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अपने स्टॉप पर वह हमेशा देर से पहुँचती। बस रुकती। दो-चार मिनट उसका इन्तज़ार करती और तब वह सब्ज़ीमंडीवाली गली से गिरती-पड़ती हुई निकलती। हाँफती हुई वह बस में घुसती और मेरे पास की सीट पर धम्म से गिर पड़ती। वह हमेशा मेरे साथ ही बैठती हालाँकि, पी.के.सिंह राठौर, जिन्हें हम सब पीठ पीछे हल्दीघाटी का भगोड़ा कहते, हर रोज़ अपने पास की सीट इस उम्मीद में ख़ाली रखते कि विद्या... लम्पट साला।

इतनी सुबह, नींद से अलसायी आँखों वाले छोटे-छोटे बच्चों का स्कूल जाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। स्कूल की बस से जाना मजबूरी थी वरना, मैं कभी उनके साथ न जाता। अक्सर मेरा जी करता, कहीं किसी खुले मैदान या पार्क के पास पहुँचकर बस रुकवाऊँ और बस का दरवाज़ा खोलकर बच्चों को खेलने के लिए आज़ाद कर दूँ।

हाँ तो, मैं कल की बात कर रहा था। कल ग़ज़ब की ठंड थी। मैं हल्के आसमानी रंग की जैकेट और गहरे नीले रंग की जींस पहने, अपनी ज़ुल्फ़ें सहेजते हुए पुलिया के किनारे पहुँचा। बाँध पर चलते हुए मेरे जूते गीले हो चुके थे और पैरों तले रौंदी गई दूब के सूखे तिनके उनसे चिपके हुए थे। पहले मैंने सीमेन्ट की स्लैबवाली पुलिया पर पैर पटकते हुए जूतों को झाड़ने की कोशिश की और सिगरेट सुलगाने लगा। सिगरेट सुलगा ही रहा था कि वारदात हो गई।

वे चार थे। दो मोटरसाइकिलों पर दोहरा सवार होकर पहुँचे। पल भर को रुके। मैंने उनकी तरफ़ देखा। मैं मुस्कराने ही
वाला था कि आगे वाली मोटरसाइकिल के पीछे बैठे सवार ने दाग़ दिया...एक...दो...तीन...चार...।...और चारों भड़-भड़ करती मोटरसाइकिलों के साथ उड़ गए।

औंधें मुँह गिरी थी देह। आधी पुलिया पर और आधी सड़क पर। एक हल्की जुम्बिश के बाद सब कुछ शान्त हो गया। ख़ून बहकर पहले पुलिया पर पसरा। फिर रिसते हुए कोलतार की सड़क पर फैलने लगा। अफ़रा-तफ़री मच गई। बाँध से सटकर नाला के पेट में छिपे सूअरों के झुंड में सबसे पहले अफ़रा-तफ़री मची। वे सब चीत्कार की अजीब ध्वनि निकालते हुए भागे, जैसे कोई उनका गला रेत रहा हो। दूध के लिए बूथ पर जाते हुए लोग,...सुबह की सैर के लिए निकले लोग,...चाय की दुकानों पर चाय सुड़कते हुए लोग,...और वे तमाम लोग, जो सुबह की चर्या में शामिल होते हैं, पहले तो बदहवास भागे और फिर थोड़ी दूर पर धीरे-धीरे जमा होने लगे। इतने में बस आ गई। बस में बैठे बच्चे,...पी.के.सिंह राठौर,... मिस तनेजा,...बस का ड्राइवर और खलासी - सब हतप्रभ। लगभग आधा घंटा तक मजमा लगा रहा। बस में बैठे बच्चे डर के मारे आँखें मूँदे हुए अपनी सीट से चिपके थे। फिर पुलिस पहुँची और सबकुछ वैसे ही हुआ, जैसे ऐसी वारदातों के बाद हुआ करता है। पुलिस ने पहले स्कूल बस को रिलीज किया। अब इस आँखों-देखा हाल में क्या रखा है!
रोना-बिलखना,...पोस्टमार्टम,...दाह-संस्कार सब बीत चुका है।

मेरी टाँगे थरथरा रही हैं।
तीस घंटे कम नहीं होते। मैंने अपने पैरों को धरती में रोप दिया है। बहुत ज़ोर से नीचे की ओर पैरों को दबा रहा हूँ। हालाँकि मेरे टखने काँप रहे हैं। घुटने बार-बार मुड़ने लगते हैं। दोनों जाँघों का मांस ऐसे थलथला रहा है, जैसे किसी ने वाइव्रेटर बाँध दिया हो।

