विद्या ने जब अपने माँ-बाप का घर छोड़ा और हमारी बस्ती की
नागरिकता लेने चाची के पास पहुँची, उस रात मानू भाई ने उसे
निरगुन गाकर सुनाया था - ''पानी के पियासल हिरना...पानी के
पियासल...''
चाची ने बिना लाग-लपेट के पूछा - ''किसके लिए घर छोड़ आई रे
विद्या ?''
''नाटक के लिए।''
''चाची से छल करती है रे ?...सब समझती हूँ मैं।''
''तुमसे छल नहीं चाची।...अपने से छल कर रही हूँ।''
दूसरे दिन फिर चाची ने पूछा - ''उसने क्या कहा ? गई थी कि नहीं
?''
''नहीं चाची।''
''जानती हूँ। तुझे भी और उसे भी।...तेरा जी चाहे, तो तू यहीं
रह। मेरे साथ।...क्यों रे मानू ?''
''नहीं माँ, इसका यहाँ रहना ठीक नहीं। तू फिकर मत कर।...रंगमंच
की इस महान अभिनेत्री को मैं दर-दर की ठोकरें तो नहीं ही खाने
दूँगा।'' मानू भाई हँसा था।
विद्या के माता-पिता आए। बहन-बहनोई पहुँचे। सब उसे
मनाते-समझाते रहे, पर विद्या नहीं लौटी। सप्ताह भर बाद विद्या
ने अलग रहना शुरु किया। पहले विद्या को नौकरी मिली और फिर एक
साल बाद उसी स्कूल में मैं भी लग गया।
आत्मनिर्भर विद्या के पाँव हिरनी की तरह कुलाँचे भरने लगे। वह
अपने प्रेमी के जन्मदिन पर उपहार ख़रीदना नहीं भूलती। अपने लिए
मंगलाहाट से सस्ते कपड़े ख़रीदती और उसके लिए ब्रान्डेड
जींस-टीशर्ट और जूते। विद्या ने एक-एक पाई जोड़कर सेलफ़ोन ख़रीदा
ताकि निरन्तर उससे सम्पर्क में बनी रहे। विद्या के बार-बार फ़ोन
करने पर वह झुँझलाता। कभी वह बेहद सर्द आवाज़ में बोलता, तो कभी
डपट देता, पर वह एक 'हैलो' सुनने के लिए बहाने ढूँढ़ती रहती। वह
विद्या के पास आता और विद्या उसके लिए वह सब कुछ करती, जो उसका
इच्छित होता।
एक दिन विद्या ने मानू भाई से कहा - ''मानू! मैं जानती हूँ कि
तेरी फिलॉसफी की कसौटी पर मैं और मेरा प्रेम, दोनों खोटे
हैं।...पर मैं जीना चाहती हूँ, और मुझे लगता है कि मेरे जीने
की शर्त वही है। मुझे मालूम है कि वह मुझसे लुकाछिपी का खेल
खेलता है। छिपना और दिख जाना,...दोनों उसके ही हाथ में
है।...फिर भी मैं उसे पूरी ईमानदारी से ढूँढ़ती हूँ। यह जानते
हुए भी कि वह न चाहे, तो न दिखे,...मैं उसे ढूँढ़ती रहती
हूँ।...मानू रे,...मैं उसके बच्चे की माँ बनना चाहती हूँ।''
''विद्या, तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है।'' मैंने कहा।
''तू चुप कर । बीच में मत बोल। मैं मानू से बात कर रही
हूँ।...प्यार की संतान अवैध नहीं हुआ करती।'' उसने दृढ़ता से
प्रतिवाद किया। मानू भाई की ओर मुख़ातिब होकर पूछा - ''तू मेरा
साथ देगा मानू?''
उसकी काली पलकों के ठीक पीछे जलती आग की सुनहली आभा में उसका
चेहरा दमक रहा था।
''नींबूवाली चाय लेकर
आ।'' मानू भाई ने मौन तोड़ा।
हम तीनों रिहर्सल के बाद विदा होने से पहले एक पुलिया पर बैठकर
गप्पें हाँकते और चाय पीते। पुलिया के उस पार थी चाय की दुकान।
मैं चाय बोलकर लौटा और चुपचाप बैठ गया। ग्लास में हल्के नारंगी
रंग की चाय लिये चायवाला आया। हमने चाय पी और बिना किसी बातचीत
के अलग हुए। मानू भाई उस दिन दारू पीने नहीं गया। मुझे नहीं
मालूम कि मेरी कुछ देर की अनुपस्थिति में उन दोनों के बीच क्या
बातें हुईं! बातें हुईं भी या नहीं!
