प्यार-व्यार
जैसी फालतु चीज में ना तो वरुण का विश्वास था और ना ही उसे कभी
ऐसा हुआ। हाँलाकि ये कहना मुश्किल था कि विश्वास नहीं था इसलिए
प्यार नहीं हुआ या प्यार नहीं हुआ इसलिए विश्वास नहीं था।
लड़की के पति की तुलना कुत्ते से करने में वरुण को अजीब-सी
खुशी हुई और वो शायद उसके आगे भी कुछ सोच लेता अगर केटरर उसका
खाना लेकर ना आ गया होता। रेलवे का खाना और रेलवे का पखाना, ये
अच्छे भले आशावादी आदमी की विचार धारा १८० डिग्री से घुमा सकते
हैं। खाना ऐसा था कि शायद सरकारी अस्पताल के मरीज को भी उससे
अच्छा खाना नसीब हो।
''अचार ले
लीजिए।'' वरुण को खाने की तरफ यों देखते हुए लड़की अचार की
शीशी उसकी तरफ बढ़ाते हुए उससे बोली।
''जी शुक्रिया, मैं अचार नहीं खाता।'' पहले से कुढ़े बैठे वरुण
ने इंकार कर दिया।
''तकल्लुफ ना करिए। इसमें कोई बेहोशी की दवा नहीं मिलाई है
हमने।''
लड़की की बात सुन सिवाय वरुण के सब हँसने लगे तो उसने भी अपनी
झेंप मिटाने के लिए आवाज़ मिला ली।
''ले लीजिए अचार, वरना अचार से हों ना हों, रेलवे के इस खाने
से बेहोश जरूर हो जाएँगे।'' इस बार लड़की का पति पहली बार
बोला।
''अजीब जबरदस्ती है, अबे जब नहीं खाना तो नही खाना। अचार नहीं
खाऊँगा तो कोई पहाड़ टुट पड़ेगा क्या। अब वरुण भी पूरी तरह बहस
में आ गया था। उसने फैसला कर लिया कि अब ये रेलवे का खाना वो
उन्हें बिना अचार के ही खाकर दिखाएगा।
''जी तकल्लुफ की कोई बात नहीं, पर मैं वाकई अचार नहीं खाता।''
कह वरुण ने खाना, खाना शुरू कर दिया। खाना ऐसा था जैसा पानी
में गोबर मिला कर हल्दी नमक के साथ उबाल दिया हो वो भी बिना
छौंक लगाए। बस बदबू ही आना बाकि था। अपनी अचार ना लेने की
बेवकूफी से वरुण का दिमाग और खराब हो गया। उसे बस यही डर था कि
कहीं खाना खाते हुए उसे उल्टी हो गई तो सारी मर्दानगी धरी की
धरी रह जाएगी।
रो-पीटकर
खाना खत्म किया तो ऐसा लगा जैसे कोई जंग जीत ली हो। रात के वो
खूबसूरत पैर वरुण कब के भूल चुका था और उसकी नजरों में वो
पति-पत्नी किसी दुश्मन से कम ना थे। हँसते तो लगता कि उसीकी
हालत का मजाक उड़ा रहे हों और हँस भी तो कितना रहे थे। मतलब
बात ना बात की दुम, लिया और हँसना शुरू कर दिया। वरुण को बिना
बात के हँसने वाले लोगों से सख्त नफरत थी।
''चाय लेंगे आप।'' गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी तो सीधे बैठते हुए
पति बोला।
''जी नहीं।''
''अजी, अब ऐसी भी क्या नाराज़गी। चाय तो पीते ही होंगे ना।''
''जी नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।'' इस बार वरुण का स्वर थोड़ा
ढीला पड़ गया।
''अरे महेश जा जरा चार चाय तो ले आ।'' आदेश सुनते ही वो
गँवार-सा दिखने वाला आदमी चुपचाप उठकर चल दिया।
''वो आदमी...''
