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"ठीक है सुनील जी, में आपके साथ थाने से एक आदमी भेजता हूँ, वो स्कूटर की जगह देख कर मामला शांति पूर्वक सुलझा देगा।" सुनील और शर्मिला पुलिस जीप में घर वापिस आ गए। स्कूटर घर की दीवार के साथ सटा हुआ खड़ा था, क्लिनिक के गेट से थोड़ा-सा हट कर। स्कूटर की पार्किंग की जगह देखकर सिपाही ने सुनील से कुछ नहीं कहा। वह डाक्टर सुभाष से क्या बातें कर रहा था, सुनील ने नहीं सुनी। वह चुपचाप सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर चला गया। ऑफिस फोन कर के छुट्टी माँगी और बिस्तर पर लेट गया। शरीर शिथिल हो गया था, मन शून्य। छत पर हिलते हुए पंखे को एक टक देखते हुए सुनील अतीत में पहुँच गया।

डाक्टर सुभाष उससे दो साल बड़े और दो क्लास आगे थे। एक ही स्कूल में पढ़ते थे। एक साथ स्कूल आना, जाना। एक ही टिफिन में मध्यानंतर के समय खाना खाना। एक साथ खेलना। सबसे पसंदीदा खेल कंचों का था। संयुक्त परिवार में छोटे बच्चे बड़े बच्चों से सब कुछ सीखते हैं। सुनील ने भी कंचे खेलना सुभाष से सीखा। मकान की छत पर एक लकड़ी के बक्से में कंचे रखे होते थे। स्कूल से आने के बाद माँ और ताई की नजर बचा कर सुनील और सुभाष छत पर चढ़ कर कंचे खेलते थे। मौसम कोई भी हो, कंचों के खेल का नियम नहीं टूटता था। साथ ही नहीं टूटता था, माँ और ताई से पिटाई का सिलसिला। कस कर बेलन से पिटाई होती थी। वे बेलन अब नहीं हैं पर यादगार के लिए कुछ कंचे आज भी सुनील ने सँभाल कर रखे हुए है।

दूसरी ओर शर्मिला का चित भी अशान्त था। सुनील को सांत्वना देने के लिये उसने पूछा "क्या सोच रहे हैं।" सुबह से कुछ खाया नहीं।
"बस पुराने दिन याद आ गए। वो भी क्या दिन थे। तेरा मेरा कुछ भी नहीं था। बस हम दोनों भाई थे। सुख दुख में सदा साथ। और आज सुभाष एक सफल मशहूर डाक्टर बन गया तो मेरा स्कूटर उसकी प्रतिष्ठा को कम कर रहा है।"
"छोड़ो भी इन बेकार की बातों को। क्यों मन अशान्त करते हो। कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्या फायदा।

"बात इतनी बढ़ जाएगी, सोचा नहीं था। तुमसे बताना भूल गया। पिछले महीने जब तुम मायके गई थीं, तब एक दिन ऑफिस जाने के समय मैं स्कूटर स्टार्ट कर रहा था। डाक्टर साहब कार से उतरे और कहने लगे, सुनील तेरा खटारा स्कूटर यहाँ नहीं खड़ा होगा, पिछली लेन में खड़ा कर। मैं अचानक डाक्टर सुभाष के मुख से यह बात सुन कर अवाक रह गया था। उस दिन बात काफी गरम हो गई थी। तू तू मैं मैं भी हो गई थी। मैंने कभी क्लिनिक का रास्ता नहीं रोका। दीवार के साथ सटा कर पिछले तेरह साल से खड़ा कर रहा हूँ। उस दिन तेरह सेकेन्ड में फरमान सुना दिया कि गेट पर खटारा स्कूटर खड़ा करने से उनके नाम पर बट्टा लगता है। उनका स्टेटस खराब होता है। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि डाक्टर सुभाष इस बात पर थाने चले जाएगें। बड़े आदमियों के साथ उठना बैठना है, पुलिस में भी दोस्ती है। इसलिए थानेदार ने इस बात पर थाने में हाजिरी लगवा ली।"
"क्यों दिल छोटा करते हो। आखिर पुलिस भी मामला समझ गई, आपको तो कुछ नहीं कहा न। शर्मिला ने सुनील का हाथ आपने हाथों में लेकर प्यार से हाथों को सहलाते हुए कहा।

"तुम्हे याद है शर्मिला हमारी शादी पहले हुई थी, क्योंकि डाक्टर साहब की प्रेक्टिस शुरू में ढीली चल रही थी, उनकी बाद में हुई थी। भाभीजी से मिलने जाते थे, हमारा यही स्कूटर लेकर। हम अपना प्रोग्राम बदल लेते थे, ऑटो में या बस में सफर करते थे, लेकिन डाक्टर सुभाष को कभी स्कूटर के लिए मना नहीं किया। आज वह अपनी प्रेम की निशानी को रूपयों के पलड़े में तोल रहे हैं। क्या आदमी इतना बदल जाता है, रूपये और शोहरत पाने के बाद।" कहते कहते सुनील भावुक हो गया।

