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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
विनीत गर्ग की कहानी— उम्मीद के आँसू


घर्रर्र... की आवाज के साथ ऑटो स्टार्ट हुआ और खाली पड़ी सड़क पर रफ्तार पकड़ता हुआ चल पड़ा। सर्दियों की रात में ऑटो में बैठना वैसे ही आसान काम नहीं और ऊपर से ये गढ्ढे। पुणे की सड़कों पर कोई भी गढ्ढों के अलावा कुछ सोच नहीं सकता और ये ऑटो ड्राइवर भी तो इतना महान था कि रात के ढाई बजे, गुप्प अंधेरे में भी सड़क के हर गढ्ढे की इकजैक्ट लोकेशन से पूरी तरह वाकिफ था। मज़ाल क्या जो पिछले पाँच मिनट में सड़क का एक गढ्ढा भी इसने मिस किया हो। शैः, सरकार भी जाने कैसे-कैसे लोगों को ऑटो चलाने का परमिट दे देती है। वरुण ऑटो ड्राइवर को कोसने लगा।
''कहाँ जा रहे हैं साहब? कुछ ज्यादा ही जल्दी की ट्रेन में टिकिट कटा ली। अब देखिये ना नींद खराब हो गई।''
''किसकी ? मेरी या आपकी?'' वरुण चिढ़ता हुआ बोला।
''अजी, हमारी नींद का क्या है साहब! हमें तो रात भर ऑटो चलानी है। आप ही की नींद की बात कर रहे हैं।''
बड़ी फिक्र है इसे मेरी, साला... मेरा ट्रैवल प्लान बनाने के बजाय अपने काम पर ध्यान क्यों नही लगाता। जाकर लालू प्रसाद यादव से क्यों नहीं पूछता जिसने ट्रेन का टाइम इतनी खुबसूरती से तीन बजे रात का रखा है। और इसके लिए तो बढ़िया ही है। इसे तो इसकी शर्तों पर सवारी मिल रही है। वरुण की चिढ़न ये सोचकर और बढ़ गई कि इस एक ऑटो वाले को रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए

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