दबी गुर्राहट
-- माने दिल की निकालना। बाबू जी को सुनाना है, बस। ये अलग बात
है कि वो सुनते किसकी हैं, लाख सुनाता रहे कोई।
फिर सब कुछ जस का तस हो जाता है।
हर सवेरा ऐसे ही होता है, इतने ही संवादों के साथ। इन संवादों
से ही पल्लव की नींद खुलती है, दिन शुरु होता है। दैनिक कार्य
जल्दी जल्दी निपटा कर पल्लव खेतों का रास्ता पकड़ लेता है, सुबह
की सैर --हाँ - सुबह की सैरके लिये। जब तक वापस आएगा, नौ- सवा
नौ बज चुके होंगे और बाबू जी घर से निकल भी चुके होंगे।
काम पर ?--
अरे नहीं -- काम वाम क्या ? बाबूजी काम नहीं करते।
लेकिन खाली भी तो नहीं रहते। चौपाल पर हुक्का गुड़—गुड़ाना,
ताश-शतरंज खेलना, आते -जाते पर कड़ी नज़र रखना और --
और, नहाने के लिये गरम पानी करने की बदस्तूर हिदायतें घर पर
माँ के लिए भिजवाते रहना।
कम थोड़े ही हैं, काम तो हैं हीं। दिन मे कितनी ही बार पानी का
पतीला गरम हो कर ठंडा हो जाता। तांबई रंग सुरमई हो जाता।
लेकिन, नहाने का समय निकालना मुश्किल। बाबू जी भी क्या करें ?
कम्बख़्त शतरंज का खेल है ही ऐसा--घोड़े के ढ़ाई घर की चाल से
निगाह हटी, तो हाथी गया। ऊँट की टेढ़ी चाल से बेगम का बचाव
ज़रूरी। और तो और,सीढ़ी--तिरछी चाल से प्यादा ही कहीं वज़ीर को
पटखनी ना दे जाय।
कुल जमा-घटाव ये, कि शतरंज बाबू जी के आला-दिमाग़ को
चुस्त-दुरुस्त रखती है।
अपना अपना मिज़ाज -- यही शतरंजी खेल माँ के दिमाग़ को ठस्स कर
देता है। दिन भर नहाने का पानी गरम-ठंडा करते होते देख और
चौपाल से बाबूजी की शतरंजी सौरंगी आवाज़ सुन सुन कर माँ का
दिमाग कतई ठस्स हो गया है। इतना ठस्स, कि अब वो सही को सही और
गलत को गलत कहना भूल गयी हैं। जबरन चुप्पी की अदृश्य पट्टी मे
जकड़ी रहती है माँ।
माँ वो सब कुछ करती है, जो घर की आम ज़रूरत है। लेकिन बहुत ही
तंग दायरे में -- जैसे किसी गऊ के गले मे ढ़ाई फुट का रस्सा
डालकर खूँटे मे अटका दिया गया हो।
हाँ, पल्लव जानता है कि सुबह की सैर करके जैसे ही वो घर
पहुँचेगा, माँ के माथे का तनाव घुलने लगेगा, बथुए की हरी हरी
क्यारी सी आँखों की तलहटी मे लहलहाने लगेगी, ऐसे कि जैसे अभी
अभी दिल की क्यारियों में पानी सींचा गया हो। रोज़ यही होता है,
आज भी हुआ। घूम कर घर पहुँचने के बाद पल्लव के नहा कर आते ही
माँ ने गरमा गरम गोभी का पराँठा, भुने ज़ीरे से महकता मट्ठा और
नींबू के रस मे डूबा अदरक का लच्छा उसके सामने सरका दिया और
गुनगुनी निगाह का सेंक पल्लव को देती रही।
माँ अनपढ़ थीं,लेकिन कामचलाऊ लिखना-पढ़ना कर लेती थीं। दोपहर के
दो से चार के बीच छोटी सी नींद का झोंका ज़रूरी था। लेकिन उससे
भी ज़रूरी था नींद लाने के लिये कुछ पढ़ना। पढ़ना माने कुछ भी,
फिर चाहे वो 'संगीत हक़ीक़त राय' हो, 'कटरा बी आरज़ू' या
'बन्ना-सोहर' की कोई पुरानी धुरानी टूटी-फूटी क़िताब। आधा घंटा
आराम के बाद शाम के खाने-चौके की तैय्यारी। काम कोई भी हो, माँ
अमूमन खामोश रहतीं। यहाँ तक की पिंकु की ताई या लाली की अम्मा
से बतियाते हुए बी ज़्यादातर 'हूँ हाँ' से ही काम चला लेतीं।
माँ का अपना दायरा है।
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खाली प्लेट उठाकर पल्लव ने बर्तन धोने की जगह पर रख दी। मानसिक
उथल-पुथल को सामान्यतः वो चेहरे पर झाँकने नहीं देता। लेकिन
अनचाहे बहुत कुछ ऐसा है,जिस पर पल्लव का कोई अधिकार नहीं।
बाबूजी घर में तो पल्लव बाहर। बाबूजी जागते हों तो पल्लव नींद
मे।
नींद मे होते हुए आदमी हमेशा सोता थोड़े ही है ? बाबूजी की
बड़बड़ाहट ग़लत नहीं है--
"पता नहीं, बोलता क्यों नहीं ये लड़का, बैठता तक नहीं सामने
कभी।"
संवादहीनता की यह स्थिति बाबू जी और पल्लव के बीच कब से है ?
याद नहीं पड़ता उसको। किसी मजबूरी में की गयी हाँ—ना को बात
करना माना जा सकता हो तो ठीक है। लेकिन बाबू जी और उसके बीच
कभी कुछ होता ही नहीं।
हाँ, सोचने के लिये बहुत कुछ है पल्लव के लिये --
लेकिन फ़ायदा क्या?
खीज ही हाथ लगती है अंत मे।
किसी भी छोर से देखिये, माहौल मुँहबंद ही रहता है। |