विद्या कभी प्रसन्न रहती, कभी उदास। कभी धीमे बोलती, तो कभी
चहकती। कभी उसकी मुस्कराहट की धूप में ख़ुद उसका ही चेहरा
सतरंगी आभा से भर जाता, तो कभी उसका चेहरा इतना उदास लगता,
मानो प्रतीक्षा में थककर अलसायी आँखों का बोझ ढो रहा हो।
मानू भाई बेचैन रहने लगा था। विद्या की आत्मा और देह के भीतर
पलते वसंत की गंध जब-जब छनकर बाहर आती, मानू भाई की बेचैनी बढ़
जाती। दुविधा के क्षणों में जब विद्या की आँखों के कोर भींगते,
मानू भाई उसे एकटक निहारता। विद्या ने नए नाटक से अपने को अलग
कर लिया था। वह रिहर्सल में आती। कुछ देर बैठती और चली जाती।
पुलिया पर बैठने, चाय की चुस्कियाँ भरने और गप्पें हाँकने का
सिलसिला टूट गया। लगभग एक महीने तक ऐसे ही चलता रहा। नाटक का
मंचन हुआ। मंचन की रात वह अनुपस्थित रही। मैं दूसरे दिन मानू
भाई के साथ उसके घर पहुँचा, तो विद्या वहीं मिली। वह पहले से
पहुँची हुई थी। वर्षा में भींगी हुई हल्दीचिरैया की तरह उसका
पीला-निस्तेज चेहरा देखकर मुझे काठ मार गया।
''विद्या, क्या हुआ तुझे ?'' मैंने पूछा।
''कुछ नहीं।...तू बैठ।'' विद्या के बदले चाची ने जवाब दिया।
विद्या मुस्करा रही थी। दर्द की नीली गहरी लकीर सी मुस्कान। एक
ऐसी मुस्कान, जो चमकती धूप या पूरे चाँद की रात की आभा को
बेधती हुई साफ़-साफ़ दिख जाए। मानू भाई अपने ढोलक की रस्सी कस
रहा था।
हमदोनों बाँस की सीढ़ी से छत पर चढ़े। मैं एक अच्छे शागिर्द की
तरह ग्लास और पानी लेकर आया। मानू भाई ने ढोलक मिलाया। रात हो
चुकी थी। अँधेरे के बावजूद बस्ती में चहल-पहल थी। मानू भाई ने
जेब से दारू का पाउच निकाला और पहली ख़ुराक लेकर ढोलक मेरी ओर
सरका दिया। बोला - ''तू बजा...मैं गाऊँगा।''
मानू भाई ने गुनगुनाना शुरु किया। वह सुर और धुन टटोल रहा था।
जिस धुन का छोर पकड़कर उसने गाना शुरु किया, वह सोहर की धुन थी।
प्रसवकाल और जन्मोत्सव पर गाए जाने वाले गीत की धुन थी। मैंने
मानू भाई के चेहरे को विद्या के चेहरे में बदलते हुए देखा।
मैंने देखा कि मानू भाई की मिचमिचाती हुई आँखें, विद्या की
बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों में बदल गईं। वह गा रहा था -
''जनमलौं मैं दुखवा की रात, डुबलौं भव-सागर हो,
आहे राम सेजिया पर भरम भुलइलौं, पिया मोरे आगर हो।
दिहलौं मैं अभरन बहाय, बसन सब फारि दिहलौं हो,
आहे राम पिया मोरे...''
''मानू!...बंदकर गाना-बजाना।'' चाची की चीख़ती हुई आवाज़ तोप के
गोले की तरह आकर छत पर गिरी। आगे के बोल मानू भाई के कंठ में
फँस गए। ढोलक पर गिरतीं मेरी अँगुलियाँ ठिठक गईं। आँधी की तरह
सीढ़ी चढ़ती चाची ऊपर आई और बोली - ''क्यों रुला रहे हो उसे तुम
लोग ?...क्यों रे मानू, सोहर गाने का बहुत शौक चढ़ा है तुझे
?...अरे हत्यारो! क्या बिगाड़ा है उसने ?''