''जी महेश। हमारे लिए काम करता है।''
क्या ठाटबाट हैं! ट्रेन में भी नौकर लेकर चल रहे हैं। वरुण
सोचने लगा।
''आप क्या करते हैं?'' सीट पर पसरे पड़े पति ने फिर बात शुरू
की।
''जी मैं आई.एम.एस., डैली से एम.बी.ए. कर रहा हूँ।''
''आई.एम.एस...। लड़की ने आश्चर्य मिश्रित उत्सुकता से जवाब
दिया। सुना है वहाँ तो बड़ी मुश्किल से एडमिशन मिलता है। बड़ी
पढ़ाई करनी पड़ती है।''
''जी सुना तो मैंने भी कुछ ऐसा ही था।'' पिछले दो साल में
पहली बार उसे अपने आई.एम.एस. का होने का गर्व हुआ था।
''तो अभी कहाँ घर से वापस जा रहे हैं।'' दढ़ीयल ने आगे बात
बढ़ाते हुए पूछा।
वरुण चाहता
तो इसका जवाब हाँ में देकर वहीं बात खत्म कर देता पर पिछले दो
महीने से मिल रही लगातार असफलता ने उसे बहुत ही कड़वा कर दिया
था।
''जी नहीं। मैं दिल्ली का ही हूँ। पुणे में एक कंपनी का
इंटरव्यू देने आया था। अब रिजेक्ट हो गया हूँ तो वापस जा रहा
हूँ। और कुछ।''
एक पल के लिए वहाँ खामोशी छा गई। पत्नी ने इशारे से पति को चुप
रहने को कहा और फिर बात बदलने के लिए खुद ही बोली, ''ये महेश
भी जाने कहाँ जाकर मर गया, चाय लेकर नहीं आया अब तक।''
वरुण भी अपना
मुँह खिड़की की तरफ कर बाहर झाँकने लगा। सामने से महेश एक
प्लेट में चार चाय लेकर आ रहा था। महेश ने खिड़की से ही चारों
चाय अंदर पकड़ा दी और प्लेट वापस करने चला गया। चाय पीने का मन
तो नहीं था पर पहले से ही खराब हो चुके माहौल को सँभालने के
लिए पति-पत्नी को चाय पकड़ा, चाय की सुबकी लेता हुआ वरुण बोला,
''चाय के लिए शुक्रिया।''
''अजी चाय के लिए कैसा शुक्रिया। जहाँ चाय, वहाँ जाय। हम तो
कहते हैं कि मंदिरों में प्रसाद में चाय बँटनी चाहिए और वो भी
हमारी श्रीमतीजी, मधु के हाथ की। आहाहा जितना मीठा नाम, उतनी
मीठी चाय। आपका नाम...?''
''जी वरुण।''
''मेरा नाम विनायक है। आप आइए कभी हमारे घर चाय पीने। इनके हाथ
की चाय के दिवाने ना हो गए तो कहिएगा।''
''जी जरूर। कुछ देर पहले जो मैंने कड़वी बात बोली उसके लिए माफ
कीजिएगा।''
''अरे कैसी बात करते हैं वरुण बाबू। हम तो बस यही कहेंगे कि
मायूस मत होना। लगे रहो, सफलता जरूर मिलेगी।''
''बात तो आपकी ठीक है विनायक साहब। पर कहना आसान है। जिसके ऊपर
बीतती है ना वही जानता है कि बेरोजगार होना क्या है। उपदेश
देने के लिए सब तैयार रहते हैं।'' वरुण के सब्र का बाँध फिर
टूट गया। उसे विनायक की किस्मत से अजीब-सी जलन हो रही थी।
एक खयाल रखने
वाली बीवी जो सुंदर होने के साथ-साथ समझदार भी थी। नौकर-चाकर।