लोग जमा हो रहे हैं। लगभग जमा हो चुके हैं। अधिकांश मेरी ही उम्र के हैं। मेरे ही दोस्त-साथी हैं सब। कुछ अधेड़ और कूछ बूढ़े भी हैं। एक है वह दुबला-पतला धँसी हुई आँखोंवाला एक्टर, जो एक नाटक में गाँधी क्या बना, लोग उसे बापू पुकारने लगे। टोपी लगाए घूमनेवाले वह बैंक बाबू भी हैं, जो अपने थियेटर और संगीत प्रेम के कारण बैंक में कलाकारजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वह आँखे मूँदे खड़े हैं। बाँसुरी भी वह आँखें मूँदकर ही बजाते हैं। कभी नाटक, तो कभी बाँसुरी - दोनों के प्रेम में यह आदमी आधा तीतर और आधा बटेर है। लेखक मधुसूदन कुमार हैं। खिचड़ी दाढ़ीवाला यह आदमी कभी लेखक बन जाता है, तो कभी रंगकर्मी। एक सड़ियल नाटक लिखकर थियेटर में नाक घुसाए फिरते हैं मधुसूदन कुमार। सुना है, पहले कुछ नाटकों में अभिनय भी किया है। चुक्की दाढ़ीवाले आलम भाई हैं। क्रांतिकारी नाटय-निर्देशक हुआ करते थे पहले, पर इन दिनों अधिकतर गुमसुम रहते हैं आलम भाई। सबसे उम्रदराज़ हैं पकी हुई दाढ़ीवाले चित्रकार। वह लकड़ियों को चीरकर उनके भीतर छिपी प्राकृतिक रेखाओं के छापे तैयार करते हैं। उनकी आँखें बहुत तीक्ष्ण हैं। कठोर तने को छेदकर प्रकृति की लीला को देखनेवाली आँखें। कजरारी आँखों वाला वह कवि, जिसकी बकबक से लोग आजिज रहते हैं - सबसे आगे, बैनर लिये खड़ी लड़कियों के बीच खड़ा है। इस जुलूस में भाँति-भाँति के लोग शामिल हो रहे हैं।

अब जुलूस निकलनेवाला है। तैयारी हो चुकी है। सबसे आगे लड़कियाँ हैं - गहरे नीले रंग का बैनर लिये। कवि उनके बीच है, अपनी ज़ुल्फ़ों में अँगुलियाँ फिराते, तो कभी अपनी कजरारी आँखों से बगल में खड़ी हुई विद्या को निहारते हुए।

एक रिक्शा आगे और एक पीछे है। दोनों पर लाउडस्पीकर लगे हैं। पीछेवाले रिक्शा पर अमित है। मेरा दोस्त अमित। वह मेरे साथ चार-पाँच नाटकों में काम कर चुका है। अमित बोल रहा है-''हलो...हलो...माइक टेस्टिंग...हलो...वन टू थ्री...हलो...हत्यारों को गिरफ्तार करो...गिरफ्तार करो,...और वाल्युम बढ़ाओ...।...अरे और तेज़ करो यार...कलाकार की हत्या क्यों ?...जवाब दो।...हाँ,...थोड़ा-थोड़ा गैप बनाकर...बीच में नहीं।...सबसे आगे लड़कियाँ रहेंगी बैनर के साथ।...ठीक उनके पीछे बीच में सीनियर्स रहेंगे...।''

मेरे पैर मेरा साथ छोड़ रहे हैं। पर अब चलना होगा। जुलूस में शामिल आगे बढ़ना ही होगा। धरती में रोपे गए पैर के तलुओं को उखाड़कर क़दम-ब-क़दम रोपना होगा। रोपना...उखाड़ना... रोपना।
''आप आगे चलिए।...बीच में,...सीनियर्स को बैनर लेकर चलती लड़कियों के पीछे, बीच में चलना है...चलिए सर।...चलिये भाई जी...।'' मेरे नाटयदल के निर्देशक कुछ लोगों को पीछे से आगे ले जा रहे हैं।

चित्रकार, बाँसुरीवादक अभिनेता, इलेक्ट्रिशियन से लाइट डायरेक्टर बने बूढ़े बंगाली दादा, दढ़ियल लेखक, आलम भाई और खादी का सफ़ेद कलफ किया कुर्ता पहने नाटक अकादमी के अध्यक्ष का चमचा-सब आगे आ जाते हैं। बैनर लिये लड़कियाँ और ठीक उनके पीछे ये कुछ लोग। इन सबों के पीछे दो पंक्तियों में शेष लोग। विद्या से सटकर खड़ा कजरारी आँखोंवाला कवि पीछे खिसक आता है।

