक केवल उसके घर लौटने की आस ही बची हुई है
जो कभी धुँधली हो जाती है, तो लगता है जैसे जीवन की मियाद ही
ख़तम होने वाली है तो कभी लगता है, यह आस ही मेरा सबसे बडा
सहारा है।
रात को जब घर का मुख्यद्वार बंद करने गई तो देखा, अरुण के
स्टडी रूम की सारी खिड़कियाँ खुली हुई है। अचानक ऐसा लगा अरुण
वैसे ही चश्मा लगाये, कुछ लिखने में मगन हैं।
पिछले दिनों तेज़ आंधी की वजह से मैंने अरुण के स्टडी रुम की
सारी खिडकियाँ बंद कर दी थी। वे कभी भी मुझे अपने स्टडी रूम की
खिड़कियों को बंद नहीं करते देते थे। हमेशा क्हा करते थे, अनु,
इन खिड़कियों को खुली रहने दो, यहीं से ही तो सपने आते हैं। ये
दरवाजे तो केवल मेहमानों के लिए बने हैं, खिडकीयाँ बनी हैं
सपनों के लिये और रोशनदान किस लिये बने हैं और यह कहकर मैं
हमेशा की तरह हँस देती थी
मै लगभग भागती हुई अरुण के कमरे के में पहुँची तो देखा, रवि
खिड़की से बहार की तरफ देख रहा था। उन खिडकियों से बहार जहाँ
से सपनों के आने की थोडी संभावना अब अभी भी बाकी थी। |