मानू भाई फूट-फूटकर रोने लगा। चाची उसके पास आई। उसके बालों
में अँगुलियाँ फिराती हुई बैठ गई। मानू भाई का चेहरा अपनी
हथेलियों में भरकर उसे निहारा और फिर उसे अँकवार में भर लिया।
नाटक ख़त्म होने के बाद सुबोध भाई दक्षिण की यात्रा पर चले गए।
एक पुराने नाटक का रिहर्सल करते रहने का निर्देष दे गए थे। हम
सब उसी में जुट गए। विद्या अपने कमरे में वापस लौट आई थी। उसे
देखकर लगता, वह किसी लम्बी और थका देनेवाली यात्रा से लौटी है।
थकान से बोझिल उसके चेहरे पर कभी-कभी फीकी हँसी आती और चुपके
से अवसाद के चिह्न छोड़ जाती। पहले की तरह ठाटें मारता हुआ उमंग
का समुद्र उससे दूर जा चुका था। पहली नज़र में भा जानेवाली उसकी
बड़ी-बड़ी आँखों में अब एक मद्धिम लौ वाला चिराग जलता हुआ दिखता।
उसकी नाज़ुक ताम्बई देह का रंग धूसर हो गया था। उसने स्कूल जाना
शुरु किया। वह दोपहर बाद स्कूल से लौटती और अपने कमरे में बंद
हो जाती। एक दिन मानू भाई उसे साथ लेकर रिहर्सल में पहुँचा।
फिर धीरे-धीरे शाम को रिहर्सल करना,...रिहर्सल के बाद पुलिया
पर बैठकर चाय की
चुस्कियाँ भरना शुरु हुआ। मेरी उम्मीद के विपरीत यह विद्या की
वापसी थी।
सुबोध भाई दक्षिण से लौटे। पुराने नाटक का प्रदर्शन हुआ। वह कई
नए प्रॉजेक्ट लेकर लौटे थे। हम सब नए नाटक की तैयारी में लग
गए। विद्या मुख्य भूमिका कर रही थी। मानू भाई नाटक का संगीत
तैयार कर रहा था। ये दिन मेरे लिए उत्साह के थे, क्योंकि इस
नाटक में पहली बार मैं एक बड़ी भूमिका में था।
हमारी बदनाम बस्ती से सबसे पहले मानू भाई नाटक की दुनिया में
गया था। उसे सुबोध भाई ले गए थे। मानू भाई के बाद कुछ और लोग
गए। जुआ खेलने और बीड़ी-सिगरेट फूँकनेवाले आवारा लड़कों को ले
जाकर नाटक की दुनिया में बसाना आसान काम नहीं था। मानू भाई
मुझे बारह की उम्र में ले गया। इन दस वर्षों ने मेरी दुनिया ही
बदल दी। नाटक करते हुए मैंने पढ़ाई पूरी की। सुबोध भाई का
रिहर्सल-रूम बना मेरी पहली पाठशाला। बिना स्कूल गए चार वर्षों
की कड़ी मेहनत के बाद मैंने ड्रॉपआउट छात्र के रूप में मैट्रिक
परीक्षा दी। फिर कॉलेज में दाख़िला लिया।...और फिर एक दिन आया,
जब संगीत के विशेष-पत्र के साथ ग्रेजुएट बना। विद्या के ही
स्कूल में संगीत टीचर बहाल हुआ। यह एक अविश्वसनीय
यात्रा रही है - मेरे लिए, मेरे घर और मेरी बस्ती के लोगों के
लिए।
कल हुई वारदात के बाद मुझे मानू भाई की फिलॉसफी पर विश्वास कर
लेना चाहिए, पर मेरा मन नहीं मानता। मैं कैसे मान लूँ कि
प्रेम, प्रेम नहीं होता है,...काला भँवर होता है! ब्लैकहोल!
सम्भव है कि मानू भाई ही सही हो क्योंकि मैं तो अभी...। यह तो
मेरे जीवन में वसंत के आगमन की आहट भर थी। मेरे मन और मेरी देह
की पोर-पोर में,...मेरी साँसों में,...मेरी आँखों में,...मेरे
रुधिर में,...मेरे बोलने-बतियाने और चलने में वसंत प्रवेश करने
ही वाला था कि...। इस नए
नाटक में ही छिपा है इस वसंत के उद्गम का स्रोत।
इस नए नाटक में कुछ नए लोग शामिल हुए थे। वह पहले दिन अपनी माँ
के साथ आई थी। खड़ी नाक और सपनीली आँखोंवाली इस लड़की ने पहले ही
दिन पूरे नाटयदल पर जादू कर दिया था। वह सधे हुए स्वर में
