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मनाने में उसे कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी।
''अरे भैय्या, स्टेशन चलोगे क्या?''
''नहीं, स्टेशन नहीं जायेंगे साहब। कहीं और चलो।''
''अरे भैय्या, जब जाना स्टेशन है तो कहीं और क्यों चलूँ।''
''मतलब, मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है कि रात को दो बजे अपनी नींद खराब करके ऑटो वाले को पे करूँ। क्यों, कहीं और जाने के लिए। वो भी ऑटो वाले की पसंद से।''
''भाईसाहब। जरा दिल्ली के लिए एक ट्रेन पकड़नी थी इसलिए स्टेशन जा रहा था। अगली बार, आपकी इच्छा से कहीं और भी चल पड़ेंगे।'' वरुण ने ताना मारते हुए कहा।

वरुण की बेरुखी ऑटों वालों को खास पसंद नहीं आई जो उनकी चुप्पी से साफ था। आखिर हारकर जब वरुण ने अपने दोनों बैग जमीन पर पटक प्रश्नवाचक मुद्रा में अपने हाथ उठाए तो एक ऑटो वाले को तरस आ ही गया।
''भाड़ा ज्यादा लगेगा साहब। मीटर का डबल। चलना है तो बोलो।''
''मीटर आपने लगाया ही क्यों है, भाई? '' बड़बड़ाता हुआ वरुण ऑटो में बैठ गया। वरुण की इस बड़बड़ाहट का जवाब देना, ना तो ऑटो वाले ने ही जरूरी समझा, और ना खुद वरुण ने।
वरुण ने नज़र उठाकर देखा तो ड्राइवर रीयर व्यू मिरर से अभी भी उसी की तरफ देख रहा था।
''प्लीज़। रास्ते का ध्यान करिये और ऑटो थोड़ा तेज़ चलाइए, मुझे ट्रेन पकड़नी है।'' वरुण ने किसी भी फालतू डिस्कशन की संभावना को खत्म करने के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।

ऑटो वाला संकेत समझ गया और अपनी नज़र वापस सड़क की ओर गड़ा दी। स्टेशन अब दिखने ही लगा था कि अचानक ऑटो रुक गया।
''क्या हुआ? ऑटो क्यों रोक दिया ?
''ऑटो अंदर नहीं जाएगा साहब। आपको यहीं उतरना होगा।''
''क्यों नहीं जाएगा अंदर? अभी तो और भी आगे जा सकता है। और भाड़ा भी तो आप डबल ले रहे हो।''
''अंदर वो लोग प्रीपेड की लाइन में घुसा देते हैं। हम अंदर नहीं जाएँगे।'' अपने दायें हाथ से अपना बायाँ गाल खुजाता हुआ ऑटो वाला बोला।
''पर मैंने पैसे पूरे दिये हैं।''  वरुण की आखिरी बात का ऑटो वाले की मोटी चमड़ी पर कोई प्रभाव ना पड़ा और वो अपने गाल को पूर्ववत खुजाता रहा। एक बार को वरुण के मन में आया कि उसके दोनों हाथ तोड़ दे पर फिर ये सोचकर कि बिना हाथ बिचारा अपने गाल कैसे खुजायेगा, वरुण ने पैसे उसके मुँह पर मारे और उसे, उसके हाल पर गाल खुजाता छोड़ दिया।

बाहर की खाली सड़कों की तुलना में स्टेशन पर थोड़ी चहल कदमी थी। वरुण की घड़ी के मुताबिक उसके पास गाड़ी पकड़ने के लिए अभी भी दस मिनट थे। बैग उठाकर वरुण सीधा एंक्वायरी की तरफ बढ़ चला।
''एक्सक्यूज़मी सर! गोआ एक्सप्रैस कौन से प्लेटफार्म पर आएगी?''
''पुणे में नए हो क्या?''  एंक्वायरी काउंटर वाला बिना उसकी तरफ देखे ही बोला।
''क्यों नए और पुराने लोगों के लिए अलग-अलग प्लेटफॉर्म हैं क्या?''
''नहीं प्लेटफॉर्म तो वहीं हैं पर पुराने लोग पूछने से पहले उस बोर्ड पर नज़र डाल लेते हैं।'' एंक्वायरी वाले बंदे ने काउंटर के ठीक ऊपर लगे बोर्ड की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया।
''सीधा जवाब देने में लोगों की नानी क्यों मरती है।'' डिस्पले बोर्ड को देखते हुए वरुण बड़बड़ाने लगा। गोआ एक्सप्रैस अपने सही समय तीन बजे प्लेटफॉर्म नं. २ पर आने वाली थी यानी ट्रेन पकड़ने के लिए उसके पास सिर्फ चार-पाँच मिनट ही और थे। बैग उठाकर वरुण ट्रेन पकड़ने के लिए आगे चल दिया।