शर्मिला को पहली बार अहसास हुआ कि छोटी छोटी बातों को लेकर सुनील कितना भावुक हो उठता है। वह अपने बचपन और संवेदनाओं से कितना गहरा जुड़ा है। उसके लिये माया की दौड़ नहीं मन का ठहराव अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह भाई साहब के व्यवहार को देखकर कितना आहत हो गया है। उसने भी एक दो बार प्यार से ही सही स्कूटर बदलकर मोबाइक लेने का अनुरोध किया है सुनील से। क्या उस बात का भी सुनील को बुरा लगा होगा? सुनील ने भले ही कार्यक्षेत्र में धीमी प्रगति की है लेकिन वह एक अच्छा इनसान है, अच्छा पति है, अच्छा पिता है। उसने परिवार के साथ सुंदर पल बिताए हैं और सबको खुश करने के प्रयत्न किये हैं।

कुछ सोचकर वह स्टोर में गई और उस बक्से को निकाल लाई जिसमें सुनील के बचपन की यादें थीं। बक्से में कुछ कंचे सँभाल कर अभी भी रखे हुए थे। एक बार सुनील ने कहा था कि वह अपने बेटे को कंचे खेलना सिखाएगा। लेकिन वह बात हवा होकर रह गई। बेटे को कंचे खेलना नहीं सिखाया उसने। शर्मिला ने उत्तर में कहा था कि कंचे बीते हुए समय की चीज़ हो चुके हैं। यह जमाना कंचे का नहीं क्रिकेट का है। बच्चों को क्रिकेट सिखाओ। पुराने जमाने के खेल कोई नहीं खेलता।

लेकिन आज की घटना ने शर्मिला को सुनील के अतर्मन को समझने का अवसर दिया था। उसे लगा कि रिश्ते केवल इनसानों के बीच नहीं होते। कुछ वस्तुओं से भी इनसान रिश्ते बनाता है। शायद वस्तुओं के साथ बनाए गए रिश्ते, इनसानी रिश्तों से अधिक गहरे होते हैं...शायद इसलिये कि वस्तुएँ हमें आहत नहीं करतीं। उसे लग रहा था कि भावनात्मक लगाव वाली ऐसी चीज़ों की निंदा करना या उन्हें छोड़ने को मजबूर करना अमानवीयता है। सुनील का कंचों के साथ घना रिश्ता है... हर दर्द पर सुनील कंचों की याद का मरहम लगाता है... ठीक है कंचों का खेल पुराना हो गया पर हर पुरानी चीज़ बुरी नहीं होतीं... और दिखावे की दौड़?...वह कौन सी अच्छी चीज है, जिसके लिये लोग अपना सुख चैन बरबाद करते हैं और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता खो बैठते हैं।

इनसान की उम्र कितनी भी हो जाय बचपन समाप्त नहीं होता। वह बड़प्पन का हिस्सा बनकर जीवित रहता है। उस बचपन को हमेशा कहीं जीवित रखना जरूरी है। केवल अपने लिये नहीं...मानवीयता के नाते भी...उसे सींचते रहना ज़रूरी है। शर्मिला ने सुनील को सामान्य करने के लिए कंचों का बक्सा निकाला।
सुनील थोड़ा स्वस्थ हो कर कुर्सी पर बैठ कर सड़क की आवाजाही देख रहा था।

"शर्मिला, देखो अंकुश की स्कूल बस आ गई।" कह कर एक छोटे बच्चे की तरह कूदता फाँदता सुनील सीढ़ियाँ उतर कर अपने बेटे अंकुश को लेने स्टाप तक गया। बाप बेटे को बतियाते देख कर शर्मिला की चिंता दूर हुई। माँ के हाथों में बक्सा देख कर अंकुश ने पूछा-
"इसमें क्या है।"
"बक्सा खोलकर खुद देखो।"
"अरे यह तो कंचों का बक्सा है।" दो कंचे हाथ में लेकर अंकुश बोला।
"आज पापा तुम्हें कंचे खेलना सिखाएँगें।" शर्मिला ने एक प्यार भरी मुसकान के साथ कहा। फिर सुनील की ओर देखकर बोली अंकुश को खाना खिला दो, मैं तब तक पूजा की तैयारी कर लूँ। आज सारे दिन व्रत तो हुआ ही है थाने की भाग दौड़ में रात का खाना तक नहीं बना है।

सुनील ने शर्मिला की ओर सुखद आश्चर्य से देखा-- बरसों बाद इस पुराने खेल के लिये प्रेम और घर में उनकी स्वीकृति, वह भी मुसकुराहट के साथ- आज अचानक यह परिवर्तन कैसे? यह थाने की सैर का फल था या करवाचौथ के व्रत का परिणाम?

सुनील की इस आश्चर्य दृष्टि को देखने के लिये शर्मिला रुकी नहीं थी, वह अपने काम में व्यस्त हो चुकी थी। सुनील ने भी अंकुश का हाथ पकड़ा और मुसकुराते हुए खाने की मेज पर आ बैठा। रसोई से हलवे की मीठी मीठी सुगंध आने लगी थी।

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२५ अक्तूबर २०१०

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