''
रंगकर्मी प्रशांत की हत्या क्यों ?...हत्यारी सरकार जवाब दो।''
जुलूस अब चलने को है। नारों की आवाज़ गूँजने लगी है।
''प्रशांत के हत्यारों को...गिरफ्तार करो-गिरफ्तार करो।''
प्रेस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग जुलूस के सामने खड़े हैं। कैमरों के फ्लैश चमक रहे हैं। कवि फिर धीरे-से खिसककर लड़कियोंवाली पाँत में ठीक विद्या के पास खड़ा है।

विद्या रो रही है। कैमरों की मचलती आँखों से बेख़बर विद्या रो रही है। उसके हाथों में तस्वीर है - गत्तो पर सटी हुई, जिसे वह सीने से लगाए खड़ी है और रो रही है। विद्या की बड़ी-बड़ी कोया सी आँखें रोते-रोते सुर्ख़ हो गई हैं। सूज गई हैं उसकी आँखें। रोती हुई विद्या को लक्ष्य करते कैमरों की भीड़ उसके सामने जुटी है। देखते-देखते उसके चेहरे के सामने माइक्रोफ़ोन का गट्ठर बन जाता है। एक बाईट के लिए तरसते टेलीविजनवालों को विद्या एक शब्द भी नहीं दे पाती।

जुलूस चलने लगा है। गाँधी मैदान की वलयनुमा बाहरी सड़क पर धीरे-धीरे चलता जुलूस,...दु:ख और क्षोभ से चीख़ता जुलूस, रंगकर्मी प्रशांत की हत्या का जवाब माँगता जुलूस आगे बढ़ रहा है।
मैं पीछे से आगे आ गया हूँ। पीछे शोर ज्यादा है। वैसे भी पैर घसीटते हुए पीछे-पीछे चलना मुझे कभी नहीं भाया। पर क्या करूँ ? थक गया हूँ। अब तो तीस घंटे से भी आगे निकल गया समय। आलम भाई और मधुसूदन कुमार साथ-साथ चल रहे हैं।
''शोक सभा गाँधी मैदान में होगी ?'' आलम भाई पूछते हैं।
''सुना तो है।...ठीक वहीं, ...जहाँ पिछले दिनों पुस्तक मेला में उसने नुक्कड़ नाटक किया था।'' मधुसूदन कुमार के स्वर में थरथराहट है।
''
तुमने उसे उस दिन परफ़ॉर्म करते हुए देखा था ?'' आलम भाई फिर पूछते हैं।
''हाँ, देखा था। ... कुछ समझ में नहीं आता कि आख़िर क्यों मार डाला उसे।''
''विद्या को देखा आपने ?'' फुसफुसाती हुई आवाज़ में इस नए सवाल के साथ कवि पीछे खिसक आया है।
''हाँ, सब देख रहे हैं।'' आलम भाई अपनी चिढ़ दबाते हुए कहते हैं।
''बहुत रो रही है। कल भी दिन भर रोती रही। आज भी, जबसे आई है,...रो ही रही है।'' बनावटी दुख चिपकाए कवि के चेहरे की त्वचा के भीतर से शरारत छलक रही है।
''दोस्त था उसका। मैं जानता हूँ, बहुत अच्छा दोस्त था उसका। कई नाटकों में दोनों ने साथ-साथ काम किया था।...दोनों एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़ाते भी थे। वह संगीत टीचर था और विद्या ड्रामा टीचर।'' मधुसूदन कुमार सारी सूचनाएँ देकर कवि से पीछा छुड़ाना चाहते हैं।
कवि फिर फुसफुसाता है - ''आँखें लाजवाब हैं विद्या की।...और रोती हुई आँखें! बड़ी-बड़ी सुर्ख़ आँखें! जादूगरनी है यह लड़की।''
''चुप रहो यार।'' आलम भाई कवि पर झपटते हैं।
''चुप तो हूँ, पर जाने क्यों मुझे लगता है... कि कहीं कुछ मामला था ज़रूर।...रोना तो ठीक है, पर ओवर एक्टिंग से सन्देह पैदा होता है कि...।''
''बेहूदगी बन्द कीजिए आप।...चुप रहिए।...कवि हैं या हत्यारे ?'' मधुसूदन कुमार दाँत पीसते हुए दबी ज़ुबान में डपटते हैं।