बोलती। पलकें उठाती, तो लगता, जैसे धीमी लहर पर कोई नाव तिरती
हुई चली जा रही हो। सुर और लय में बँधी उसकी आवाज़ में एक तरलता
थी, जो प्राणों में घुल जाती। जब उसे परीक्षण के तौर पर गाने
के लिए नाटक का एक गीत दिया गया, उसने सबको मंत्रविद्ध कर
दिया। ऐसा लगा, मानो वह अपने जन्म के दिन से ही यह गीत गाती आ
रही है। यह एक पीड़ा भरा गीत था। उसकी सधी हुई सुरीली आवाज़ पाकर
सुबोध भाई प्रसन्ना हो उठे थे। उस शाम अपने संगीत निर्देशक
मानू भाई उर्फ मानवेन्द्र द्विवेदी पर ख़ूब प्यार लुटाते रहे
सुबोध भाई। रम की बोतल के साथ बैठे थे दोनों। मैं योग्य शिष्य
की तरह व्यवस्था सँभालने
में लगा रहा।
वह आती और सबके पीछे बैठ जाती। पर्स से स्क्रिप्ट निकालती और
उसमें खो जाती। कोई कुछ पूछता, तो हूँ-हाँ बोलकर काम चलाती।
बहुत ज़रूरी हुआ, तो बेहद धीमी आवाज़ में कुछ शब्द बोलती। अमूमन
फ़ुर्सत के क्षणों में होने वाली आपस की चुहलबाजियों में वह
अपनी फीकी मुस्कान के साथ शामिल होती। आते-जाते वह सुबोध भाई
के पाँव छूती और विद्या के गले लगती। सुबोध भाई को भाईजी और
विद्या को दीदी सम्बोधित करती। मानू भाई को वह भइया पुकारती।
मानू भाई का उसके घर पहले से आना-जाना था। उसके पिता मानू भाई
के परिचितों में थे। वह मानू भाई से उम्र में काफ़ी बड़े थे, पर
संगीत के चलते उन्होंने मानू भाई को दोस्त बना लिया था। ख्रजड़ी
बजाते थे। दरभंगा महाराज के एक प्रसिद्ध खंजड़ी-वादक के पौत्र
थे वह। 'अपना बाज़ार' के सामने फुटपाथ पर पत्रिकाओं और जासूसी
उपन्यासों की दुकान ठेले पर लगाते। दिन भर दुकानदारी में उलझे
रहते और शाम को दो घूँट भरकर ख्रजड़ी बजाते। इसी दो घूँट और
ख्रजड़ी ने उन्हें मानू भाई से मिलाया था। मानू भाई कभी-कभार
उनकी ख्रजड़ी सुनने उनके घर जाया करता। उन्हें ध्यान से सुनता।
ख्रजड़ी की तनी हुई चमड़ी पर गिरती उनकी
अँगुलियों की गति को
पकड़ता। वह उसे नए बोल और ताल बताते। मानू भाई जब भी जाता, उनके
पाँव छूता और जेब से पाउच निकालकर पैरों पर रख देता। मानू भाई
बताता है कि वह हर बार भड़क जाया करते थे। कहते - ''तू तो भारी
अधम है रे...! अरे नीच! अमृत को पैरों पर नहीं रखा जाता।''
...और एक दिन यही अमृत उनके कंठ में जाकर हलाहल बन गया। वह
कहीं से अमृत पान कर लौटे, ख्रजड़ी बजाने बैठे और उनकी अँगुलियाँ अकड़ गईं।...आँखें उलट गईं। जैसे भिक्षाटन करते हुए
बुद्ध के कशकोल में किसी ने सड़ा हुआ मांस डाल दिया था और वह
उसे खाकर चल बसे, वैसे ही ख्रजड़ी-वादक बुकसेलर पंडित रामसिंगार
झा किसी भक्त द्वारा दिए गए नकली
शराब के पाउच का दान स्वीकार कर
चल बसे।
जवान होती दो बेटियों की निरक्षर माँ न तो पुस्तकें बेच सकती
थी, और न ही अपनी लाज। उसने अपने उद्यम और साहस के बल पर
बेटियों की पढ़ाई नहीं बंद होने दी। उनके पिता का सपना पूरा
करने में जुटी रही। सिलाई-कषीदाकारी का काम बाज़ार से लाती और
माँ-बेटी मिलकर काम पूरा करतीं। गोबर-माटी और फूल-पत्तिायों के
रंग से दीवारों पर चित्रित होने वाली आकृतियों को औरों की तरह
काग़ज़ और कपड़े पर उतारकर बेचने का हुनर भी माँ-बेटियों ने सीखा।
