बड़ी मुश्किल से मैं और रवि अपनी पुराने वाली दिनचर्या पर लौटे
हैं। सुबह छः बजे उठकर नाश्ते की तैयारी में जुट जाना और फिर
रवि के स्कूल जाने के बाद अरुण को नाश्ता करवाना जो हमेशा से
मेरे लिये मेहनत का काम रहा है रवि तो शांति से नाश्ता के लेता
पर अरुण नाश्ते के वक्त आगे-आगे मैं पीछे पीछे। बाद में मोहन
काका को अरुण की दवाईयों का कायदे से ब्योरा देना और फिर नौ
बजे अपनी डयूटी पर निकल जाना।
मैं स्मृति की गलियों से वापिस सच की कठोर दुनिया में लौट आई।
ड्राईंगरूम का दरवाजा बंद करने के लिये उठी आँखें बरबस ही बरामदे
के पार अरुण के कमरे की ओर ठहर गईं। घर के एकदम कोने में है
अरुण का स्टडी रुम। मैं धीरे-धीरे कदमों से चलते-चलते अरुण के
कमरे की चौखट पर जा पहुँची जहाँ चाँदनी की छिटकी हुई रोशनी
बिखरी हुई थी, मैं उसी हलकी रोशनी का सहारा ले कर अरुण के कमरे
का दरवाजा खोलती हूँ।
पिछले छः महीनों से बंद होने के कारण हलका शोर करते हुये
दरवाजा खुलता है। मैं दोनों टयूब लाईटें जलाती हूँ, फिर भी
कमरे का अंधेरा पूरी तरह से गायब हुआ नहीं दिखाई पडता। कमरे के
हर कोने से ठोस सूनापन टपक टपक कर कमरे को नीरवता प्रदान कर
रहा है। इस सूनेपन से भरे हुये नीरव वातावरण के ठीक बीचोंबीच
मैं खड़ी हूँ अकेली और बिलकुल असहाय। मेरे ठीक पास उजाला अपने
दोनों हाथों को बाँधकर खङा है, पर वह तो मुझसे भी ज्यादा असहाय
है क्योंकि उसके पास मुझे सांत्वना देने के लिये दो शब्द भी
नहीं हैं।
अरुण के स्टडी रूम के लम्बे चौड़े बुक रैक में रखी किताबों में
धूल की एक मोटी परत अपना कब्जा जमा चुकी है। अब अरुण
दुनियादारी की भीड भरी गलियों से दूर निकलकर अपनी तन्हा दुनिया
में नहीं गये थे, तब वे अपनी किताबों से इतना प्यार करते थे कि
इन ढेर सारी किताबों का हर शब्द उन्हें साँस लेता हुआ महसूस
होता था । अरुण और मेरा प्रेम भी तो इन्हीं किताबों के सहारे
ही परवान पर चढा था।जितना हम किताबों से प्रेम करते थे उतना ही
किताबें हमसे दोनों से किया करती थीं। किताबें हमारा जीवन थी
और इसी जीवन की राह में हम दोनों साथ-साथ अपने कदम रख रहे थे,
कुछ समय के बाद किताबों के प्रति यह जनूनी मोहब्बत ही हमें
विवाह के पवित्र बंधन में बाँधने में सहायक बन गया था।
अरुण की शुरू से ही यह आदत थी कि उन्हें इधर-उधर बिखरी हुई
चीजें बिलकुल पसंद नहीं थीं और मेरी यह आदत थी कि मैं किताब
पढते-पढते उसे खुली छोड कर किसी अन्य घरेलू काम में व्यस्त हो
जाती, मेरी इस आदत से अरुण परेशान हो जाते और हमेशा ही झिडकी
लगाते हुये कहते, अनु किताबों के प्रति तुम्हारी यह लापरवाही
मुझे बिलकुल पसंद नहीं और मैं नारी सुलभता से कहती माफ कर दो
जनाबे आली यह गलती दुबारा बंदी नहीं दोहरायेगी। अब इस चहकते
हुये जीवन्त कमरे में धूल, मिटटी और जालों का भारी जमावड़े ने
कब्जा जमा लिया है।
जब से अरुण घर से चले गये हैं, तब से ही मैं अरुण के इस स्टडी
रूम में आने के खयाल से ही घबरा रही थी। पूरे घर की बजाए अरुण
की उपस्थिति इस कमरे में सबसे ज्यादा थी। वे अपना ज्यादातर समय
इसी कमरे में बिताते थे। सब कुछ ठीक वैसा ही है, जैसा अरुण के
जाने से पहले था। बस अरुण की वह बेचैन परछाई नहीं दिखाई दे रही