बिना बुरा माने कवि फिर आगे खिसक लेता है। नारे तेज़ हो गए हैं। पुलिस की गाड़ियों ने इस छोटे से जुलूस को अपने घेरे में ले लिया है। जुलूस के साथ मंथर गति से चलती एक गाड़ी आगे और एक पीछे। जुलूस आगे बढ़ रहा है। पीछे चलती पुलिस की जिप्सी में आगे बैठा पुलिस अधिकारी अपने कन्ट्रोल रुम में बैठे अधिकारी को सन्देश दे रहा है-''...सर!...सौ के आसपास लोग हैं सब,...कलाकार हैं सब,...नाटक-वाटक करनेवाले हैं सब,...बैरिकेटिंग की ज़रूरत नहीं है सर,...सेक्रेटारियट नहीं जायेगा सब,...एग्रेसिव नहीं है सर,...हाँ सर,...एक्ज़ीविशन रोड,...डाकबँगला रोड ...फ़्रेज़र रोड होते हुए,...वापस गाँधी मैदान।...यही रूट है सर,...वहीं कन्डोलेंस करेगा सब...सर...यस सर...ओवर एण्ड आउट सर...।''

जुलूस को पीछे से ठेलती हुई जिप्सी चली जा रही है। गाँधी मैदान की यह वलयनुमा बाहरी सड़क छूट रही है। लगभग दो किलोमीटर का चक्कर काटकर फिर इसी सड़क में इसे मिलना है और उत्तारी गेट से भीतर प्रवेश करना है।

मैं अब चलना नहीं चाहता। धूप निकल आई है। कोहरे और ठंड के मौसम में धूप का मज़ा ही अलग होता है। बेहतर होगा मैं, अपने निर्धारित रास्ते पर जाते इस जुलूस को छोड़ दूँ,...बाहर निकल आऊँ और इस दक्षिणी गेट से गांधी मैदान के भीतर चला जाऊँ। पुस्तक मेला में जहाँ नुक्कड़ नाटक हुआ था, ठीक उसी जगह पर बैठकर धूप सेंकते हुए जुलूस के
वापस आने का इन्तज़ार करुँ।

मैं सड़क पार करता हूँ और फिर गाँधी मैदान की फेंस। जैसे-तैसे फूलों की क्यारियाँ लाँघकर टाँगें घसीटते हुए मैदान की ओर बढ़ता हूँ। इन तीस-बत्ताीस घंटों में सबसे बड़ा फ़र्क़ यही आया है कि मैं टाँगें घसीटकर चलने लगा हूँ। पहले मैं बहुत तेज़ चलता था,... मस्ती में।

मैं
ठीक वहीं खड़ा हूँ, जहाँ हम सबने नाटक किया था। यहीं,...ठीक यहीं सैकड़ों लोग एक गोल घेरे में जमा थे और हम सब नाटक कर रहे थे। चारों तरफ़...बहुत बड़े दायरे में पुस्तकों के स्टॉल थे...हज़ारों लोगों की आवाजाही थी,... संस्कृति के पहरुओं की ठनकती हुई आवाज़ें थीं। आज फिर यहीं आएँगे सब। यहीं आकर जुलूस को शोकसभा में बदल जाना है।

मैं बैठ जाता हूँ। मेरे चारों तरफ फैला है हरी दूबों से पटा मैदान। मैदान को पार करनेवाले लोगों के पाँवों से पगडन्डियों की कई रेखाएँ बनी हुई हैं। इन रेखाओं पर लगातार लोगों का आना-जाना लगा हुआ है। हर दिशा में लोग ही लोग हैं। पूर्वी छोर पर एलिफिंस्टन सिनेमा के ठीक सामनेवाले हिस्से में यौनशक्तिवर्ध्दक बूटियाँ बेचने और जवानी का रहस्य समझानेवाले मजमेबाज़ों को घेरे भीड़ जुटी है। रिज़र्व बैंक के सामनेवाले भाग में ढोलक की थाप और आल्हा की तान पर झूमते लोगों की भीड़ है। कहीं कान से मैल निकालनेवाले तो कहीं हाथों की रेखाएँ पढ़नेवाले बैठे हैं। खोमचेवाले अपनी टाँस भरी आवाज़ में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते घूम रहे हैं। इस विशाल मैदान में इस समय पचासों तेन्दुलकर और सहवाग चौके-छक्के मार रहे हैं। यह सब हर रोज़ होता है यहाँ, पर आज जो उत्फुल्लता है, उसे कई दिनों के बाद धूप की आवक ने जना है।...कौन कहता है कि सूरज नहीं चलता, स्थिर रहता है! झूठ है सब। किसी दूर देश की यात्रा से लौटा है सूरज। उसे फिर यात्रा पर निकलना है। वह मुझसे दूर खड़े ध्वज-स्तम्भ के शिखर पर थोड़ी देर विश्राम के लिए रुका है और जादूगर की तरह अपनी झोली से धूप के छोटे-छोटे पंछियों को निकालकर गाँधी मैदान मे छोड़ रहा है। अपने पंख खोले इधर-उधर उड़ रहे हैं धूप के पंछी। गाँधी की काली मूर्ति की नाक पर, लाठी की नोक पर, कमर से लटकी घड़ी पर,...खोमचावालों की फलियों पर,...ज्योतिषी के सुग्गावाले पिंजड़े पर,...तेलमालिश करनेवालों के बक्सों पर,...तेन्दुलकरों के
बैट पर;...चारों तरफ फैले हैं और फुदक रहे हैं धूप के पंछी।