शुरु में तो रामसिंगार झा का हमप्याला होने के कारण मानू भाई
इस परिवार का कोपभाजन बना, पर धीरे-धीरे उसके नि:स्वार्थ सहयोग
ने स्थितियाँ बदल दीं। उसकी ही राय पर मिथिला पेंटिंग का काम
शुरु हुआ। उसी की राय पर कमला ने इन्टरमीडिएट के बाद कम्प्यूटर
कोर्स में दाख़िला लिया और कुछ दिनों बाद डाटा-ऑपरेटर का काम
करने लगी। कमला की छोटी बहन कांता को मानू भाई ने ही
आर्ट-कॉलेज में दाख़िला दिलवाया। मानू भाई के कहने पर ही कमला
की माँ ने उसे नाटकों में
काम करने की अनुमति दी।
कमला-तट पर बसे अपने गाँव से उखड़कर शहर में बसनेवाले रामसिंगार
झा ने बहुत सोच-समझकर अपनी बेटी का नाम कमला रखा था।...कमला।
उसर-बाँझ धरती को भी उर्वरा बना देनेवाली कमला। बाढ़ के बाद जब
उतरती है कमला, छोड़ जाती है माटी के गर्भ में खनिजों का
भांडार। इसी ख़ज़ाने से अँखुए चुन-चुनकर सिंगार करती है कमला-तट
की धरती।...संगीत का भांडार है हमारी कमला। उसके स्वर का जादू
हमारे नए नाटक का प्राण बनता गया। उसके आने से नाटयदल में
जिसके महत्तव को सबसे ज्यादा ख़तरा था, उस विद्या के तो प्राण
ही बसने लगे कमला में। अपनी मुस्कान,...आँखों की चमक,...और
अपने स्वर की भंगिमाओं से वह मेरे भीतर वसंत उड़ेल रही थी। हम
दानों आपस में बहुत कम बातें करते। मैं उसे देख रहा होता और
नज़रें मिल जातीं, तो मैं अचकचा उठता। उसके साथ भी ठीक ऐसा ही
होता। मैं गहरे,...और
बहुत गहरे डूबता जा रहा था कमला की वन्या में। मैं जहाँ कहीं
भी होता, हंसिनी की चहक और किलकारियों की तरह दूर से आती उसके
गाने की आवाज़ मेरे कानों में बजती रहती।
अचानक हुआ सब कुछ। एक दिन वह रिहर्सल में नहीं पहुँची। रिहर्सल
अंतिम दौर में था। मंचन की तिथि तय हो चुकी थी। ऐसे समय उसकी
अनुपस्थिति सबको चौंका गई। सबने सोचा, शायद बीमार पड़ गई हो। पर
जब वह दूसरे दिन भी नहीं पहुँची, मानू भाई ने मुझे भेजा। बोला
- ''जा, देख तो सही कि आख़िर बात क्या है!''
मैं सुबोध भाई की मोटरसाइकिल से भागा। मुझे तो मुँह माँगी
मुराद मिल गई थी।...पर जब वहाँ पहुँचा, तो मेरे होश उड़ गए।
अभिशप्त प्रेतात्माओं के आतंक की छाया में दुबके हुए थे सब के
सब। सबके चेहरे पीले पड़ चुके थे। कमला की माँ और कांता मुझे
पथरायी आँखों से निर्निमेष निहारती रहीं। मुझे सामने पाकर कमला
ने अपने को सहेजने की कोशिश की। उसके चेहरे का रंग थोड़ा बदला।
उसने जब कारण बताया, मेरे दिमाग़ की नसें सुन्ना हो गईं। तीनों
मेरे सामने थीं - अपमान
और मृत्यु के बीच झूलते आतंक के पुल पर असहाय खड़ी।
मैं लौटा। मेरी सूचना पर सब सकते में आ गए। सुबोध भाई ने मानू
भाई को अलग ले जाकर बातचीत की। मुझे और विद्या को साथ लेकर वे
दोनों कमला के घर पहुँचे। पति की मौत के बाद बेटियों का हाथ
पकड़ आग पर नंगे पाँव चलनेवाली एक साहसी औरत हमारे सामने माटी
के ढूह की तरह खाट पर पसरी थी। सुबोध भाई के निर्देष पर मैं
फिर भागते हुए रिहर्सल वाली जगह पहुँचा और सबको साथ लिये वापस
लौटा। दो दिनों से जिस घर में भेड़ियों का भय तांडव कर रहा
था,...बंद दरवाज़ों-खिड़कियों के भीतर जहाँ उनकी अदृश्य उपस्थिति