जो दिन-रात बेचैन हो कर पुरे दिन घर में चक्कर काटती रहती थी।
अब तो केवल लगातार गहरा होता जाने वाला सन्नाटा है जो शाम के
होते-होते इतना गहरा हो जाता है कि मेरी साँसें उस सन्नाटे के
बोझ तले दबने लगती हैं।
आज भी बहुत घुटन महसूस कर रही हूँ। बिस्तर पर पड़े पड़े छत को
घूरते घूरते बड़ी मुश्किल से रात के तीन बजे के करीब आँख लगी
है।
अभी सुबह आँख भी नहीं खुली थी कि फोन की घंटी सुनाई दी। मैंने
दाई तरफ घडी की ओर देखा, आठ बज रहे थे। पुलिस चौकी से
इंस्पेक्टर ब्रजमोहन का फोन था। वे बता रहे थे कि कल रात गश्त
लगाते हुये पुलिस दल को शहर के बङे नाले से तीन लाशें बरामद
हुई हैं, मिसेज अवस्थी आप चौकी आकर शिनाखत कर लीजिये। फोन
रिसीवर नीचे रखकर मैं वही बिस्तर पर निढाल होकर धम से बैठ जाती
हूँ। मेरा मन बुरी तरह से बैठा जा रहा है। हे भगवान, क्या मैं
आज अरुण का मृत शरीर लेने जा रही हूँ? पुलिस चौकी में मेरा यह
तीसरा चक्कर है। पिछली बार पहली बार पुलिस चौकी की शक्ल देखी
थी। अकेले जाने को मन घबरा रहा था इसीलिये पडोस में रहने वाले
मिसेज बर्मन के ज़ोर देने पर मैंने मिस्टर बर्मन को साथ ले
लिया।
पुलिस चौकि में घुसते ही खतरनाक से दिखने वाले बदतमीज पुलिस
वालों की बदतमीजी और उनकी बेशर्म नज़रों का भी सामना करना पडा।
पर इंस्पेक्टर ब्रजमोहन को देखकर पुलिस की बेहद बुरी छवि पर
दुबारा सोचना पडा मुझे। वे शांत, सभ्य मानवीयता से लबरेज़ पुलिस
वाले के रूप में दिखाई दिये।
आज रविवार होने के कारण सभी लोग आराम के मूड में होंगे । एक
बार सोचा कि रवि को अपने साथ में ले लूँ पर फिर यह सोच कर रूह
काँप गई कि सुबह- सुबह रवि को पता नहीं, क्या देखना पङे। बच्चा
है, कितना लाड प्यार से पाल रहे थे हम दोनों उसे। पर अब कोई
चारा नहीं है, मेरे साथ-साथ वह भी इस घर के सारे जाने-अनजाने
दुखों में शामिल हो ही चुका है। आज पुलिस चौकी पहुँच कर जो कुछ
भी हो, मुझे मन मजबूत कर निकल जाना चाहिये।
मैं एक पर्ची पर अपने पुलिस चौकी के बारे में लिखकर, रवि के
बिस्तर की साइड टेबल पर रख कर बाहर मेन गेट पर ताला लगा कर
निकल लेती हूँ। एक बार मैं फिर बर्मन जी के घर की ओर देखती
हूँ। उनका पूरा घर अँधेरे में डूबा हुआ है। शायद अभी कोई उठा
नहीं है। मेरे कदम मेन सड़क की ओर मुड़ गये। मैं बिलकुल नहीं
चाहती थी कि मेरे दुखः के छींटे किसी भी दूसरे इंसान पर पड़ें
इसीलिये मैने सभी से कह दिया अरुण एक साल के लिये विदेश चले
गये है। उनके प्रशंसकों में हैरानी की लहर दौड गई है कि उन्कें
अज़ीज़ लेखक अचानक से विदेश क्यों चले गये हैं। पुलिस चौकी में
जाकर मैंने देखा, तीन लाशें दिवार के सहारे एक पंक्ति में रखी
गई थी। सब पूरी तरह ऊपर तक सफेद चादर से ढँकी हुई थीं। हवलदार
ने बारी -बारी से तीनों पर से चादर उठाई। तीसरी लाश का चेहरा
अरुण के चेहरे से मिलता जुलता हुआ लगा। मुझे एकबारगी लगा मैं
वहीं चक्कर खाकर गिर पङूँगी। मैंनें फिर से हिम्मत करके दुबारा
देखा, नहीं यह अरुण का शव नहीं है। अरुण तुम जहाँ कहीं भी हो
बिलकुल सही सलामत से हो, देखों हमनें साथ-साथ जीने मरनें की
कसमें खाई थी, तुम मुझे अकेला छोड कर नहीं जा सकते, मैं
बुदबुदाने लगी थी। बड़ी मुश्किल से आज मैनें घर की राह पकड़ी। |