वारदात से ठीक पहले ऐसे ही फुदकते फिरता था मैं। उस दिन भी पुलिया पर फुदकते हुए ही आया था। पुलिया पर पहुँचकर सीमेंट की स्लैब पर जूतों को झाड़ने के लिए थोड़े ही पाँव पटके थे मैंने! नहीं!...मैंने तो अपने पंख फड़फड़ाए थे। ठीक वैसे ही, जैसे परवाज़ भरने से पहले पंछी अपने पंख फड़फड़ाते हैं।...सब कुछ ऐसे आनन-फानन में हुआ कि...सिगरेट को छूती माचिस की लौ आँखों के सामने आकर चक्कर काटते विशाल काले खोह में बदल गई। नदी के जल में जैसे भँवर पड़ता है, ...वैसे ही तेज घूमता विशाल काला भँवर...।

''काला भँवर है प्रेम।...और कुछ भी नहीं।...एक भयानक काला भँवर।'' मानू भाई कहता है।
प्रेमदीवानी विद्या की दीवानगी को लेकर मानू भाई के पास ऐसे अनेक संवाद हैं। हम तीनों यानी, मैं, विद्या और मानू भाई अकसर साथ होते हैं। और जब कभी विद्या अपने प्रेम की गठरी से कोई पीड़ा-प्रसंग निकालकर सुबकने लगती है, मानू भाई किसी ऐसे ही संवाद से अपनी बात शुरू करता है।

क दिन विद्या ने कहा - ''बस, अब बहुत हुआ।...अब मैं उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं करूँगी।''
''तुम्हें यह फैसला बहुत पहले ले लेना चाहिए था।'' मैंने कहा।
मेरी बात अनसुनी करते हुए मानू भाई ने कहा - ''नहीं विद्या,....वो फिर झूठ बोलेगा और तू फिर उसकी बात मानेगी। यही तो है काला भँवर।''
मैं फिर बीच में टपका - ''काला भँवर या काला भँवरा ?''
''चुप बे!'' मानू भाई डाँटते हुए बोला - ''काला भँवरा नहीं,... काला भँवर।...ब्लैकहोल। एक बार घुसे, तो घुस गए समझो,...बाहर आना असम्भव।''
मैंने ज़िद की - ''नहीं, भँवरा।...भँवर नहीं, भँवरा। मानू भाई! वसंत ऋतु में खिले फूल पर मँडराता भँवरा है प्रेम। जितनी बार भगाओ, उतनी बार भन-भन करता हुआ आकर बैठ जाता है मन की पँखुरियों के भीतर।''
''बहुत कविताई झाड़ रहा है बे ?...देख रहा हूँ, तेरा चाल-चलन आजकल गड़बड़ हो रहा है।...वसंत ऋतु,...फूल,...पँखुड़ी,...प्रेम,...भँवरा सबके सब जादूगरों के टोटके हैं। अन्त में ब्लैकहोल ही बचता है। प्रेम के चक्कर में जो लोग नाच रहे हैं, उनसे पूछ। फिर पता चलेगा कि ब्लैकहोल है या कालिदास का भँवरा!'' मानू भाई की आवाज़ टन्न-टन्न बज रही थी, चढ़े हुए तबले के दाएँ की तरह।
''मानू भाई, तुम कुछ भी कहो, पर भँवरा...''
''अबे, तू बन्द करेगा अपना भँवरा पुराण या दूँ एक लात ?...जुम्मा-जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए तेरी पैदाइश के,...तेरा छठियार भी नहीं हुआ अभी, और भँवरा के चक्कर में पड़ रहा है। अबे, तू मेरी फिलॉसफी को काट रहा है ? ...बच्चा है अभी तू... बच्चा। तू क्या टिकेगा मेरी फिलॉसफी के सामने! आजकल तू बहुत उड़ने लगा है।... खोया-खोया,...जाने कहाँ उलझा रहता है! मैं कई दिनों से देख रहा हूँ तुझे।...और बातें भी तू उलझी-उलझी करने लगा है। लहरों के राजहंस मेरे!
वसंत ऋतु बहुत जानलेवा चीज़ है। वसंत...फूल... भँवरे को तूने देशी दारू का पाउच समझा है क्या ?...चल विद्या, निकाल दस रुपए,...पाँच हैं मेरे पास। चल,...जल्दी निकाल।''