का आतंक प्रलय मचा रहा था, उस घर में अचानक तीस लोगों के पैरों
की धमक भर गई।
कमला डाटा-ऑपरेटर का अपना काम निबटाकर सीधे रिहर्सल के लिए
पहुँचती और रिहर्सल से वापस घर लौटते हुए उसे अक्सर उनकी फाड़
खानेवाली निगाहों का सामना करना पड़ता। वे फब्तियाँ कसते। उनकी
अष्लील टिप्पणियाँ कमला को बेधतीं। पर कमला अपनी राह चलती
जाती।...उस शाम रिहर्सल से लौटती कमला को उन्होंने चारों तरफ़
से घेर लिया था।
''हमारे साथ चलो डार्लिंग।...आज हम नचाएँगे तुम्हें।...काँटा
लगा पर नाचोगी, तब जवानी का असली मज़ा मिलेगा।''
''मेरे बेरी के बेर मत तोड़ो कोई काँटा...हम लोग धीरे-धीरे बेर
तोड़ेंगे...दरद नहीं होगा...।''
''चल, उतर रिक्षा से
नीचे...बैठ मोटरसाइकिल पर...।'' उन्होंने उसे खींचकर रिक्षा से
नीचे उतार लिया था।
''नहीं रे, आज ज़बर्दस्ती नहीं।...आज छोड़ दो। दो-चार दिन का
टाइम दो।...मान जाएगी।...देखो बेबी,...इधर-उधर नाचने-गाने से
कोई फ़ायदा नहीं है।...हमारे साथ चलो, पूरा हुलिया बदल
देंगे।...ज़ेन पर घूमने लगोगी,...मम्मी से पूछ लो।...नहीं माने,
तो हम लोग मना लेंगे।''
वे सब उसे, वहीं सड़क पर कीलित कर चले गए। भय से थरथर काँपता
रिक्शावाला बिना पैसे लिये भागा।
''मुझे नहीं मालूम मैं कैसे अपने पैरों चलकर अपने घर पहुँची।''
कहकर, फूट-फूटकर रोने लगी कमला। बीहड़ों के भीतर किसी हिंस्र
वनपशु के आक्रमण से घायल साँभरी के चीत्कार की तरह उसकी
हिचकियाँ उठतीं और हमारी आत्माओं के भीतर आँधी की तरह पसर
जातीं। विद्या ने उसे चुप कराना चाहा, पर मानू भाई ने छोड़ देने
का इशारा किया। धीरे-धीरे कमला की हिचकियाँ थमीं। हम सबको वहीं
छोड़ सुबोध भाई और मानू भाई बाहर निकल गए।
दोनों ने नाटयदल के
संरक्षक के रूप में अलंकरण की तरह टँगे नामवालों के दरवाज़े
खटखटाए। कुछ लोग बाहर निकले और कुछ स्थिति की गम्भीरता को
देखते हुए टाल गए। तय हुआ कि पहले थाने में रपट लिखा दी जाए।
थानेदार ने समझाया - ''आप लोग अपनी मुसीबत काहे बढ़ाना चाहते
हैं ?...जाकर पार्षदजी से बात कीजिए। उस गिरोह का सरगना है
उनका छोटा भाई। केस रजिस्टर करने से कुछ नहीं होगा।...पुलिस के
लिए आफ़त मत खड़ा कीजिए।...समझे ? कनेक्षन समझे बिना केस करने
चले हैं आप लोग!''
सीनियर एस.पी. ने बहुत ग़ौर से सुना। कला-संस्कृति की राह में
ऐसी बाधा पर चिंता प्रकट करते हुए उसने सलाह दी - ''मैं थाने
को निर्देष दे देता हूँ।...थानेदार से मिलकर बात कीजिए।...वह
पैच-अप करवा देगा। बहुत अनुभवी पुलिस ऑफ़िसर है। मिल-जुलकर
मामला निबटा लेना ही बेहतर रहेगा। आजकल क्राइम और पॉलिटिक्स का
ऐसा काकटेल बना हुआ है कि ...''
सबको साथ लेकर थानेदार पार्षदजी के यहाँ पहुँचा। नगरपालिका के
युवा पार्षद के दरबार में जब पेषी हुई, दोनों हाथ जोड़े रिरिया
रहा था थानेदार। पार्षदजी पहले तो गरजे - ''क्राइम करे साला
कोई...और नाम लगता है मेरा। क्रिमनल को ख़ाली हम ही पालते हैं
का ?...जाकर गोली मार दीजिए...हम कवनो रोकते हैं!...और तुम लोग
नाच-गाना-नौटंकी का धंधा करता है,...लड़की सब का जुटान लगाता है
और जब लुक्कड़ सब पीछे लगता है, तो थाना-पुलिस-पार्षदजी...''