प्लेटफॉर्म नं. दो पर अभी कंसट्रक्शन का काम चल रहा था। वहाँ ना तो चाय नाश्ते का इंतजाम था, ना बैठने का और ना ही कोई साइन बोर्ड। कुछ कुछ दूरी पर बिना पेंट किए खंभे गाड़कर रोशनी का टैम्प्रेरी अरेंजमैंट किया गया था। कुल मिलाकर प्लेटफॉर्म नं १ और २ की तुलनाकर भारत के असमान विकास का अंदाजा लगाया जा सकता था। पूरे प्लेटफॉर्म पर ईंटों के ढेर, रेत के टीले और आधी बनी बैंचेज़ के फ्रेम्स के अलावा कुछ ना था।
शैः। प्लेटफॉर्म अभी बना तक नहीं है और पब्लिक युज़ के लिए खोल दिया। और उस प्लेटफॉर्म नं १ का क्या, वो भी तो खाली पड़ा है उस पर भी तो गाड़ी को ले सकते थे।

दूर से पटरियों पर एक रोशनी-सी आती प्रतीत हुई। मगर ये ट्रेन तो प्लेटफॉर्म १ पर आ रही थी। अभी वरुण सोच ही रहा था कि लाऊड स्पीकर घनघना उठा- ''यात्रीगण कृपया ध्यान दें। गोआ से चलकर, पुणे के रास्ते, दिल्ली को जाने वाली, ४४५३- गोआ एक्सप्रैस अपने निर्धारित समय तीन बजे प्लेटफॉर्म २ के बजाय १ पर आ रही है। यात्रियों को हुई असुविधा के लिए हमें खेद है। मे आई हैव योर...।''
''क्या मज़ाक है यार...''- वरुण बड़बड़ाता हुआ भागा। ''साला ट्रेन को देखकर ट्रेन का प्लेटफॉर्म बताते हैं क्या। कुछ आई. टी. नाम की चीज है कि नहीं? और दुनिया को कहते फिरते हैं कि आई. टी. में हम लीडर हैं। माई फुट। अब एन वक्त पर प्लेटफॉर्म बदलने के लिए भागो।''
यात्रियों में अचानक हड़कंप-सा मच गया था। सबसे पहले प्लेटफॉर्म नं. १ पर पहुँचने की होड़-सी हो रही थी। वरुण २५ साल का जवान लड़का था और ज्यादा सामान भी नहीं था इसलिए ट्रेन रुकने से पहले ही प्लेटफॉर्म पर पहुँच गया। पर अब उसे दूसरी फिक्र लगी थी। रात में अक्सर पैसेंजर, ट्रेन के दरवाजे अंदर से ठोक-ठोककर बैठ जाते हैं और फिर खटखटाते रहो बाहर से। सब साले सोते भी तो ऐसे हैं जैसे पी-पाकर टुन्न हों। वरुण ने अपने पुराने अनुभव को याद किया और एस-६ के दरवाजे पर पूरी जान से लात दे मारी। उसकी उम्मीद के विपरीत दरवाज़े में कुंडी नहीं लगी थी और एक झटके में ही खुल गया। वरुण ने कारनामे को अंजाम दे, वाह-वाही बटोरने की खातिर, विजेता की नज़रों से इधर-उधर देखा तो उसे पूरे प्लेटफॉर्म पर ऊँघते हुए कुत्ते से ज्यादा कुछ नज़र नहीं आया। दरवाज़ा खुलने से हुई अनावश्यक आवाज़ से कुत्ते की नींद उचट गई थी और उसने एंक्वायरी वाले बंदे की तरह यों देखा मानो कह रहा हो, ''पुणे में नया लगता है'' और फिर वापस सो गया। वरुण ने बैग उठाया और मज़बूत कदमों के साथ दाँत भींचकर अपनी बर्थ की तरफ चल पड़ा। उसे पूरा यकीन था कि कोई ना कोई बेवकूफ तो पक्का उसकी सीट पर टाँग फैलाकर सोया पड़ा होगा।