''कुत्तो हो तुम दोनों।...ख़ाली भौं-भौं करना जानते हो। न दूसरों की सुनोगे, न समझोगे।...दूसरे को क्या समझोगे, जब अपने को ही नहीं समझ सके।'' विद्या बिफरती हुई उठकर खड़ी हो गई।
''मैं...मैं तो पैसे नहीं माँग रहा और ना ही मैं पाउच पीता हूँ।... फिर तू मुझे क्यों कोस रही है ?'' मैंने सफ़ाई दी।
''तुझे भी समझ रही हूँ मैं। ठीक कहता है मानू। आजकल तेरे भी पंख निकल आए हैं। मेरी जान पर बनी हुई है और तुझे भँवरा... फूल और वसंत सूझ रहा है?'' आँसू में डूबती-उतराती विद्या मुझपर अपनी खीज मिटा रही थी।
''मानू भाई, मैं चला...'' मैं पीछा छुड़ाकर भागना चाहता था कि मानू भाई ने हाथ पकड़ लिया।
''जाता कहाँ है ? देख।...भँवरा दिखाता हूँ तुझे।...देख,... विद्या की आँखों को देख ग़ौर से...इसकी रोती हुई बड़ी-बड़ी काली आँखों को देख...''
''चुप रहो।...तुम सब एक जैसे हो। झूठे और मक्कार।...लो दस रुपए।'' पर्स से दस का नोट निकालकर मानू भाई के सामने फेंकती हुई विद्या चली गई।
हमदोनों जाती हुई विद्या को देखते रहे। विद्या के ओझल होते ही मैंने मानू भाई को देखा। उसके खुरदुरे चेहरे पर जैसे-तैसे चिपकी मिचमिचाती हुई आँखों में लबालब आँसू थे। अपनी आँखों की चुगली पकड़ में आ जाने से, पहले तो वह हिचकिचाया। फिर धीमी आवाज़ में बोला-''सँभल के प्रशांत,...अगर तू प्रेम कर रहा है, तो सँभल जा।...इक आग का दरिया
है... यानी ब्लैकहोल...काला भँवर।''

''मानू भाई! ऐसा कुछ भी नहीं है मानू भाई।...तुम।'' मैं बोल नहीं पा रहा था।
''तू निकल, मैं आ रहा हूँ।...फिर बैठेंगे थोड़ी देर।''
''मानू भाई, मेरे वाले म्युजिक पीस पर काम करना है। कल गड़बड़ हुई, तो सुबोध भाई कच्चा चबा जाएँगे मुझे।''
''तू फिकर मत कर,...सब हो जाएगा। मैं गया और आया।'' मानू भाई ने अपने स्वर पर क़ाबू पा लिया था। हम दोनों अलग हुए। वह दारू के सरकारी ठेके की ओर गया और मैं घर।

हमदोनों एक ही बस्ती में रहते हैं। पहले यह बस्ती शहर के पूर्वी छोर पर थी, पर अब शहर के विस्तार ने इसे अपने पेट में ले लिया है। शहर की गन्दगी लेकर गंगा तट की ओर जाते नाले के किनारे बसी इस बस्ती की झुग्गियों में हमारा जन्म हुआ। जिनके घर टिन-करकट-पालिथिन की छाजन से विकसित होकर छोटे-छोटे दड़बेनुमा एक मंज़िला मकानों में बदल गए, उनमें हमारा घर भी शामिल हुआ। इस बस्ती में कोई किसी की ज़ात नहीं पूछता। सूअरों के झुंड से लेकर जर्सी गायों तक को पालनेवाले लोग हमारी बस्ती में हैं। जुआ, शराब, रंडीबाज़ी और चोरी यहाँ शर्म की बात नहीं। रद्दी चुनकर बेचने से लेकर कच्ची शराब तक के धन्धे को यहाँ प्रतिष्ठा प्राप्त है। इस शहर की मशहूर इमारतों को आकार देने और सजाने-सँवारनेवाले राजमिस्त्री इस बस्ती में रहते हैं। यहाँ के लोग अलसुबह जागते हैं और बगल की कृषि बाज़ार समिति से फल-सब्ज़ियाँ और मछली लेकर अपने-अपने ठेलों-टोकरियों के साथ पूरे शहर में फैल जाते हैं। समय-चक्र का सबसे जीवन्त हिस्सा यहाँ रात होती है। रात में यह बस्ती दुनिया के सबसे मनोरंजक रंगमंच में बदल जाती है। यहाँ
टे्रज़िडी को भी कॉमेडी की तरह मंचित किया और देखा जाता है।