थानेदार ने फुसफुसाकर पार्षदजी से बात की। समझाया कि मामला तूल
पकड़ लेगा और अख़बारबाज़ी भी हो सकती है। थोड़ा नरम पड़े पार्षदजी।
बोले - ''आप लोग जाइए। हम पता करवाते हैं कि कवन सब था।
डाँट-फटकार देंगे।...पर लड़की सब से कलाकारी करवाते हैं, तो ऊ
सब को सुरच्छा दीजिए।...कुछ हो गया तो मेरे वार्ड का नाम बदनाम
होगा।''
रिहर्सल बंद कर दिया गया। नाटक का मंचन अधर में लटक गया। एक
विद्या को छोड़ तमाम लड़कियों का मनोबल टूट चुका था। लड़के भी
सहमे हुए थे। सुबोध भाई चाहते थे, कमला को ड्रॉप कर दिया जाए
और कुछ दिनों बाद रिहर्सल शुरु हो। मानू भाई कुछ बोल तो नहीं
रहा था, पर उसकी चुप्पी में प्रतिवाद छिपा था।...और कमला अपनी
ज़िद पर अड़ी थी कि चाहे जो हो, इस नाटक में वह काम करेगी ही।
एक दिन फिलॉसफर मानू भाई ने पुलिया पर बैठकर नींबू की चाय
सुड़कते हुए कहा - ''विद्या, तू जानती है प्रेम क्या है
?...आत्मरति का दूसरा नाम है प्रेम।''
''मानू,...प्लीज बंद करो अपनी बकवास। ऐसे ही कम मुसीबतें नहीं
हैं।'' विद्या के स्वर में आजिज़ी थी।
''तू नहीं समझेगी।...जानती है, ज़िन्दगी के पहले ही क्षण से
प्रेम शुरु हो जाता है,...आत्मरति के रूप में। एक नन्हा सा
बच्चा अपनी ज़िन्दगी के पहले दिन से तब तक हर चीज़ को प्यार करता
है, जब तक वह डरना न जान जाए। उसकी
भीतरी और बाहरी दुनिया में कोई
फ़र्क़ नहीं होता।...पर जैसे ही वह डरना जान जाता है, प्यार
करना बंद कर देता है।...बहुत निडर है कमला।''
मानू भाई का स्वर गम्भीर हो चला था। यह उसकी अनोखी अदा है।
कहीं से शुरु करता है और कहीं जा पहुँचता है।...और सचमुच बहुत
निर्भय निकली कमला। वह नाटक में काम करने की अपनी ज़िद पर अड़ी
रही। लगभग एक महीने बाद रिहर्सल शुरु हुआ। कमला ने काम पर जाना
भी शुरु किया। अब सब सामान्य लगने लगा था। सुरक्षा के नाम पर
सिर्फ़ इतनी सतर्कता बरती जाती कि रिहर्सल ख़त्म होने के बाद उसे
कोई घर छोड़ आता। कोई क्या, मैं ही सुबोध भाई की मोटरसाइकिल पर
उसे लेकर जाता। शुरु में थोड़ी हिचक थी। हिचक नहीं भय की एक
लकीर थी, जो साथ-साथ चलती। हालाँकि, यह लकीर कमला को लेकर जाते
हुए धूमिल रहती, पर वापस होते हुए गहरी हो जाती।
अब साथ जाते हुए कमला से काफ़ी बातें होने लगी थीं। हूँ-हाँ
करनेवाली कमला बोलने लगी थी। वह बहुत नरम और मद्धिम आवाज़ में
बोलती। ठीक अपनी पीठ के पीछे उसके होने का अहसास मुझे स्फुरण
से भर देता। मेरे पीछे बैठी कमला जब बोलती, तो उसकी आवाज़ और
साँस की तरंगें मुझे ऐसे छूतीं, मानो कोई मेरी नसों में फूँक
मार रहा हो। मेरी देह बाँसुरी की तरह बजने लगती।
वारदात से ठीक पहलेवाली साँझ, यानी परसों, मैं उसे लेकर गया
था। कमला ने पूछा - ''आपको डर नहीं लगता ?''
''कैसा डर ?''
''मुझे छोड़ने जाते हुए...कि वे लोग...''
मैंने कहा - ''मानू भाई कहता है, पुरुष डरपोक होते हैं और
इसीलिए प्यार नहीं कर पाते।''
''और आप ?''
''मैं डरपोक नहीं'' फिर मैंने पूछा - ''तुम्हें डर नहीं लगता
?''
वह हँसी। उसकी हँसी मेरी गरदन पर,...मेरे काँधों पर,...मेरी
पीठ पर कुलाँचे भरने लगी, छायापाखी की तरह। मुझे लगा, मेरी पीठ
पीछे कोई चाँद चिपक गया है।
''तुम हँसी क्यों ?'' मैंने फिर पूछा।
''बस ऐसे ही''
''यह तो अच्छी बात नहीं है।'' मैंने कहा।
''क्या ?''
''यही,...हँसना और उसके बाद चुप लगा जाना।''
''मेरा हँसना बुरा लगा ?''