आज मुँह से बात नहीं करूँगा, सीधा थप्पड़ रसीद कर दूँगा। साला जब से चला हूँ कभी ऑटो वाले से लड़ रहा हूँ कभी ट्रेन पकड़ने के लिए फाईट। लड़की के साथ भी कोई दयाभाव नहीं।
खुशकिस्मती से उसकी सीट एकदम खाली पड़ी थी। वरुण ने टिकिट निकाल कर सीट को कनफर्म किया।
''एस-६, ५६। सीट तो यही है। कमाल है खाली पड़ी है। फट गई होगी साले की। अच्छा है खाली पड़ी है वरना पिट जाता मुझसे बिना बात के।''
किसी काल्पनिक व्यक्ति पर प्राप्त काल्पनिक विजय से वरुण काफी खुश था। बिना और समय नष्ट किए हुए उसने फटाफट अपने बैग पटके, जूते-मौज़े उतार सीट के नीचे घुसेड़े और सीट पे चढ़ कंबल से मुँह ढँककर सोने का प्रयत्न करने लगा। वो पिछले २४ घंटों में हुई घटनाओं को भूलना चाहता था किंतु नींद और स्मृति पर किसका ज़ोर चलता है। जैसे ही उसने आँखें बंद की सारी घटनायें एक फिल्म की रील की तरह वापस चालू हों गईं।
''आपका नाम?''
''जी वरुण। वरुण खन्ना।''
''अपने बारे में कुछ बताइए।''
''जी मेरा नाम वरुण खन्ना है। मेरी...''
''नाम आप पहले ही बता चुके हैं। आगे बढ़ें।''  तीन में से एक इंटरव्यूअर बीच में ही उसकी बात काटता हुआ बोला।
''जी...जी। अपनी १२वीं तक की पढ़ाई मैंने अपने जन्म स्थान सहारनपुर में ही की है। उसके बाद मैंने कोलकाता से अपनी इंजिनीयरिंग पूरी की। अभी मैं दिल्ली के आई. एम. एस. से मार्केटिंग में एम. बी. ए. कर रहा हूँ।''
''यदि आपको एम.बी.ए. ही करना था तो आपने इंजिनीयरिंग क्यों की?''
''दिमाग खराब हो गया था इसलिए। अबे अब तो कर ली ना, अब क्यों उसी बाँस की पीपनी बना-बना कर उसे बजाये जा रहे हो।'' वरुण ने मन ही मन क्वैश्चन पूछने वाले को कोसा।
''जी शुरू से ही एनालिटिकल एबिलीटी में मैं काफी तेज़ था और आप तो जानते ही हैं कि इंजिनीयरिंग कैसे व्यक्ति के अंदर प्राब्लम सॉल्विंग का ऐटीट्यूड डेवलप कर देती है..ब्ला ब्ला...।'' वरुण को खुद नहीं पता था कि वो क्या बोल रहा था।
''ठीक है। ठीक है। आप ये बताइये कि आप हमारी कंपनी क्यों जॉइन करना चाहते हो?''
''ऐसा कुछ नहीं है सर।''
''क्या!'' तीनों इंटरव्यूअर एक स्वर में चिल्ला उठे।

वरुण का माथा अब पूरी तरह सनक चुका था। उसे पता था कि ये लोग वैसे भी उसे सलैक्ट करने से रहे और वो बोलता गया, ''जी... ऐसा कुछ नही है कि मैं आप ही की कंपनी जॉइन करना चाहता हूँ। मेरी ऐसी कोई प्रीफ्रेंस नहीं है। आपने मुझे शॉर्टलिस्ट किया उसके लिए धन्यवाद। हाँ पर आपको ये यकीन दिला सकता हूँ कि यदि आप मौका देंगे तो आपके भरोसे को गलत नही सिद्ध होने दूँगा।''
तीनों पैनलिस्ट ने एक बार एक दूसरे की तरफ देखा और फिर एक नई धुन में वही पुराना राग अलापते हुए बोले, ''मिस्टर वरुण। हम आपकी ईमानदारी की कद्र करते हैं पर हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो हमारे साथ सही में जुड़ना चाहते हैं। इसलिए इस सीट के लिए हम आपको नियुक्त नहीं कर सकते।''