मानू भाई मुझसे सात साल बड़ा है। मैं बाईस का और वह उनतीस का। इसी सात साल की पूँजी के बल पर वह लगातार मुझ पर शासन करता रहा है। अब तो डाँट-फटकार कर या गालियाँ देकर छोड़ देता है, पर बचपन में पीटता भी था। यही सात साल मेरे लिए भी पूँजी हैं। इसी पूँजी के बल पर मैं जब हठ कर बैठता हूँ, तो वह मेरे सामने घुटने टेक देता है। मेरी नाराज़गी का एक पल उसके लिए एक जन्म जितना लम्बा होता है। मेरी माँ इस नाले के उस पार बसे बड़े लोगों के मुहल्ले में नौकरानी का काम करती थी। पिता ठेले पर सब्ज़ी बेचते थे। दोनों नहीं रहे। चार भाइयों में मैं सबसे छोटा हूँ। सबसे बड़ा भाई पिता वाली जगह पर ही ठेला लगाकर फल बेचता है। दूसरा भाई प्लम्बर है। तीसरा ऑटो रिक्शा चलाता है। बहन अपने पति के साथ इसी शहर के दूसरे हिस्से में रहती है। सुखी परिवार है मेरा।

मानू भाई का परिवार बहुत छोटा है। उसकी माँ और वह। मानू भाई की माँ को मैं चाची कहता हूँ। चाची पिछले सात वर्षों से हर शनिवार को पीपल के पेड़ को जल का अर्घ्य देती और काले कुत्तो को रोटी खिलाती है। मानू भाई पर शनि की साढ़ेसाती है। छह महीने बाक़ी हैं साढ़ेसाती उतरने में। चाची की लगातार कोशिशों के बावजूद मानू भाई शादी के लिए तैयार नहीं होता। चाची को उम्मीद है, जल्दी ही उसके दिन बहुरेंगे और मानू भाई शादी के लिए हाँ कह देगा।

मानू भाई के पिता को मैंने नहीं देखा। मानू भाई को भी पिता की याद नहीं। अपनी माँ की बातें सुन-सुनकर मानू भाई ने अपने पिता की एक आकृति मन ही मन गढ़ ली है। चाची बताती हैं कि वह मानू भाई जैसे ही लम्बे-छरहरे और गोरे थे। ठीक मानू भाई जैसी ही खड़ी नाक थी उनकी। गले की टाँस मानू भाई से बीस थी। तेज़ गिरती वर्षा की बड़ी-बड़ी बूँदों की तरह उनकी अँगुलियाँ गिरती थीं ढोलक की चमड़ी पर। वह फाग गाते तो...। मानू भाई ठीक अपने पिता की तरह ढोलक बजाना चाहता है। वह चाहता है, अपने पिता की तरह फाग गाना। वह चाहे जितना कोसे मुझे, पर मैं जानता हूँ कि वह अपने ढोलक की थाप और अपने गले की तान से इस पृथ्वी पर खिले फूलों के पराग को आकाश तक पहुँचाने की लालसा में जी रहा है। जो जीवन पिता नहीं जी सके, या जिस जीवन को लूट ले गए हत्यारे, मानू भाई उस जीवन को बचाना चाहता है। वह अपनी माँ के गर्भ में था, तभी उसके पिता की हत्या हो गई थी। वह अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ अपने गाँव से भागकर शहर आए थे और इस बस्ती के नागरिक हो गए थे। बौराए वसंत की तरह उन्होंने नीच कुल की स्त्री से प्रेम किया और अपने ब्राह्मण-कुल को अँगूठा दिखाकर गाँव से नाता तोड़ लिया। पिता, चाचा और भाइयों की नाक काटकर शहर लेते आए थे मानू भाई के पिता। वे सब अपनी नाक खोजते शहर पहुँचे और उनका गला काटकर चलते बने। लोग बताते हैं कि बिना सिर के उनकी लाश इसी नाले के किनारे पड़ी मिली थी।