हुँह, इतने में तो मैं भी बोल-बचन हो जाऊँ। वरुण ने फटाफट चाय
खत्म की और ऊपर की बर्थ पर चढ़ अखबार पढ़ने लगा। अखबार खत्म हो
चुका था पर फिर भी नीचे जा फालतू के हँसी मजाक का हिस्सा बनने
का उसका कोई मन नहीं हुआ। रात का खाना खाकर उसने समय देखा तो
नौ बज चुके थे। ट्रेन का दिल्ली पहुँचने का समय सुबह चार बजे
था। दिल्ली पहुँचकर फिर वही मारामारी- ऑटो की कचकच, कैंपस मे
इंटरव्यू, वॉय एम.बी.ए.। शैः, ये भी कोई जिंदगी है। वरुण ने
मोबाइल में सुबह ३.५० का अलार्म लगाया और चादर तान कर सो गया।
रात भर वरुण के दिमाग मे मधु और विनायक का हँसता हुआ चेहरा
घूमता रहा। जितना वो हँसते उतना ही उसे, विनायक से जलन होती।
जैसे-तैसे आँख लगीं तो अचानक कोई चीज़ पैरों को हिलाती-सी लगी।
वरुण ने कंबल से सर बाहर निकाल कर देखा तो ये महेश था जो उसे
ही उठा रहा था।
''क्या हुआ?'' वरुण ने ऊँघती हुई आवाज़ में पूछा।
''निजामुद्दीन स्टेशन आने वाला है साहब।''
वरुण ने टाइम देखा तो अभी ३.३० बजे थे।
''अभी आधा घंटा है। मैंने अलार्म लगा रखा है। मैं उठ
जाऊँगा।'' वरुण कंबल ओढ़ अंदर से ही बोला।
''जी थोड़ी तकलीफ होगी। हल्की-सी मदद चाहिए थी।'' इस बार मधु
बोली।
''क्या हुआ?'' चिढ़कर वरुण बोला। जवाब में मधु चुप ही रही।
''ठीक है।'' कह वरुण दोनों को कोसने लगा। इतना सामान लेकर
ट्रैवल क्यों करते हैं कि पति और नौकर के होते हुए भी किसी और
की मदद की जरूरत पड़े। वरुण नीचे उतरा तो विनायक और महेश दोनों
ही वहाँ नहीं थे।
''क्या मदद चाहिए?'' वरुण ने बेरुखी से बोला।
''आपके पास कितना सामान है?''
''ये दो बैग हैं।''
''ठीक है।''
''क्या ठीक है?''
''आपके बैग मैं उतरवा दूँगी। आप बस इन्हे उतरवाने में मेरी मदद
कर दीजिए।''
''इन्हें किन्हें?'' वरुण ने सामान ढूँढते हुए, हाथ हिलाकर
पूछा।
''मेरे पति को। इनके पैर नहीं है ना।''
''क्या!'' वरुण इस जानकारी को सुनकर सन्न रह गया था।
''हाँ। अभी टायलेट गए हैं। व्हील चेयर पे तो हम बैठा देंगे। आप
महेश के साथ मिल कर जरा व्हील चेयर को नीचे उतरवा दीजिएगा।
गाड़ी बस दो ही मिनट के लिए रुकेगी। तब तक मैं आपका और अपना
सामान उतार दूँगी। माफ कीजिएगा आपको थोड़ी तकलीफ होगी।''
वरुण से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। अब उसे समझ आ रहा था कि
क्यों विनायक पूरी सीट पर पसर कर पड़ा हुआ था।
''चलिए-चलिए। जल्दी-जल्दी अपना सामान बैग में डाल लीजिए।'' मधु
बोली। ''लाइए मुझे बताइए। ये कंबल और चादर तो आपके हैं और भी
कुछ है क्या?''