वरुण ने अपना फोल्डर उठाया और बिना कुछ कहे सुने ही उठकर बाहर चल दिया। पिछले डेढ़ महीने मे वह २५ कंपनियों को २५ अलग-अलग कारण बता चुका था उनकी कंपनी जॉइन करने के। अब वह सही में नहीं जानता था कि कोई आदमी किसी कंपनी को क्यों जॉइन करना चाहेगा। अरे आप पैसा दे रहे हो, काम ले रहे हो। इसमें इतनी नौटंकी क्या है? एक नौकरी के लिए मुझे दार्शनिक या विद्वान होने की क्या जरूरत है।

वरुण जितना इंटरव्यू को भूलने की कोशिश करता उतना ही उसे वह और याद आता। इंडिया के टॉप टेन इंस्टीट्यूट में पढ़ने के बाद भी किसी को २५ इंटरव्यू के बाद भी जॉब ना मिले तो आश्चर्य नहीं कि उसकी नींद उड़ जाए। सोने की कोशिश करना बेकार था। वरुण ने करवट बदल नीचे नज़र दौड़ाई तो सब कंबल तानकर गहरी नींद में सोये पड़े थे और उसकी नज़र सामने की मिडिल बर्थ पर चादर से बाहर झाँकते दो पैरों पर जाकर टिक गई। कंपार्टमैंट के कोने से आ रही हल्की दूधिया रोशनी में पैर गज़ब के खूबसूरत लग रहे थे। अचानक वरुण के दिमाग में खयाल आया कि पाकिज़ा के राजकुमार की तरह पैरों में यों लिखकर एक पर्ची फँसा दे कि ''आपके पाँव बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा, मैले हो जायेंगे।'' अपने शरारती खयाल को अपनी ही टेढ़ी मुस्कान से दरकिनार कर उसकी नज़र दोनों पैरों की बड़ी अँगुली में पड़े बिछुओं पर पड़ी जिससे पता लग रहा था कि लड़की शादीशुदा थी हाँलाकि पैरों में कोई बिवाई नहीं थी मतलब शादी को छैः महीने से ज्यादा समय नहीं हुआ होगा। नज़र उठाकर वरुण ने देखा कि लड़की का मुँह अभी भी कंबल से ढँका था। पैरों की खूबसूरती ने वरुण के मन में लड़की का चेहरा देखने के लिए एक ललक जगा दी थी और वो टकटकी बाँधे लड़की के चेहरे से कंबल हटने का इंतजार करता रहा। पर वो थी की हिलने का नाम ही ना लेती थी। एक बार उसके मन में आया जाकर धीरे से कंबल को हटा दे पर फिर खुद ही अपनी बेवकूफी के विचार के परिणामों को सोच उसने खयालों पर काबू पा लिया। चेहरा देखने के इस इंतजार में कब उसकी आँख लग गईं उसे पता ही न चला।

''लंच, लंच बोलिए साहब।''  वरुण की आँख खुली तो केटरर पैरों को हिलाकर उसी को उठा रहा था। घड़ी दोपहर का १ बजा रही थी और आसपास, उसके अलावा सब उठ चुके थे। रात की पैरों वाली बात अभी भी वरुण के मन में ताज़ा थी इसलिए केटरर की तरफ ध्यान दिए बिना वरुण ने सीधा नीचे झाँका। ठीक नीचे की बर्थ पर एक पतला-सा दढ़ियल लेटा हुआ था और सामने की बर्थ पर एक गँवार-सा दिखने वाला आदमी बैठा हुआ था मगर अफसोस लड़की वहाँ से नदारद थी। लड़की का चेहरा ना देख पाने की निराशा उसके चेहरे पर आ गई और वो अपनी देर तक सोने की आदत को कोसने लगा।
''क्या देख रहे हैं साहब? लंच मे वेज लेंगे या नॉन-वेज?'' केटरर उसी से पूछ रहा था।
''वेज।''  कह वरुण सीधा नीचे उतर आया और फिर बैग से ब्रश, तौलिया और पेपर सोप ले वाश-बेसिन की तरफ चल दिया। मिरर के सामने खड़ा अपना पीले दाँत चमकाते हुए वरुण सोचने लगा कि काश जिंदगी चमकाने का भी कोई ब्रश आता। वरुण के लिए उसकी जिंदगी अफ्सोसों की एक लंबी लिस्ट से ज्यादा कुछ ना थी।