पिता की हत्या के तत्काल बाद मानू भाई अपनी माँ के गर्भ से बाहर निकला। उस समय सातवाँ महीना चल रहा था। सातवें महीने की संतान काल का ग्रास बनने के लिए पैदा होती है। पर मानू भाई काल को मुँह चिढ़ाता रहा। जादू-टोना, जंतर-मंतर और दवा-दारू के बल पर चाची ने उसे हर बार काल के गाल से खींचकर बाहर निकाला। चाची ने हर मंदिर और दरगाह में माथा पटका,...ओझा-गुनियों के यहाँ भभूत और अक्षत बटोरती रही,...डाक्टरों-वैद्यों के यहाँ पैसे लुटाती रही, तब कहीं जाकर मानू भाई के बचपन का दु:स्वप्न बीता। मानू भाई ने इस दु:स्वप्न की सिर्फ एक याद को सँजोकर रखा है, और वह है दारू। बचपन में होमियोपैथिक दवा की शीशियों से पानी में दो बूँदे टपकाकर दवा लेने की जो आदत पड़ी, वही आज तक जारी है। मानू भाई के लिए दारू की व्यवस्था सुबोध भाई करते। पर सिर्फ उन्हीं दिनों, जब उन्हें अपने नाटक का काम निकालना होता। बाक़ी दिनों में वह इधर-उधर हाथ-पाँव मारता है,...पर मुझसे दारू के लिए आज तक एक पैसा नहीं लिया उसने। कभी देना चाहूँ, तो भी नहीं। हाँ, विद्या से गाहे-बगाहे दस-पाँच झटक लेता है।

विद्या मुझसे बड़ी और मानू भाई से छोटी है। वह विद्या को बहुत प्यार करता है। मुझसे ज्यादा। हालाँकि, विद्या का मानना है कि मानू भाई मुझे ज्यादा प्यार करता है। हो सकता है, हम दोनों ग़लत हों। मानू भाई कि फिलॉसफी है कि पुरुष प्रेमिका या पत्नी के रूप में औरत को कभी ईमानदारी से प्यार नहीं करता। बाक़ी रिष्तों में वह औरत के प्रति काफ़ी ईमानदार होता है। उसका कहना है कि स्त्री सिर्फ़ अपने प्रेमी के प्रति ईमानदार होती है और दूसरे रिष्तों की छाती पर पाँव रखकर वह कभी भी अपने प्रमी के गले में बाँहें डाल सकती हैं।...बस, ऐसी ही बातों पर विद्या मानू भाई से लड़ पड़ती है। वह चीख़ती-चिल्लाती है, पर इस अखिल विश्व में सिर्फ़ मानू भाई ही है, जिसके सामने वह अपने जीवन के दु:खों की गठरी खोलती है। वह अपने प्रेम-प्रसंग के तमाम ज़ुल्म-ओ-सितम ऐसे बयान करती है, जैसे किसी वैद्य के सामने रोगों का बखान कर रही हो। वसंत के उन्माद में बौराई उसके भीतर की औरत जब-जब पिघलकर सुनहली मदिरा में तब्दील हुई है, मैंने मानू भाई को परेशान देखा है। इतना परशानहाल कि लत बन चुकी शराब तक को वह भूल गया है। बतास बनकर विद्या के भीतर फूटती वसंत की हवा की आहट पाते ही मानू भाई की अँगुलियाँ ढोलक पर थाप देने के प्रति उदासीन हो गई हैं। मानू भाई ऐसे समय में चुप-चुप रहता है। लगभग भयभीत सा। विद्या के रगों में बहते रुधिर का संगीत जब उसके चेहरे से छलकने लगता है, मानू भाई की मिचमिचाती आँखों में किसी गहरे अवसाद की प्रतीक्षा होती है। रोती-बिसूरती विद्या,...रेत की ढूह-सी पसरी विद्या,...अपने दु:खों के द्वीप में सिर पीटती विद्या को सँभालने के लिए वह हर बार अपने को सहेजकर रखता है। अपनी आत्मा पर अपमान, प्रपंच और उपेक्षा की लिखावटें लिये, वसंत लुटाकर जब-जब लौटती है विद्या, मानू भाई बहुत धीरज के साथ राख की ढेर से चिंगारी ढूँढ़ता है और विद्या को रचने लगता है। वह कभी आग से नहीं डरता।...वह पानी से नहीं डरता।...वह सिर्फ़ वसंत से डरता है।

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