''नहीं, बुरा नहीं लगा।...पर तुम हँसी क्यों ?...तुम्हें यह तो
बताना चाहिए।''
''ज़रूरी नहीं कि हर बात...अच्छा कल बताऊँगी।''
उसका घर आ गया था। वह उतरी। उसके जाने तक मैं रुका रहा। दरवाज़े
के पास पहुँचकर उसने हाथ हिलाया, पहली बार। हाँ, इतने दिनों
में वह मुझे पहली बार विदा कर रही थी। वह घर के भीतर गई।
दरवाज़ा बंद होने के बाद मैं मोटरसाइकिल
मोड़कर वापस चला।
लौटते हुए वे सब मिले। लगभग रोज़ ही आते-जाते दिख जाते थे। कभी
किसी चाय की दुकान पर गप्पें लड़ाते हुए दिखते, तो कभी सड़क
किनारे खड़े होकर ठहाके लगाते। उस दिन जाते हुए तो नहीं, पर आते
हुए दिखे। मुझे आते हुए देखकर वे चुप हो गए थे। उस दिन उनके
ठहाकों ने मेरा पीछा नहीं किया। मैंने सोचा,...कभी इनसे बातें
करूँगा। खा तो नहीं जाएँगे!...हो सकता है मेरी बातचीत से
रहा-सहा तनाव ख़त्म हो जाए। मैंने यह भी सोचा,...कितना अच्छा
होता अगर ये सब मेरे दोस्त होते!...हमारे साथ नाटक में काम कर
रहे होते!...फिर तो इन्हीं के साथ लौटती कमला...। अब हँसी आती
है मुझे अपनी इस सोच पर।...वारदात के समय मैंने माचिस की तीली
जलाई ही थी कि वे दिखे।...और मैं मुस्कराने ही
वाला था कि उन्होंने....हाँ,
उन्होंने मेरी हत्या कर दी।
जुलूस की प्रतीक्षा करते-करते मैं उब चुका हूँ। कौन सा मोह है
कि अपनी हत्या के बाद भी मैं भटक रहा हूँ।...आख़िर क्यों मैं
अपनी ही हत्या के प्रतिरोध-जुलूस के पीछे-पीछे घूमा और अपनी ही
शोकसभा की प्रतीक्षा में बैठा हूँ ?...काफ़ी देर हुई। अब जुलूस
को लौटना चाहिए। धवज-स्तम्भ के शिखर पर विश्राम के लिए रुका
सूरज अब आगे की यात्रा पर निकलने ही वाला है। वह धीरे-धीरे धूप
के पंछियों को सहेज रहा है।...ठंड बढ़ रही है।...साँझ होने में
अभी देर है, पर मौसम के मन-मिज़ाज का क्या भरोसा।...हो सकता है
कि बिना साँझ हुए ही कोहरा घिर आए और इस गाँधी मैदान में
अँधेरा भर जाए।
...आ गए वे लोग। उत्तारी गेट से प्रवेश कर रहा है जुलूस। गाँधी
मैदान की गतिविधियों पर ऐसे जुलूसों का बहुत असर नहीं पड़ता।
क्षण भर ठिठककर लोग निहारते हैं और जो कर रहे होते हैं, फिर
उसी में व्यस्त हो जाते हैं।
जुलूस ठीक वहीं पहुँचा है, जहाँ मैं बैठा हूँ। चारों तरफ़ से
गोल घेरा बनाकर लोग बैठते हैं। इस मैदान में यह जगह नुक्कड़
नाटकों के मंचन के लिए चिह्नित है। नाटक देखने की लालसा में कई
दर्षक भी आकर शामिल हो जाते हैं। मैं बीच में हूँ। शोकसभा अब
शुरु होनेवाली है।
मैं उठना चाहता हूँ। बहुत ज़ोर लगाकर अपने पाँवों को खींचना
चाहता हूँ। उन्हें धरती में रोपकर खड़ा होना चाहता हूँ कि अचानक
अँधेरा छा जाता है।...वही काला भँवर...ठीक वैसा ही भयानक काला
भँवर...ब्लैकहोल...। इस विशाल गाँधी मैदान का शोर अचानक चुप्पी
में बदल जाता है। सारी हलचल थम गई है।...मुझे कुछ भी नहीं सूझ
रहा है।...मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा हूँ। यह भँवर मुझे लील
रहा है।...इस जुलूस में शामिल तमाम लोग इस भँवर में गड़ाप होते
जा रहे हैं...। ..गहरे,...बहुत गहरे...इस काले भयावह भँवर की अतल गहराइयों
में नीचे पहुँचता हूँ कि एक बार फिर अचानक दृश्य बदलता है...।
एक तेज़ प्रकाशपुंज दीप्त होता है।...ऐसा प्रकाशपुंज, जो अँधेरे
से भी ज्यादा भयावह है,...आँखों में बर्छी की नोक की तरह चुभता
हुआ...। इस प्रकाश की परिधि में चाची दिखती है,...अपने पति के
शव पर लोटती और दहाड़ें मारकर रोती हुई चाची।...पथरायी आँखों से
अपने अजन्मे शिशु की प्रतीक्षा करती विद्या दिखती है।...और
दिखती है कमला,...अपने दरवाज़े पर आकर अचानक अदृश्य हुए वसंत के
पाँवों की छाप ढूँढ़ती-निहारती कमला।...पर मानू भाई कहीं नहीं
दिखा! वह लगातार अनुपस्थित रहा है। उस समय भी, जब जुलूस शुरु
हुआ, वह नहीं था। मैं जानता हूँ कि उसे मालूम है कि उसको कब
कहाँ होना चाहिए।...वह जानता है कि मेरी हत्या के इस नाटक का
उपरांत दृश्य कहाँ मंचित होगा और कौन लोग मंचित करेंगे।...क्या
मेरी हत्या के उपरांत दृश्य में वे लोग मानू भाई को भी...? |