पूरा बचपन जैसे-तैसे ग्रेस लेकर पास होता रहा। फुटबॉल प्लेयर बनने की सोची तो घरवालों ने साथ नहीं दिया। एयरफोर्स का पायलेट बनने के लिए हाइट कम रह गई। आई.आई.टी. में एडमिशन चाहा तो एन.आई.टी. में मिला और आई.आई.एम. से एम.बी.ए. करने की सोची तो आई.एम.एस. हाथ आया। चलो वो भी ठीक है पर अब जब पास आउट होने का नंबर आया तो रिसेशन की मार। अब नौकरी नहीं मिलती। इससे तो अच्छा होता कि किसी सड़क छाप स्कूल से पाँचवी पास कर चाय की टपरी लगा लेते, अब एम.बी.ए. के बाद तो उसके भी लायक नहीं बचे। जो चाहा वो तो साला कभी हुआ ही नहीं। अब तो उसे लगने लगा था कि जिंदगी में चाह ही रखना बंद कर दे। कम से कम अफसोस तो नहीं होगा।

अफसोसों की इस लिस्ट में लेटैस्ट एडीशन था लड़की का चेहरा ना देख पाने का अफसोस। हाँलाकि ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी पर हारे हुए आदमी को हर चीज़ में हार ढूँढने की आदत पड़ जाती है। जिंदगी को कोसता हुआ वरुण खन्ना अपनी सीट की तरफ बढ़ा तो उसे वहाँ से किसी लड़की के हँसने की आवाज़ आती सुनाई दी। वापस जाकर देखा तो नीचे की सीट पर नारंगी रंग की साड़ी पहने एक लड़की मस्त हँस रही थी। पीछे से आती सूरज की रोशनी के कारण लड़की का चेहरा तो ठीक से नहीं दिख पा रहा था पर लड़की खूबसूरत थी इसमें कोई शक न था। साड़ी से बाहर झाँकते पँजे बता रहे थे कि ये वही लड़की थी। लड़की को फाइनली देख लेने की खुशी तो वरुण को बहुत थी पर उसने उसे चेहरे पर जाहिर नहीं होने दिया। वह गँवार-सा दिखने वाला आदमी भी उसी सीट पर था और दूसरी लोअर बर्थ पर वो दढ़ियल अभी भी पसरा पड़ा था। वरुण उसको उठने का संकेत करने के लिए आगे बढ़ा तो लड़की, खिड़की के बराबर में सीट बनाते हुए खुद उससे बोली, ''आप यहाँ बैठ जाइए।''

वरुण बैठना तो सामने की सीट पर चाहता था पर लड़की को ना नहीं कर सका। और वो क्या, एक खूबसूरत लड़की को एक नॉर्मल हार्मोनल बैलेंस वाला कोई भी आदमी ना कह ही कैसे सकता था। वो आदमी शायद उसका पति था वरुण ने अंदाजा लगाया। लड़की वाकई बहुत खूबसूरत थी और सामने लेटा हुआ उसका पति उतना ही बदसूरत। साला शाहरुख खान की किस्मत लेकर पैदा हुआ था जो इतनी खूबसूरत बीवी मिली। वरुण ने उन दोनों को एक साथ इमैजिन किया तो सड़क पर अक्सर घूमते उन दूसरे कपल जैसे ही लगे जिनको देखकर सभी ये ही सोचते हैं कि इस बंदर को ये परी कैसे मिल गई। और ये लड़की भी तो खुद को सती अनुसूया समझ रही थी- इधर आकर बैठ जाइए जैसे सही में उससे प्यार करती हो। अरे आदमी अगर कुत्ता भी पाल ले तो ६ महीने में तो उससे भी लगाव हो जाए, फिर उसका पति तो कम से कम इंसान था।

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