''जी...वो पानी का बॉटल।'' वरुण अपने विचारों की दुनिया में
डूबे-डूबे ही बोला।
''ठीक है मैं आपका बैग लगा देती हूँ तब तक हाथ मुँह धोकर
जूते-मौजे पहन लीजिए। जल्दी।''
विनायक के
पैर नहीं थे...विनायक के पैर नहीं थे और पूरी रात वरुण विनायक
की किस्मत से जलन खाता रहा। मधु ने पलक झपकते ही वरुण का बैग
लगा दिया। बिजली की सी फुर्ती थी मधु के अंदर।
''उठ गये दोस्त। थोड़ी तकलीफ देंगे तुम्हें। फटाफट से जूते पहन
लो।'' विनायक अब फ्रैश होकर वापस आ गया था।
वरुण जूते पहनने बैठा था तो अनायास ही उसकी नज़र व्हील चेयर के
सामने के खाली स्थान पर चली गई। जूते पहनना जैसे, उसे आज
दुनिया का सबसे भारी काम लग रहा था। गाड़ी निजामुद्दीन पर रुकी
तो महेश और वरुण ने विनायक को नीचे उतारा और व्हील चेयर पर
बिठा दिया। तब तक मधु ने उसका और अपना सारा सामान नीचे उतार
दिया। धन्यवाद देकर वे तीनों आगे चल दिए तो भागकर वरुण भी उनके
साथ हो लिया। वो उनके बारे में और जानना चाहता था। महेश व्हील
चेयर को ठेलता हुआ थोड़ा आगे निकल गया तो उसने हिम्मत कर मधु
से पूछ ही लिया।
''ये सब कैसे
? ''
मधु के चेहरे पर दुख की एक झलक तक ना थी और उसी शांत भाव से
बोली, ''६ साल पहले हमारी शादी हुई थी। ये रेलवे में इंजिन
ड्राइवर थे। शादी के ६ महीने बाद ही ट्रेन एक्सीडेंट में इनके
पैर चले गए। मेरे तो आँसु ना रुकते थे। जिंदगी को भी खूब कोसा।
इन्होंने भी तलाक ले लेने की पेशकश की। पर मैं नहीं मानी। उस
समय लगता था कि क्या बेवकूफी कर रही हूँ अपनी जिंदगी बिगाड़कर।
इन्होनें भी खूब समझाया। मैंने सोचा तलाक देकर जिंदगी तो मिल
जाती पर मैं उसे जी नहीं पाती? जीने की उम्मीद खत्म हो जाती।
शुरू में तो लगा कि दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। पर फिर ना
जाने कहाँ से हिम्मत आ गई। और देखो अब कोई तकलीफ नहीं। अब
मैंने सिलाई सिखाने का एक छोटा-सा स्कूल खोल लिया है और ये भी
छोटे बच्चों को गणित और अंग्रेजी का ट्यूशन पढ़ाते हैं। अब तो
हमने एक घर भी ले लिया है।''
''तो फिर दिल्ली?''
''ओ... वो तो कोर्ट की तारीख है। पिछले पाँच साल से रेलवे के
साथ कम्पैनसेशन के लिए केस लड़ रहे हैं ना। वो कहते हैं विनायक
की गलती थी और हम कहते हैं कि नहीं। बस इसी सिलसिले में हर ६
महीने में दिल्ली आते हैं। केस में तो हर बार तारीख ही मिल
पाती है पर इस बहाने हमारा घूमना हो जाता है। चलो मदद के लिए
शुक्रिया और अगले इंटरव्यू के लिए बैस्ट ऑफ लक। मैं बहुत लकी
हूँ, देखना इस बार आपका जरूर हो जाएगा।'' कह मधु तेजी से आगे
निकल गई।
पता नहीं मधु
की चाल तेज हो गई थी कि वरुण की धीमी पर वो उसके साथ कदम
मिलाकर नहीं चल पाया। वो वहीं खड़ा उन दोनों का जाते देखकर ये
सोच रहा था कि कोई लड़की इतनी बदकिस्मत होने के बाद भी खुद को
लकी कैसे कह सकती थी। उसके जैसा नॉर्मल हार्मोनल बैलेंस वाला
आदमी तो ऐसा कभी नहीं सोच सकता। वरुण अपनी नौकरी की
फ्रस्ट्रेशन अब भूल चुका था पर फिर भी उसकी आँखों में पानी था।
ये खुशी के आँसु नहीं थे क्योंकि खुश होने लायक तो उसे जिंदगी
में कभी कुछ लगा ही नहीं था। ये दुख के आँसु भी नहीं थे
क्योंकि जिनके ऊपर बीत रही थी उनके चेहरे पर तो दुख की झलक तक
नहीं थी। फिर ये किस चीज के आँसू थे। शायद, उम्मीद के, अगर ऐसी
कोई चीज दुनिया में होती हो। वरुण को अचानक ही जावेद अख्तर का
वो शेर याद आ गया जो पढ़ा तो जाने कब था पर समझ में आज आया था-
''बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं।
अभी देखी कहाँ हैं आपने नाकामियाँ मेरी।।'' |